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== प्रकृति, विकृति और संस्कृति ==
 
== प्रकृति, विकृति और संस्कृति ==
जो स्वाभाविक है वह प्रकृति है। अपने लिए अपने किये हुए हितकारी कर्मों के अच्छे फल की इच्छा करना स्वाभाविक है। यह प्रकृति है। नि:स्वार्थ या निष्काम भावना से लोगों के हित के कर्म करना संस्कृति है। और दूसरे के किये कर्मों का अच्छा फल उसे नहीं मुझे मिले ऐसी इच्छा करना विकृति है।
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जो स्वाभाविक है वह प्रकृति है। अपने लिए अपने किये हुए हितकारी कर्मों के अच्छे फल की इच्छा करना स्वाभाविक है। यह प्रकृति है। नि:स्वार्थ या निष्काम भावना से लोगोंं के हित के कर्म करना संस्कृति है। और दूसरे के किये कर्मों का अच्छा फल उसे नहीं मुझे मिले ऐसी इच्छा करना विकृति है।
    
== संस्कृति ==
 
== संस्कृति ==
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अमरीका को ‘मेल्टिंग पॉट’ कहा जाता है। मेल्टिंग पॉट का अर्थ है ऐसा बर्तन जिसके अन्दर जो भी रहेगा वह पिघल जाएगा। पिघलाकर एक हो जाएगा। समरस हो जाएगा। सांस्कृतिक दृष्टि से एक बन जाएगा।
 
अमरीका को ‘मेल्टिंग पॉट’ कहा जाता है। मेल्टिंग पॉट का अर्थ है ऐसा बर्तन जिसके अन्दर जो भी रहेगा वह पिघल जाएगा। पिघलाकर एक हो जाएगा। समरस हो जाएगा। सांस्कृतिक दृष्टि से एक बन जाएगा।
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हम कहते हैं कि “विविधता में एकता’ यह हमारी विशेषता है। इसमें हम विविधता को सांस्कृतिक विविधता तक ले जाते हैं। प्रश्न यह निर्माण होता है कि फिर एकता किस बात में है? केवल धार्मिक (धार्मिक) कहलाने मात्र से “किसी भी प्रकार की एकता” ध्यान में नहीं आती। हाँ ! विविधता बनाए रखने का आग्रह और प्रयास होते रहते हैं। जातियों की संस्कृति, छोटे छोटे समूहों की संस्कृति, प्रादेशिक समूहों की संस्कृति, मजहबों की संस्कृति, वनवासी, गिरिवासी लोगों को आदिवासी कहकर उनकी प्रत्येक की भिन्न भिन्न ऐसी सैंकड़ों प्रकार की संस्कृतियाँ, ग्रामीण और नागरी संस्कृति आदि के कारण हम पूरे राष्ट्र को बाँट रहे हैं।  
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हम कहते हैं कि “विविधता में एकता’ यह हमारी विशेषता है। इसमें हम विविधता को सांस्कृतिक विविधता तक ले जाते हैं। प्रश्न यह निर्माण होता है कि फिर एकता किस बात में है? केवल धार्मिक (धार्मिक) कहलाने मात्र से “किसी भी प्रकार की एकता” ध्यान में नहीं आती। हाँ ! विविधता बनाए रखने का आग्रह और प्रयास होते रहते हैं। जातियों की संस्कृति, छोटे छोटे समूहों की संस्कृति, प्रादेशिक समूहों की संस्कृति, मजहबों की संस्कृति, वनवासी, गिरिवासी लोगोंं को आदिवासी कहकर उनकी प्रत्येक की भिन्न भिन्न ऐसी सैंकड़ों प्रकार की संस्कृतियाँ, ग्रामीण और नागरी संस्कृति आदि के कारण हम पूरे राष्ट्र को बाँट रहे हैं।  
    
भारत में हमारे सामने जो समस्याएँ खडी हैं उन में से कई समस्याएँ इस “विविधता” को बनाए रखने के आग्रह और प्रयासों के कारण है। पंडित दीनदयालजी संविधान में हुई इस गलती को “मूलगामी भूल” कहते हैं।
 
भारत में हमारे सामने जो समस्याएँ खडी हैं उन में से कई समस्याएँ इस “विविधता” को बनाए रखने के आग्रह और प्रयासों के कारण है। पंडित दीनदयालजी संविधान में हुई इस गलती को “मूलगामी भूल” कहते हैं।
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ऐसे कई राष्ट्र हैं जिनकी संस्कृति नष्ट होने के कारण नष्ट हो गए। ईरान में से पारसी समाज भारत में आया। लेकिन आनेवाले लोग वहाँ की कुल जनसंख्या के प्रमाण में अत्यंत कम संख्या में थे। बड़ी संख्या में तो लोग वहीं रह गए। उनको जबरदस्ती मुसलमान बनाया गया। अब उनकी संस्कृति इस्लामी हो गई। लोग तो वही थे। लेकिन उनके वंशज पारसी नहीं रहे। उनके राष्ट्र की भूमि तो वही रही लेकिन उनका राष्ट्र “पारसी” नहीं रहा। इसी तरह से ग्रीस, रोम इनकी भूमि वही है जो ईसाईयत के जबरदस्ती या मन:पूर्वक स्वीकार से पहले थी, लोग उन्हीं लोगों के वंशज हैं जो ईसाईयत के जबरदस्ती या मन:पूर्वक स्वीकार से पहले थे, लेकिन अब उनके राष्ट्र बदल गए। उनकी जीवन दृष्टि बदल गई। उनका रहन-सहन बदला गया, उनकी संस्कृति बदल गई।  
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ऐसे कई राष्ट्र हैं जिनकी संस्कृति नष्ट होने के कारण नष्ट हो गए। ईरान में से पारसी समाज भारत में आया। लेकिन आनेवाले लोग वहाँ की कुल जनसंख्या के प्रमाण में अत्यंत कम संख्या में थे। बड़ी संख्या में तो लोग वहीं रह गए। उनको जबरदस्ती मुसलमान बनाया गया। अब उनकी संस्कृति इस्लामी हो गई। लोग तो वही थे। लेकिन उनके वंशज पारसी नहीं रहे। उनके राष्ट्र की भूमि तो वही रही लेकिन उनका राष्ट्र “पारसी” नहीं रहा। इसी तरह से ग्रीस, रोम इनकी भूमि वही है जो ईसाईयत के जबरदस्ती या मन:पूर्वक स्वीकार से पहले थी, लोग उन्हीं लोगोंं के वंशज हैं जो ईसाईयत के जबरदस्ती या मन:पूर्वक स्वीकार से पहले थे, लेकिन अब उनके राष्ट्र बदल गए। उनकी जीवन दृष्टि बदल गई। उनका रहन-सहन बदला गया, उनकी संस्कृति बदल गई।  
    
इसके विपरीत इजराईल का उदाहरण देखें। लगभग दो हजार वर्ष पहले इन यहूदियों को ईसाईयों ने फिलिस्तीन से खदेड़कर बाहर किया। ये छोटे छोटे समूह में भिन्न भिन्न देशों में शरण लेने को विवश हो गए। लेकिन यहूदियों ने यथासंभव अपनी संस्कृति को बनाए और बचाए रखने के प्रयास किये। हिन्दू छोड़कर दुनिया के हर समाज ने इन शरणार्थियो पर अत्याचार किये। लेकिन इन्होंने अपनी संस्कृति जैसे तैसे बचाने का प्रयास किया। और जैसे ही पेलेस्टाईन की भूमि फिर से प्राप्त की पूरी शक्ति के साथ यहूदी संस्कृति का पुनरुत्थान किया। इनकी भाषा का नाम हिब्रू है। यह भाषा नष्टप्राय हो गई थी। अथक और प्रचंड प्रयत्नों के द्वारा हिब्रू में प्राप्त होनेवाले पुरातन साहित्य का संकलन किया गया। उसके आधार पर फिर से हिब्रू भाषा को राष्ट्र की भाषा के रूप में स्थापित किया गया। आगे हम देखेंगे की भाषा का संस्कृति से कैसा अटूट संबंध होता है।
 
इसके विपरीत इजराईल का उदाहरण देखें। लगभग दो हजार वर्ष पहले इन यहूदियों को ईसाईयों ने फिलिस्तीन से खदेड़कर बाहर किया। ये छोटे छोटे समूह में भिन्न भिन्न देशों में शरण लेने को विवश हो गए। लेकिन यहूदियों ने यथासंभव अपनी संस्कृति को बनाए और बचाए रखने के प्रयास किये। हिन्दू छोड़कर दुनिया के हर समाज ने इन शरणार्थियो पर अत्याचार किये। लेकिन इन्होंने अपनी संस्कृति जैसे तैसे बचाने का प्रयास किया। और जैसे ही पेलेस्टाईन की भूमि फिर से प्राप्त की पूरी शक्ति के साथ यहूदी संस्कृति का पुनरुत्थान किया। इनकी भाषा का नाम हिब्रू है। यह भाषा नष्टप्राय हो गई थी। अथक और प्रचंड प्रयत्नों के द्वारा हिब्रू में प्राप्त होनेवाले पुरातन साहित्य का संकलन किया गया। उसके आधार पर फिर से हिब्रू भाषा को राष्ट्र की भाषा के रूप में स्थापित किया गया। आगे हम देखेंगे की भाषा का संस्कृति से कैसा अटूट संबंध होता है।
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== वर्तमान जीवन की गति और संस्कृति ==
 
== वर्तमान जीवन की गति और संस्कृति ==
विश्व गति करता है इसीलिये विश्व को जगत भी कहते हैं। गति ही जीवन है। गतिशून्यता मृत्यू है। अतः जीवन चलते रहने के लिए गति आवश्यक होती है। लेकिन जीवन की गति जब बहुत अधिक हो जाती है तब बड़ी मात्रा में समाज के दुर्बल घटक उस गति के साथ चल नहीं पाते। ऐसा होने से वे अन्यों से पिछड़ जाते हैं। दु:खी हो जाते हैं। लेकिन जीवन जब इष्ट गति से चलता है तब वह सबको सुखमय होता है। इष्ट गति से तात्पर्य उस गति से है जिस गति से समाज का अंतिम व्यक्ति भी साथ चल सके। इष्ट गति से कम या अधिक गति जब समाज जीवन को मिलती है तब समाज सुख से दूर जाता है। वर्तमान में जीवन को जो गति मिली है वह जीवन की इष्ट गति से बहुत ही अधिक है। इस बढ़ी हुई गति के कारण जीवन में किसी भी प्रकार का ठहराव नहीं आ पाता। ठहराव, विकास का विरोधी है ऐसी भावना व्याप्त हो गयी है। केवल ठहराव ही नहीं तो कम गति भी विकास के विरोध में मानी जाती है। वर्तमान जीवन ने लोगों को पगढ़ीला बना दिया है। आवागमन के क्षिप्रा गति के साधनों के कारण समाज घुमंतू बन रहा है। घुमंतू जातियों की भी कुछ संस्कृति होती है। क्यों कि घुमंतू स्वभाव छोड़ दें तो उनका जीवन ठहराव से भरा रहता है। घुमंतू स्वभाव के कारण संस्कृति शायद श्रेष्ठ नहीं होगी लेकिन होती अवश्य है। लेकिन वर्तमान तंत्रज्ञान के, और तेजी से विकास की तीव्र इच्छा के कारण समाज में कोई ठहराव की संभावनाएं नहीं रहतीं।
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विश्व गति करता है इसीलिये विश्व को जगत भी कहते हैं। गति ही जीवन है। गतिशून्यता मृत्यू है। अतः जीवन चलते रहने के लिए गति आवश्यक होती है। लेकिन जीवन की गति जब बहुत अधिक हो जाती है तब बड़ी मात्रा में समाज के दुर्बल घटक उस गति के साथ चल नहीं पाते। ऐसा होने से वे अन्यों से पिछड़ जाते हैं। दु:खी हो जाते हैं। लेकिन जीवन जब इष्ट गति से चलता है तब वह सबको सुखमय होता है। इष्ट गति से तात्पर्य उस गति से है जिस गति से समाज का अंतिम व्यक्ति भी साथ चल सके। इष्ट गति से कम या अधिक गति जब समाज जीवन को मिलती है तब समाज सुख से दूर जाता है। वर्तमान में जीवन को जो गति मिली है वह जीवन की इष्ट गति से बहुत ही अधिक है। इस बढ़ी हुई गति के कारण जीवन में किसी भी प्रकार का ठहराव नहीं आ पाता। ठहराव, विकास का विरोधी है ऐसी भावना व्याप्त हो गयी है। केवल ठहराव ही नहीं तो कम गति भी विकास के विरोध में मानी जाती है। वर्तमान जीवन ने लोगोंं को पगढ़ीला बना दिया है। आवागमन के क्षिप्रा गति के साधनों के कारण समाज घुमंतू बन रहा है। घुमंतू जातियों की भी कुछ संस्कृति होती है। क्यों कि घुमंतू स्वभाव छोड़ दें तो उनका जीवन ठहराव से भरा रहता है। घुमंतू स्वभाव के कारण संस्कृति शायद श्रेष्ठ नहीं होगी लेकिन होती अवश्य है। लेकिन वर्तमान तंत्रज्ञान के, और तेजी से विकास की तीव्र इच्छा के कारण समाज में कोई ठहराव की संभावनाएं नहीं रहतीं।
    
लेकिन जीवन जब तक इष्ट गति से नहीं चलता उसमें धर्म की भावना, संस्कृति पनप ही नहीं सकती। संस्कृति के लिए ठहराव आवश्यक होता है। लेकिन ठहराव से तो जीवन ही नष्ट हो जाएगा। अतः इष्ट गति वह गति है जिसमें धर्म तथा संस्कृति के पनपने के लिए वातावरण रहे। जब समाज के सारे लोग समान (इष्ट) गति से आगे बढ़ाते हैं तब वे एक सापेक्ष ठहराव की स्थिति को प्राप्त करते हैं। यह सापेक्ष ठहराव ही संस्कृति के विकास के लिए भूमि बनाता है। वर्तमान जीवन की गति विश्व की सभी समाजों की संस्कृतियों को नष्ट कर रही हैं। विश्व के सभी राष्ट्रों के सम्मुख संस्कृति की रक्षा की चुनौती निर्माण हो गयी है। यह गति जिस सामाजिक जीवन के अधार्मिक (अधार्मिक) प्रतिमान में हम जी रहे हैं उसका स्वाभाविक परिणाम है।
 
लेकिन जीवन जब तक इष्ट गति से नहीं चलता उसमें धर्म की भावना, संस्कृति पनप ही नहीं सकती। संस्कृति के लिए ठहराव आवश्यक होता है। लेकिन ठहराव से तो जीवन ही नष्ट हो जाएगा। अतः इष्ट गति वह गति है जिसमें धर्म तथा संस्कृति के पनपने के लिए वातावरण रहे। जब समाज के सारे लोग समान (इष्ट) गति से आगे बढ़ाते हैं तब वे एक सापेक्ष ठहराव की स्थिति को प्राप्त करते हैं। यह सापेक्ष ठहराव ही संस्कृति के विकास के लिए भूमि बनाता है। वर्तमान जीवन की गति विश्व की सभी समाजों की संस्कृतियों को नष्ट कर रही हैं। विश्व के सभी राष्ट्रों के सम्मुख संस्कृति की रक्षा की चुनौती निर्माण हो गयी है। यह गति जिस सामाजिक जीवन के अधार्मिक (अधार्मिक) प्रतिमान में हम जी रहे हैं उसका स्वाभाविक परिणाम है।
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4.  सन 642 तक इस्लामी सत्ता उपगणस्थान (वर्तमान अफगानिस्तान) को पादाक्रांत कर हिंदुकुश तक आ पहुँची। महाभारत का गांधार ही वर्तमान अफगानिस्तान है। काबुल, जाबुल, कंदाहार, गजनी आदि इस्लामी सत्ता ने जीत लिये। गजनी के हिन्दू शासकों ने अवरोध अवश्य किया फिर भी भारत की भूमि आक्रांत हुई। बडी संख्या में हिंदुओं का धर्मांतर होता रहा। विरोध करनेवालों का कत्ले-आम भी होता रहा। हिंदुओं की आबादी कम होती गई और इस कारण हिंदू प्रतिरोध भी नष्ट होता गया। भारत की धर्मसत्ता और राजसत्ता दोनों विस्तार की दृष्टि से निष्क्रीय रहे। भारत की भूमि घट गई।  
 
4.  सन 642 तक इस्लामी सत्ता उपगणस्थान (वर्तमान अफगानिस्तान) को पादाक्रांत कर हिंदुकुश तक आ पहुँची। महाभारत का गांधार ही वर्तमान अफगानिस्तान है। काबुल, जाबुल, कंदाहार, गजनी आदि इस्लामी सत्ता ने जीत लिये। गजनी के हिन्दू शासकों ने अवरोध अवश्य किया फिर भी भारत की भूमि आक्रांत हुई। बडी संख्या में हिंदुओं का धर्मांतर होता रहा। विरोध करनेवालों का कत्ले-आम भी होता रहा। हिंदुओं की आबादी कम होती गई और इस कारण हिंदू प्रतिरोध भी नष्ट होता गया। भारत की धर्मसत्ता और राजसत्ता दोनों विस्तार की दृष्टि से निष्क्रीय रहे। भारत की भूमि घट गई।  
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5. सिंध के पतन के इतिहास में यद्यपि बाप्पा रावल ने ईरान तक प्रत्याक्रमण किया<ref>मुस्लिम आक्रमण का हिंदू प्रतिरोध, डॉ शरद हेबाळकर, पृष्ठ 14-15 </ref> लेकिन इस का प्रभाव इस्लामी सत्ता पर अधिक समय तक नहीं रहा। सन 743 तक मुस्लिम सेनाएँ गुजरात, मालवा तक भारत के अंदर घुस गई थीं। बडे पैमाने पर हिंदुओं के कत्ले-आम और धर्मांतर होते रहे। ‘देवल स्मृति’ का निर्माण हुआ। धर्मांतरित लोगों को परावर्तित कर फिर से हिंदू बनाने का प्रावधान इस स्मृति में किया गया था। इस के आधार पर परावर्तन के कुछ क्षीण दौर भी चले होंगे। लेकिन यह दौर जो मूलत: हिंदू थे केवल उनके परावर्तन के लिये थे और बहुत ही कम संख्या में हुए । मूलत: मुस्लिम आक्रांताओं को हिंदू बनाकर हिंदू संस्कृति के विस्तार की दृष्टि से कोई विचार नहीं हुआ।   
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5. सिंध के पतन के इतिहास में यद्यपि बाप्पा रावल ने ईरान तक प्रत्याक्रमण किया<ref>मुस्लिम आक्रमण का हिंदू प्रतिरोध, डॉ शरद हेबाळकर, पृष्ठ 14-15 </ref> लेकिन इस का प्रभाव इस्लामी सत्ता पर अधिक समय तक नहीं रहा। सन 743 तक मुस्लिम सेनाएँ गुजरात, मालवा तक भारत के अंदर घुस गई थीं। बडे पैमाने पर हिंदुओं के कत्ले-आम और धर्मांतर होते रहे। ‘देवल स्मृति’ का निर्माण हुआ। धर्मांतरित लोगोंं को परावर्तित कर फिर से हिंदू बनाने का प्रावधान इस स्मृति में किया गया था। इस के आधार पर परावर्तन के कुछ क्षीण दौर भी चले होंगे। लेकिन यह दौर जो मूलत: हिंदू थे केवल उनके परावर्तन के लिये थे और बहुत ही कम संख्या में हुए । मूलत: मुस्लिम आक्रांताओं को हिंदू बनाकर हिंदू संस्कृति के विस्तार की दृष्टि से कोई विचार नहीं हुआ।   
    
जो धर्मांतरित हो गये हैं उन्हें हिन्दू बनाना तो दूर ही रहा, मूलत: जो अहिंदू हैं उन्हें हिंदू बनाने की कल्पना भी हमारे मन में नहीं आती थी। हिंदू धर्मांतरित होते रहे। मरते कटते रहे। हमारी धर्मसत्ता और राजसत्ता निष्क्रीय रही। 1947 को स्वाधीनता प्राप्ति तक अफगानिस्तान, सिंध, आधा पंजाब, आधा कश्मीर, आधा बंगाल यानी भारत का एक बडा हिस्सा मुस्लिम बहुल हो गया। राष्ट्र का हिस्सा नहीं रहा। इस इलाके में हिंदू अल्पसंख्य हुए, हिंदू असंगठित हुए, हिंदू दुर्बल हुए। परिणामस्वरूप यह हिस्सा भारत के भूगोल का हिस्सा नहीं रहा। इस भूमि पर रहनेवालों का धर्म और राज्य दोनों हिंदू नहीं रहे। भारत की धर्मसत्ता और भारत की राजसत्ता देखती रही।  
 
जो धर्मांतरित हो गये हैं उन्हें हिन्दू बनाना तो दूर ही रहा, मूलत: जो अहिंदू हैं उन्हें हिंदू बनाने की कल्पना भी हमारे मन में नहीं आती थी। हिंदू धर्मांतरित होते रहे। मरते कटते रहे। हमारी धर्मसत्ता और राजसत्ता निष्क्रीय रही। 1947 को स्वाधीनता प्राप्ति तक अफगानिस्तान, सिंध, आधा पंजाब, आधा कश्मीर, आधा बंगाल यानी भारत का एक बडा हिस्सा मुस्लिम बहुल हो गया। राष्ट्र का हिस्सा नहीं रहा। इस इलाके में हिंदू अल्पसंख्य हुए, हिंदू असंगठित हुए, हिंदू दुर्बल हुए। परिणामस्वरूप यह हिस्सा भारत के भूगोल का हिस्सा नहीं रहा। इस भूमि पर रहनेवालों का धर्म और राज्य दोनों हिंदू नहीं रहे। भारत की धर्मसत्ता और भारत की राजसत्ता देखती रही।  

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