Changes

Jump to navigation Jump to search
m
Text replacement - "लोगो" to "लोगों"
Line 2: Line 2:     
== भारत में वर्तमान वास्तव ==
 
== भारत में वर्तमान वास्तव ==
गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने यूरो-अमरीकी श्रोताओं के सामने कला की व्याख्या करने से इनकार कर दिया। शायद उन्हें लगा होगा कि वहाँ के लोग कला की धार्मिक (भारतीय) व्याख्या को समझ नहीं पाएँगे। भारत में भी उपस्थित अधार्मिक (अधार्मिक) वातावरण के कारण वर्तमान में कला को मनुष्य का उन्नयन करने का माध्यम कम ही समझा जाता है। ऐसा समझनेवाले लोगों की संख्या तो किसी भी काल में अल्प ही होती है। लेकिन भारत में जिस कृति से मानव का उन्नयन नहीं होता उसे कला के अग्रणी लोग कला नहीं मानते थे। भारत में सामान्य लोग समझते थे की वे सामान्य हैं, उन्हें उन्नयन के लिए कला क्षेत्र के अग्रणी लोगों का अनुसरण करने में अपना हित दिखता था।   
+
गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने यूरो-अमरीकी श्रोताओं के सामने कला की व्याख्या करने से इनकार कर दिया। शायद उन्हें लगा होगा कि वहाँ के लोग कला की धार्मिक (भारतीय) व्याख्या को समझ नहीं पाएँगे। भारत में भी उपस्थित अधार्मिक (अधार्मिक) वातावरण के कारण वर्तमान में कला को मनुष्य का उन्नयन करने का माध्यम कम ही समझा जाता है। ऐसा समझनेवाले लोगोंं की संख्या तो किसी भी काल में अल्प ही होती है। लेकिन भारत में जिस कृति से मानव का उन्नयन नहीं होता उसे कला के अग्रणी लोग कला नहीं मानते थे। भारत में सामान्य लोग समझते थे की वे सामान्य हैं, उन्हें उन्नयन के लिए कला क्षेत्र के अग्रणी लोगोंं का अनुसरण करने में अपना हित दिखता था।   
   −
किन्तु गुलामी के काल की १० पीढ़ियों की अंग्रेजी शिक्षा, स्वाधीनता के बाद की लगभग ४ पीढ़ियों की वर्तमान की यूरो अमरीका से प्रभावित शिक्षा ने और तथाकथित लोकतंत्र ने समाज के सर्वसामान्य व्यक्ति के मन में भी ‘वह और विद्वान समान हैं’ ऐसी मिथ्या धारणा को स्थिर कर दिया है। बहुमत तो सदा ही सर्वसामान्य लोगों का ही होता है, फिर वह लोकतंत्र हो या राजतंत्र। ऐसी स्थिति में बहुमत के प्रभाव में कला के क्षेत्र को वासनाओं तथा अश्लीलता के तथा हिंसा और क्रूरता जैसी हीन भावनाओं (Lower Instincts) के उद्दीपन का साधन ही मान लिया गया है। इन्द्रियजन्य सुख को ही एकमात्र सुख माननेवाले सामान्य जनों के उन्नयन के लिए कलाकृतियाँ बनती भी हैं तो उन्हें लोग अपवाद के रूप में ही पसंद करते हैं। अन्यथा ऐसी कलाकृतियाँ उपेक्षा की बलि चढ़ जातीं हैं।   
+
किन्तु गुलामी के काल की १० पीढ़ियों की अंग्रेजी शिक्षा, स्वाधीनता के बाद की लगभग ४ पीढ़ियों की वर्तमान की यूरो अमरीका से प्रभावित शिक्षा ने और तथाकथित लोकतंत्र ने समाज के सर्वसामान्य व्यक्ति के मन में भी ‘वह और विद्वान समान हैं’ ऐसी मिथ्या धारणा को स्थिर कर दिया है। बहुमत तो सदा ही सर्वसामान्य लोगोंं का ही होता है, फिर वह लोकतंत्र हो या राजतंत्र। ऐसी स्थिति में बहुमत के प्रभाव में कला के क्षेत्र को वासनाओं तथा अश्लीलता के तथा हिंसा और क्रूरता जैसी हीन भावनाओं (Lower Instincts) के उद्दीपन का साधन ही मान लिया गया है। इन्द्रियजन्य सुख को ही एकमात्र सुख माननेवाले सामान्य जनों के उन्नयन के लिए कलाकृतियाँ बनती भी हैं तो उन्हें लोग अपवाद के रूप में ही पसंद करते हैं। अन्यथा ऐसी कलाकृतियाँ उपेक्षा की बलि चढ़ जातीं हैं।   
    
कम्युनिस्ट या पूंजीवाद जैसे तथाकथित आधुनिक यूरो अमरीकी मजहबों ने कला के क्षेत्र में नीरी भौतिकवादिता के पीछे शक्ति खडी की है। ईसाईयत और इस्लाम इन मजहबों ने तो कलाओं को या तो वर्जित मान लिया है या कलाओं को इन्द्रियजन्य भौतिक सुखों का साधन मान लिया है। इन दोनों मजहबों में मानव की सर्वोच्च उपलब्धि हेवन या जन्नत मानी गयी है। उनकी हेवन या जन्नत की कल्पनाएँ नीरी भौतिकवादी कल्पनाएँ हैं। व्यक्ति केंद्री याने व्यक्ति के इन्द्रियजन्य सुख को या स्वार्थ को प्रधानता देनेवाली है।   
 
कम्युनिस्ट या पूंजीवाद जैसे तथाकथित आधुनिक यूरो अमरीकी मजहबों ने कला के क्षेत्र में नीरी भौतिकवादिता के पीछे शक्ति खडी की है। ईसाईयत और इस्लाम इन मजहबों ने तो कलाओं को या तो वर्जित मान लिया है या कलाओं को इन्द्रियजन्य भौतिक सुखों का साधन मान लिया है। इन दोनों मजहबों में मानव की सर्वोच्च उपलब्धि हेवन या जन्नत मानी गयी है। उनकी हेवन या जन्नत की कल्पनाएँ नीरी भौतिकवादी कल्पनाएँ हैं। व्यक्ति केंद्री याने व्यक्ति के इन्द्रियजन्य सुख को या स्वार्थ को प्रधानता देनेवाली है।   
Line 10: Line 10:  
भारतीय समाज ने मानव जीवन को धर्म का साधन माना है। मानव जीवन को मोक्ष की या परमपद प्राप्ति का स्वर्ण अवसर माना है। इसीलिये प्राचीन काल से ही भारत में १४ विद्याओं और ६४ कलाओं का विकास धर्माचरण करने के लिए शरीर यह एक महत्वपूर्ण साधन है। इस दृष्टि से और इस सीमा तक ही शरीर और इन्द्रियों के सुख का विचार कलाओं में किया जाता था। शरीर को मानव जीवन की हीन भावनाओं में लिप्त होने से बचाकर उस के आध्यात्मिक उन्नयन के लिए कलाओं का विकास हुआ है। ये विद्याएँ और कलाएं मंदिरों से जुडी हुई थीं। उनका आधार अध्यात्म ही हुआ करता था।   
 
भारतीय समाज ने मानव जीवन को धर्म का साधन माना है। मानव जीवन को मोक्ष की या परमपद प्राप्ति का स्वर्ण अवसर माना है। इसीलिये प्राचीन काल से ही भारत में १४ विद्याओं और ६४ कलाओं का विकास धर्माचरण करने के लिए शरीर यह एक महत्वपूर्ण साधन है। इस दृष्टि से और इस सीमा तक ही शरीर और इन्द्रियों के सुख का विचार कलाओं में किया जाता था। शरीर को मानव जीवन की हीन भावनाओं में लिप्त होने से बचाकर उस के आध्यात्मिक उन्नयन के लिए कलाओं का विकास हुआ है। ये विद्याएँ और कलाएं मंदिरों से जुडी हुई थीं। उनका आधार अध्यात्म ही हुआ करता था।   
   −
भारत में लज्जा को एक श्रेष्ठ अभिव्यक्ति माना गया था। वस्त्रों की या शरीर के माध्यम से हुई उन अभिव्यक्तियों को श्लीलता माना गया जिस के कारण देखनेवाला उद्दीपित नहीं होता। पति पत्नि के संबंधों में लज्जा का आवरण दूर होना स्वाभाविक ही माना गया था। लेकिन सार्वजनिक स्थानपर अल्पवस्त्र पहनकर या वस्त्र उतारकर लोगों की हीन भावनाओं को उद्दीपित करने के प्रयासों को निर्लज्जता ही माना गया था। लेकिन यूरो अमरीकी प्रभाव में भारत में भी अब लोग इन्द्रियों के स्तर पर ले जाने वाली अंगप्रदर्शन करने वाली कृतियों को कला कहने लग गए हैं।   
+
भारत में लज्जा को एक श्रेष्ठ अभिव्यक्ति माना गया था। वस्त्रों की या शरीर के माध्यम से हुई उन अभिव्यक्तियों को श्लीलता माना गया जिस के कारण देखनेवाला उद्दीपित नहीं होता। पति पत्नि के संबंधों में लज्जा का आवरण दूर होना स्वाभाविक ही माना गया था। लेकिन सार्वजनिक स्थानपर अल्पवस्त्र पहनकर या वस्त्र उतारकर लोगोंं की हीन भावनाओं को उद्दीपित करने के प्रयासों को निर्लज्जता ही माना गया था। लेकिन यूरो अमरीकी प्रभाव में भारत में भी अब लोग इन्द्रियों के स्तर पर ले जाने वाली अंगप्रदर्शन करने वाली कृतियों को कला कहने लग गए हैं।   
    
विकृत मानसिकता से बनाए गए चित्रों को भी कला की अभिव्यक्ति माना जाने लगा है। व्यक्ति-स्वातंत्र्य और अभिव्यक्ति स्वतन्त्रता के नाम पर भारत माता के, कला और विद्याओं की देवी सरस्वती के भी नग्न चित्र बनानेवाली विकृत मानसिकता का समर्थन किया जाता है। और ऐसी विकृति के विरोध को हिन्दुओं की असहिष्णुता कहा जा रहा है।<ref>जीवन का भारतीय प्रतिमान-खंड २, अध्याय ३७, लेखक - दिलीप केलकर</ref>   
 
विकृत मानसिकता से बनाए गए चित्रों को भी कला की अभिव्यक्ति माना जाने लगा है। व्यक्ति-स्वातंत्र्य और अभिव्यक्ति स्वतन्त्रता के नाम पर भारत माता के, कला और विद्याओं की देवी सरस्वती के भी नग्न चित्र बनानेवाली विकृत मानसिकता का समर्थन किया जाता है। और ऐसी विकृति के विरोध को हिन्दुओं की असहिष्णुता कहा जा रहा है।<ref>जीवन का भारतीय प्रतिमान-खंड २, अध्याय ३७, लेखक - दिलीप केलकर</ref>   
Line 22: Line 22:  
* अपने व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति का साधन है कला। कलावस्तु का प्रदर्शन यह कलाकार और कला का लक्ष्य नहीं होता। कलावस्तु की जानकारी तो विज्ञान और पुस्तकों का काम है। लेकिन विज्ञान की परिभाषाएँ और ग्रंथों के शब्द कलाकार की अपेक्षित भावनाओं को याने कलाकार के व्यक्तित्व को सही सही प्रकट नहीं कर सकते। अतः कलावस्तु के माध्यम से अभिव्यक्त होने के कलाकार के प्रयास को कला कहते हैं।  
 
* अपने व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति का साधन है कला। कलावस्तु का प्रदर्शन यह कलाकार और कला का लक्ष्य नहीं होता। कलावस्तु की जानकारी तो विज्ञान और पुस्तकों का काम है। लेकिन विज्ञान की परिभाषाएँ और ग्रंथों के शब्द कलाकार की अपेक्षित भावनाओं को याने कलाकार के व्यक्तित्व को सही सही प्रकट नहीं कर सकते। अतः कलावस्तु के माध्यम से अभिव्यक्त होने के कलाकार के प्रयास को कला कहते हैं।  
 
* कलाकार और कला के प्रेमी (रसग्रहण करनेवालों) में संवाद की भाषा।  
 
* कलाकार और कला के प्रेमी (रसग्रहण करनेवालों) में संवाद की भाषा।  
* लोगों की अभिरुचि या पसंद (वह हीन हो तब भी) को समझकर उसका लाभ उठाने का एक साधन। इसे बाजारू कला भी कहा जा सकता है।  
+
* लोगोंं की अभिरुचि या पसंद (वह हीन हो तब भी) को समझकर उसका लाभ उठाने का एक साधन। इसे बाजारू कला भी कहा जा सकता है।  
 
* कला मनोरंजन का एक साधन है।  
 
* कला मनोरंजन का एक साधन है।  
   Line 31: Line 31:     
== भारत में कलाओं का उद्गम और इतिहास ==
 
== भारत में कलाओं का उद्गम और इतिहास ==
भरत में कला का जन्म त्रेता युग के प्रारम्भ में हुआ ऐसी लोककथा प्रसिद्ध है। लोगों में सत्वगुण की कमी और रजोगुण में वृद्धि होने लगी। काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और मत्सर आदि विकार बढ़ने लगे। समाज जीवन अशांत होने लगा। ऐसी स्थिति में इंद्रादि देव ब्रह्मदेव के पास गए। वेदों को समझने की क्षमता अब तीन वर्णों के लोगों में भी कम हुई है। पूरे समाज के लिए हो ऐसा कोई वेद आप हमें दीजिये। वह वेद दृश्य और श्राव्य हो। निर्गुण निराकार की भक्ति अब समझ में नहीं आती। अतः सगुण साकार हो, शास्त्रों के सिद्धांत समझ नहीं रहे ऐसे में सहजता से हँसते खेलते हुए साध्य हो, मनोरंजन भी होता रहे ऐसा कोई वेद हमें दें। ब्रह्मदेव ने देवों की विनती मान ली। उसने ऋग्वेद से पाठ्य(संवाद)लिया, यजुर्वेद से अभिनय लिया, सामवेद से गीत लिया और अथर्ववेद से रस लिया। इसा प्रकार से चारों वेदों से सारतत्व लेकर ब्रह्मदेव ने “नाट्यवेद” निर्माण किया। यह वेद लोगों के आचार-विचार के अनुरूप, सर्वशास्त्रसंपन्न, सर्वशिल्पसमावेशक और गत इतिहास को बताता हुआ लोगों को आगे के लिए मार्गदर्शन करने वाला सिद्ध हुआ।  
+
भरत में कला का जन्म त्रेता युग के प्रारम्भ में हुआ ऐसी लोककथा प्रसिद्ध है। लोगोंं में सत्वगुण की कमी और रजोगुण में वृद्धि होने लगी। काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और मत्सर आदि विकार बढ़ने लगे। समाज जीवन अशांत होने लगा। ऐसी स्थिति में इंद्रादि देव ब्रह्मदेव के पास गए। वेदों को समझने की क्षमता अब तीन वर्णों के लोगोंं में भी कम हुई है। पूरे समाज के लिए हो ऐसा कोई वेद आप हमें दीजिये। वह वेद दृश्य और श्राव्य हो। निर्गुण निराकार की भक्ति अब समझ में नहीं आती। अतः सगुण साकार हो, शास्त्रों के सिद्धांत समझ नहीं रहे ऐसे में सहजता से हँसते खेलते हुए साध्य हो, मनोरंजन भी होता रहे ऐसा कोई वेद हमें दें। ब्रह्मदेव ने देवों की विनती मान ली। उसने ऋग्वेद से पाठ्य(संवाद)लिया, यजुर्वेद से अभिनय लिया, सामवेद से गीत लिया और अथर्ववेद से रस लिया। इसा प्रकार से चारों वेदों से सारतत्व लेकर ब्रह्मदेव ने “नाट्यवेद” निर्माण किया। यह वेद लोगोंं के आचार-विचार के अनुरूप, सर्वशास्त्रसंपन्न, सर्वशिल्पसमावेशक और गत इतिहास को बताता हुआ लोगोंं को आगे के लिए मार्गदर्शन करने वाला सिद्ध हुआ।  
   −
यह कथा भरत मुनि ने “नाट्यशास्त्र” की रचना में कही है। जब भरत मुनि ऐसा लिखते हैं तो उसका अर्थ है कि नाट्यशास्त्र तो समाज में पहले से ही ज्ञात था। उनसे पूर्व में भी भारत में नाटकों की परम्परा थी। नाटकों में संवाद, संगीत, अभिनय (नृत्य), नेपथ्य में शिल्पशास्त्र का, नाटक की विषयवस्तु में शास्त्रीय ज्ञान का समावेश होता है। इसी का अर्थ है कि जब नाट्यवेद की प्रस्तुति हुई तब ये सभी शास्त्र और कलाएं समाज व्यवहार में थीं। ऐसा रहा होगा तब ही इन सभी कलाओं का समावेश और समन्वय करना संभव हुआ होगा और लोगों द्वारा स्वीकृत हुआ होगा।  
+
यह कथा भरत मुनि ने “नाट्यशास्त्र” की रचना में कही है। जब भरत मुनि ऐसा लिखते हैं तो उसका अर्थ है कि नाट्यशास्त्र तो समाज में पहले से ही ज्ञात था। उनसे पूर्व में भी भारत में नाटकों की परम्परा थी। नाटकों में संवाद, संगीत, अभिनय (नृत्य), नेपथ्य में शिल्पशास्त्र का, नाटक की विषयवस्तु में शास्त्रीय ज्ञान का समावेश होता है। इसी का अर्थ है कि जब नाट्यवेद की प्रस्तुति हुई तब ये सभी शास्त्र और कलाएं समाज व्यवहार में थीं। ऐसा रहा होगा तब ही इन सभी कलाओं का समावेश और समन्वय करना संभव हुआ होगा और लोगोंं द्वारा स्वीकृत हुआ होगा।  
    
इस प्रकार से कला का हेतु ज्ञान को दृश्य और श्राव्य से अभिव्यक्त करना, शास्त्रों के सिद्धांत मनोरंजन के साथ सिखाना और ज्ञान का अधिकार समूचे समाज को प्राप्त हो ऐसा था।  
 
इस प्रकार से कला का हेतु ज्ञान को दृश्य और श्राव्य से अभिव्यक्त करना, शास्त्रों के सिद्धांत मनोरंजन के साथ सिखाना और ज्ञान का अधिकार समूचे समाज को प्राप्त हो ऐसा था।  
   −
त्रेता युग की देवता यज्ञ थी। अतः त्रेता युग में कलाएं यज्ञ के आश्रय से विकसित हुईं। महाकवि कालिदास नाटक की व्याखा करते हैं{{Citation needed}}: <blockquote>देवानामिदमानन्ति मुने: कान्तं क्रतु चाक्षुषम् ।</blockquote><blockquote>रुद्रेणेदमुप्राकृत व्यक्तिकरे स्वांगे विभक्तं द्विधा ।</blockquote><blockquote>त्रैगुण्योद्भवमंत लोकचरितं नानारसं दृश्यते ।</blockquote><blockquote>नाट्यं भिन्न रुचेर्जनस्य बहुधाऽप्येकं समाराधनम् ।।</blockquote><blockquote>अर्थ : यह देवों का नेत्रसुखकारक यज्ञ ही है ऐसा मुनिजन मानते हैं। आनंद का आस्वाद लेने के लिए  रुद्र स्वत: ही दो भागों में बंट गया। नाटक याने शिव और शक्ति का संगम ही है। नाटक में त्रिगुणों से भरे हुए लोगों का नानाविध चरित्र होता है। नाटक यह भिन्न स्वभाववाले लोगों का सबका एकसाथ मनोरंजन करनेवाला साधन है।</blockquote>इसका अर्थ यह है कि भरत मुनि की मान्यता के अनुसार ही कालिदास भी नाटक को “नेत्रसुखकारक सुन्दर यज्ञ” ही कहते हैं। कला शिव और शक्ति के तादात्म्य का साक्षात दर्शन होता है। शक्ति (प्रकृति) त्रिगुणात्मक होती है। अतः कला में त्रिगुणों की अभिव्यक्ति होती है। चारों वर्णों के लोगों का मनोरंजन होता है।
+
त्रेता युग की देवता यज्ञ थी। अतः त्रेता युग में कलाएं यज्ञ के आश्रय से विकसित हुईं। महाकवि कालिदास नाटक की व्याखा करते हैं{{Citation needed}}: <blockquote>देवानामिदमानन्ति मुने: कान्तं क्रतु चाक्षुषम् ।</blockquote><blockquote>रुद्रेणेदमुप्राकृत व्यक्तिकरे स्वांगे विभक्तं द्विधा ।</blockquote><blockquote>त्रैगुण्योद्भवमंत लोकचरितं नानारसं दृश्यते ।</blockquote><blockquote>नाट्यं भिन्न रुचेर्जनस्य बहुधाऽप्येकं समाराधनम् ।।</blockquote><blockquote>अर्थ : यह देवों का नेत्रसुखकारक यज्ञ ही है ऐसा मुनिजन मानते हैं। आनंद का आस्वाद लेने के लिए  रुद्र स्वत: ही दो भागों में बंट गया। नाटक याने शिव और शक्ति का संगम ही है। नाटक में त्रिगुणों से भरे हुए लोगोंं का नानाविध चरित्र होता है। नाटक यह भिन्न स्वभाववाले लोगोंं का सबका एकसाथ मनोरंजन करनेवाला साधन है।</blockquote>इसका अर्थ यह है कि भरत मुनि की मान्यता के अनुसार ही कालिदास भी नाटक को “नेत्रसुखकारक सुन्दर यज्ञ” ही कहते हैं। कला शिव और शक्ति के तादात्म्य का साक्षात दर्शन होता है। शक्ति (प्रकृति) त्रिगुणात्मक होती है। अतः कला में त्रिगुणों की अभिव्यक्ति होती है। चारों वर्णों के लोगोंं का मनोरंजन होता है।
 
    
 
    
 
द्वापर युग की देवता “अर्चा” (पूजा) थी। अतः द्वापर युग में कलाओं की अभिव्यक्ति में यज्ञ का स्थान मंदिरों ने लिया। कलाएँ मंदिरों की आश्रय से विकसित हुईं।
 
द्वापर युग की देवता “अर्चा” (पूजा) थी। अतः द्वापर युग में कलाओं की अभिव्यक्ति में यज्ञ का स्थान मंदिरों ने लिया। कलाएँ मंदिरों की आश्रय से विकसित हुईं।
Line 137: Line 137:     
== भारतीय कला में प्रतीकों का महत्व  ==
 
== भारतीय कला में प्रतीकों का महत्व  ==
अमूर्त को मूर्त के माध्यम से प्रस्तुत करने में प्रतीकों की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण है। यह प्रतीक जितना सटीक होगा उतना ही अमूर्त को समझना और समझाना सहज सरल हो जाता है। श्रीमद्भगवद्गीता में कहा है<ref>श्रीमद्भगवद्गीता 12.5</ref>:  <blockquote>क्लेशोऽधिकतरस्तेषामव्यक्तासक्तचेतसाम्।</blockquote><blockquote>अव्यक्ता हि गतिर्दुःखं देहवद्भिरवाप्यते।।12.5।।</blockquote><blockquote>अर्थ : जिनमें देहभाव है ऐसे लोगों के लिए अव्यक्त की, अमूर्त की, निर्गुण और निराकार की साधना बहुत क्लेषपूर्ण याने कठिन होती है।</blockquote>इस दृष्टि से धार्मिक (भारतीय) कलाओं में विशेषत: शिल्प कला में कलश, कमल, अखंडमंडलाकार आकृति, बिन्दु से लेकर लंबगोल और वृत्ततक विविध भौमितिक आकारों का प्रतीक के रूप में उपयोग किया जाता है। वास्तुशास्त्र में उपयोजित विभिन्न प्रतीकों का बहुत अच्छा विवेचन विनायक कुलकर्णी लिखित ‘भारतीय कला – उद्गम और विकास’ इस पुस्तक के पृष्ठ ३४ पर मिलता है।   
+
अमूर्त को मूर्त के माध्यम से प्रस्तुत करने में प्रतीकों की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण है। यह प्रतीक जितना सटीक होगा उतना ही अमूर्त को समझना और समझाना सहज सरल हो जाता है। श्रीमद्भगवद्गीता में कहा है<ref>श्रीमद्भगवद्गीता 12.5</ref>:  <blockquote>क्लेशोऽधिकतरस्तेषामव्यक्तासक्तचेतसाम्।</blockquote><blockquote>अव्यक्ता हि गतिर्दुःखं देहवद्भिरवाप्यते।।12.5।।</blockquote><blockquote>अर्थ : जिनमें देहभाव है ऐसे लोगोंं के लिए अव्यक्त की, अमूर्त की, निर्गुण और निराकार की साधना बहुत क्लेषपूर्ण याने कठिन होती है।</blockquote>इस दृष्टि से धार्मिक (भारतीय) कलाओं में विशेषत: शिल्प कला में कलश, कमल, अखंडमंडलाकार आकृति, बिन्दु से लेकर लंबगोल और वृत्ततक विविध भौमितिक आकारों का प्रतीक के रूप में उपयोग किया जाता है। वास्तुशास्त्र में उपयोजित विभिन्न प्रतीकों का बहुत अच्छा विवेचन विनायक कुलकर्णी लिखित ‘भारतीय कला – उद्गम और विकास’ इस पुस्तक के पृष्ठ ३४ पर मिलता है।   
    
== कला के अंतरण की और विकास की व्यवस्था ==
 
== कला के अंतरण की और विकास की व्यवस्था ==

Navigation menu