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आन्तरिक होने के कारण वह जल्दी समझ में भी नहीं आता है। आन्तरिक होने के कारण से उसे परास्त करना भी अधिक कठिन हो जाता है। इसलिये हमें सावधान रहना है। आक्रमण के स्वरूप को भलीभाँति पहचानना है और कुशलतापूर्वक उपाययोजना बनानी है।
 
आन्तरिक होने के कारण वह जल्दी समझ में भी नहीं आता है। आन्तरिक होने के कारण से उसे परास्त करना भी अधिक कठिन हो जाता है। इसलिये हमें सावधान रहना है। आक्रमण के स्वरूप को भलीभाँति पहचानना है और कुशलतापूर्वक उपाययोजना बनानी है।
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क्‍या हम शिक्षा को केवल शिक्षा नहीं कह सकते ? शिक्षा को 'धार्मिक' - ऐसा विशेषण जोड़ने की क्या आवश्यकता है? विश्वविद्यालयों के अनेक प्राध्यापकों के साथ चर्चा होती है। प्राध्यापक नहीं हैं ऐसे भी अनेक उच्चविद्याविभूषित लोगों के साथ बातचीत होती है। तब भी “धार्मिक' संज्ञा समझ में नहीं आती है। अच्छे अच्छे विद्वान और प्रतिष्ठित लोग भी “धार्मिक' संज्ञा का प्रयोग करना टालते हैं, मौन रहते हैं या उसे अस्वीकृत कर देते हैं। वे कहते हैं कि वर्तमान युग वैश्विक युग है। हमें वैश्विक परिप्रेक्ष्य को अपना कर चर्चा करनी चाहिये। उसी स्तर की व्यवस्थायें भी बनानी चाहिये। आज के जमाने में धार्मिकता संकुचित मानस का लक्षण है। हमें उसका त्याग करना चाहिये और आधुनिक बनना चाहिये। दूसरा तर्क भी वे देते हैं। वे कहते हैं कि ज्ञान तो ज्ञान होता है, शिक्षा शिक्षा होती है। उसे “धार्मिक' और “अधार्मिक' जैसे विशेषण लगाने की क्या आवश्यकता है? आज दुनिया कितनी आगे बढ़ गई है। आज ऐसी पुरातनवादी बातें कैसे चलेंगी ? ऐसा कहकर वे प्राय: चर्चा भी नहीं करते हैं, और करते हैं तो उनके कथनों का कोई आधार ही नहीं होता है।  इसका स्पष्टीकरण आगे दिया है।
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क्‍या हम शिक्षा को केवल शिक्षा नहीं कह सकते ? शिक्षा को 'धार्मिक' - ऐसा विशेषण जोड़ने की क्या आवश्यकता है? विश्वविद्यालयों के अनेक प्राध्यापकों के साथ चर्चा होती है। प्राध्यापक नहीं हैं ऐसे भी अनेक उच्चविद्याविभूषित लोगोंं के साथ बातचीत होती है। तब भी “धार्मिक' संज्ञा समझ में नहीं आती है। अच्छे अच्छे विद्वान और प्रतिष्ठित लोग भी “धार्मिक' संज्ञा का प्रयोग करना टालते हैं, मौन रहते हैं या उसे अस्वीकृत कर देते हैं। वे कहते हैं कि वर्तमान युग वैश्विक युग है। हमें वैश्विक परिप्रेक्ष्य को अपना कर चर्चा करनी चाहिये। उसी स्तर की व्यवस्थायें भी बनानी चाहिये। आज के जमाने में धार्मिकता संकुचित मानस का लक्षण है। हमें उसका त्याग करना चाहिये और आधुनिक बनना चाहिये। दूसरा तर्क भी वे देते हैं। वे कहते हैं कि ज्ञान तो ज्ञान होता है, शिक्षा शिक्षा होती है। उसे “धार्मिक' और “अधार्मिक' जैसे विशेषण लगाने की क्या आवश्यकता है? आज दुनिया कितनी आगे बढ़ गई है। आज ऐसी पुरातनवादी बातें कैसे चलेंगी ? ऐसा कहकर वे प्राय: चर्चा भी नहीं करते हैं, और करते हैं तो उनके कथनों का कोई आधार ही नहीं होता है।  इसका स्पष्टीकरण आगे दिया है।
    
== राष्ट्र की आत्मा “चिति' ==
 
== राष्ट्र की आत्मा “चिति' ==
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हमारे मनीषी इस तथ्य का जो दर्शन करते हैं, उसकी जो अनुभूति करते हैं उस आधार पर शास्त्रों की रचना होती है। समाज की सारी व्यवस्थायें इस तथ्य के अनुरूप ही बनती हैं। प्रजा का मानस भी उसी के अनुरूप बनता है। उचित अनुचित की कल्पना भी उसी के अनुसार बनती है।
 
हमारे मनीषी इस तथ्य का जो दर्शन करते हैं, उसकी जो अनुभूति करते हैं उस आधार पर शास्त्रों की रचना होती है। समाज की सारी व्यवस्थायें इस तथ्य के अनुरूप ही बनती हैं। प्रजा का मानस भी उसी के अनुरूप बनता है। उचित अनुचित की कल्पना भी उसी के अनुसार बनती है।
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छोटी से छोटी और बड़ी से बड़ी बातों के पीछे इस स्वभाव का ही निकष रहता है। भारत के लिये धार्मिकता स्वभाव है। भारत के प्रजाजनों के लिये धार्मिक होना ही स्वाभाविक है। इसलिये अनेक लोगों के मन में इस विषय में प्रश्न ही निर्माण नहीं होता है। जब बात स्वाभाविक ही हो तो प्रश्र कैसे निर्माण होंगे ?
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छोटी से छोटी और बड़ी से बड़ी बातों के पीछे इस स्वभाव का ही निकष रहता है। भारत के लिये धार्मिकता स्वभाव है। भारत के प्रजाजनों के लिये धार्मिक होना ही स्वाभाविक है। इसलिये अनेक लोगोंं के मन में इस विषय में प्रश्न ही निर्माण नहीं होता है। जब बात स्वाभाविक ही हो तो प्रश्र कैसे निर्माण होंगे ?
    
हमारी हर व्यवस्था, उसे 'धार्मिक' विशेषण जोड़ो या न जोड़ो तो भी धार्मिक ही रहेगी। कारण स्पष्ट है। उसे बनाने वाले और अपनाने वाले धार्मिक हैं। उन्हें भी यह सब उचित और सही लगता है। अपनाने वाले न तो खुलासा पूछते हैं, बनाने वालों को न खुलासे देने की आवश्यकतालगती है। प्रश्न पूछे भी जाते हैं तो वे जिज्ञासावश होते हैं।
 
हमारी हर व्यवस्था, उसे 'धार्मिक' विशेषण जोड़ो या न जोड़ो तो भी धार्मिक ही रहेगी। कारण स्पष्ट है। उसे बनाने वाले और अपनाने वाले धार्मिक हैं। उन्हें भी यह सब उचित और सही लगता है। अपनाने वाले न तो खुलासा पूछते हैं, बनाने वालों को न खुलासे देने की आवश्यकतालगती है। प्रश्न पूछे भी जाते हैं तो वे जिज्ञासावश होते हैं।
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अंग्रेजों ने देश की सारी व्यवस्थायें बदल दीं। धार्मिक व्यवस्थाओं को नष्ट कर दिया और अधार्मिक व्यवस्थाओं को प्रस्थापित किया। इस कारण से धार्मिक और अधार्मिक ऐसे दो शब्दुप्रयोग व्यवहार में आने लगे। ये दोनों शब्द भारत के ही सन्दर्भ में व्यवहार में लाये जाते हैं। अंग्रेजों का राज्य लगभग ढाई सौ से तीन सौ वर्ष रहा। इस अवधि में अंग्रेजी शिक्षा का कालखण्ड लगभग पौने दो सौ वर्षों का है। इस अवधि में लगभग दस पीढ़ियाँ अंग्रेजी शिक्षाव्यवस्था में पढ़ चुकी हैं। इस दौरान चार बातें हुई हैं। एक, धार्मिक शास्त्रों का अध्ययन बन्द हो गया और धार्मिक ज्ञानपरम्परा खण्डित हो गई। दूसरा, धार्मिक शास्त्रों का जो कुछ भी अध्ययन होता रहा वह यूरोपीय दृष्टि से होने लगा और हमारे ही शास्त्रों को हम अस्वाभाविक पद्धति से पढ़ने लगे। तीसरा, हमारे ज्ञान और हमारी व्यवस्थाओं के प्रति अनास्था और अश्रद्धा निर्माण करने का भारी प्रयास अंग्रेजों ने किया और हम भी अनास्था और अश्रद्धा से ग्रस्त हो गये। चौथा, यूरोपीय ज्ञान विद्यालयों और महाविद्यालयों में पढ़ाया जाने लगा और अंग्रेजी शास्त्रों को जानने वाले और मानने वाले विद्वानों को ही विद्वानों के रूप में प्रतिष्ठा प्राप्त होने लगी। देश अंग्रेजी ज्ञान के अनुसार अंग्रेजी व्यवस्थाओं में चलने लगा। परिणामस्वरूप बौद्धिक और मानसिक क्षेत्र भारी मात्रा में प्रभावित हुआ है। इसका ही सीधा परिणाम है कि स्वाधीन होने के बाद भी हमने शिक्षाव्यवस्था में या अन्य किसी भी व्यवस्था में परिवर्तन नहीं किया है। देश अभी भी अंग्रेजी व्यवस्था में ही चलता है। हम स्वाधीन होने पर भी स्वतन्त्र नहीं हैं। तंत्र अंग्रेजों का ही चलता है, हम उसे चलाते हैं।
 
अंग्रेजों ने देश की सारी व्यवस्थायें बदल दीं। धार्मिक व्यवस्थाओं को नष्ट कर दिया और अधार्मिक व्यवस्थाओं को प्रस्थापित किया। इस कारण से धार्मिक और अधार्मिक ऐसे दो शब्दुप्रयोग व्यवहार में आने लगे। ये दोनों शब्द भारत के ही सन्दर्भ में व्यवहार में लाये जाते हैं। अंग्रेजों का राज्य लगभग ढाई सौ से तीन सौ वर्ष रहा। इस अवधि में अंग्रेजी शिक्षा का कालखण्ड लगभग पौने दो सौ वर्षों का है। इस अवधि में लगभग दस पीढ़ियाँ अंग्रेजी शिक्षाव्यवस्था में पढ़ चुकी हैं। इस दौरान चार बातें हुई हैं। एक, धार्मिक शास्त्रों का अध्ययन बन्द हो गया और धार्मिक ज्ञानपरम्परा खण्डित हो गई। दूसरा, धार्मिक शास्त्रों का जो कुछ भी अध्ययन होता रहा वह यूरोपीय दृष्टि से होने लगा और हमारे ही शास्त्रों को हम अस्वाभाविक पद्धति से पढ़ने लगे। तीसरा, हमारे ज्ञान और हमारी व्यवस्थाओं के प्रति अनास्था और अश्रद्धा निर्माण करने का भारी प्रयास अंग्रेजों ने किया और हम भी अनास्था और अश्रद्धा से ग्रस्त हो गये। चौथा, यूरोपीय ज्ञान विद्यालयों और महाविद्यालयों में पढ़ाया जाने लगा और अंग्रेजी शास्त्रों को जानने वाले और मानने वाले विद्वानों को ही विद्वानों के रूप में प्रतिष्ठा प्राप्त होने लगी। देश अंग्रेजी ज्ञान के अनुसार अंग्रेजी व्यवस्थाओं में चलने लगा। परिणामस्वरूप बौद्धिक और मानसिक क्षेत्र भारी मात्रा में प्रभावित हुआ है। इसका ही सीधा परिणाम है कि स्वाधीन होने के बाद भी हमने शिक्षाव्यवस्था में या अन्य किसी भी व्यवस्था में परिवर्तन नहीं किया है। देश अभी भी अंग्रेजी व्यवस्था में ही चलता है। हम स्वाधीन होने पर भी स्वतन्त्र नहीं हैं। तंत्र अंग्रेजों का ही चलता है, हम उसे चलाते हैं।
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फिर भी सुदैव से अनेक लोगों के हृदय और बुद्धि में इस बात की चुभन है। स्वाधीन भारत परतन्त्र है यह उन्हें स्वीकार नहीं है। इनके ही प्रयासों के कारण से “धार्मिक' और “अधार्मिक' संज्ञाओं का प्रचलन है। ये लोग धार्मिकता की प्रतिष्ठा करना चाहते हैं। इनके प्रयास बौद्धिक क्षेत्र में और भौतिक क्षेत्रों में चल रहे हैं। शिक्षा के तन्त्र, मन्त्र और यन्त्र को धार्मिक बनाना यह मूल बात है क्योकि शिक्षा को धार्मिक बनायेंगे तो शेष व्यवस्थायें धार्मिक बनाने में सरलता होगी।
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फिर भी सुदैव से अनेक लोगोंं के हृदय और बुद्धि में इस बात की चुभन है। स्वाधीन भारत परतन्त्र है यह उन्हें स्वीकार नहीं है। इनके ही प्रयासों के कारण से “धार्मिक' और “अधार्मिक' संज्ञाओं का प्रचलन है। ये लोग धार्मिकता की प्रतिष्ठा करना चाहते हैं। इनके प्रयास बौद्धिक क्षेत्र में और भौतिक क्षेत्रों में चल रहे हैं। शिक्षा के तन्त्र, मन्त्र और यन्त्र को धार्मिक बनाना यह मूल बात है क्योकि शिक्षा को धार्मिक बनायेंगे तो शेष व्यवस्थायें धार्मिक बनाने में सरलता होगी।
    
आज भी जो लोग आधुनिकता, वैश्विकता, परिवर्तन आदि की बात करते हैं उनकी बात भी समझ लेनी चाहिये ऐसा लगता है। हम अनुभव करते हैं कि व्यक्तियों के स्वभाव में परिवर्तन आता है। हम देखते हैं कि परिस्थितियाँ बदलती हैं। हम हवामान और तापमान में बदल होते भी अनुभव कर ही रहे हैं। तब विचारों में भी परिवर्तन होना स्वाभाविक मानना चाहिये। अधार्मिक होना क्या इतनी बुरी बात है ? दूसरे देशों की शैली अपनाना भी अस्वाभाविक क्यों मानना चाहिये ?
 
आज भी जो लोग आधुनिकता, वैश्विकता, परिवर्तन आदि की बात करते हैं उनकी बात भी समझ लेनी चाहिये ऐसा लगता है। हम अनुभव करते हैं कि व्यक्तियों के स्वभाव में परिवर्तन आता है। हम देखते हैं कि परिस्थितियाँ बदलती हैं। हम हवामान और तापमान में बदल होते भी अनुभव कर ही रहे हैं। तब विचारों में भी परिवर्तन होना स्वाभाविक मानना चाहिये। अधार्मिक होना क्या इतनी बुरी बात है ? दूसरे देशों की शैली अपनाना भी अस्वाभाविक क्यों मानना चाहिये ?
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== अधार्मिक दृष्टि अनात्मवादी (आसुरी) ==
 
== अधार्मिक दृष्टि अनात्मवादी (आसुरी) ==
परन्तु धार्मिक और अधार्मिक का मुद्दा एक अन्य प्रकार से विचारणीय अवश्य है। धार्मिकतावादी लोग जब अधार्मिक जीवनशैली या जीवनदृष्टि की बात करते हैं तब अनात्मवादी विचार, पंचमहाभूतों के शोषण की प्रवृत्ति, व्यक्तिकेन्द्री और स्वार्थपरक व्यवहार, भौतिकता का अधिष्ठान आदि की चर्चा करते हैं। आज विश्व पर अमेरीका और यूरोप का प्रभाव छा गया है और वहाँ इस विचारधारा को मान्यता प्राप्त है इसलिये इसे पाश्चात्य या अधार्मिक जीवनदृष्टि कहा जाता है। जो लोग धार्मिक हैं परन्तु इस विचारधारा को मान्यता देते हैं और उसे अपनाते हैं वे अधार्मिक विचारधारा से प्रभावित हैं ऐसा माना जाता है। परन्तु भारत में भी ऐसे लोगों का होना स्वाभाविक माना गया है। श्रीमद भगवदगीता में दैवी और आसुरी सम्पद्‌ की चर्चा की गई है<ref>श्रीमद भगवदगीता 16.4</ref>। वहाँ आसुरी सम्पद्‌ वाले लोगों का वर्णन ठीक वही है जिसे अधार्मिक या पाश्चात्य कहा जाता है। वे भी भौतिकतावादी हैं, वे भी व्यक्ति केंद्री हैं, वे भी जीवन और जगत का विचार समग्रता में नहीं अपितु खण्ड खण्ड में करते हैं।<blockquote>दम्भो दर्पोऽभिमानश्च क्रोधः पारुष्यमेव च।</blockquote><blockquote>अज्ञानं चाभिजातस्य पार्थ सम्पदमासुरीम्।।16.4।।</blockquote>ऐसी आसुरी सम्पद्‌ बन्धन और विनाश का कारण बनती है ऐसा भी श्री भगवान कहते हैं<ref>श्रीमद भगवदगीता 16.9</ref>।<blockquote>एतां दृष्टिमवष्टभ्य नष्टात्मानोऽल्पबुद्धयः।</blockquote><blockquote>प्रभवन्त्युग्रकर्माणः क्षयाय जगतोऽहिताः।।16.9।।</blockquote>हमारे यहाँ चार्वाक दर्शन की भी चर्चा होती है। इस दर्शन में भी इंद्रियों के सुखों को प्रधानता दी गई है और पापपुण्य या संयम की आवश्यकता नहीं है ऐसा कहा गया
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परन्तु धार्मिक और अधार्मिक का मुद्दा एक अन्य प्रकार से विचारणीय अवश्य है। धार्मिकतावादी लोग जब अधार्मिक जीवनशैली या जीवनदृष्टि की बात करते हैं तब अनात्मवादी विचार, पंचमहाभूतों के शोषण की प्रवृत्ति, व्यक्तिकेन्द्री और स्वार्थपरक व्यवहार, भौतिकता का अधिष्ठान आदि की चर्चा करते हैं। आज विश्व पर अमेरीका और यूरोप का प्रभाव छा गया है और वहाँ इस विचारधारा को मान्यता प्राप्त है इसलिये इसे पाश्चात्य या अधार्मिक जीवनदृष्टि कहा जाता है। जो लोग धार्मिक हैं परन्तु इस विचारधारा को मान्यता देते हैं और उसे अपनाते हैं वे अधार्मिक विचारधारा से प्रभावित हैं ऐसा माना जाता है। परन्तु भारत में भी ऐसे लोगोंं का होना स्वाभाविक माना गया है। श्रीमद भगवदगीता में दैवी और आसुरी सम्पद्‌ की चर्चा की गई है<ref>श्रीमद भगवदगीता 16.4</ref>। वहाँ आसुरी सम्पद्‌ वाले लोगोंं का वर्णन ठीक वही है जिसे अधार्मिक या पाश्चात्य कहा जाता है। वे भी भौतिकतावादी हैं, वे भी व्यक्ति केंद्री हैं, वे भी जीवन और जगत का विचार समग्रता में नहीं अपितु खण्ड खण्ड में करते हैं।<blockquote>दम्भो दर्पोऽभिमानश्च क्रोधः पारुष्यमेव च।</blockquote><blockquote>अज्ञानं चाभिजातस्य पार्थ सम्पदमासुरीम्।।16.4।।</blockquote>ऐसी आसुरी सम्पद्‌ बन्धन और विनाश का कारण बनती है ऐसा भी श्री भगवान कहते हैं<ref>श्रीमद भगवदगीता 16.9</ref>।<blockquote>एतां दृष्टिमवष्टभ्य नष्टात्मानोऽल्पबुद्धयः।</blockquote><blockquote>प्रभवन्त्युग्रकर्माणः क्षयाय जगतोऽहिताः।।16.9।।</blockquote>हमारे यहाँ चार्वाक दर्शन की भी चर्चा होती है। इस दर्शन में भी इंद्रियों के सुखों को प्रधानता दी गई है और पापपुण्य या संयम की आवश्यकता नहीं है ऐसा कहा गया
    
है।<blockquote>यावत् जीवेत् सुखम् जीवेत्। ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत्।</blockquote><blockquote>भस्मिभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुतः।</blockquote>चार्वाक धार्मिक ही है, असुर धार्मिक ही हैं, खण्ड खण्ड में विचार करने वाले और उसके अनुसार व्यवहार करने वाले भी धार्मिक ही हैं। केवल उन्हें मान्यता नहीं है। हम जब इसे अधार्मिक की संज्ञा देते हैं तब हमारा तात्पर्य उसे मान्यता देने वाले देशों के साथ उसे जोड़ने का ही होता है।
 
है।<blockquote>यावत् जीवेत् सुखम् जीवेत्। ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत्।</blockquote><blockquote>भस्मिभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुतः।</blockquote>चार्वाक धार्मिक ही है, असुर धार्मिक ही हैं, खण्ड खण्ड में विचार करने वाले और उसके अनुसार व्यवहार करने वाले भी धार्मिक ही हैं। केवल उन्हें मान्यता नहीं है। हम जब इसे अधार्मिक की संज्ञा देते हैं तब हमारा तात्पर्य उसे मान्यता देने वाले देशों के साथ उसे जोड़ने का ही होता है।

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