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== प्रस्तावना ==
 
== प्रस्तावना ==
मोक्ष प्राप्ति या पूर्णत्व की प्राप्ति यह धार्मिक (भारतीय) समाज का हमेशा लक्ष्य रहा है। इस दृष्टि से कृषि के क्षेत्र में हमारे पूर्वजों ने कृषि प्रक्रिया का पूर्णत्व के स्तर पर अध्ययन और विकास किया था। दसों-हजार वर्षों से खेती होने पर भी हमारी भूमि बंजर नहीं हुई। वर्तमान के रासायनिक कृषि के काल को छोड़ दें तो अभी तक हमारी भूमि उर्वरा रही है।
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मोक्ष प्राप्ति या पूर्णत्व की प्राप्ति यह धार्मिक (भारतीय) समाज का सदा लक्ष्य रहा है। इस दृष्टि से कृषि के क्षेत्र में हमारे पूर्वजों ने कृषि प्रक्रिया का पूर्णत्व के स्तर पर अध्ययन और विकास किया था। दसों-हजार वर्षों से खेती होने पर भी हमारी भूमि बंजर नहीं हुई। वर्तमान के रासायनिक कृषि के काल को छोड़ दें तो अभी तक हमारी भूमि उर्वरा रही है।
    
मोक्ष प्राप्ति के लिए धर्माचरण, धर्माचरण के लिए अच्छा शरीर और अच्छे शरीर के लिए अच्छा अन्न आवश्यक होता है। कहा गया है “शरीरमाद्यं खलुधर्मसाधनम्”। इस विचार से भी हमारी कृषि दृष्टि आकार लेती है।  
 
मोक्ष प्राप्ति के लिए धर्माचरण, धर्माचरण के लिए अच्छा शरीर और अच्छे शरीर के लिए अच्छा अन्न आवश्यक होता है। कहा गया है “शरीरमाद्यं खलुधर्मसाधनम्”। इस विचार से भी हमारी कृषि दृष्टि आकार लेती है।  
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अन्न, वस्त्र और मकान मानव की प्राथमिक अवश्यकताओं में हैं। इन में से अन्न और वस्त्र की पूर्ति तो अधिकांशत: कृषि के माध्यम से ही होती है। परमात्मा ने मानव को बनाया तो उसके जीने के लिए उसकी सभी आवश्यकताओं की व्यवस्था भी की। बढती हुई आबादी के कारण जब प्राकृतिक स्तर पर पाए जानेवाले फल आदि पदार्थों की कमी पड़ने लगी तब मानव ने कृषि की ख़ोज की। भारत में कृषि बहुत प्राचीन काल से होती आई है। किसी भी बात का सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्त करने की भारत में परंपरा रही है। किसी भी तंत्र का विकास उसके पूर्णत्व तक कर के ही हमारे पूर्वजों ने उस का पीछा छोड़ा है। शून्य से लेकर ९ तक के गणित के अंक, गणित की मूलभूत आठ प्रक्रियाएँ इस पूर्णता के कुछ उदहारण हैं। भारतीयों ने अपने स्वभाव के अनुसार कृषि में भी पूर्णता पाने के प्रयास किये। और ऐसे कृषि तंत्र का विकास किया जो प्रकृति सुसंगत होने के साथ ही चराचर के हित में हो और चिरंजीवी भी हो। प्रकृति सुसंगत होने से यह कृषि तंत्र सदा ही खेती के लिए उपयुक्त रहा। मानव की आवश्यकताओं की सदैव पूर्ति होती रही।
 
अन्न, वस्त्र और मकान मानव की प्राथमिक अवश्यकताओं में हैं। इन में से अन्न और वस्त्र की पूर्ति तो अधिकांशत: कृषि के माध्यम से ही होती है। परमात्मा ने मानव को बनाया तो उसके जीने के लिए उसकी सभी आवश्यकताओं की व्यवस्था भी की। बढती हुई आबादी के कारण जब प्राकृतिक स्तर पर पाए जानेवाले फल आदि पदार्थों की कमी पड़ने लगी तब मानव ने कृषि की ख़ोज की। भारत में कृषि बहुत प्राचीन काल से होती आई है। किसी भी बात का सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्त करने की भारत में परंपरा रही है। किसी भी तंत्र का विकास उसके पूर्णत्व तक कर के ही हमारे पूर्वजों ने उस का पीछा छोड़ा है। शून्य से लेकर ९ तक के गणित के अंक, गणित की मूलभूत आठ प्रक्रियाएँ इस पूर्णता के कुछ उदहारण हैं। भारतीयों ने अपने स्वभाव के अनुसार कृषि में भी पूर्णता पाने के प्रयास किये। और ऐसे कृषि तंत्र का विकास किया जो प्रकृति सुसंगत होने के साथ ही चराचर के हित में हो और चिरंजीवी भी हो। प्रकृति सुसंगत होने से यह कृषि तंत्र सदा ही खेती के लिए उपयुक्त रहा। मानव की आवश्यकताओं की सदैव पूर्ति होती रही।
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अंग्रेजों के आने से पूर्व तक भारत में अन्न, औषधि और शिक्षा ये तीनों बातें बिकाऊ नहीं थीं। भारत भूमि में हमेशा विपुल मात्र में अन्न पैदा होता रहा है। अंग्रेजों के दस्तावेज़ बताते हैं कि उनके भारत में आने के समय भारत में कृषि का तंत्र अत्यंत विकसित अवस्था में था। इंग्लैड में जो कृषि तंत्र उस समय था उससे धार्मिक (भारतीय) कृषि तंत्र बहुत प्रगत था।
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अंग्रेजों के आने से पूर्व तक भारत में अन्न, औषधि और शिक्षा ये तीनों बातें बिकाऊ नहीं थीं। भारत भूमि में सदा विपुल मात्र में अन्न पैदा होता रहा है। अंग्रेजों के दस्तावेज़ बताते हैं कि उनके भारत में आने के समय भारत में कृषि का तंत्र अत्यंत विकसित अवस्था में था। इंग्लैड में जो कृषि तंत्र उस समय था उससे धार्मिक (भारतीय) कृषि तंत्र बहुत प्रगत था।
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आबादी की दृष्टि से भी भारत हमेशा बहुत घनी आबादी का देश रहा है। भारत में उत्पादन के जो मानक निर्माण किये गए थे वे अत्यंत ऊँचे थे। भारत में स्वाधीनता के बाद हरित क्रांति के काल में पंजाब में प्रति हेक्टर जो धान पैदा होता था वह देश में सबसे अधिक था। अंग्रेजों के दस्तावेज बताते हैं कि उस उत्पादन की तुलना में १३वीं सदी में तमिलनाडु के चेंगलपट्टू में १ हेक्टर में ही वर्तमान के लगभग चार गुना धान पैदा किया जाता था। १६ वीं सदी के आंकड़े भी बताते हैं कि प्रति हेक्टर उत्पादन कम हो जाने पर भी वर्तमान के पंजाब के हरित क्रांति के काल के सर्वोत्तम उत्पादन से दुगुना उत्पादन मिलता था।  
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आबादी की दृष्टि से भी भारत सदा बहुत घनी आबादी का देश रहा है। भारत में उत्पादन के जो मानक निर्माण किये गए थे वे अत्यंत ऊँचे थे। भारत में स्वाधीनता के बाद हरित क्रांति के काल में पंजाब में प्रति हेक्टर जो धान पैदा होता था वह देश में सबसे अधिक था। अंग्रेजों के दस्तावेज बताते हैं कि उस उत्पादन की तुलना में १३वीं सदी में तमिलनाडु के चेंगलपट्टू में १ हेक्टर में ही वर्तमान के लगभग चार गुना धान पैदा किया जाता था। १६ वीं सदी के आंकड़े भी बताते हैं कि प्रति हेक्टर उत्पादन कम हो जाने पर भी वर्तमान के पंजाब के हरित क्रांति के काल के सर्वोत्तम उत्पादन से दुगुना उत्पादन मिलता था।  
    
उसी भारत में अब लाखों की संख्या में किसानों के लिए आत्महत्याएं करने की परिस्थिति निर्माण हो गई है। लाख प्रयासों के उपरांत अभी भी किसानों की आत्महत्याओं का क्रम रुक नहीं रहा। किसानों की वर्तमान स्थिति ऐसी है कि किसान भी अपनी बेटी को किसान के घर नहीं ब्याहना चाहता। जिलाधिकारी का बेटा किसान बनें ऐसा तो कोई सोच ही नहीं सकता। लेकिन किसान का बेटा अवश्य जिलाधिकारी बनने के सपने देख रहा है। किसान का बेटा और कुछ भी याने शहर में मजदूर बनकर शहर की झुग्गियों में रहने को तैयार है लेकिन वह किसान नहीं बनना चाहता। किसानों के जो बेटे कृषि विद्यालयों में पढ़ते हैं वे पढाई पूरी करने के बाद किसी कृषि विद्यालय या महाविद्यालय या सरकारी कृषि विभाग में नौकरी पाने के लिए लालायित हैं। वे खेती करना नहीं चाहते।
 
उसी भारत में अब लाखों की संख्या में किसानों के लिए आत्महत्याएं करने की परिस्थिति निर्माण हो गई है। लाख प्रयासों के उपरांत अभी भी किसानों की आत्महत्याओं का क्रम रुक नहीं रहा। किसानों की वर्तमान स्थिति ऐसी है कि किसान भी अपनी बेटी को किसान के घर नहीं ब्याहना चाहता। जिलाधिकारी का बेटा किसान बनें ऐसा तो कोई सोच ही नहीं सकता। लेकिन किसान का बेटा अवश्य जिलाधिकारी बनने के सपने देख रहा है। किसान का बेटा और कुछ भी याने शहर में मजदूर बनकर शहर की झुग्गियों में रहने को तैयार है लेकिन वह किसान नहीं बनना चाहता। किसानों के जो बेटे कृषि विद्यालयों में पढ़ते हैं वे पढाई पूरी करने के बाद किसी कृषि विद्यालय या महाविद्यालय या सरकारी कृषि विभाग में नौकरी पाने के लिए लालायित हैं। वे खेती करना नहीं चाहते।
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# अन्न उपजाना किसान का जातिधर्म भी होता है। धार्मिक (भारतीय) समाज में व्यावसायिक कुशलताओं की बीनापर जातियाँ बनाई गईं थीं। इन जातियों के माध्यम से पुरे समाज की सभी आवश्यकताओं की पूर्ति हुआ करती थी। किसान के पास अन्न उपजाने की कुशलता होती है। अतः विपुल मात्रा में अन्न पैदा करना किसान का जातिधर्म होता है।
 
# अन्न उपजाना किसान का जातिधर्म भी होता है। धार्मिक (भारतीय) समाज में व्यावसायिक कुशलताओं की बीनापर जातियाँ बनाई गईं थीं। इन जातियों के माध्यम से पुरे समाज की सभी आवश्यकताओं की पूर्ति हुआ करती थी। किसान के पास अन्न उपजाने की कुशलता होती है। अतः विपुल मात्रा में अन्न पैदा करना किसान का जातिधर्म होता है।
 
# आयुर्वेद और एलोपेथी में जैसा अन्तर है वैसा ही अन्तर धार्मिक (भारतीय) और अधार्मिक (अधार्मिक) कृषि में होता है। धार्मिक (भारतीय) कृषि अहिंसक होती है। इस में अनिष्ट जीव जंतुओं को मारने के स्थानपर श्रेष्ठ गोमूत्र, गोबर अदि के उपयोग से उपज की अवरोध शक्ति बढाई जाती है।
 
# आयुर्वेद और एलोपेथी में जैसा अन्तर है वैसा ही अन्तर धार्मिक (भारतीय) और अधार्मिक (अधार्मिक) कृषि में होता है। धार्मिक (भारतीय) कृषि अहिंसक होती है। इस में अनिष्ट जीव जंतुओं को मारने के स्थानपर श्रेष्ठ गोमूत्र, गोबर अदि के उपयोग से उपज की अवरोध शक्ति बढाई जाती है।
# भारत में कृषि को हमेशा अदेवमातृका रखने को कहा है। खेती के लिए पानीपर निर्भर होना टाला नहीं जा सकता। अदेवमातृका का अर्थ है जो खेती बारिश के दिनों में तो होगी ही, लेकिन किसी साल बारिश नहीं हुई तो भी खेती तो होनी चाहिए। और बारिश के काल के बाद में भी संचित पानीपर कृषि की जा सके ऐसी पानी की व्यवस्था होनी चाहिए। इस दृष्टि से विपुल संख्या में बड़े बड़े तालाब बनाए जाते थे। हर गाँव के लिए न्यूनतम १ या २ बड़े बड़े तालाब तो होते ही थे। इन तालाबों का निर्माण और रखरखाव किसान और गाँव के लोग आपस में मिलकर करते थे। संचेतन विद्या (बाँध), संहरण विद्या (कुंदों का जाल) और स्तम्भन (तालाब) विद्या आदि का उपयोग इस जल-संचय के लिए किया जाता था।
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# भारत में कृषि को सदा अदेवमातृका रखने को कहा है। खेती के लिए पानीपर निर्भर होना टाला नहीं जा सकता। अदेवमातृका का अर्थ है जो खेती बारिश के दिनों में तो होगी ही, लेकिन किसी साल बारिश नहीं हुई तो भी खेती तो होनी चाहिए। और बारिश के काल के बाद में भी संचित पानीपर कृषि की जा सके ऐसी पानी की व्यवस्था होनी चाहिए। इस दृष्टि से विपुल संख्या में बड़े बड़े तालाब बनाए जाते थे। हर गाँव के लिए न्यूनतम १ या २ बड़े बड़े तालाब तो होते ही थे। इन तालाबों का निर्माण और रखरखाव किसान और गाँव के लोग आपस में मिलकर करते थे। संचेतन विद्या (बाँध), संहरण विद्या (कुंदों का जाल) और स्तम्भन (तालाब) विद्या आदि का उपयोग इस जल-संचय के लिए किया जाता था।
 
# भारतीय कृषि में प्रकृति सुसंगतता का विशेष ध्यान रखा जाता है। अतः खनिज तेल की उर्जा का उपयोग नहीं किया जाता था। मनुष्य की और पशुओं की शक्ति का उपयोग किया जाता था। इससे पर्यावरण स्वच्छ और शुद्ध रहता था। लोगों का स्वास्थ्य भी अच्छा रहता था। शारीरिक परिश्रम की आदत के कारण लोग दीर्घायु होते हैं।
 
# भारतीय कृषि में प्रकृति सुसंगतता का विशेष ध्यान रखा जाता है। अतः खनिज तेल की उर्जा का उपयोग नहीं किया जाता था। मनुष्य की और पशुओं की शक्ति का उपयोग किया जाता था। इससे पर्यावरण स्वच्छ और शुद्ध रहता था। लोगों का स्वास्थ्य भी अच्छा रहता था। शारीरिक परिश्रम की आदत के कारण लोग दीर्घायु होते हैं।
 
# भारतीय कृषि गो आधारित होती है। खेती के लिए लगनेवाले मानव, जमीन, बीज, हवा से मिलनेवाला नत्र वायु और पानी ये ५ बातें छोड़कर सभी बातें धार्मिक (भारतीय) गो से प्राप्त होती है। इसीलिए भी गो को हम गोमाता मानते हैं। अधार्मिक (अधार्मिक) गायों के दूध में मानव के लिए हानिकारक ऐसा बीसीएम ७ यह रसायन पाया जाता है। केवल धार्मिक (भारतीय) गो के दूध में यह विषैला रसायन नहीं होता। इससे मिलनेवाले बैल खेती के लिए गोबर और गोमूत्र देने के साथ ही धान्य और सामान के वहन के लिए उपयुक्त होते है। इन के उपयोग से खनिज तेल की आवश्यकता नहीं रह जाती। गोबर के बारे में हम मानते हैं की गोबर में तो लक्ष्मीजी का वास होता है। गोबर गैस का उपयोग चूल्हा जलाने के लिए भी होता है। दूध तो गो से मिलनेवाला आनुशंगिक लाभ होता था।
 
# भारतीय कृषि गो आधारित होती है। खेती के लिए लगनेवाले मानव, जमीन, बीज, हवा से मिलनेवाला नत्र वायु और पानी ये ५ बातें छोड़कर सभी बातें धार्मिक (भारतीय) गो से प्राप्त होती है। इसीलिए भी गो को हम गोमाता मानते हैं। अधार्मिक (अधार्मिक) गायों के दूध में मानव के लिए हानिकारक ऐसा बीसीएम ७ यह रसायन पाया जाता है। केवल धार्मिक (भारतीय) गो के दूध में यह विषैला रसायन नहीं होता। इससे मिलनेवाले बैल खेती के लिए गोबर और गोमूत्र देने के साथ ही धान्य और सामान के वहन के लिए उपयुक्त होते है। इन के उपयोग से खनिज तेल की आवश्यकता नहीं रह जाती। गोबर के बारे में हम मानते हैं की गोबर में तो लक्ष्मीजी का वास होता है। गोबर गैस का उपयोग चूल्हा जलाने के लिए भी होता है। दूध तो गो से मिलनेवाला आनुशंगिक लाभ होता था।

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