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#* सामाजिक संगठन और व्यवस्थाओं के अनुपालन, परिष्कार और नवनिर्माण में सार्थक योगदान
 
#* सामाजिक संगठन और व्यवस्थाओं के अनुपालन, परिष्कार और नवनिर्माण में सार्थक योगदान
 
# अन्न प्राप्ति, सामान्य जीने की शिक्षा, औषधोपचार – ये बातें क्रय विक्रय की नहीं होनीं चाहिये।
 
# अन्न प्राप्ति, सामान्य जीने की शिक्षा, औषधोपचार – ये बातें क्रय विक्रय की नहीं होनीं चाहिये।
# धर्म व्यवस्था : वर्तमान के सन्दर्भ में धर्म को व्याख्यायित करने की व्यवस्था। चराचर के हित में सदैव चिंतन करनेवाले धर्म के जानकारों के लोकसंग्रह, त्याग, तपस्या के कारण लोग और शासन भी इनका अनुगामी बनता है। ऐसे लोगों का निर्माण यह धर्म की प्रतिनिधि शिक्षा व्यवस्था की जिम्मेदारी है।
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# धर्म व्यवस्था : वर्तमान के सन्दर्भ में धर्म को व्याख्यायित करने की व्यवस्था। चराचर के हित में सदैव चिंतन करनेवाले धर्म के जानकारों के लोकसंग्रह, त्याग, तपस्या के कारण लोग और शासन भी इनका अनुगामी बनता है। ऐसे लोगोंं का निर्माण यह धर्म की प्रतिनिधि शिक्षा व्यवस्था की जिम्मेदारी है।
# शिक्षा: जन्म जन्मान्तर की और आजीवन शिक्षा/संस्कार की व्यवस्था होनी चाहिए। धर्माचरण की याने पुरूषार्थ चतुष्ट्य की शिक्षा ही वास्तविक शिक्षा है। वर्णाश्रम धर्म इसका व्यावहारिक स्वरूप है। ब्राह्मण स्वभाव के लोगों की जिम्मेदारी स्वाभाविक, शासनिक और आर्थिक ऐसी तीनों स्वतन्त्रताओं  की सार्वत्रिकता की आश्वस्ति बनाए रखना है। क्षत्रिय स्वभाव के लोगों की जिम्मेदारी शासनिक और आर्थिक स्वतन्त्रता की आश्वस्ति बनाए रखने की है। वैश्य स्वभाव के लोगों की जिम्मेदारी समाज की आर्थिक स्वतन्त्रता बनाए रखने की है। यह सब वर्णाश्रम धर्म के अंतर्गत आता है।
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# शिक्षा: जन्म जन्मान्तर की और आजीवन शिक्षा/संस्कार की व्यवस्था होनी चाहिए। धर्माचरण की याने पुरूषार्थ चतुष्ट्य की शिक्षा ही वास्तविक शिक्षा है। वर्णाश्रम धर्म इसका व्यावहारिक स्वरूप है। ब्राह्मण स्वभाव के लोगोंं की जिम्मेदारी स्वाभाविक, शासनिक और आर्थिक ऐसी तीनों स्वतन्त्रताओं  की सार्वत्रिकता की आश्वस्ति बनाए रखना है। क्षत्रिय स्वभाव के लोगोंं की जिम्मेदारी शासनिक और आर्थिक स्वतन्त्रता की आश्वस्ति बनाए रखने की है। वैश्य स्वभाव के लोगोंं की जिम्मेदारी समाज की आर्थिक स्वतन्त्रता बनाए रखने की है। यह सब वर्णाश्रम धर्म के अंतर्गत आता है।
 
विविध सामाजिक संगठनों के लिए और व्यवस्थाओं के लिए इन की अच्छी समझ और इनको चलाने की कुशलता रखनेवाले लोग निर्माण करना भी शिक्षा की ही जिम्मेदारी है।  
 
विविध सामाजिक संगठनों के लिए और व्यवस्थाओं के लिए इन की अच्छी समझ और इनको चलाने की कुशलता रखनेवाले लोग निर्माण करना भी शिक्षा की ही जिम्मेदारी है।  
संक्षेप में कहें तो आगे दिए हुए ढाँचे के अनुसार जीवन के प्रतिमान के लिए आवश्यक लोगों का निर्माण करना यह शिक्षा का काम है।
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संक्षेप में कहें तो आगे दिए हुए ढाँचे के अनुसार जीवन के प्रतिमान के लिए आवश्यक लोगोंं का निर्माण करना यह शिक्षा का काम है।
 
[[File:Part 1 Last Chapter Table Bhartiya Jeevan Pratiman.jpg|center|thumb|969x969px]]
 
[[File:Part 1 Last Chapter Table Bhartiya Jeevan Pratiman.jpg|center|thumb|969x969px]]
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# सामान्य लोग सामान्य बुद्धि के ही होते हैं। विकास का मार्ग चयन करने के लिए उन्हें मार्गदर्शन करना धर्म के जानकार पंडितों (य: क्रियावान) का काम है। शासन की भूमिका सहायक तथा संरक्षक की होनी चाहिए।
 
# सामान्य लोग सामान्य बुद्धि के ही होते हैं। विकास का मार्ग चयन करने के लिए उन्हें मार्गदर्शन करना धर्म के जानकार पंडितों (य: क्रियावान) का काम है। शासन की भूमिका सहायक तथा संरक्षक की होनी चाहिए।
 
# समाज नियमन स्वयंनियमन, सामाजिक नियमन और सरकारद्वारा नियमन इस प्राधान्यक्रम से हो।
 
# समाज नियमन स्वयंनियमन, सामाजिक नियमन और सरकारद्वारा नियमन इस प्राधान्यक्रम से हो।
# समाज के मार्गदर्शन के लिये धर्म के जानकार लोगों की नैतिक शक्ति का प्रभावी होना आवश्यक है।  
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# समाज के मार्गदर्शन के लिये धर्म के जानकार लोगोंं की नैतिक शक्ति का प्रभावी होना आवश्यक है।  
 
# सामान्य परिस्थितियों में जीवंत ईकाई के स्वस्थ जीवन के लिए आवश्यक रचना को संगठन कहते हैं। और विशेष परिस्थिती में सामाजिक स्वास्थ्य बनाए रखने के लिए निर्मित रचना को व्यवस्था कहते हैं। जैसे कुटुंब यह सामाजिक संगठन का हिस्सा है जब कि शासन व्यवस्था समूह का हिस्सा है।
 
# सामान्य परिस्थितियों में जीवंत ईकाई के स्वस्थ जीवन के लिए आवश्यक रचना को संगठन कहते हैं। और विशेष परिस्थिती में सामाजिक स्वास्थ्य बनाए रखने के लिए निर्मित रचना को व्यवस्था कहते हैं। जैसे कुटुंब यह सामाजिक संगठन का हिस्सा है जब कि शासन व्यवस्था समूह का हिस्सा है।
 
# हर व्यक्ति का व्यक्तित्व (शरीर, मन, बुद्धि और इस कारण जीवात्मा मिलकर) भिन्न होता है।
 
# हर व्यक्ति का व्यक्तित्व (शरीर, मन, बुद्धि और इस कारण जीवात्मा मिलकर) भिन्न होता है।
 
# सामाजिक सुधार उत्क्रांति या समाज आत्मसात कर सके ऐसी (मंथर) गति से होना ही उपादेय है।
 
# सामाजिक सुधार उत्क्रांति या समाज आत्मसात कर सके ऐसी (मंथर) गति से होना ही उपादेय है।
 
# किसी भी कृति की उचितता एवं उपादेयता सर्वहितकारिता के मापदंडों पर आँकी जानी चाहिए।
 
# किसी भी कृति की उचितता एवं उपादेयता सर्वहितकारिता के मापदंडों पर आँकी जानी चाहिए।
# समान जीवन दृष्टि वाले सामाजिक समूह के सुरक्षित सहजीवन को राष्ट्र कहते हैं। यह राष्ट्रीय समूह अपनी जीवन दृष्टि की और इस जीवन दृष्टि के अनुसार व्यवहार करनेवाले लोगों की सुविधा के लिए प्रेरक, पोषक और रक्षक सामाजिक संगठन और व्यवस्थाएँ बनाता है।
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# समान जीवन दृष्टि वाले सामाजिक समूह के सुरक्षित सहजीवन को राष्ट्र कहते हैं। यह राष्ट्रीय समूह अपनी जीवन दृष्टि की और इस जीवन दृष्टि के अनुसार व्यवहार करनेवाले लोगोंं की सुविधा के लिए प्रेरक, पोषक और रक्षक सामाजिक संगठन और व्यवस्थाएँ बनाता है।
 
# सर्वे भवन्तु सुखिन: सर्वे सन्तु निरामया: - सामाजिक व्यवहारों की दिशा हो।
 
# सर्वे भवन्तु सुखिन: सर्वे सन्तु निरामया: - सामाजिक व्यवहारों की दिशा हो।
 
# सभी को अभ्युदय और नि:श्रेयस की प्राप्ति के लिए समान अवसर प्राप्त हों। संस्कृति और समृद्धि दोनों महत्वपूर्ण हैं। समृद्धि के बिना संस्कृति टिक नहीं सकती। और संस्कृति के बिना समृद्धि आसुरी बन जाती है।
 
# सभी को अभ्युदय और नि:श्रेयस की प्राप्ति के लिए समान अवसर प्राप्त हों। संस्कृति और समृद्धि दोनों महत्वपूर्ण हैं। समृद्धि के बिना संस्कृति टिक नहीं सकती। और संस्कृति के बिना समृद्धि आसुरी बन जाती है।
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# राजा व्यापारी तो प्रजा भिखारी। सुरक्षा उत्पादनों जैसे अपवाद छोड़ शासन कोई उद्योग नहीं चलाए।  
 
# राजा व्यापारी तो प्रजा भिखारी। सुरक्षा उत्पादनों जैसे अपवाद छोड़ शासन कोई उद्योग नहीं चलाए।  
 
# दान की महत्ता बढे। आजीविका से अधिक की अतिरिक्त आय दान में देने की मानसिकता बढे।  
 
# दान की महत्ता बढे। आजीविका से अधिक की अतिरिक्त आय दान में देने की मानसिकता बढे।  
# धनार्जन का काम केवल गृहस्थाश्रमी करे। गृहस्थाश्रमी अन्य सभी आश्रमों के लोगों की, वास्तव में चराचर की आजीविका का भार उठाए। वानप्रस्थी लोकहित में अपना ज्ञान, अपनी क्षमताओं और अपने अनुभवों का उपयोग करे। समाज की सेवा करें। नौकरी नहीं। ब्रह्मचारी अपनी क्षमताओं को संभाव्यता की उच्चतम सीमातक विकसित करने का प्रयास करे। व्यवस्था ऐसी हो की कोई भी पिछड़ा नहीं रहे। अन्त्योदय तो आपद्धर्म है।  
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# धनार्जन का काम केवल गृहस्थाश्रमी करे। गृहस्थाश्रमी अन्य सभी आश्रमों के लोगोंं की, वास्तव में चराचर की आजीविका का भार उठाए। वानप्रस्थी लोकहित में अपना ज्ञान, अपनी क्षमताओं और अपने अनुभवों का उपयोग करे। समाज की सेवा करें। नौकरी नहीं। ब्रह्मचारी अपनी क्षमताओं को संभाव्यता की उच्चतम सीमातक विकसित करने का प्रयास करे। व्यवस्था ऐसी हो की कोई भी पिछड़ा नहीं रहे। अन्त्योदय तो आपद्धर्म है।  
 
# खेती गोआधारित तथा अदेवामातृका और राष्ट्र की समृद्धि व्यवस्था अपरमातृका होनी चाहिए।  
 
# खेती गोआधारित तथा अदेवामातृका और राष्ट्र की समृद्धि व्यवस्था अपरमातृका होनी चाहिए।  
 
# प्राकृतिक संसाधनों का मूल्य उनकी नवीकरण की संभावना और गति के आधारपर तय हो। अनवीकरणीय पदार्थों का उपभोग यथासंभव कम करते चलें।  
 
# प्राकृतिक संसाधनों का मूल्य उनकी नवीकरण की संभावना और गति के आधारपर तय हो। अनवीकरणीय पदार्थों का उपभोग यथासंभव कम करते चलें।  
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# धर्म व्यवस्था द्वारा मार्गदर्शित संगठन और व्यवस्थाओं के नियमों का दुष्ट और मूर्खों से अनुपालन करवाना शासन का काम है। इस दृष्टि से पर-राज्यों से सम्बन्ध, वहाँ के भी सज्जन तथा दुष्ट और मूर्खों की गतिविधियाँ जानने के लिए गुप्तचर व्यवस्था सक्षम हो।  
 
# धर्म व्यवस्था द्वारा मार्गदर्शित संगठन और व्यवस्थाओं के नियमों का दुष्ट और मूर्खों से अनुपालन करवाना शासन का काम है। इस दृष्टि से पर-राज्यों से सम्बन्ध, वहाँ के भी सज्जन तथा दुष्ट और मूर्खों की गतिविधियाँ जानने के लिए गुप्तचर व्यवस्था सक्षम हो।  
 
# प्रशासन की दृष्टि से देश/राज्य के विभाग बनाये जाए। ग्राम स्तरपर प्रशासन की भूमिका केवल कर वसूली करने की हो। आवश्यकतानुसार विशेष परिस्थितीमें शासन हस्तक्षेप करे।  
 
# प्रशासन की दृष्टि से देश/राज्य के विभाग बनाये जाए। ग्राम स्तरपर प्रशासन की भूमिका केवल कर वसूली करने की हो। आवश्यकतानुसार विशेष परिस्थितीमें शासन हस्तक्षेप करे।  
# शासक धर्म के मर्म को समझनेवाला, इंद्रियजयी, विवेकवान, शूरवीर, निर्भय, प्रजाहितदक्ष, चतुर एवं कूटनीतिज्ञ, लोकसंग्रही, लोगों की अच्छी पहचान रखनेवाला, प्रभावी व्यक्तित्ववाला हो।  
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# शासक धर्म के मर्म को समझनेवाला, इंद्रियजयी, विवेकवान, शूरवीर, निर्भय, प्रजाहितदक्ष, चतुर एवं कूटनीतिज्ञ, लोकसंग्रही, लोगोंं की अच्छी पहचान रखनेवाला, प्रभावी व्यक्तित्ववाला हो।  
 
# शासक के प्रमुख कर्तव्य :  
 
# शासक के प्रमुख कर्तव्य :  
 
#* अपने से भी श्रेष्ठ उत्तराधिकारी निर्माण करना  
 
#* अपने से भी श्रेष्ठ उत्तराधिकारी निर्माण करना  
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#* भौगोलिक विकेंद्रीकरण: प्रांत, जनपद/जिला, महानगरपालिका, शहरपालिका, ग्रामपंचायत, जातिपंचायत, कुटुम्ब आदि में विकेंद्रित शासन व्यवस्था में जबतक कोई वर्धिष्णु समस्या की सम्भावना नहीं दिखाई देती हस्तक्षेप नहीं करना।  
 
#* भौगोलिक विकेंद्रीकरण: प्रांत, जनपद/जिला, महानगरपालिका, शहरपालिका, ग्रामपंचायत, जातिपंचायत, कुटुम्ब आदि में विकेंद्रित शासन व्यवस्था में जबतक कोई वर्धिष्णु समस्या की सम्भावना नहीं दिखाई देती हस्तक्षेप नहीं करना।  
 
#* सर्वसहमति के लोकतंत्र से श्रेष्ठ अन्य कोई शासन व्यवस्था नहीं हो सकती। सामान्यत: ग्राम स्तर से जैसे जैसे आबादी और भौगोलिक क्षेत्र बढता जाता है लोकतंत्र की परिणामकारकता कम होती जाती है।  
 
#* सर्वसहमति के लोकतंत्र से श्रेष्ठ अन्य कोई शासन व्यवस्था नहीं हो सकती। सामान्यत: ग्राम स्तर से जैसे जैसे आबादी और भौगोलिक क्षेत्र बढता जाता है लोकतंत्र की परिणामकारकता कम होती जाती है।  
#* जनपद / नगर / महानगर जैसे बडे भौगोलिक / आबादी वाले क्षेत्र के लिये ग्रामसभाओं / प्रभागों द्वारा (सर्वसहमति से) चयनित (निर्वाचित नहीं) प्रतिनिधियों की समिति का शासन रहे। इस समिति का प्रमुख भी सर्वसहमति से ही तय हो। किसी ग्राम/प्रभाग से सर्वसहमति से प्रतिनिधि चयन नहीं होनेसे उस ग्राम/प्रभाग का प्रतिनिधित्व समिति में नहीं रहेगा। लेकिन समिति के निर्णय ग्राम/प्रभाग को लागू होंगे। समिति भी निर्णय करते समय जिस ग्राम का प्रतिनिधित्व नहीं है उसके हित को ध्यान में रखकर ही निर्णय करे। जनपद समितियाँ प्रदेश के शासक का चयन करेंगी। ऐसा शासक भी सर्वसहमति से ही चयनित होगा। प्रदेशों के शासक फिर सर्वसहमतिसे राष्ट्र के प्रधान शासक का या सम्राट का चयन करेंगे। जनपद / नगर / महानगर, प्रदेश, राष्ट्र आदि सभी स्तरों के चयनित प्रमुख अपने अपने सलाहकार और सहयोगियों का चयन करेंगे। सर्वसहमति में कठिनाई होनेपर धर्म व्यवस्था उपलब्ध लोगों में से शासक बनने की योग्यता और क्षमता किसमें अधिक है यह ध्यान में लेकर उसके पक्ष में जनमत तैयार करे।  
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#* जनपद / नगर / महानगर जैसे बडे भौगोलिक / आबादी वाले क्षेत्र के लिये ग्रामसभाओं / प्रभागों द्वारा (सर्वसहमति से) चयनित (निर्वाचित नहीं) प्रतिनिधियों की समिति का शासन रहे। इस समिति का प्रमुख भी सर्वसहमति से ही तय हो। किसी ग्राम/प्रभाग से सर्वसहमति से प्रतिनिधि चयन नहीं होनेसे उस ग्राम/प्रभाग का प्रतिनिधित्व समिति में नहीं रहेगा। लेकिन समिति के निर्णय ग्राम/प्रभाग को लागू होंगे। समिति भी निर्णय करते समय जिस ग्राम का प्रतिनिधित्व नहीं है उसके हित को ध्यान में रखकर ही निर्णय करे। जनपद समितियाँ प्रदेश के शासक का चयन करेंगी। ऐसा शासक भी सर्वसहमति से ही चयनित होगा। प्रदेशों के शासक फिर सर्वसहमतिसे राष्ट्र के प्रधान शासक का या सम्राट का चयन करेंगे। जनपद / नगर / महानगर, प्रदेश, राष्ट्र आदि सभी स्तरों के चयनित प्रमुख अपने अपने सलाहकार और सहयोगियों का चयन करेंगे। सर्वसहमति में कठिनाई होनेपर धर्म व्यवस्था उपलब्ध लोगोंं में से शासक बनने की योग्यता और क्षमता किसमें अधिक है यह ध्यान में लेकर उसके पक्ष में जनमत तैयार करे।  
 
#* शासक निर्माण : श्रेष्ठ शासक निर्माण करने की दृष्टि से धर्म के जानकार अपनी व्यवस्था निर्माण करे। ऐसा चयनित, संस्कारित, शिक्षित और प्रशिक्षित शासक अन्य किसी भी शासक से सामान्यत: श्रेष्ठ होगा।  
 
#* शासक निर्माण : श्रेष्ठ शासक निर्माण करने की दृष्टि से धर्म के जानकार अपनी व्यवस्था निर्माण करे। ऐसा चयनित, संस्कारित, शिक्षित और प्रशिक्षित शासक अन्य किसी भी शासक से सामान्यत: श्रेष्ठ होगा।  
 
#* सत्ता सन्तुलन: सत्ता का खडा और आडा विकेंद्रीकरण करने से सत्ताधारी बिगडने की संभावनाएँ कम हो जातीं हैं। धर्म सत्ता के पास केवल नैतिक सत्ता होती है। शासन के पास भौतिक सत्ता होती है। धर्म की सत्ता याने नैतिक सत्ता को जब अधिक सम्मान समाज में मिलता है तब स्वाभाविक ही भौतिक शासन धर्म के नियंत्रण में रहता है।  
 
#* सत्ता सन्तुलन: सत्ता का खडा और आडा विकेंद्रीकरण करने से सत्ताधारी बिगडने की संभावनाएँ कम हो जातीं हैं। धर्म सत्ता के पास केवल नैतिक सत्ता होती है। शासन के पास भौतिक सत्ता होती है। धर्म की सत्ता याने नैतिक सत्ता को जब अधिक सम्मान समाज में मिलता है तब स्वाभाविक ही भौतिक शासन धर्म के नियंत्रण में रहता है।  
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=== व्यवस्था नियंत्रण ===
 
=== व्यवस्था नियंत्रण ===
स्खलन रोकने के लिए व्यवस्थाओं के निरंतर परिशीलन और परिष्कार की अन्तर्निहित व्यवस्था आवश्यक होती है। नियंत्रण व्यवस्था त्यागी, तपस्वी, ज्ञानी और चराचर के हित के लिए ही जीनेवाले, समाज जीवन का निरन्तर अध्ययन करनेवाले ऐसे ऋषितुल्य लोगोंद्वारा चलाई जानी चाहिए। व्यवस्था के नियमों का अनुपालन शासन करवाए।  
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स्खलन रोकने के लिए व्यवस्थाओं के निरंतर परिशीलन और परिष्कार की अन्तर्निहित व्यवस्था आवश्यक होती है। नियंत्रण व्यवस्था त्यागी, तपस्वी, ज्ञानी और चराचर के हित के लिए ही जीनेवाले, समाज जीवन का निरन्तर अध्ययन करनेवाले ऐसे ऋषितुल्य लोगोंंद्वारा चलाई जानी चाहिए। व्यवस्था के नियमों का अनुपालन शासन करवाए।  
    
== राष्ट्र की चिरंजीविता ==
 
== राष्ट्र की चिरंजीविता ==
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=== धर्म के अनुपालन के अवरोध ===
 
=== धर्म के अनुपालन के अवरोध ===
 
धर्म के अनुपालन में निम्न बातें अवरोध-रूप होतीं हैं:
 
धर्म के अनुपालन में निम्न बातें अवरोध-रूप होतीं हैं:
# भिन्न जीवनदृष्टि के लोग : शीघ्रातिशीघ्र भिन्न जीवनदृष्टि के लोगों को आत्मसात करना आवश्यक होता है। अन्यथा समाज जीवन अस्थिर और संघर्षमय बन जाता है।
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# भिन्न जीवनदृष्टि के लोग : शीघ्रातिशीघ्र भिन्न जीवनदृष्टि के लोगोंं को आत्मसात करना आवश्यक होता है। अन्यथा समाज जीवन अस्थिर और संघर्षमय बन जाता है।
 
# स्वार्थ/संकुचित अस्मिताएँ :आवश्यकताओं की पुर्ति तक तो स्वार्थ भावना समर्थनीय है। अस्मिता या अहंकार यह प्रत्येक जिवंत ईकाई का एक स्वाभाविक पहलू होता है। किन्तु जब किसी ईकाई के विशिष्ट स्तरकी यह अस्मिता अपने से ऊपर की ईकाई जिसका वह हिस्सा है, उसकी अस्मिता से बड़ी लगने लगती है तब समाज जीवन की शांति नष्ट हो जाती है। अतः यह आवश्यक है की मजहब, रिलिजन, प्रादेशिक अलगता, भाषिक भिन्नता, धन का अहंकार, बौद्धिक श्रेष्ठता आदि जैसी संकुचित अस्मिताएँ अपने से ऊपर की जीवंत ईकाई की अस्मिता के विरोध में नहीं हो।
 
# स्वार्थ/संकुचित अस्मिताएँ :आवश्यकताओं की पुर्ति तक तो स्वार्थ भावना समर्थनीय है। अस्मिता या अहंकार यह प्रत्येक जिवंत ईकाई का एक स्वाभाविक पहलू होता है। किन्तु जब किसी ईकाई के विशिष्ट स्तरकी यह अस्मिता अपने से ऊपर की ईकाई जिसका वह हिस्सा है, उसकी अस्मिता से बड़ी लगने लगती है तब समाज जीवन की शांति नष्ट हो जाती है। अतः यह आवश्यक है की मजहब, रिलिजन, प्रादेशिक अलगता, भाषिक भिन्नता, धन का अहंकार, बौद्धिक श्रेष्ठता आदि जैसी संकुचित अस्मिताएँ अपने से ऊपर की जीवंत ईकाई की अस्मिता के विरोध में नहीं हो।
 
# विपरीत शिक्षा : विपरीत या दोषपूर्ण शिक्षा यह तो सभी समस्याओं की जड़ होती है।
 
# विपरीत शिक्षा : विपरीत या दोषपूर्ण शिक्षा यह तो सभी समस्याओं की जड़ होती है।

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