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सज्जनता और दुर्जनता भी दूसरों के साथ के व्यवहार द्वारा ही निश्चित होती है । दूसरों के हित की चिन्ता और रक्षा करता है वह सज्जन है और नहीं करता वह दुर्जन है । अर्थात् भारत की दृष्टि से पश्चिम की जीवनदृष्टि आसुरी है, दुर्जन की शक्ति है।
सज्जनता और दुर्जनता भी दूसरों के साथ के व्यवहार द्वारा ही निश्चित होती है । दूसरों के हित की चिन्ता और रक्षा करता है वह सज्जन है और नहीं करता वह दुर्जन है । अर्थात् भारत की दृष्टि से पश्चिम की जीवनदृष्टि आसुरी है, दुर्जन की शक्ति है।
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विश्व में आसुरी सम्पदावाले लोग हमेशा होते ही हैं ऐसा भारत मानता है। उनके अस्तित्व का स्वीकार कर भारत ने उनकी विचारधारा को दर्शन का दर्जा भी दिया है। वह चार्वाक दर्शन है। चार्वाक दर्शन देहात्मवादी है। उसका केन्द्रवर्ती सूत्र है, <blockquote>यावज्जीवेत् सुखं जीवेत् ऋणं कृत्वां घृतं पिबेत् । </blockquote><blockquote>भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुतः ॥</blockquote>अर्थात्
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विश्व में आसुरी सम्पदावाले लोग सदा होते ही हैं ऐसा भारत मानता है। उनके अस्तित्व का स्वीकार कर भारत ने उनकी विचारधारा को दर्शन का दर्जा भी दिया है। वह चार्वाक दर्शन है। चार्वाक दर्शन देहात्मवादी है। उसका केन्द्रवर्ती सूत्र है, <blockquote>यावज्जीवेत् सुखं जीवेत् ऋणं कृत्वां घृतं पिबेत् । </blockquote><blockquote>भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुतः ॥</blockquote>अर्थात्
जब तक जीना है सुख से जीयें, ऋण करके भी घी पियें (घी पीने का अर्थ है पूर्ण उपभोगपूर्वक जीना) क्योंकि यह देह (मृत्यु के बाद) भस्मीभूत हो जाने पर फिरसे नहीं आने वाला है।
जब तक जीना है सुख से जीयें, ऋण करके भी घी पियें (घी पीने का अर्थ है पूर्ण उपभोगपूर्वक जीना) क्योंकि यह देह (मृत्यु के बाद) भस्मीभूत हो जाने पर फिरसे नहीं आने वाला है।
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चार्वाकवदी ये लोग हमेशा से समाज में रहे हैं परन्तु सुसंस्कृत और श्रेष्ठ समाज में उनकी प्रतिष्ठा नहीं रही है। वैसे तो अविकसित व्यक्ति में चार्वाक हमेशा रहता है परन्तु उसका त्याग करने को ही विकास कहा जाता है।
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चार्वाकवदी ये लोग सदा से समाज में रहे हैं परन्तु सुसंस्कृत और श्रेष्ठ समाज में उनकी प्रतिष्ठा नहीं रही है। वैसे तो अविकसित व्यक्ति में चार्वाक सदा रहता है परन्तु उसका त्याग करने को ही विकास कहा जाता है।
पश्चिम में आसुरी विचारधारा की ही प्रतिष्ठा रही है। परन्तु भारत का इतिहास दर्शाता है कि आसुरी समृद्धि नाश के लिये ही होती है। आसुरी शक्ति प्रथम स्वयं के सुख के लिये, दूसरों पर अत्याचार करती है, दूसरों का नाश करने पर तुली रहती है परन्तु अन्ततोगत्वा स्वयं नष्ट होती है।
पश्चिम में आसुरी विचारधारा की ही प्रतिष्ठा रही है। परन्तु भारत का इतिहास दर्शाता है कि आसुरी समृद्धि नाश के लिये ही होती है। आसुरी शक्ति प्रथम स्वयं के सुख के लिये, दूसरों पर अत्याचार करती है, दूसरों का नाश करने पर तुली रहती है परन्तु अन्ततोगत्वा स्वयं नष्ट होती है।