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| धर्म और शिक्षा का सम्बन्ध साध्य और साधन जैसा है। धर्म के बारे में हमने अनेक बार चर्चा की ही है वह | | धर्म और शिक्षा का सम्बन्ध साध्य और साधन जैसा है। धर्म के बारे में हमने अनेक बार चर्चा की ही है वह |
− | एक विश्वनियम है जिससे व्यक्ति से लेकर सृष्टि तक सबकी धारणा होती है । इन नियमों के अनुसार जब सम्टिजीवन का व्यवहार चलता है तब धर्म संस्कृति का रूप धारण करता है । इस व्यवहार और संस्कृति को एक पीढ़ी से दूसरी पीढी तक पहुँचाने की जो व्यवस्था है वह शिक्षा है । तात्पर्य यही है कि धर्म, धर्म का व्यवहार और धर्म का हस्तान्तरण एकदूसरे के साथ अविनाभाव सम्बन्ध से जुडे हैं। धर्माचार्य धर्म को जानता है, उसे व्यवहार्य बनाता है, देशकाल परिस्थिति के अनुसार उसमें परिष्कार करता है, समष्टिनियमों का सृष्टिनियमों के साथ समायोजन करता है । धर्माचार्य धर्म कहता है । धर्माचार्य जो कहता है उसे लोगों तक पहुँचाने का कार्य शिक्षा का है । | + | एक विश्वनियम है जिससे व्यक्ति से लेकर सृष्टि तक सबकी धारणा होती है । इन नियमों के अनुसार जब सम्टिजीवन का व्यवहार चलता है तब धर्म संस्कृति का रूप धारण करता है । इस व्यवहार और संस्कृति को एक पीढ़ी से दूसरी पीढी तक पहुँचाने की जो व्यवस्था है वह शिक्षा है । तात्पर्य यही है कि धर्म, धर्म का व्यवहार और धर्म का हस्तान्तरण एकदूसरे के साथ अविनाभाव सम्बन्ध से जुडे हैं। धर्माचार्य धर्म को जानता है, उसे व्यवहार्य बनाता है, देशकाल परिस्थिति के अनुसार उसमें परिष्कार करता है, समष्टिनियमों का सृष्टिनियमों के साथ समायोजन करता है । धर्माचार्य धर्म कहता है । धर्माचार्य जो कहता है उसे लोगोंं तक पहुँचाने का कार्य शिक्षा का है । |
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| यदि धार्मिक समाज धर्मनिष्ठ है और वह अर्थनिष्ठ बन गया है तो उसे पुनः धर्मनिष्ठ बनाने में धर्माचार्य की भूमिका महत्त्वपूर्ण है । उसके बिना धर्म की प्रतिष्ठा नहीं होगी और भारत भारत नहीं होगा । | | यदि धार्मिक समाज धर्मनिष्ठ है और वह अर्थनिष्ठ बन गया है तो उसे पुनः धर्मनिष्ठ बनाने में धर्माचार्य की भूमिका महत्त्वपूर्ण है । उसके बिना धर्म की प्रतिष्ठा नहीं होगी और भारत भारत नहीं होगा । |
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| परन्तु इस प्रकार तप को आज के समय में असम्भव है ऐसा मानने से या स्वीकार कर लेने से हमारी समस्या दूर होने वाली नहीं है । समस्या तो दूर करनी ही है । अतः तप नहीं हो सकता ऐसा कहने के स्थान पर तप कैसे हो सकता है इसका विचार करना चाहिये । | | परन्तु इस प्रकार तप को आज के समय में असम्भव है ऐसा मानने से या स्वीकार कर लेने से हमारी समस्या दूर होने वाली नहीं है । समस्या तो दूर करनी ही है । अतः तप नहीं हो सकता ऐसा कहने के स्थान पर तप कैसे हो सकता है इसका विचार करना चाहिये । |
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− | खास बात यह है कि यह कलियुग है । कलियुग में मनुष्य की शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक शक्ति भी क्षीण हो जाती हैं । कठोर तप करने की शक्ति भी क्षीण हो जाती है । इसलिये हमें लगता है कि सत्ययुग और त्रेतायुग में अनेक लोगों ने जो कठोर तप किये थे वैसे तप आज नहीं हो सकते । यह बात ठीक है परन्तु यह बात भी सत्य है कि उस समय जितना कठोर तप करने पर सिद्धि मिलती थी उतना कठोर तप आज कलियुग में नहीं करना पडता है । उससे बहुत कम तप करने पर भी संकल्प की सिद्धि होती है । यह हमारे लिये बहुत बडा आश्वासन है । | + | खास बात यह है कि यह कलियुग है । कलियुग में मनुष्य की शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक शक्ति भी क्षीण हो जाती हैं । कठोर तप करने की शक्ति भी क्षीण हो जाती है । इसलिये हमें लगता है कि सत्ययुग और त्रेतायुग में अनेक लोगोंं ने जो कठोर तप किये थे वैसे तप आज नहीं हो सकते । यह बात ठीक है परन्तु यह बात भी सत्य है कि उस समय जितना कठोर तप करने पर सिद्धि मिलती थी उतना कठोर तप आज कलियुग में नहीं करना पडता है । उससे बहुत कम तप करने पर भी संकल्प की सिद्धि होती है । यह हमारे लिये बहुत बडा आश्वासन है । |
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| इन बातों को ध्यान में रखकर हमें धर्माचार्यों और | | इन बातों को ध्यान में रखकर हमें धर्माचार्यों और |
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| इसी प्रकार से दम्भी, झूठे, शिथिल चरित्रवाले धर्माचार्यों को पहचानना भी चाहिये और उनसे बचना चाहिये । स्वार्थ छोडने से ऐसा हो सकता है। | | इसी प्रकार से दम्भी, झूठे, शिथिल चरित्रवाले धर्माचार्यों को पहचानना भी चाहिये और उनसे बचना चाहिये । स्वार्थ छोडने से ऐसा हो सकता है। |
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− | थोडा भी दूसरे का विचार नहीं करने से, समाज की धारणा हेतु थोडी भी असुविधा नहीं सहने से, थोडा भी सदाचारी नहीं होने से, थोडा भी संयम नहीं करने से चरित्र बनता ही नहीं है। ऐसे चरित्रहीन लोगों में से धर्माचार्य पैदा ही नहीं होते। | + | थोडा भी दूसरे का विचार नहीं करने से, समाज की धारणा हेतु थोडी भी असुविधा नहीं सहने से, थोडा भी सदाचारी नहीं होने से, थोडा भी संयम नहीं करने से चरित्र बनता ही नहीं है। ऐसे चरित्रहीन लोगोंं में से धर्माचार्य पैदा ही नहीं होते। |
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| समाज त्रस्त है। त्रस्त समाज ने ऐसी कामना करनी चाहिये कि उन्हें मार्गदर्शक प्राप्त हो । इस कामना की पूर्ति हेतु ईश्वर से प्रार्थना करनी चाहिये । आज कामना व्यक्तिगत सुख की होती है और प्रार्थना उसकी पूर्ति के लिये की जाती है, परिणाम स्वरूप सच्चे और समर्थ धर्माचार्य प्राप्त ही नहीं होते। | | समाज त्रस्त है। त्रस्त समाज ने ऐसी कामना करनी चाहिये कि उन्हें मार्गदर्शक प्राप्त हो । इस कामना की पूर्ति हेतु ईश्वर से प्रार्थना करनी चाहिये । आज कामना व्यक्तिगत सुख की होती है और प्रार्थना उसकी पूर्ति के लिये की जाती है, परिणाम स्वरूप सच्चे और समर्थ धर्माचार्य प्राप्त ही नहीं होते। |
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| ==== भारत में धार्मिक शिक्षा होनी चाहिये ==== | | ==== भारत में धार्मिक शिक्षा होनी चाहिये ==== |
− | यह एक स्वाभाविक कथन है । कभी कभी तो लोग आश्चर्य व्यक्त करते हैं कि ऐसा कथन करने की आवश्यकता ही क्या है। भारत में शिक्षा धार्मिक ही तो है। भारत सरकार इसे चला रही है। भारत के ही संसाधनों से चलती है। भारत के ही लोग इसे चला रहे हैं। भारत के ही संचालक, भारत के ही शिक्षक, भारत के ही विद्यार्थी हैं फिर शिक्षा का धार्मिक होना स्वाभाविक ही तो है। फिर धार्मिक होनी चाहिये ऐसा कहने का प्रयोजन ही क्या है ? भारत के लोगों को धार्मिक होना चाहिये ऐसा कभी कोई कहता है क्या ? हमारा संविधान हमें भारत का नागरिकत्व देता है फिर प्रश्न ही नहीं है। अमेरिका के अमेरिकन, चीन के चीनी, अफ्रीका के अफ्रीकी तो भारत के लोग धार्मिक हैं यह जितना स्वाभाविक है उतना ही स्वाभाविक भारत में शिक्षा का धार्मिक होना है। भारत में शिक्षा धार्मिक होनी चाहिये इस कथन का कोई विशेष प्रयोजन ही नहीं है। | + | यह एक स्वाभाविक कथन है । कभी कभी तो लोग आश्चर्य व्यक्त करते हैं कि ऐसा कथन करने की आवश्यकता ही क्या है। भारत में शिक्षा धार्मिक ही तो है। भारत सरकार इसे चला रही है। भारत के ही संसाधनों से चलती है। भारत के ही लोग इसे चला रहे हैं। भारत के ही संचालक, भारत के ही शिक्षक, भारत के ही विद्यार्थी हैं फिर शिक्षा का धार्मिक होना स्वाभाविक ही तो है। फिर धार्मिक होनी चाहिये ऐसा कहने का प्रयोजन ही क्या है ? भारत के लोगोंं को धार्मिक होना चाहिये ऐसा कभी कोई कहता है क्या ? हमारा संविधान हमें भारत का नागरिकत्व देता है फिर प्रश्न ही नहीं है। अमेरिका के अमेरिकन, चीन के चीनी, अफ्रीका के अफ्रीकी तो भारत के लोग धार्मिक हैं यह जितना स्वाभाविक है उतना ही स्वाभाविक भारत में शिक्षा का धार्मिक होना है। भारत में शिक्षा धार्मिक होनी चाहिये इस कथन का कोई विशेष प्रयोजन ही नहीं है। |
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− | देश के अधिकतम लोगों के लिये यह प्रश्न ही नहीं है। धार्मिक और अधार्मिक जैसी संज्ञाओं से कोई विशेष अर्थबोध होता है ऐसा भी नहीं है। धार्मिक होने से और अधार्मिक होने से क्या अन्तर हो जायेगा इसकी कल्पना भी नहीं है। घूमन्तु, अनपढ, भिखारी, गँवार, मजदूर ऐसे लोगों की यह स्थिति है ऐसा नहीं है, झुग्गी झोंपडियों में रहनेवाले, दिनभर परिश्रम करके मुश्किल से दो जून रोटी | + | देश के अधिकतम लोगोंं के लिये यह प्रश्न ही नहीं है। धार्मिक और अधार्मिक जैसी संज्ञाओं से कोई विशेष अर्थबोध होता है ऐसा भी नहीं है। धार्मिक होने से और अधार्मिक होने से क्या अन्तर हो जायेगा इसकी कल्पना भी नहीं है। घूमन्तु, अनपढ, भिखारी, गँवार, मजदूर ऐसे लोगोंं की यह स्थिति है ऐसा नहीं है, झुग्गी झोंपडियों में रहनेवाले, दिनभर परिश्रम करके मुश्किल से दो जून रोटी |
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− | खाने वाले लोगों की यह बात नहीं है। कार्यालयों में बाबूगीरी या अफसरी करने वाले, व्यापार करने वाले, उद्योग चलाने वाले, लाखों रूपये कमाने वाले, लाखों रूपये अपने बच्चों की शिक्षा पर खर्च करने वाले, शिक्षा संस्थाओं का संचालन करने वाले, उनमें पढाने वाले, अधिकांश लोग ऐसे हैं जिन्हें धार्मिक और अधार्मिक का प्रश्न ही परेशान नहीं करता है। उन्हें कभी कभी शिक्षा अच्छी होनी चाहिये, सुलभ होनी चाहिये, सरलता से नौकरी दिलाने वाली होनी चाहिये ऐसा तो लगता है, विद्यालयों के अभिभावक सम्मेलनों में या गोष्ठियों में अच्छी शिक्षा के विषय पर तो चर्चा होती है परन्तु धार्मिक और अधार्मिक के प्रश्न की चर्चा नहीं होती। सामान्य जन के लिये शिक्षा नौकरी दिलाने वाली होने से, प्रतिष्ठा दिलाने वाली होने से प्रयोजन है। उसे अपने बच्चे की चिन्ता है, अपने निर्वाह की चिन्ता है, देश के, समाज के या शिक्षा के विषय में विचार करना उसके विश्व का हिस्सा नहीं है। सामान्य जन अपने आपसे मतलब रखता है, अपने परिवार से मतलब रखता है, उससे आगे या उससे परे जाकर चिन्ता करने की आवश्यकता उसे नहीं लगती। ऐसी अपेक्षा भी उससे कम ही की जाती है। हाँ, धार्मिक संगठन धर्म के लिये अर्थात् अपने सम्प्रदाय के लिये और राजकीय पक्ष अपने पक्ष के लिये कुछ कार्य करते दिखाई देते हैं परन्तु कुल मिलाकर देश के लिये और शिक्षा के लिये काम करने वाले कम ही लोग दिखाई देते हैं। | + | खाने वाले लोगोंं की यह बात नहीं है। कार्यालयों में बाबूगीरी या अफसरी करने वाले, व्यापार करने वाले, उद्योग चलाने वाले, लाखों रूपये कमाने वाले, लाखों रूपये अपने बच्चों की शिक्षा पर खर्च करने वाले, शिक्षा संस्थाओं का संचालन करने वाले, उनमें पढाने वाले, अधिकांश लोग ऐसे हैं जिन्हें धार्मिक और अधार्मिक का प्रश्न ही परेशान नहीं करता है। उन्हें कभी कभी शिक्षा अच्छी होनी चाहिये, सुलभ होनी चाहिये, सरलता से नौकरी दिलाने वाली होनी चाहिये ऐसा तो लगता है, विद्यालयों के अभिभावक सम्मेलनों में या गोष्ठियों में अच्छी शिक्षा के विषय पर तो चर्चा होती है परन्तु धार्मिक और अधार्मिक के प्रश्न की चर्चा नहीं होती। सामान्य जन के लिये शिक्षा नौकरी दिलाने वाली होने से, प्रतिष्ठा दिलाने वाली होने से प्रयोजन है। उसे अपने बच्चे की चिन्ता है, अपने निर्वाह की चिन्ता है, देश के, समाज के या शिक्षा के विषय में विचार करना उसके विश्व का हिस्सा नहीं है। सामान्य जन अपने आपसे मतलब रखता है, अपने परिवार से मतलब रखता है, उससे आगे या उससे परे जाकर चिन्ता करने की आवश्यकता उसे नहीं लगती। ऐसी अपेक्षा भी उससे कम ही की जाती है। हाँ, धार्मिक संगठन धर्म के लिये अर्थात् अपने सम्प्रदाय के लिये और राजकीय पक्ष अपने पक्ष के लिये कुछ कार्य करते दिखाई देते हैं परन्तु कुल मिलाकर देश के लिये और शिक्षा के लिये काम करने वाले कम ही लोग दिखाई देते हैं। |
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| ==== धार्मिक शिक्षा हेतु कार्यरत संगठन ==== | | ==== धार्मिक शिक्षा हेतु कार्यरत संगठन ==== |
− | देश में कुछ ऐसे शैक्षिक संगठन हैं जो शिक्षा के धार्मिक या अधार्मिक होने की चिन्ता करते हैं। इन्हें लगता है कि शिक्षा धार्मिक होनी चाहिये । वे इस दिशा में प्रयत्नशील भी हैं। वे स्थानिक से लेकर अखिल धार्मिक स्तर पर कार्यरत हैं। वे लोगों तक इस विषय को ले जाने का प्रयास भी करते हैं। उनेक लिये यह आन्दोलन का विषय है। अपने आन्दोलन में वे अनेक | + | देश में कुछ ऐसे शैक्षिक संगठन हैं जो शिक्षा के धार्मिक या अधार्मिक होने की चिन्ता करते हैं। इन्हें लगता है कि शिक्षा धार्मिक होनी चाहिये । वे इस दिशा में प्रयत्नशील भी हैं। वे स्थानिक से लेकर अखिल धार्मिक स्तर पर कार्यरत हैं। वे लोगोंं तक इस विषय को ले जाने का प्रयास भी करते हैं। उनेक लिये यह आन्दोलन का विषय है। अपने आन्दोलन में वे अनेक |
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− | लोगों को जोडना चाहते हैं, कुछ मात्रा में उन्हें यश भी मिलता है। उनका कार्यक्षेत्र और पहुँच परिवार से लेकर सरकार तक भी है।
| + | लोगोंं को जोडना चाहते हैं, कुछ मात्रा में उन्हें यश भी मिलता है। उनका कार्यक्षेत्र और पहुँच परिवार से लेकर सरकार तक भी है। |
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| कुछ ऐसे संगठन भी है जिनका मुख्य कार्य शिक्षा नहीं है, संस्कृति और धर्म है। परन्तु अपने कार्य के एक अंग के रूप में वे शिक्षा पर भी काम करते हैं । मूल्यनिष्ठा संस्कारयुक्त शिक्षा यह उनका विषय है, धार्मिक शिक्षा नहीं। | | कुछ ऐसे संगठन भी है जिनका मुख्य कार्य शिक्षा नहीं है, संस्कृति और धर्म है। परन्तु अपने कार्य के एक अंग के रूप में वे शिक्षा पर भी काम करते हैं । मूल्यनिष्ठा संस्कारयुक्त शिक्षा यह उनका विषय है, धार्मिक शिक्षा नहीं। |
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| तो फिर यह धार्मिक अधार्मिक का प्रश्न क्या है ? जो लोग भारत में शिक्षा धार्मिक होनी चाहिय ऐसा कहते हैं और शिक्षा के धार्मिककरण हेतु प्रयास भी करते हैं उनका गृहीत है कि भारत में शिक्षा धार्मिक नहीं है और उसे धार्मिक बनाना चाहिये । | | तो फिर यह धार्मिक अधार्मिक का प्रश्न क्या है ? जो लोग भारत में शिक्षा धार्मिक होनी चाहिय ऐसा कहते हैं और शिक्षा के धार्मिककरण हेतु प्रयास भी करते हैं उनका गृहीत है कि भारत में शिक्षा धार्मिक नहीं है और उसे धार्मिक बनाना चाहिये । |
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− | धार्मिक और अधार्मिक किस आधार पर तय होता है ? वर्तमान शिक्षा में ऐसा क्या है जो धार्मिक नहीं है ? शिक्षा अच्छी नहीं होना समझ में आता है। क्या धार्मिक शिक्षा से अच्छी शिक्षा निहित है ? शिक्षा महँगी है, वह नहीं होनी चाहिये, सस्ती और सुलभ होनी चाहिये, हो सके तो निःशुल्क होनी चाहिये । क्या धार्मिक शिक्षा से शिक्षा निःशुल्क और सुलभ होनी चाहिये यह तात्पर्य है ? क्या प्राचीन काल में दी जाती थी वह शिक्षा आज दी जाय तो शिक्षा धार्मिक होगी ? प्राचीन काल में वेद पढाये जाते थे। क्या वेद पढाना धार्मिक शिक्षा है ? प्राचीन काल में शिक्षा गुरुकुलों में होती थी। विद्यार्थी ब्रह्मचारी कहे जाते थे, भिक्षा माँगते थे, गुरु की सेवा करते थे। क्या उस प्रकार के गुरुकुल बनाना धार्मिक शिक्षा है ? प्राचीन समय में कुछ लोग ही पढते थे। ऐसे कुछ लोगों तक ही शिक्षा को सीमित कर देना धार्मिक शिक्षा है ? यदि यही धार्मिक शिक्षा है तो वह आज के जमाने में कैसे सम्भव है ? आज कोई ब्रह्मचारी बनकर भिक्षा कैसे माँग सकता है ? आज कोई वेद कैसे पढ सकता है ? दुनिया इतनी आगे बढ़ गई, हम वापस कैसे जा सकते हैं ? यदि यही धार्मिक शिक्षा है तो उसकी अपेक्षा करना व्यावहारिक नहीं है। वह तो आदर्श भी नहीं है क्योंकि वह पीछे ले जानेवाली है, आगे नहीं। | + | धार्मिक और अधार्मिक किस आधार पर तय होता है ? वर्तमान शिक्षा में ऐसा क्या है जो धार्मिक नहीं है ? शिक्षा अच्छी नहीं होना समझ में आता है। क्या धार्मिक शिक्षा से अच्छी शिक्षा निहित है ? शिक्षा महँगी है, वह नहीं होनी चाहिये, सस्ती और सुलभ होनी चाहिये, हो सके तो निःशुल्क होनी चाहिये । क्या धार्मिक शिक्षा से शिक्षा निःशुल्क और सुलभ होनी चाहिये यह तात्पर्य है ? क्या प्राचीन काल में दी जाती थी वह शिक्षा आज दी जाय तो शिक्षा धार्मिक होगी ? प्राचीन काल में वेद पढाये जाते थे। क्या वेद पढाना धार्मिक शिक्षा है ? प्राचीन काल में शिक्षा गुरुकुलों में होती थी। विद्यार्थी ब्रह्मचारी कहे जाते थे, भिक्षा माँगते थे, गुरु की सेवा करते थे। क्या उस प्रकार के गुरुकुल बनाना धार्मिक शिक्षा है ? प्राचीन समय में कुछ लोग ही पढते थे। ऐसे कुछ लोगोंं तक ही शिक्षा को सीमित कर देना धार्मिक शिक्षा है ? यदि यही धार्मिक शिक्षा है तो वह आज के जमाने में कैसे सम्भव है ? आज कोई ब्रह्मचारी बनकर भिक्षा कैसे माँग सकता है ? आज कोई वेद कैसे पढ सकता है ? दुनिया इतनी आगे बढ़ गई, हम वापस कैसे जा सकते हैं ? यदि यही धार्मिक शिक्षा है तो उसकी अपेक्षा करना व्यावहारिक नहीं है। वह तो आदर्श भी नहीं है क्योंकि वह पीछे ले जानेवाली है, आगे नहीं। |
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− | इस प्रकार शिक्षा के धार्मिक होने की और उसे धार्मिक बनाने की बात जल्दी लोगों की समझ में ही नहीं आती। शिक्षाक्षेत्र के लोगों का दायित्व है कि प्रथम तो लोगों के मन में इस विषय की स्पष्टता हो इस हेतु प्रयास करें और फिर अपने कार्य में सबको सहभागी बनायें । | + | इस प्रकार शिक्षा के धार्मिक होने की और उसे धार्मिक बनाने की बात जल्दी लोगोंं की समझ में ही नहीं आती। शिक्षाक्षेत्र के लोगोंं का दायित्व है कि प्रथम तो लोगोंं के मन में इस विषय की स्पष्टता हो इस हेतु प्रयास करें और फिर अपने कार्य में सबको सहभागी बनायें । |
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| ==== शिक्षा धार्मिक कब होगी ? ==== | | ==== शिक्षा धार्मिक कब होगी ? ==== |
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| यह पाठ्यक्रम आज धार्मिक नहीं है। सर्वत्र जो पढाया जाता है। वह मुख्य रूप से पश्चिमी जीवनदृष्टि पर आधारित है। यही सारे अनिष्टों और संकटों का मूल है। इसकी तात्त्विक चर्चा अन्यत्र की गई है। अब उसे व्यावहारिक बनाने के लिये क्या करना होगा इसका ही विचार करना आवश्यक है। कुछ मुद्दे इस प्रकार हैं... | | यह पाठ्यक्रम आज धार्मिक नहीं है। सर्वत्र जो पढाया जाता है। वह मुख्य रूप से पश्चिमी जीवनदृष्टि पर आधारित है। यही सारे अनिष्टों और संकटों का मूल है। इसकी तात्त्विक चर्चा अन्यत्र की गई है। अब उसे व्यावहारिक बनाने के लिये क्या करना होगा इसका ही विचार करना आवश्यक है। कुछ मुद्दे इस प्रकार हैं... |
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− | (१) प्रथम तो विश्वविद्यालयों को इसका दायित्व लेना चाहिये । विश्वविद्यालय देश की शिक्षा का सर्वप्रकार का निर्देशन करने वाले हों यह अत्यन्त आवश्यक है। देश के सर्व प्रकार के सांस्कृतिक और अन्य संकटों का मूल स्रोत अथवा सांस्कृतिक उन्नति का मुख्य परिचालक विश्वविद्यालय हैं। विश्वविद्यालय का अर्थ है उनके अध्यापक । परन्तु वर्तमान विपरीतता यह है कि विश्वविद्यालय अध्यापकों के नहीं अपितु सरकार के अधीन हैं। सरकार के अधीन रहकर विश्वविद्यालय के अध्यापक यह काम नहीं कर सकते । इसलिये ऐसे विश्वविद्यालयों की स्थापना होनी चाहिये जो सरकार के अधीन न हों। देशभर में पचास सौ ऐसे विश्वविद्यालय होने से कार्य का अच्छा प्रारम्भ हो सकता है। इन विश्वविद्यालयों को सरकारी मान्यता नहीं होगी इसलिये इनके द्वारा दिये गये प्रमाणपत्रों से सरकारी या सरकार मान्य संस्थाओं या उद्योगों में नौकरी नहीं मिलेगी। जिन्हें किसी प्रकार की सरकारी मान्यता या आर्थिक सहायता की आवश्यकता नहीं है ऐसी संस्थाओं और उद्योगों में इन्हें अवश्य काम मिल सकता है। सरकार की मान्यता नहीं है ऐसे विश्वविद्यालयों में पढे हुए विद्यार्थी स्वयं ऐसी शिक्षासंस्थायें आरम्भ करें यह एक अच्छा पर्याय है, साथ ही वे उद्योग तथा समाज के लिये उपयोगी अन्य संस्थाओं का प्रारम्भ भी कर सकते हैं। उन संस्थाओं और उद्योगों में अनेक लोगों को काम मिल सकता है। | + | (१) प्रथम तो विश्वविद्यालयों को इसका दायित्व लेना चाहिये । विश्वविद्यालय देश की शिक्षा का सर्वप्रकार का निर्देशन करने वाले हों यह अत्यन्त आवश्यक है। देश के सर्व प्रकार के सांस्कृतिक और अन्य संकटों का मूल स्रोत अथवा सांस्कृतिक उन्नति का मुख्य परिचालक विश्वविद्यालय हैं। विश्वविद्यालय का अर्थ है उनके अध्यापक । परन्तु वर्तमान विपरीतता यह है कि विश्वविद्यालय अध्यापकों के नहीं अपितु सरकार के अधीन हैं। सरकार के अधीन रहकर विश्वविद्यालय के अध्यापक यह काम नहीं कर सकते । इसलिये ऐसे विश्वविद्यालयों की स्थापना होनी चाहिये जो सरकार के अधीन न हों। देशभर में पचास सौ ऐसे विश्वविद्यालय होने से कार्य का अच्छा प्रारम्भ हो सकता है। इन विश्वविद्यालयों को सरकारी मान्यता नहीं होगी इसलिये इनके द्वारा दिये गये प्रमाणपत्रों से सरकारी या सरकार मान्य संस्थाओं या उद्योगों में नौकरी नहीं मिलेगी। जिन्हें किसी प्रकार की सरकारी मान्यता या आर्थिक सहायता की आवश्यकता नहीं है ऐसी संस्थाओं और उद्योगों में इन्हें अवश्य काम मिल सकता है। सरकार की मान्यता नहीं है ऐसे विश्वविद्यालयों में पढे हुए विद्यार्थी स्वयं ऐसी शिक्षासंस्थायें आरम्भ करें यह एक अच्छा पर्याय है, साथ ही वे उद्योग तथा समाज के लिये उपयोगी अन्य संस्थाओं का प्रारम्भ भी कर सकते हैं। उन संस्थाओं और उद्योगों में अनेक लोगोंं को काम मिल सकता है। |
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| सरकारी सहायता नहीं होगी तब ये विश्वविद्यालय कैसे चलेंगे ? ये समाज के सहयोग से चलेंगे । धार्मिक समाज ऐसे संस्थानों को सहयोग करने के लिये तत्पर रहता ही है। देश में अनेक धार्मिक - सामाजिक - सांस्कृतिक संगठनों को समाज ही सहयोग करता है। वर्तमान में भी ऐसी बहत बडी व्यवस्था देश में चल ही रही है। ऐसे संगठनों ने इन विश्वविद्यालयों को आर्थिक सहयोग करना चाहिये। | | सरकारी सहायता नहीं होगी तब ये विश्वविद्यालय कैसे चलेंगे ? ये समाज के सहयोग से चलेंगे । धार्मिक समाज ऐसे संस्थानों को सहयोग करने के लिये तत्पर रहता ही है। देश में अनेक धार्मिक - सामाजिक - सांस्कृतिक संगठनों को समाज ही सहयोग करता है। वर्तमान में भी ऐसी बहत बडी व्यवस्था देश में चल ही रही है। ऐसे संगठनों ने इन विश्वविद्यालयों को आर्थिक सहयोग करना चाहिये। |
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| उदाहरण के लिये धर्मपरायण होना, सज्जन होना, बलवान होना, बुद्धिमान होना, व्यवहारदक्ष होना, प्रचुर होना, सबके लिये समान रूप से लागू है। | | उदाहरण के लिये धर्मपरायण होना, सज्जन होना, बलवान होना, बुद्धिमान होना, व्यवहारदक्ष होना, प्रचुर होना, सबके लिये समान रूप से लागू है। |
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− | २. सन्दर्भ विशेष के लिये विशेष पाठ्यक्रम । व्यक्ति विभिन्न परिस्थितियों में विभिन्न भूमिकाओं में होता है। कहीं पिता है तो कहीं पुत्र, कहीं शिक्षक है तो कहीं विद्यार्थी, कहीं राजा है तो कहीं अमात्य, आज की भाषा में कहें तो कहीं सांसद या मंत्री है तो कहीं सचिव, तो कहीं प्रजाजन, कहीं उद्योजक है तो कहीं व्यापारी, कहीं कृषक है तो कहीं गोपाल । इन भूमिकाओं के अनुरूप उसे शिक्षा की आवश्यकता होती है। उदाहरण के लिये एक गोपाल को गायों की जाति, उनके स्वभाव, उनकी आवश्यकताओं, उसके आहार, उनकी क्षमता, उनकी बिमारी आदि का ज्ञान होना आवश्यक है। साथ ही उनकी सन्तति, उनका दूध, दूध की व्यवस्था आदि विषयों का ज्ञान होना भी आवश्यक है। एक उत्पादक को उत्पादन करने योग्य वस्तुयें, लोगों की आवश्यकता, उत्पादन प्रक्रिया, उत्पादन हेतु आवश्यक यन्त्र, स्थान, भवन, उत्पादन में सहभागी होनेवाले मनुष्यों के स्वभाव, क्षमताओं और आवश्यकताओं, उत्पादन से समाज पर और प्रकृति पर होनेवाला प्रभाव, बाजार पर होने वाला प्रभाव आदि के बारे में शिक्षा मिलने की आवश्यकता है। धार्मिक ज्ञानधारा के अनुकूल इन भूमिकाओं के लिये विभिन्न प्रकार के विभिन्न स्तरों के पाठ्यक्रम बनना आवश्यक है। | + | २. सन्दर्भ विशेष के लिये विशेष पाठ्यक्रम । व्यक्ति विभिन्न परिस्थितियों में विभिन्न भूमिकाओं में होता है। कहीं पिता है तो कहीं पुत्र, कहीं शिक्षक है तो कहीं विद्यार्थी, कहीं राजा है तो कहीं अमात्य, आज की भाषा में कहें तो कहीं सांसद या मंत्री है तो कहीं सचिव, तो कहीं प्रजाजन, कहीं उद्योजक है तो कहीं व्यापारी, कहीं कृषक है तो कहीं गोपाल । इन भूमिकाओं के अनुरूप उसे शिक्षा की आवश्यकता होती है। उदाहरण के लिये एक गोपाल को गायों की जाति, उनके स्वभाव, उनकी आवश्यकताओं, उसके आहार, उनकी क्षमता, उनकी बिमारी आदि का ज्ञान होना आवश्यक है। साथ ही उनकी सन्तति, उनका दूध, दूध की व्यवस्था आदि विषयों का ज्ञान होना भी आवश्यक है। एक उत्पादक को उत्पादन करने योग्य वस्तुयें, लोगोंं की आवश्यकता, उत्पादन प्रक्रिया, उत्पादन हेतु आवश्यक यन्त्र, स्थान, भवन, उत्पादन में सहभागी होनेवाले मनुष्यों के स्वभाव, क्षमताओं और आवश्यकताओं, उत्पादन से समाज पर और प्रकृति पर होनेवाला प्रभाव, बाजार पर होने वाला प्रभाव आदि के बारे में शिक्षा मिलने की आवश्यकता है। धार्मिक ज्ञानधारा के अनुकूल इन भूमिकाओं के लिये विभिन्न प्रकार के विभिन्न स्तरों के पाठ्यक्रम बनना आवश्यक है। |
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| ३. ज्ञानक्षेत्र की आवश्यकता की पूर्ति हेतु पाठ्यक्रम | | ३. ज्ञानक्षेत्र की आवश्यकता की पूर्ति हेतु पाठ्यक्रम |
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| यह सबसे अधिक समय और शक्ति की अपेक्षा करनेवाला काम है। पाठ्यक्रमों की रूपरेखा बनने वाला काम है। पाठ्यक्रमों की रूपरेखा बनने से शिक्षा नहीं होती। इसके लिये पुस्तकें आवश्यक हैं। आजकल लोग दृश्यश्राव्य सामग्री की उपयोगिता और परिणामकारकता की चर्चा करते हैं। इस कथन के विषय में चर्चा करने की आवश्यकता है परन्तु चर्चा अन्यत्र होगी। यहाँ इतना तो कह सकते हैं कि इनके लिये भी मूल तो लिखा हुआ ही होना चाहिये । हम दूसरे के पास अपना ज्ञान बोलकर या लिखकर ही पहुँचा सकते हैं। | | यह सबसे अधिक समय और शक्ति की अपेक्षा करनेवाला काम है। पाठ्यक्रमों की रूपरेखा बनने वाला काम है। पाठ्यक्रमों की रूपरेखा बनने से शिक्षा नहीं होती। इसके लिये पुस्तकें आवश्यक हैं। आजकल लोग दृश्यश्राव्य सामग्री की उपयोगिता और परिणामकारकता की चर्चा करते हैं। इस कथन के विषय में चर्चा करने की आवश्यकता है परन्तु चर्चा अन्यत्र होगी। यहाँ इतना तो कह सकते हैं कि इनके लिये भी मूल तो लिखा हुआ ही होना चाहिये । हम दूसरे के पास अपना ज्ञान बोलकर या लिखकर ही पहुँचा सकते हैं। |
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− | तात्पर्य यह है कि पुस्तकें चाहिये । विभिन्न रुचि, क्षमता, आयु के लोगों के लिये । विभिन्न शैलियों में पुस्तकें तैयार करने की आवश्यकता रहेगी। | + | तात्पर्य यह है कि पुस्तकें चाहिये । विभिन्न रुचि, क्षमता, आयु के लोगोंं के लिये । विभिन्न शैलियों में पुस्तकें तैयार करने की आवश्यकता रहेगी। |
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| उदाहरण के लिये पुस्तकों के इतने प्रकार हो सकते हैं...१. सूत्रग्रन्थ, २. भाष्यग्रन्थ, ३. सन्दर्भ ग्रन्थ, ४. निरूपण ग्रन्थ, ५. कथा ग्रन्थ, ६. काव्य ग्रन्थ, ७. संवाद ग्रन्थ, ८. चित्र ग्रन्थ आदि । | | उदाहरण के लिये पुस्तकों के इतने प्रकार हो सकते हैं...१. सूत्रग्रन्थ, २. भाष्यग्रन्थ, ३. सन्दर्भ ग्रन्थ, ४. निरूपण ग्रन्थ, ५. कथा ग्रन्थ, ६. काव्य ग्रन्थ, ७. संवाद ग्रन्थ, ८. चित्र ग्रन्थ आदि । |
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− | ये विभिन्न स्तरों के लिये भी होने की आवश्यकता है जैसे कि शिशुओं के लिये, कम शिक्षित लोगों के लिये, शिक्षकों के लिये, विद्वानों के लिये, व्यवसायिओं के लिये आदि। | + | ये विभिन्न स्तरों के लिये भी होने की आवश्यकता है जैसे कि शिशुओं के लिये, कम शिक्षित लोगोंं के लिये, शिक्षकों के लिये, विद्वानों के लिये, व्यवसायिओं के लिये आदि। |
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| ये ग्रन्थ भारत की सभी भाषाओं में होने चाहिये, प्रभूत मात्रा में होने चाहिये, सुलभ होने चाहिये, सुबोध भाषा में और अभिव्यक्ति में होने चाहिये । पर्याप्त होने चाहिये। | | ये ग्रन्थ भारत की सभी भाषाओं में होने चाहिये, प्रभूत मात्रा में होने चाहिये, सुलभ होने चाहिये, सुबोध भाषा में और अभिव्यक्ति में होने चाहिये । पर्याप्त होने चाहिये। |
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| # पन्द्रह वर्ष से लेकर विवाह करता है तब तक तीनों केन्द्र पर ही रहेगा परन्तु अब उसका विद्यार्थी और शिक्षक दोनों का काम आरम्भ होगा। अर्थात् वह विद्यालय में है तो पढेगा और पढायेगा, व्यवसाय केन्द्र में है तो व्यवसाय सीखेगा और करेगा घर में है तो पिता के साथ गृहस्थी के कामों में सहभागी बनेगा। पिता इस स्थिति में व्यवसाय और गृहस्थी दोनों में गुरु हैं। | | # पन्द्रह वर्ष से लेकर विवाह करता है तब तक तीनों केन्द्र पर ही रहेगा परन्तु अब उसका विद्यार्थी और शिक्षक दोनों का काम आरम्भ होगा। अर्थात् वह विद्यालय में है तो पढेगा और पढायेगा, व्यवसाय केन्द्र में है तो व्यवसाय सीखेगा और करेगा घर में है तो पिता के साथ गृहस्थी के कामों में सहभागी बनेगा। पिता इस स्थिति में व्यवसाय और गृहस्थी दोनों में गुरु हैं। |
| # गृहस्थाश्रम में प्रवेश के साथ उसकी गृहस्थी की शिक्षा आरम्भ होती है। अब वह पिता, शिक्षक या व्यवसाय के मालिक का विद्यार्थी नहीं है। ये सब उसके मार्गदर्शक हैं। अपनी शिक्षा की चिन्ता अब उसे स्वयं करनी है। | | # गृहस्थाश्रम में प्रवेश के साथ उसकी गृहस्थी की शिक्षा आरम्भ होती है। अब वह पिता, शिक्षक या व्यवसाय के मालिक का विद्यार्थी नहीं है। ये सब उसके मार्गदर्शक हैं। अपनी शिक्षा की चिन्ता अब उसे स्वयं करनी है। |
− | # अब मार्गदर्शन प्राप्त करने हेतु उसके घर में बडे बुझुर्ग हैं। ये तो सदा साथ ही रहते हैं और नित्य उपलब्ध है। विचारविमर्श करने के लिये पत्नी है जिसकी गृहस्थी की शिक्षा उसके समान ही हुई है। क्रियात्मक अनुभव लेने के लिये घर है जहाँ उसे जिम्मेदारीपूर्वक जीना है। उसका मित्रपरिवार है जो उसके समान ही शिक्षा पूर्ण कर अब गृहस्थ बना है । विद्यालय में तथा घर में प्राप्त शिक्षा का स्मरण रखते हुए अब उसे शिक्षा को क्रियात्मक स्वरूप देना है। घर में बच्चों का जन्म होता है। उनका संगोपन करते करते वह अनुभव प्राप्त करता है। अब अपने बच्चों के लिये वह शिक्षक है । जिस प्रकार मार्गदर्शन के लिये अपने मातापिता से परामर्श करता है उसी प्रकार समय समय पर विद्यालय में भी जाता है जहाँ उसका शिक्षक वृन्द है । इस प्रकार उसकी शिक्षा का यह अत्यन्त महत्त्वपूर्ण चरण है। इस अवस्था की शिक्षा के लिये दो प्रकार की व्यवस्था करनी चाहिये । एक तो विद्यालय में पूर्व छात्र परिषद बनानी चाहिये जिसके माध्यम से विद्यालय में पढकर गये हुए विद्यार्थी निश्चित किये हुए कार्यक्रमों के माध्यम से विद्यालय में आ सकें । दूसरी समाज में भी शिक्षित लोगों की परिषद की रचना करनी चाहिये । यह उनके लिये विश्वविद्यालय का अंग ही होगा जिसमें वे आपस में अनुभवों का आदानप्रदान कर सकते हैं और एकदूसरे से सहयोग प्राप्त कर सकते हैं। ये परिषदें किसी न किसी स्वरूप में विश्वविद्यालय के साथ जुडी रहेंगी। इन परिषदों का एक काम अपने विश्वविद्यालयों की आर्थिक तथा अन्य प्रकार की चिन्ता करने का भी रहेगा । जिस प्रकार वह अपने परिवारजनों के प्रति अपना दायित्व निभाता है उसी प्रकार अपने विद्यालय के प्रति दायित्व भी निभायेगा । इनके माध्यम से विद्यालय भी समाज के साथ जुडा रहेगा । विद्यालय के अन्य व्यवस्थात्मक कार्यों जैसे कि सभा सम्मेलनों या परिषद के आयोजनों में वह सहभागी होता रहेगा। विद्यालय के समाज प्रबोधन कार्यक्रम में भी वह सहभागी बनेगा। वह मातापिता का पुत्र और विद्यालय का विद्यार्थी बना ही रहेगा। | + | # अब मार्गदर्शन प्राप्त करने हेतु उसके घर में बडे बुझुर्ग हैं। ये तो सदा साथ ही रहते हैं और नित्य उपलब्ध है। विचारविमर्श करने के लिये पत्नी है जिसकी गृहस्थी की शिक्षा उसके समान ही हुई है। क्रियात्मक अनुभव लेने के लिये घर है जहाँ उसे जिम्मेदारीपूर्वक जीना है। उसका मित्रपरिवार है जो उसके समान ही शिक्षा पूर्ण कर अब गृहस्थ बना है । विद्यालय में तथा घर में प्राप्त शिक्षा का स्मरण रखते हुए अब उसे शिक्षा को क्रियात्मक स्वरूप देना है। घर में बच्चों का जन्म होता है। उनका संगोपन करते करते वह अनुभव प्राप्त करता है। अब अपने बच्चों के लिये वह शिक्षक है । जिस प्रकार मार्गदर्शन के लिये अपने मातापिता से परामर्श करता है उसी प्रकार समय समय पर विद्यालय में भी जाता है जहाँ उसका शिक्षक वृन्द है । इस प्रकार उसकी शिक्षा का यह अत्यन्त महत्त्वपूर्ण चरण है। इस अवस्था की शिक्षा के लिये दो प्रकार की व्यवस्था करनी चाहिये । एक तो विद्यालय में पूर्व छात्र परिषद बनानी चाहिये जिसके माध्यम से विद्यालय में पढकर गये हुए विद्यार्थी निश्चित किये हुए कार्यक्रमों के माध्यम से विद्यालय में आ सकें । दूसरी समाज में भी शिक्षित लोगोंं की परिषद की रचना करनी चाहिये । यह उनके लिये विश्वविद्यालय का अंग ही होगा जिसमें वे आपस में अनुभवों का आदानप्रदान कर सकते हैं और एकदूसरे से सहयोग प्राप्त कर सकते हैं। ये परिषदें किसी न किसी स्वरूप में विश्वविद्यालय के साथ जुडी रहेंगी। इन परिषदों का एक काम अपने विश्वविद्यालयों की आर्थिक तथा अन्य प्रकार की चिन्ता करने का भी रहेगा । जिस प्रकार वह अपने परिवारजनों के प्रति अपना दायित्व निभाता है उसी प्रकार अपने विद्यालय के प्रति दायित्व भी निभायेगा । इनके माध्यम से विद्यालय भी समाज के साथ जुडा रहेगा । विद्यालय के अन्य व्यवस्थात्मक कार्यों जैसे कि सभा सम्मेलनों या परिषद के आयोजनों में वह सहभागी होता रहेगा। विद्यालय के समाज प्रबोधन कार्यक्रम में भी वह सहभागी बनेगा। वह मातापिता का पुत्र और विद्यालय का विद्यार्थी बना ही रहेगा। |
| # वह प्रौढ अवस्था का होता है तब उसके दो प्रकार के शिक्षक होंगे । एक होंगे ग्रन्थ जिनका स्वाध्याय उसे करना है। अब उसके अध्ययन का स्वरूप चिन्तनात्मक रहेगा। घर में, विद्यालय में और समाज में वह विद्यार्थी कम और शिक्षक अधिक रहेगा। वह धीरे धीरे अनुभवी मार्गदर्शक बनेगा। दूसरा शिक्षक है सन्त, कथाकार, तीर्थयात्रा, धार्मिक अनुष्ठान आदि। यह उसका सत्संग है। यहाँ वह विद्यार्थी के रूप में ही जाता है। अब तक प्राप्त की हुई अनुभवात्मक शिक्षा को और अधिक परिपक्व बनाता है। ऐसी शिक्षा के लिये विश्वविद्यालय के कुलपति और धर्माचार्यों ने मिलकर लोकविद्यालयों की रचना करनी चाहिये । इन विद्यालयों में सत्संग, अनुष्ठान, कथा, प्रवचन आदि के माध्यम से धर्माचर्चा चले । लोकशिक्षा के इन विद्यालयों में जिन्होंने शास्त्रों का अध्ययन किया है ऐसे लोग भी आ सकते हैं और नहीं किया है ऐसे भी लोग आ सकते हैं। दोनों के लिये आवश्यकता के अनुसार शिक्षा की योजना होगी। आवश्यक नहीं कि इन विद्यालयों में वानप्रस्थी ही विद्यार्थी के रूप में आयें। जो अभी वानप्रस्थी नहीं हुए हैं ऐसे गृहस्थ भी आ सकते हैं। इनमें उपनिषदों और पुराणों का अध्ययन और देशविदेश की जानकारी देने का प्रबन्ध होगा । सम्पूर्ण समाज को देशकाल परिस्थिति के अनुसार शिक्षित करने हेतु ये विद्यालय होंगे। इन विद्यालयों के संचालन का प्रमुख दायित्व धर्माचार्यों का रहेगा जिन्हें शिक्षक सहायता करेंगे। ऐसे लोकविद्यालयों के नाम भिन्न भिन्न हो सकते हैं परन्तु यह विधिवत्लो कशिक्षा की ही योजना के अंग होंगे। | | # वह प्रौढ अवस्था का होता है तब उसके दो प्रकार के शिक्षक होंगे । एक होंगे ग्रन्थ जिनका स्वाध्याय उसे करना है। अब उसके अध्ययन का स्वरूप चिन्तनात्मक रहेगा। घर में, विद्यालय में और समाज में वह विद्यार्थी कम और शिक्षक अधिक रहेगा। वह धीरे धीरे अनुभवी मार्गदर्शक बनेगा। दूसरा शिक्षक है सन्त, कथाकार, तीर्थयात्रा, धार्मिक अनुष्ठान आदि। यह उसका सत्संग है। यहाँ वह विद्यार्थी के रूप में ही जाता है। अब तक प्राप्त की हुई अनुभवात्मक शिक्षा को और अधिक परिपक्व बनाता है। ऐसी शिक्षा के लिये विश्वविद्यालय के कुलपति और धर्माचार्यों ने मिलकर लोकविद्यालयों की रचना करनी चाहिये । इन विद्यालयों में सत्संग, अनुष्ठान, कथा, प्रवचन आदि के माध्यम से धर्माचर्चा चले । लोकशिक्षा के इन विद्यालयों में जिन्होंने शास्त्रों का अध्ययन किया है ऐसे लोग भी आ सकते हैं और नहीं किया है ऐसे भी लोग आ सकते हैं। दोनों के लिये आवश्यकता के अनुसार शिक्षा की योजना होगी। आवश्यक नहीं कि इन विद्यालयों में वानप्रस्थी ही विद्यार्थी के रूप में आयें। जो अभी वानप्रस्थी नहीं हुए हैं ऐसे गृहस्थ भी आ सकते हैं। इनमें उपनिषदों और पुराणों का अध्ययन और देशविदेश की जानकारी देने का प्रबन्ध होगा । सम्पूर्ण समाज को देशकाल परिस्थिति के अनुसार शिक्षित करने हेतु ये विद्यालय होंगे। इन विद्यालयों के संचालन का प्रमुख दायित्व धर्माचार्यों का रहेगा जिन्हें शिक्षक सहायता करेंगे। ऐसे लोकविद्यालयों के नाम भिन्न भिन्न हो सकते हैं परन्तु यह विधिवत्लो कशिक्षा की ही योजना के अंग होंगे। |
| # इसके साथ ही वानप्रस्थों, सन्यासियों के लिये जो विद्यालय होंगे वे आश्रम, मन्दिर, मठ आदि नामों से जाने जायेंगे। ये भी सत्संग और धर्माचर्चा, कथाकीर्तन और प्रवचन के माध्यम से समाजशिक्षा का काम ही करेंगे। | | # इसके साथ ही वानप्रस्थों, सन्यासियों के लिये जो विद्यालय होंगे वे आश्रम, मन्दिर, मठ आदि नामों से जाने जायेंगे। ये भी सत्संग और धर्माचर्चा, कथाकीर्तन और प्रवचन के माध्यम से समाजशिक्षा का काम ही करेंगे। |
| # वानप्रस्थियों के लिये समाजसेवा यह अपेक्षित आचार बनाया जाना चाहिये । समाजेसवा की सारी संस्थायें वानप्रस्थियों के दायित्व में चलेंगी जिनमें वेतन की कोई व्यवस्था नहीं रहेगी। वानप्रस्थियों के निर्वाह का दायित्व उनके परिवार का ही रहेगा। यदि वे घर छोडकर संस्था में ही रहना चाहेंगे तो संस्था निर्वाह कर सकती है परन्तु संस्था में निर्वाह की व्यवस्था हो सके इस उद्देश्य से वे समाजेसवा नहीं करेंगे। | | # वानप्रस्थियों के लिये समाजसेवा यह अपेक्षित आचार बनाया जाना चाहिये । समाजेसवा की सारी संस्थायें वानप्रस्थियों के दायित्व में चलेंगी जिनमें वेतन की कोई व्यवस्था नहीं रहेगी। वानप्रस्थियों के निर्वाह का दायित्व उनके परिवार का ही रहेगा। यदि वे घर छोडकर संस्था में ही रहना चाहेंगे तो संस्था निर्वाह कर सकती है परन्तु संस्था में निर्वाह की व्यवस्था हो सके इस उद्देश्य से वे समाजेसवा नहीं करेंगे। |
| # समाज में गृहस्थ परिषद, वानप्रस्थ परिषद, प्रौढ वानप्रस्थ परिषद, वृद्ध वानप्रस्थ परिषद आदि अनेक प्रकार की रचनायें हो सकती हैं। गृहसंचालन, समाजसेवा की विभिन्न संस्थाओं का संचालन, सामाजिक उत्सवों, पर्वो आदि का आयोजन इन परिषदों के लिये सीखने सिखाने के विषय रहंगे। इनका नियमन धर्माचार्य करेंगे। | | # समाज में गृहस्थ परिषद, वानप्रस्थ परिषद, प्रौढ वानप्रस्थ परिषद, वृद्ध वानप्रस्थ परिषद आदि अनेक प्रकार की रचनायें हो सकती हैं। गृहसंचालन, समाजसेवा की विभिन्न संस्थाओं का संचालन, सामाजिक उत्सवों, पर्वो आदि का आयोजन इन परिषदों के लिये सीखने सिखाने के विषय रहंगे। इनका नियमन धर्माचार्य करेंगे। |
− | # इसी प्रकार से विभिन्न उत्पादन केन्द्रों में कार्यरत, अपने ही घर में व्यवसाय करने वाले लोगों की भी परिषदें होंगी जिनका संचालन महाजन करेंगे । इनमें व्यावसायिक कुशलताओं की तथा समाज की समृद्धि की चर्चा होगी। | + | # इसी प्रकार से विभिन्न उत्पादन केन्द्रों में कार्यरत, अपने ही घर में व्यवसाय करने वाले लोगोंं की भी परिषदें होंगी जिनका संचालन महाजन करेंगे । इनमें व्यावसायिक कुशलताओं की तथा समाज की समृद्धि की चर्चा होगी। |
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| ==References== | | ==References== |