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१४. पश्चिमी शिक्षा के परिणाम स्वरूप हम सृष्टि के सभी पदार्थों को हमारे सुख के संसाधन मानने लगे हैं । इसी सूत्र को आगे बढ़ाते हुए हम मनुष्य को भी संसाधन ही मानने लगे हैं । दुर्बल मनुष्य बलवान के, कम बुद्धि वाला बुद्िमान के, कम धनवान अधिक धनवान के, कम सत्तावान अधिक सत्तावान के सुख हेतु संसाधन है । हर व्यक्ति अपने मनोराज्य में मनुष्यसहित सारी सृष्टि को संसाधन ही मानता है। हमारी सरकार का शिक्षा मन्त्रालय अपने आपको मानव संसाधन विकास मन्त्रालय कहता है । शिक्षा का घोषित उद्देश्य ही मनुष्य का संसाधन के रूप में विकास करना है। मनुष्य किसका संसाधन है ऐसा प्रश्न पूछने पर मोटे मोटे ही उत्तर मिलते हैं । उत्तर में तात्विक और भावात्मक उत्तर मिलते हैं । इन उत्तरों का वास्तविक कोई अर्थ नहीं होता । ऐसी स्थिति में कोई भी प्रजा, कोई भी समाज, कोई भी देश स्थिरता, सुरक्षा और निश्चिन्तता कैसे प्राप्त कर सकता है ? सब कुछ छिन्नविच्छिन्न अवस्था में ही रहेगा इसमें कोई आश्चर्य नहीं ।
 
१४. पश्चिमी शिक्षा के परिणाम स्वरूप हम सृष्टि के सभी पदार्थों को हमारे सुख के संसाधन मानने लगे हैं । इसी सूत्र को आगे बढ़ाते हुए हम मनुष्य को भी संसाधन ही मानने लगे हैं । दुर्बल मनुष्य बलवान के, कम बुद्धि वाला बुद्िमान के, कम धनवान अधिक धनवान के, कम सत्तावान अधिक सत्तावान के सुख हेतु संसाधन है । हर व्यक्ति अपने मनोराज्य में मनुष्यसहित सारी सृष्टि को संसाधन ही मानता है। हमारी सरकार का शिक्षा मन्त्रालय अपने आपको मानव संसाधन विकास मन्त्रालय कहता है । शिक्षा का घोषित उद्देश्य ही मनुष्य का संसाधन के रूप में विकास करना है। मनुष्य किसका संसाधन है ऐसा प्रश्न पूछने पर मोटे मोटे ही उत्तर मिलते हैं । उत्तर में तात्विक और भावात्मक उत्तर मिलते हैं । इन उत्तरों का वास्तविक कोई अर्थ नहीं होता । ऐसी स्थिति में कोई भी प्रजा, कोई भी समाज, कोई भी देश स्थिरता, सुरक्षा और निश्चिन्तता कैसे प्राप्त कर सकता है ? सब कुछ छिन्नविच्छिन्न अवस्था में ही रहेगा इसमें कोई आश्चर्य नहीं ।
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१५. किसी भी प्रकार का दायित्वबोध नहीं होने के कारण सारे भौतिक संसाधनों का भारी अपव्यय होता है, लोगों की क्षमताओं का विकास नहीं होता, क्षमताओं का उपयोग नहीं होता, नियम और कानून का पालन नहीं होता, अन्याय, शोषण, अत्याचार, अपराध आदि का नियन्त्रण नहीं होता, देश की बदनामी होती है, समाज की भारी हानि होती है ।
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१५. किसी भी प्रकार का दायित्वबोध नहीं होने के कारण सारे भौतिक संसाधनों का भारी अपव्यय होता है, लोगोंं की क्षमताओं का विकास नहीं होता, क्षमताओं का उपयोग नहीं होता, नियम और कानून का पालन नहीं होता, अन्याय, शोषण, अत्याचार, अपराध आदि का नियन्त्रण नहीं होता, देश की बदनामी होती है, समाज की भारी हानि होती है ।
    
१६, केवल धर्म ही दायित्व बोध  सिखा सकता है । केवल धर्म ही प्रत्येक व्यक्ति के मन में जो अच्छाई है उसे प्रकट होने हेतु आवाहन कर सकता है और उसे सक्रिय होने की प्रेरणा दे सकता है । परन्तु पश्चिमी शिक्षा के प्रभाव में हमने धर्म को विवाद का विषय बना दिया, अच्छाई को यान्त्रिक मानकों पर तौलना आरम्भ किया और कर्तव्य को अपने सुख के गणित पर नापना सिखा दिया । इससे समाज पूर्ण रूप से शिथिलबन्ध हो गया और बिखराव आरम्भ हुआ |
 
१६, केवल धर्म ही दायित्व बोध  सिखा सकता है । केवल धर्म ही प्रत्येक व्यक्ति के मन में जो अच्छाई है उसे प्रकट होने हेतु आवाहन कर सकता है और उसे सक्रिय होने की प्रेरणा दे सकता है । परन्तु पश्चिमी शिक्षा के प्रभाव में हमने धर्म को विवाद का विषय बना दिया, अच्छाई को यान्त्रिक मानकों पर तौलना आरम्भ किया और कर्तव्य को अपने सुख के गणित पर नापना सिखा दिया । इससे समाज पूर्ण रूप से शिथिलबन्ध हो गया और बिखराव आरम्भ हुआ |

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