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ये सभी प्राणि आज जैसे दिखाई देते हैं उसी रूप में उन्हें परमात्मा ने प्रकृति के साथ संयोग कर उन का निर्माण किया। अमीबा बना तो जैसा आज है वैसा ही निर्माण हुआ और मानव बना तो आज जैसा है वैसा ही निर्माण किया गया।
 
ये सभी प्राणि आज जैसे दिखाई देते हैं उसी रूप में उन्हें परमात्मा ने प्रकृति के साथ संयोग कर उन का निर्माण किया। अमीबा बना तो जैसा आज है वैसा ही निर्माण हुआ और मानव बना तो आज जैसा है वैसा ही निर्माण किया गया।
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मानव भी निर्माण हुआ तो समाज के और यज्ञ के साथ निर्माण हुआ। श्रीमद्भगवद्गीता में अध्याय 3 में श्लोक 10 और 11 में भगवान कहते हैं<ref>श्रीमद्भगवद्गीता 3.10 and 3.11</ref> -<blockquote>सहयज्ञा: प्रजा: सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापति ।</blockquote><blockquote>अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोऽस्त्विष्टकामधुक् ॥ 10 ॥</blockquote>अर्थ : कल्प के आदि में ब्रह्माने यज्ञसहित प्रजाओं का निर्माण कर उनसे कहा कि तुम लोग इस यज्ञ (नि:स्वार्थ लोकहितरूपी कार्य सामान्य शब्दों में पारिवारिक व्यवहार) के द्वारा वृध्दिको प्राप्त होओ और यह यज्ञ तुम लोगों को इच्छित भोग प्रदान करनेवाला हो। यह है मानव और अन्य मानव यानी सामाजिक संबंधों की धार्मिक (धार्मिक) मान्यता। <blockquote>देवान्भावयतानेन ते देवा भावयन्तु व: ।</blockquote><blockquote>परस्परं भावयंत: श्रेय: परमवाप्स्यथ ॥ 11 ॥</blockquote>अर्थ : तुम लोग इस यज्ञ (सूर्य, पृथ्वी, वायू, जल, अग्नि आदि महाभूतों को जिन्हें देवता माना गया है उन की पुष्टि के लिये होम-हवन आदि) के द्वारा देवताओं को उन्नत करो और वे देवता तुम लोगों को उन्नत करें। इस प्रकार नि:स्वार्थ भाव से (सामान्य शब्दों में पारिवारिक व्यवहार) एक-दूसरे को उन्नत करते हुए तुम लोग परम कल्याण को प्राप्त हो जाओगे।
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मानव भी निर्माण हुआ तो समाज के और यज्ञ के साथ निर्माण हुआ। श्रीमद्भगवद्गीता में अध्याय 3 में श्लोक 10 और 11 में भगवान कहते हैं<ref>श्रीमद्भगवद्गीता 3.10 and 3.11</ref> -<blockquote>सहयज्ञा: प्रजा: सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापति ।</blockquote><blockquote>अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोऽस्त्विष्टकामधुक् ॥ 10 ॥</blockquote>अर्थ : कल्प के आदि में ब्रह्माने यज्ञसहित प्रजाओं का निर्माण कर उनसे कहा कि तुम लोग इस यज्ञ (नि:स्वार्थ लोकहितरूपी कार्य सामान्य शब्दों में पारिवारिक व्यवहार) के द्वारा वृध्दिको प्राप्त होओ और यह यज्ञ तुम लोगोंं को इच्छित भोग प्रदान करनेवाला हो। यह है मानव और अन्य मानव यानी सामाजिक संबंधों की धार्मिक (धार्मिक) मान्यता। <blockquote>देवान्भावयतानेन ते देवा भावयन्तु व: ।</blockquote><blockquote>परस्परं भावयंत: श्रेय: परमवाप्स्यथ ॥ 11 ॥</blockquote>अर्थ : तुम लोग इस यज्ञ (सूर्य, पृथ्वी, वायू, जल, अग्नि आदि महाभूतों को जिन्हें देवता माना गया है उन की पुष्टि के लिये होम-हवन आदि) के द्वारा देवताओं को उन्नत करो और वे देवता तुम लोगोंं को उन्नत करें। इस प्रकार नि:स्वार्थ भाव से (सामान्य शब्दों में पारिवारिक व्यवहार) एक-दूसरे को उन्नत करते हुए तुम लोग परम कल्याण को प्राप्त हो जाओगे।
    
कुछ अन्य बिंदु इस प्रकार हैं:
 
कुछ अन्य बिंदु इस प्रकार हैं:
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# यत् पिंडे तत् ब्रह्मांडे यह तत्व सृष्टि में चराचर को लागू है। धातु जैसी एक जड वस्तु के एक कण में वैसे ही गुण लक्षण पाए जाते हैं जैसे उसी धातु के बडे या विशाल धातुखंड में पाए जाते हैं। उसी तरह हर जीवंत इकाई में भी गुण लक्षणों में समानता होती है। मानव जैसा ही मानव समाज भी एक जीवंत इकाई है। इसलिये मानव की तरह ही समाज की भी आवश्यकताएँ, इच्छाएँ, सुख दुख भावनाएँ होतीं हैं। दुनिया के सभी अस्तित्व अष्टधा प्रकृति से बनें हैं। सत्व गुण (बुध्दि), रजो गुण (मन), तमोगुण (अहंकार) और पृथ्वी, आप, तेज, वायू और आकाश ये अष्टधा प्रकृति के आठ तत्व हैं। इन में से मन, बुध्दि और अहंकार का स्तर मानव में बहुत अधिक होता है। पशू, पक्षी, प्राणियों में भी सत्व, रज, तम ये तीनों गुण होते ही हैं। लेकिन उनका स्तर निम्न होता है। धातू, मिट्टी, जल जैसे पंचमहाभौतिक पदार्थों में भी सत्व गुण (बुध्दि), रजो गुण (मन), तमोगुण (अहंकार) ये तीनों गुण होते ही हैं। लेकिन अक्रिय होते हैं। या इन का स्तर अत्यंत निम्न होता है। डॉ. जगदीशचंद्र बोस ने वनस्पति और धातु पर प्रयोग कर उपर्युक्त प्राचीन काल से ज्ञात धार्मिक (धार्मिक) ज्ञान की पुष्टि ही की थी। इस की जानकारी हमने [[Concept of Creation of Universe (सृष्टि निर्माण की मान्यता)|इस]] अध्याय में प्राप्त की है ।  
 
# यत् पिंडे तत् ब्रह्मांडे यह तत्व सृष्टि में चराचर को लागू है। धातु जैसी एक जड वस्तु के एक कण में वैसे ही गुण लक्षण पाए जाते हैं जैसे उसी धातु के बडे या विशाल धातुखंड में पाए जाते हैं। उसी तरह हर जीवंत इकाई में भी गुण लक्षणों में समानता होती है। मानव जैसा ही मानव समाज भी एक जीवंत इकाई है। इसलिये मानव की तरह ही समाज की भी आवश्यकताएँ, इच्छाएँ, सुख दुख भावनाएँ होतीं हैं। दुनिया के सभी अस्तित्व अष्टधा प्रकृति से बनें हैं। सत्व गुण (बुध्दि), रजो गुण (मन), तमोगुण (अहंकार) और पृथ्वी, आप, तेज, वायू और आकाश ये अष्टधा प्रकृति के आठ तत्व हैं। इन में से मन, बुध्दि और अहंकार का स्तर मानव में बहुत अधिक होता है। पशू, पक्षी, प्राणियों में भी सत्व, रज, तम ये तीनों गुण होते ही हैं। लेकिन उनका स्तर निम्न होता है। धातू, मिट्टी, जल जैसे पंचमहाभौतिक पदार्थों में भी सत्व गुण (बुध्दि), रजो गुण (मन), तमोगुण (अहंकार) ये तीनों गुण होते ही हैं। लेकिन अक्रिय होते हैं। या इन का स्तर अत्यंत निम्न होता है। डॉ. जगदीशचंद्र बोस ने वनस्पति और धातु पर प्रयोग कर उपर्युक्त प्राचीन काल से ज्ञात धार्मिक (धार्मिक) ज्ञान की पुष्टि ही की थी। इस की जानकारी हमने [[Concept of Creation of Universe (सृष्टि निर्माण की मान्यता)|इस]] अध्याय में प्राप्त की है ।  
 
# जीवन से सम्बंधित विभिन्न विषय एक दूसरे से अन्गांगी भाव से जुड़े होते हैं । अंग को हानि अंगी की और अंगी की हानि अंग की हानि होती है । फिर भी अंग से अंगी का महत्व अधिक होता है । अंग नहीं होने पर भी अंगी नष्ट नहीं होता लेकिन अंगी के नष्ट होने पर अंग नष्ट होता ही है ।  क्यों कि अंग का अस्तित्व ही अन्गी पर निर्भर करता है ।  जीवन और जगत का निर्माण आत्मतत्व से होने के कारण आत्मतत्व का ज्ञान याने अध्यात्म यह परा, अपरा से लेकर सामाजिक शास्त्रों से लेकर विज्ञान तन्त्रज्ञान तक सभी विषयों का अंगी है । अन्य सभी विषय उसके अंग-उपांग हैं ।   
 
# जीवन से सम्बंधित विभिन्न विषय एक दूसरे से अन्गांगी भाव से जुड़े होते हैं । अंग को हानि अंगी की और अंगी की हानि अंग की हानि होती है । फिर भी अंग से अंगी का महत्व अधिक होता है । अंग नहीं होने पर भी अंगी नष्ट नहीं होता लेकिन अंगी के नष्ट होने पर अंग नष्ट होता ही है ।  क्यों कि अंग का अस्तित्व ही अन्गी पर निर्भर करता है ।  जीवन और जगत का निर्माण आत्मतत्व से होने के कारण आत्मतत्व का ज्ञान याने अध्यात्म यह परा, अपरा से लेकर सामाजिक शास्त्रों से लेकर विज्ञान तन्त्रज्ञान तक सभी विषयों का अंगी है । अन्य सभी विषय उसके अंग-उपांग हैं ।   
# जब भी पृथ्वी पर पाप बढ़ जाता है आसमानी संकट का सामना मानव जाति के उस समूह को करना पड़ता है ।  शायद बड़ी संख्या में लोगों को उनके बुरे कर्मों का फल देने की यह व्यवस्था है ।  
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# जब भी पृथ्वी पर पाप बढ़ जाता है आसमानी संकट का सामना मानव जाति के उस समूह को करना पड़ता है ।  शायद बड़ी संख्या में लोगोंं को उनके बुरे कर्मों का फल देने की यह व्यवस्था है ।  
 
# परमात्मा ने सृष्टि को संतुलन के साथ ही बनाया है ।  सृष्टि में संतुलन बनाए रखने की सामर्थ्य भी होती है ।  इस सामर्थ्य की एक मर्यादा होती है ।  इस मर्यादा को लाँघने से प्रकृति के प्रकोप होते हैं ।   
 
# परमात्मा ने सृष्टि को संतुलन के साथ ही बनाया है ।  सृष्टि में संतुलन बनाए रखने की सामर्थ्य भी होती है ।  इस सामर्थ्य की एक मर्यादा होती है ।  इस मर्यादा को लाँघने से प्रकृति के प्रकोप होते हैं ।   
 
# सृष्टि की व्यवस्था के नियमों को धर्म कहते हैं । इन धर्म के नियमों का अनुपालन करने से प्रकृति के उपभोग से सुख शान्ति मिलती है।  नियमों को तोड़ने की सामर्थ्य केवल मनुष्य को प्राप्त है । अन्य किसी प्राणी में सृष्टि के संतुलन को बिगाड़ने या प्रदूषित करने की सामर्थ्य नहीं है। अतः प्रकृति के संतुलन को बनाए रखने की जिम्मेदारी भी मानव जाति की ही है ।   
 
# सृष्टि की व्यवस्था के नियमों को धर्म कहते हैं । इन धर्म के नियमों का अनुपालन करने से प्रकृति के उपभोग से सुख शान्ति मिलती है।  नियमों को तोड़ने की सामर्थ्य केवल मनुष्य को प्राप्त है । अन्य किसी प्राणी में सृष्टि के संतुलन को बिगाड़ने या प्रदूषित करने की सामर्थ्य नहीं है। अतः प्रकृति के संतुलन को बनाए रखने की जिम्मेदारी भी मानव जाति की ही है ।   

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