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==== समस्यायें कैसी हैं ? ====
 
==== समस्यायें कैसी हैं ? ====
 
# बच्चों को बहुत छोटी आयु में चश्मा लग जाता है । यह इतना सामान्य हो गया है कि चश्मा लगना लज्जा की बात नहीं लगती । यह दुर्बलता धीरे धीरे फैल रही है ।
 
# बच्चों को बहुत छोटी आयु में चश्मा लग जाता है । यह इतना सामान्य हो गया है कि चश्मा लगना लज्जा की बात नहीं लगती । यह दुर्बलता धीरे धीरे फैल रही है ।
# छोटी आयु में ही दाँत दुर्बल हो जाते हैं । हम लोगों ने दाँत से सुपारी तोडने के किस्से सुने हैं । अब दाँत से छीलना, गन्ना चूसना या छुहारा तोडकर खाना असम्भव सा है । चॉकलेट खाने से मेरे दाँत सड गये हैं ऐसा कहने में बच्चों को संकोच नहीं लगता । युवा होने तक दाँत निकालकर नकली दाँत पहनने की नौबत आ जाती है ।
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# छोटी आयु में ही दाँत दुर्बल हो जाते हैं । हम लोगोंं ने दाँत से सुपारी तोडने के किस्से सुने हैं । अब दाँत से छीलना, गन्ना चूसना या छुहारा तोडकर खाना असम्भव सा है । चॉकलेट खाने से मेरे दाँत सड गये हैं ऐसा कहने में बच्चों को संकोच नहीं लगता । युवा होने तक दाँत निकालकर नकली दाँत पहनने की नौबत आ जाती है ।
 
# वजन कम होना, पाचनशक्ति दुर्बल होना, भूख कम होना, कम खाना आदि की मात्रा बढ गई है । पाचन की बीमारियाँ भी बढी है । इसके साथ किशोरवयीन लड़कियों की पतले रहने हेतु डायेटिंग करने और कम खाने का पागलपन बढ गया है ।
 
# वजन कम होना, पाचनशक्ति दुर्बल होना, भूख कम होना, कम खाना आदि की मात्रा बढ गई है । पाचन की बीमारियाँ भी बढी है । इसके साथ किशोरवयीन लड़कियों की पतले रहने हेतु डायेटिंग करने और कम खाने का पागलपन बढ गया है ।
 
# ग्यारह या बारह वर्ष के छात्र मुट्ठी में नरम वस्तु को भी दबा नहीं सकते, नारियल पटककर तोड नहीं सकते, पत्थर से चटनी पीस नहीं सकते, आटा गूँध नहीं सकते । उनके हाथों में इतना दम ही नहीं होता है ।  
 
# ग्यारह या बारह वर्ष के छात्र मुट्ठी में नरम वस्तु को भी दबा नहीं सकते, नारियल पटककर तोड नहीं सकते, पत्थर से चटनी पीस नहीं सकते, आटा गूँध नहीं सकते । उनके हाथों में इतना दम ही नहीं होता है ।  
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कारखाने में बने तैयार कपडे पहनने वाले लोग अनेक कारीगरों को बेरोजगार बनाने में निमित्त बनते हैं। किसी की रोजगारी छीन लेना, किसी की आर्थिक स्वतन्त्रता नष्ट करना हिंसा है। ऐसे वस्त्र पहनना हिंसा है। हिंसा कभी वैज्ञानिक नहीं हो सकती । इसलिये विशालकाय यंत्र, केन्द्रीकृत उत्पादन प्रक्रिया और विज्ञापन तथा परिवहन आधारित वितरणव्यवस्था से गुजर कर बने हुए वस्त्र पहनना अवैज्ञानिक है।   
 
कारखाने में बने तैयार कपडे पहनने वाले लोग अनेक कारीगरों को बेरोजगार बनाने में निमित्त बनते हैं। किसी की रोजगारी छीन लेना, किसी की आर्थिक स्वतन्त्रता नष्ट करना हिंसा है। ऐसे वस्त्र पहनना हिंसा है। हिंसा कभी वैज्ञानिक नहीं हो सकती । इसलिये विशालकाय यंत्र, केन्द्रीकृत उत्पादन प्रक्रिया और विज्ञापन तथा परिवहन आधारित वितरणव्यवस्था से गुजर कर बने हुए वस्त्र पहनना अवैज्ञानिक है।   
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जिस प्रकार सूती के स्थान पर सिन्थेटिक वस्त्र होते हैं उस प्रकार रेशमी और गरम कपड़ों के स्थान पर भी सिन्थेटिक कपड़े होते हैं। इनका प्रचलन इतना बढ़ गया है कि अधिकांश लोगों को इसकी कल्पना तक नहीं होती। ये कपड़े मोजे, स्वेटर, शाल आदि के रूप में उपयोग में लाये जाते हैं । इनका प्रयोग करना भी अवैज्ञानिक ही है।   
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जिस प्रकार सूती के स्थान पर सिन्थेटिक वस्त्र होते हैं उस प्रकार रेशमी और गरम कपड़ों के स्थान पर भी सिन्थेटिक कपड़े होते हैं। इनका प्रचलन इतना बढ़ गया है कि अधिकांश लोगोंं को इसकी कल्पना तक नहीं होती। ये कपड़े मोजे, स्वेटर, शाल आदि के रूप में उपयोग में लाये जाते हैं । इनका प्रयोग करना भी अवैज्ञानिक ही है।   
    
बालक-बालिका, किशोर-किशोरी, युवक-युवती जो तंग कपड़े पहनते हैं उनसे उनके स्वास्थ्य को भारी नुकसान पहुंचता है। ऐसे कपड़े पहनना अवैज्ञानिक है।   
 
बालक-बालिका, किशोर-किशोरी, युवक-युवती जो तंग कपड़े पहनते हैं उनसे उनके स्वास्थ्य को भारी नुकसान पहुंचता है। ऐसे कपड़े पहनना अवैज्ञानिक है।   
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==== दिनचर्या, ऋतुचर्या और जीवनचर्या में वैज्ञानिकता ====
 
==== दिनचर्या, ऋतुचर्या और जीवनचर्या में वैज्ञानिकता ====
 
# दिनचर्या में सोना, जागना, अध्ययन करना, काम करना, भोजन करना आदि के उचित समय का पालन करना मुख्य बात है। दिन के चौबीस घण्टों का समय विभिन्न क्रियाकलापों के लिये उचित या अनुचित होता है। उचित है तो वैज्ञानिक है, अनुचित है तो अवैज्ञानिक है।
 
# दिनचर्या में सोना, जागना, अध्ययन करना, काम करना, भोजन करना आदि के उचित समय का पालन करना मुख्य बात है। दिन के चौबीस घण्टों का समय विभिन्न क्रियाकलापों के लिये उचित या अनुचित होता है। उचित है तो वैज्ञानिक है, अनुचित है तो अवैज्ञानिक है।
# रात्रि में देर से सोना और सुबह देर से उठना शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक स्वास्थ्य के लिए अत्यंत घातक है अतः अवैज्ञानिक है। रात्रि में बारह बजे से पूर्व की एक घंटे की नींद बारह बजे के बाद की दो घण्टे की नींद के बराबर होती है । इसलिये जल्दी सोने से कम समय सोने पर भी अधिक नींद मिलती है । रात्रि में सोने के समय का सायंकाल के भोजन के समय के साथ सम्बन्ध है । सायंकाल को किया हुआ भोजन पच जाने के बाद ही सोना चाहिये । भोजन पचने से पहले सोना स्वास्थ्य के लिये अत्यन्त हानिकारक है । सायंकाल को सूर्यास्त से पूर्व भोजन करना चाहिये यह हमने भोजन की चर्चा करते समय देखा है। सायंकाल का भोजन हल्का ही होना चाहिये जिसे पचने में ढाई घण्टे से अधिक समय न लगे । सायंकाल के भोजन का समय ऋतु के अनुसार छः से लेकर साढ़े सात का होता है । अतः सोने का समय रात्रि में साढ़े आठ से दस बजे का है । दस से अधिक देरी कभी भी नहीं होनी चाहिये । हम देखते हैं कि हमारी काम करने की व्यवस्था और पद्धति, टीवी कार्यक्रमों का समय, भोजन का समय हमें रात्रि में उचित समय पर सोने नहीं देते । नींद की गुणवत्ता खराब होने का प्रारम्भ वहीं से हो जाता है। सोते समय दूध पीने की, प्राणायाम और ध्यान करने की या प्रार्थना करने की प्रवृत्ति नहीं रही तो शान्त और गहरी निद्रा नहीं आती । शान्त, गहरी, सुखकारक निद्रा नहीं हुई तो चेतातन्त्र का तनाव बढता है और मन की अशान्ति, रक्तचाप आदि पैदा होते हैं । इसलिये पहला नियम रात्रि में जल्दी सोने का है। रात्रि में जल्दी सोने से स्वाभाविक रूप में ही प्रातःकाल जल्दी उठा जा सकता है। स्वस्थ व्यक्ति को आयु के अनुसार छः से आठ घण्टे की नींद चाहिये । रात्रि में नौ बजे सोयें तो प्रातः तीन से पाँच बजे तक उठा जाता है। प्रातःकाल जगने का समय सूर्योदय से कम से कम चार घडी और अधिक से अधिक छः घडी होता है । एक घडी चौबीस मिनिट की होती है । अतः सूर्योदय से लगभग डेढ़ से सवा दो घण्टे पूर्व जगना चाहिये । सूर्योदय ऋतु अनुसार प्रातः साढ़े पाँच से साढ़े सात बजे तक होता है । अतः प्रातः जगने का समय साढ़े तीन से लेकर साढ़े पाँच बजे तक का होता है। जिन्हे आठ या छः घण्टे की अवधि चाहिये । उन्होंने इस प्रकार गिनती कर रात्रि में सोने का समय निश्चित करना चाहिये। किसी भी स्थिति में नींद पूरी होनी ही चाहिये । शरीर के सभी तन्त्रों को सुख और आराम नींद से ही मिलते हैं। रात्रि में जल्दी सोने और प्रातः जल्दी उठने से बल, बुद्धि और स्वास्थ्य तीनों बढते हैं ऐसा बुद्धिमान लोगों को शास्त्र से और सामान्य जन को परम्परा से ज्ञान मिलता है। प्रातःकाल सूर्योदय के पूर्व के डेढ घण्टे को ब्राह्ममुहूर्त कहते हैं। यह समय ध्यान, चिन्तन, कण्ठस्थीकरण आदि के लिये श्रेष्ठ समय है। इस समय सोते रहना अत्यन्त हानिकारक है । और कुछ भी न करो तो भी जागते रहो ऐसा सुधी जन आग्रहपूर्वक कहते हैं।  
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# रात्रि में देर से सोना और सुबह देर से उठना शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक स्वास्थ्य के लिए अत्यंत घातक है अतः अवैज्ञानिक है। रात्रि में बारह बजे से पूर्व की एक घंटे की नींद बारह बजे के बाद की दो घण्टे की नींद के बराबर होती है । इसलिये जल्दी सोने से कम समय सोने पर भी अधिक नींद मिलती है । रात्रि में सोने के समय का सायंकाल के भोजन के समय के साथ सम्बन्ध है । सायंकाल को किया हुआ भोजन पच जाने के बाद ही सोना चाहिये । भोजन पचने से पहले सोना स्वास्थ्य के लिये अत्यन्त हानिकारक है । सायंकाल को सूर्यास्त से पूर्व भोजन करना चाहिये यह हमने भोजन की चर्चा करते समय देखा है। सायंकाल का भोजन हल्का ही होना चाहिये जिसे पचने में ढाई घण्टे से अधिक समय न लगे । सायंकाल के भोजन का समय ऋतु के अनुसार छः से लेकर साढ़े सात का होता है । अतः सोने का समय रात्रि में साढ़े आठ से दस बजे का है । दस से अधिक देरी कभी भी नहीं होनी चाहिये । हम देखते हैं कि हमारी काम करने की व्यवस्था और पद्धति, टीवी कार्यक्रमों का समय, भोजन का समय हमें रात्रि में उचित समय पर सोने नहीं देते । नींद की गुणवत्ता खराब होने का प्रारम्भ वहीं से हो जाता है। सोते समय दूध पीने की, प्राणायाम और ध्यान करने की या प्रार्थना करने की प्रवृत्ति नहीं रही तो शान्त और गहरी निद्रा नहीं आती । शान्त, गहरी, सुखकारक निद्रा नहीं हुई तो चेतातन्त्र का तनाव बढता है और मन की अशान्ति, रक्तचाप आदि पैदा होते हैं । इसलिये पहला नियम रात्रि में जल्दी सोने का है। रात्रि में जल्दी सोने से स्वाभाविक रूप में ही प्रातःकाल जल्दी उठा जा सकता है। स्वस्थ व्यक्ति को आयु के अनुसार छः से आठ घण्टे की नींद चाहिये । रात्रि में नौ बजे सोयें तो प्रातः तीन से पाँच बजे तक उठा जाता है। प्रातःकाल जगने का समय सूर्योदय से कम से कम चार घडी और अधिक से अधिक छः घडी होता है । एक घडी चौबीस मिनिट की होती है । अतः सूर्योदय से लगभग डेढ़ से सवा दो घण्टे पूर्व जगना चाहिये । सूर्योदय ऋतु अनुसार प्रातः साढ़े पाँच से साढ़े सात बजे तक होता है । अतः प्रातः जगने का समय साढ़े तीन से लेकर साढ़े पाँच बजे तक का होता है। जिन्हे आठ या छः घण्टे की अवधि चाहिये । उन्होंने इस प्रकार गिनती कर रात्रि में सोने का समय निश्चित करना चाहिये। किसी भी स्थिति में नींद पूरी होनी ही चाहिये । शरीर के सभी तन्त्रों को सुख और आराम नींद से ही मिलते हैं। रात्रि में जल्दी सोने और प्रातः जल्दी उठने से बल, बुद्धि और स्वास्थ्य तीनों बढते हैं ऐसा बुद्धिमान लोगोंं को शास्त्र से और सामान्य जन को परम्परा से ज्ञान मिलता है। प्रातःकाल सूर्योदय के पूर्व के डेढ घण्टे को ब्राह्ममुहूर्त कहते हैं। यह समय ध्यान, चिन्तन, कण्ठस्थीकरण आदि के लिये श्रेष्ठ समय है। इस समय सोते रहना अत्यन्त हानिकारक है । और कुछ भी न करो तो भी जागते रहो ऐसा सुधी जन आग्रहपूर्वक कहते हैं।  
 
# सुबह और शाम छः से दस बजे तक का काल अध्ययन के लिये उत्तम होता है। आयु के अनुसार दिन में चार से सात घण्टे अध्ययन करना चाहिये, छ: से आठ घण्टे सोना चाहिये, तीन से पाँच घण्टे श्रम करना चाहिये, दो घण्टे विश्रान्ति लेना चाहिये, दो घण्टे मनोविनोद के लिये होने चाहिये, शेष अन्य कार्यो के लिये होने चाहिये । आयु, स्वास्थ्य, क्षमता, आवश्यकता आदि के अनुसार यह समय कुछ मात्रा में कमअधिक हो सकता है, ये सामान्य निर्देश भोजन के तरन्त बाद चार घडी तक शारीरिक और बौद्धिक श्रम नहीं करना चाहिये । इस दृष्टि से सुबह ग्यारह बजे शरू होकर शाम पाँच या छ: बजे तक चलने वाले विद्यालयों और कार्यालयों का समय अत्यन्त अवैज्ञानिक है। ये दोनों ऋतु के अनुसार प्रातः आठ या नौ को आरम्भ होकर साढ़े ग्यारह तक और दोपहर में तीन से छः बजे तक चलने चाहिये । अध्ययन के समय को तो आवासी विद्यालयों के अभाव में किसी भी प्रकार से उचित रूप से नहीं बिठा सकते । विद्यालय घर से इतना समीप हो कि दस मिनट में घर से विद्यालय जा आ सकें तभी उचित व्यवस्था हो सकती है । हमारी पारम्परिक व्यवस्था उचित दिनचर्या से युक्त ही होती थी । सम्पूर्ण समाज इसका पालन करता था इसलिये व्यवस्था बनी रहती थी । हमारी आज की व्यक्तिगत, पारिवारिक और सामाजिक दिनचर्या अत्यन्त अवैज्ञानिक बन गई है । इसी प्रकार क्रतुचर्या भी अस्तव्यस्त हो गई है । ऋतु के अनुसार आहारविहार का नियमन होता है । आहार का समय और आहार की सामग्री ऋतु के अनुसार बदलते हैं । फल, सब्जी, पेय पदार्थ, मिष्टान्नर, नमकीन आदि सब ऋतु के अनुसार भिन्न भिन्न होते हैं । उदाहरण के लिये वर्षा के समय में घी की और गरम, ठण्ड के दिनों में दूध की और गर्मी के दिनों में दही की तथा ठण्डी और खटाई युक्त मिठाइयाँ उचित रहती हैं । केले वर्षाक्तु में, आम गर्मियों में, सूखा मेवा ठण्ड के लिये अनुकूल है । पचने में भारी पदार्थ ठण्ड के दिनों में ही चलते हैं । कम खाना वर्षाऋतु  के लिये अनुकूल है । बैंगन, प्याज, पत्तों वाली सब्जी वर्षक्रतु में नहीं खानी चाहिये । बैंगन तो गर्मियों में भी नहीं खा सकते, केवल ठण्ड के दिनों के लिये अनुकूल हैं । गर्मी के दिनों में दोपहर में बना खाना चार घण्टे के बाद भी नहीं खाना चाहिये। वर्षक्रतु में ठण्डा भोजन नहीं करना चाहिये । बसन्त ऋतु में दहीं नहीं खाना चाहिये । ये तो केवल उदाहरण हैं । क्रतुचर्या आहारशास्त्र का अत्यन्त महत्वपूर्ण हिस्सा है । आहार के साथ साथ वस्त्र, खेल, काम आदि का भी ऋऋतुचर्या में समावेश होता है ।
 
# सुबह और शाम छः से दस बजे तक का काल अध्ययन के लिये उत्तम होता है। आयु के अनुसार दिन में चार से सात घण्टे अध्ययन करना चाहिये, छ: से आठ घण्टे सोना चाहिये, तीन से पाँच घण्टे श्रम करना चाहिये, दो घण्टे विश्रान्ति लेना चाहिये, दो घण्टे मनोविनोद के लिये होने चाहिये, शेष अन्य कार्यो के लिये होने चाहिये । आयु, स्वास्थ्य, क्षमता, आवश्यकता आदि के अनुसार यह समय कुछ मात्रा में कमअधिक हो सकता है, ये सामान्य निर्देश भोजन के तरन्त बाद चार घडी तक शारीरिक और बौद्धिक श्रम नहीं करना चाहिये । इस दृष्टि से सुबह ग्यारह बजे शरू होकर शाम पाँच या छ: बजे तक चलने वाले विद्यालयों और कार्यालयों का समय अत्यन्त अवैज्ञानिक है। ये दोनों ऋतु के अनुसार प्रातः आठ या नौ को आरम्भ होकर साढ़े ग्यारह तक और दोपहर में तीन से छः बजे तक चलने चाहिये । अध्ययन के समय को तो आवासी विद्यालयों के अभाव में किसी भी प्रकार से उचित रूप से नहीं बिठा सकते । विद्यालय घर से इतना समीप हो कि दस मिनट में घर से विद्यालय जा आ सकें तभी उचित व्यवस्था हो सकती है । हमारी पारम्परिक व्यवस्था उचित दिनचर्या से युक्त ही होती थी । सम्पूर्ण समाज इसका पालन करता था इसलिये व्यवस्था बनी रहती थी । हमारी आज की व्यक्तिगत, पारिवारिक और सामाजिक दिनचर्या अत्यन्त अवैज्ञानिक बन गई है । इसी प्रकार क्रतुचर्या भी अस्तव्यस्त हो गई है । ऋतु के अनुसार आहारविहार का नियमन होता है । आहार का समय और आहार की सामग्री ऋतु के अनुसार बदलते हैं । फल, सब्जी, पेय पदार्थ, मिष्टान्नर, नमकीन आदि सब ऋतु के अनुसार भिन्न भिन्न होते हैं । उदाहरण के लिये वर्षा के समय में घी की और गरम, ठण्ड के दिनों में दूध की और गर्मी के दिनों में दही की तथा ठण्डी और खटाई युक्त मिठाइयाँ उचित रहती हैं । केले वर्षाक्तु में, आम गर्मियों में, सूखा मेवा ठण्ड के लिये अनुकूल है । पचने में भारी पदार्थ ठण्ड के दिनों में ही चलते हैं । कम खाना वर्षाऋतु  के लिये अनुकूल है । बैंगन, प्याज, पत्तों वाली सब्जी वर्षक्रतु में नहीं खानी चाहिये । बैंगन तो गर्मियों में भी नहीं खा सकते, केवल ठण्ड के दिनों के लिये अनुकूल हैं । गर्मी के दिनों में दोपहर में बना खाना चार घण्टे के बाद भी नहीं खाना चाहिये। वर्षक्रतु में ठण्डा भोजन नहीं करना चाहिये । बसन्त ऋतु में दहीं नहीं खाना चाहिये । ये तो केवल उदाहरण हैं । क्रतुचर्या आहारशास्त्र का अत्यन्त महत्वपूर्ण हिस्सा है । आहार के साथ साथ वस्त्र, खेल, काम आदि का भी ऋऋतुचर्या में समावेश होता है ।
 
किसी भी ऋतु में दिन में एक बार तो पसीना निकल आये ऐसा काम, व्यायाम या खेल होना ही चाहिये । पसीने के साथ शरीर और मन का मैल निकल जाता है और वे शुद्ध होते हैं जिससे सुख, आराम और प्रसन्नता प्राप्त होते हैं ।
 
किसी भी ऋतु में दिन में एक बार तो पसीना निकल आये ऐसा काम, व्यायाम या खेल होना ही चाहिये । पसीने के साथ शरीर और मन का मैल निकल जाता है और वे शुद्ध होते हैं जिससे सुख, आराम और प्रसन्नता प्राप्त होते हैं ।
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# छोटी आयु से ही पढाई करना अर्थार्जन के लिये होता है, पढाई करना आनन्ददायक नहीं होता, अनिवार्य नहीं है तो कोई नहीं करेगा ऐसी बातें की जाती हैं। छोटी आयु से ही पढाई करना अर्थार्जन के लिये होता है, पढाई करना आनन्ददायक नहीं होता, अनिवार्य नहीं है तो कोई नहीं करेगा ऐसी बातें की जाती हैं।
 
# छोटी आयु से ही पढाई करना अर्थार्जन के लिये होता है, पढाई करना आनन्ददायक नहीं होता, अनिवार्य नहीं है तो कोई नहीं करेगा ऐसी बातें की जाती हैं। छोटी आयु से ही पढाई करना अर्थार्जन के लिये होता है, पढाई करना आनन्ददायक नहीं होता, अनिवार्य नहीं है तो कोई नहीं करेगा ऐसी बातें की जाती हैं।
 
# परीक्षा नहीं है तो क्यों पढ़ाई करनी चाहिये यह प्रश्न स्वाभाविक बन गया है। परीक्षा में पूछा नहीं परीक्षा नहीं है तो क्यों पढ़ाई करनी चाहिये यह प्रश्न स्वाभाविक बन गया है। परीक्षा में पूछा नहीं जानेवाला है तो पढने की कोई आवश्यकता नहीं । गीता, ज्ञानेश्वरी, नरसिंह महेता, तुलसीदास, कबीर, मीरा या सूरदास की रचनायें परीक्षा के सन्दर्भ में ही पठनीय हैं, परीक्षा के अनुरूप ही पढ़ाई की जाती हैं, भक्ति या तत्वज्ञान का कोई महत्व नहीं है, रुचि का तो कोई प्रश्न ही नहीं ऐसी शिक्षकों की भी मानसिकता होती हैं । दस अंकों की ज्ञानेश्वरी, पचास अंकों की गीता, एक प्रश्नपत्र के कालीदास या भवभूति होते हैं । परीक्षा के परे उनका कोई महत्व नहीं । परास्नातक कक्षा में प्रथम वर्ष में उत्तीर्ण विद्यार्थी भी आगे नौकरी के लिये अथवा बढोतरी के लिये अनिवार्य नहीं है तो पीएचडी क्यों करना ऐसा सोचता है।
 
# परीक्षा नहीं है तो क्यों पढ़ाई करनी चाहिये यह प्रश्न स्वाभाविक बन गया है। परीक्षा में पूछा नहीं परीक्षा नहीं है तो क्यों पढ़ाई करनी चाहिये यह प्रश्न स्वाभाविक बन गया है। परीक्षा में पूछा नहीं जानेवाला है तो पढने की कोई आवश्यकता नहीं । गीता, ज्ञानेश्वरी, नरसिंह महेता, तुलसीदास, कबीर, मीरा या सूरदास की रचनायें परीक्षा के सन्दर्भ में ही पठनीय हैं, परीक्षा के अनुरूप ही पढ़ाई की जाती हैं, भक्ति या तत्वज्ञान का कोई महत्व नहीं है, रुचि का तो कोई प्रश्न ही नहीं ऐसी शिक्षकों की भी मानसिकता होती हैं । दस अंकों की ज्ञानेश्वरी, पचास अंकों की गीता, एक प्रश्नपत्र के कालीदास या भवभूति होते हैं । परीक्षा के परे उनका कोई महत्व नहीं । परास्नातक कक्षा में प्रथम वर्ष में उत्तीर्ण विद्यार्थी भी आगे नौकरी के लिये अथवा बढोतरी के लिये अनिवार्य नहीं है तो पीएचडी क्यों करना ऐसा सोचता है।
# परीक्षा में अंक प्राप्त करने हेतु रटना, लिखना, याद करना ही अध्ययन है ऐसा विद्यार्थियों का मानस माता-पिता और शिक्षकों के कारण बनता है । वे ही उन्हें ऐसी बातें समझाते हैं । अध्ययन की अत्यन्त यांत्रिक पद्धति रुचि, कल्पनाशक्ति, सूृजनशीलता आदि का नाश कर देती है । इसके चलते विद्यार्थियों में ज्ञान, ज्ञान की पवित्रता, विद्या की देवी सरस्वती, विद्या का लक्ष्य आदि बातें कभी आती ही नहीं है । ज्ञान के आनन्द का अनुभव ही उन्हें होता नहीं है । शिक्षित लोगों के समाज के प्रति, देश के प्रति कोई कर्तव्य होते हैं ऐसा उन्हें सिखाया ही नहीं जाता । परिणाम स्वरूप अपने ही लाभ का, अपने ही अधिकार का मानस बनता जाता है ।
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# परीक्षा में अंक प्राप्त करने हेतु रटना, लिखना, याद करना ही अध्ययन है ऐसा विद्यार्थियों का मानस माता-पिता और शिक्षकों के कारण बनता है । वे ही उन्हें ऐसी बातें समझाते हैं । अध्ययन की अत्यन्त यांत्रिक पद्धति रुचि, कल्पनाशक्ति, सूृजनशीलता आदि का नाश कर देती है । इसके चलते विद्यार्थियों में ज्ञान, ज्ञान की पवित्रता, विद्या की देवी सरस्वती, विद्या का लक्ष्य आदि बातें कभी आती ही नहीं है । ज्ञान के आनन्द का अनुभव ही उन्हें होता नहीं है । शिक्षित लोगोंं के समाज के प्रति, देश के प्रति कोई कर्तव्य होते हैं ऐसा उन्हें सिखाया ही नहीं जाता । परिणाम स्वरूप अपने ही लाभ का, अपने ही अधिकार का मानस बनता जाता है ।
 
# बचपन से विद्यार्थियों को स्पर्धा में उतारा जाता है, दूसरों के साथ तुलना करना, दूसरों से आगे निकलना, दूसरों को पीछे रखना, आगे नहीं बढ़ने देना उनके मानस में दृढ़ होता जाता है । स्पर्धा के इस युग में टिकना है तो संघर्ष करना पड़ेगा, जीतना ही पड़ेगा यह बात मानस में दृढ़ होती जाती है । परिणामस्वरूप विद्यार्थी एकदूसरे को पढ़ाई में सहायता नहीं करते, अपनी सामग्री एकदूसरे को नहीं देते, तेजस्वी विद्यार्थी की कापी या पुस्तक गायब कर देते हैं ताकि वह पढ़ाई न कर सके, येन केन प्रकारेण परीक्षा में अंक प्राप्त करना आदि बातें उनके लिये सहज बन जाती हैं । स्पर्धा और संघर्ष विकास के लिये प्रेरक तत्व है ऐसा आधुनिक मनोविज्ञान कहने लगा है, स्पर्धा और पुरस्कार रखो तो पुरस्कार की लालच में लोग अच्छी बातें सीखेंगे ऐसा कहा जाता है परन्तु स्पर्धा में भाग लेने वालों का लक्ष्य पुरस्कार होता है, विषय के साथ कोई सम्बन्ध नहीं होता । उदाहरण के लिये गीता के श्लोकों की या देशभक्ति के गीतों की स्पर्धा होगी तो भाग लेने वालों को पुरस्कार दीखता है गीता या देशभक्ति नहीं । योग की, संगीत की, कला की प्रतियोगिताओं में महत्व संगीत, योग या कला का नहीं, पुरस्कार का होता है ।
 
# बचपन से विद्यार्थियों को स्पर्धा में उतारा जाता है, दूसरों के साथ तुलना करना, दूसरों से आगे निकलना, दूसरों को पीछे रखना, आगे नहीं बढ़ने देना उनके मानस में दृढ़ होता जाता है । स्पर्धा के इस युग में टिकना है तो संघर्ष करना पड़ेगा, जीतना ही पड़ेगा यह बात मानस में दृढ़ होती जाती है । परिणामस्वरूप विद्यार्थी एकदूसरे को पढ़ाई में सहायता नहीं करते, अपनी सामग्री एकदूसरे को नहीं देते, तेजस्वी विद्यार्थी की कापी या पुस्तक गायब कर देते हैं ताकि वह पढ़ाई न कर सके, येन केन प्रकारेण परीक्षा में अंक प्राप्त करना आदि बातें उनके लिये सहज बन जाती हैं । स्पर्धा और संघर्ष विकास के लिये प्रेरक तत्व है ऐसा आधुनिक मनोविज्ञान कहने लगा है, स्पर्धा और पुरस्कार रखो तो पुरस्कार की लालच में लोग अच्छी बातें सीखेंगे ऐसा कहा जाता है परन्तु स्पर्धा में भाग लेने वालों का लक्ष्य पुरस्कार होता है, विषय के साथ कोई सम्बन्ध नहीं होता । उदाहरण के लिये गीता के श्लोकों की या देशभक्ति के गीतों की स्पर्धा होगी तो भाग लेने वालों को पुरस्कार दीखता है गीता या देशभक्ति नहीं । योग की, संगीत की, कला की प्रतियोगिताओं में महत्व संगीत, योग या कला का नहीं, पुरस्कार का होता है ।
 
# कला के, योग या व्यायाम के या अध्ययन के प्रदर्शन में तामझाम और दिखावे का महत्व अधिक होता है, उसका शैक्षिक पक्ष कम महत्वपूर्ण होता है । एक विद्यालय के रंगमंच कार्यक्रम में भगवदूगीता के श्लोकों के गायन की प्रस्तुति की गई । रथ बहुत बढ़िया था, कृष्ण और अर्जुन की वेशभूषा बहुत सुन्दर थी, पीछे महाभारत के युद्ध के दृश्य वाला पर्दा था, मंच की प्रकाशन्यवस्था उत्तम थी परन्तु जैसे ही अर्जुन और कृष्णने श्लोक गाना आरम्भ किया तो ध्यान में आया कि न तो उच्चारण शुद्ध था न अनुष्टुप छंद का गायन सही था । यह किस बात का संकेत है ? हमें मूल विषय की नहीं, आसपास की बातों की ही परवाह अधिक है । आज के धारावाहिक और फिल्मों में प्रकाश, ध्वनि, रंगभूषा, फोटोग्राफी उत्तम होते हैं, परन्तु अभिनय अच्छा नहीं होता वैसा ही विद्यालयों में होता है । विद्यालयों से आरम्भ होकर सारी प्रजा का मानस ऐसा विपरीत बन जाता है । ज्ञान के क्षेत्र की यह दुर्गति है। समाज विपरीतज्ञानी और अनीतिमान बनता है ।
 
# कला के, योग या व्यायाम के या अध्ययन के प्रदर्शन में तामझाम और दिखावे का महत्व अधिक होता है, उसका शैक्षिक पक्ष कम महत्वपूर्ण होता है । एक विद्यालय के रंगमंच कार्यक्रम में भगवदूगीता के श्लोकों के गायन की प्रस्तुति की गई । रथ बहुत बढ़िया था, कृष्ण और अर्जुन की वेशभूषा बहुत सुन्दर थी, पीछे महाभारत के युद्ध के दृश्य वाला पर्दा था, मंच की प्रकाशन्यवस्था उत्तम थी परन्तु जैसे ही अर्जुन और कृष्णने श्लोक गाना आरम्भ किया तो ध्यान में आया कि न तो उच्चारण शुद्ध था न अनुष्टुप छंद का गायन सही था । यह किस बात का संकेत है ? हमें मूल विषय की नहीं, आसपास की बातों की ही परवाह अधिक है । आज के धारावाहिक और फिल्मों में प्रकाश, ध्वनि, रंगभूषा, फोटोग्राफी उत्तम होते हैं, परन्तु अभिनय अच्छा नहीं होता वैसा ही विद्यालयों में होता है । विद्यालयों से आरम्भ होकर सारी प्रजा का मानस ऐसा विपरीत बन जाता है । ज्ञान के क्षेत्र की यह दुर्गति है। समाज विपरीतज्ञानी और अनीतिमान बनता है ।
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# शिक्षक स्वयं परिश्रम, नीतिमत्ता, सदाचार आदि के मामले में प्रेरक बन सकते हैं किंबहुना वे ही प्रेरक हैं । उनमें होगा तो विद्यार्थियों में आयेगा ।
 
# शिक्षक स्वयं परिश्रम, नीतिमत्ता, सदाचार आदि के मामले में प्रेरक बन सकते हैं किंबहुना वे ही प्रेरक हैं । उनमें होगा तो विद्यार्थियों में आयेगा ।
 
# समाज की व्यवस्था में अर्थ का सन्दर्भ ज्ञान के सन्दर्भ में बदलना चाहिए। तभी शिक्षा की स्थिति बदल सकती है।
 
# समाज की व्यवस्था में अर्थ का सन्दर्भ ज्ञान के सन्दर्भ में बदलना चाहिए। तभी शिक्षा की स्थिति बदल सकती है।
मानसिकता में बदल किये बिना शिक्षा क्षेत्र समाज के लिए कल्याणकारी नहीं हो सकता अतः सभी सम्बंधित लोगों को मिलकर सही मानसिकता बनाने का प्रयास करना चाहिए।  
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मानसिकता में बदल किये बिना शिक्षा क्षेत्र समाज के लिए कल्याणकारी नहीं हो सकता अतः सभी सम्बंधित लोगोंं को मिलकर सही मानसिकता बनाने का प्रयास करना चाहिए।  
    
=== विद्यार्थियों का मन:सन्तुलन ===
 
=== विद्यार्थियों का मन:सन्तुलन ===
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# क्षुल्लक बातों को छोड़ने के लिये मूल्यवान बातों का  विकल्प सामने होना चाहिये । विद्यार्थियों को अलंकारों, कपड़ों और श्रृंगार का आकर्षण इसलिये जकड़ता है क्योंकि उनसे अधिक मूल्यवान बातों का कभी अनुभव नहीं हुआ है । जिनके पास हीरे मोती के अलंकार नहीं होते वे पीतल और एल्युमिनियम के अलंकारों को छोड़ने के लिये राजी नहीं होते ।  हीरेमोती के अलंकार मिलने के बाद उन्हें घटिया अलंकार छोड़ने के लिये समझाना नहीं पड़ता । उसी प्रकार से विद्यार्थियों को साहित्य, कला, संगीत, उदात्त चरित्र, प्रेरक घटनाओं के जगत में प्रवेश दिलाने से क्षुद्र जगत पीछे छूट जाता है, उसका आकर्षण अब खींच नहीं सकता । इस दृष्टि से संगीत, साहित्य, इतिहास आदि की शिक्षा का बहुत. महत्व है । हमने इनकी उपेक्षा कर बहुत खोया है ।
 
# क्षुल्लक बातों को छोड़ने के लिये मूल्यवान बातों का  विकल्प सामने होना चाहिये । विद्यार्थियों को अलंकारों, कपड़ों और श्रृंगार का आकर्षण इसलिये जकड़ता है क्योंकि उनसे अधिक मूल्यवान बातों का कभी अनुभव नहीं हुआ है । जिनके पास हीरे मोती के अलंकार नहीं होते वे पीतल और एल्युमिनियम के अलंकारों को छोड़ने के लिये राजी नहीं होते ।  हीरेमोती के अलंकार मिलने के बाद उन्हें घटिया अलंकार छोड़ने के लिये समझाना नहीं पड़ता । उसी प्रकार से विद्यार्थियों को साहित्य, कला, संगीत, उदात्त चरित्र, प्रेरक घटनाओं के जगत में प्रवेश दिलाने से क्षुद्र जगत पीछे छूट जाता है, उसका आकर्षण अब खींच नहीं सकता । इस दृष्टि से संगीत, साहित्य, इतिहास आदि की शिक्षा का बहुत. महत्व है । हमने इनकी उपेक्षा कर बहुत खोया है ।
 
# संगीत भी उत्तेजक हो सकता है यह समझकर सात्चिक संगीत का चयन करना चाहिये । तानपुरे की झंकार नित्य सुनाई दे ऐसी व्यवस्था हो सकती है । सभी गीतों के लिये धार्मिक शास्त्रीय संगीत के आधार  पर की गई स्वररचना, धार्मिक वाद्यों का प्रयोग और. बेसुरा नहीं होने की सावधानी भी आवश्यक है ।  
 
# संगीत भी उत्तेजक हो सकता है यह समझकर सात्चिक संगीत का चयन करना चाहिये । तानपुरे की झंकार नित्य सुनाई दे ऐसी व्यवस्था हो सकती है । सभी गीतों के लिये धार्मिक शास्त्रीय संगीत के आधार  पर की गई स्वररचना, धार्मिक वाद्यों का प्रयोग और. बेसुरा नहीं होने की सावधानी भी आवश्यक है ।  
# विद्यालय को पवित्र मानने का मानस बनाना चाहिए। विद्यालय में, कक्षाकक्ष में जूते पहनकर प्रवेश नहीं करना, अस्वच्छ स्थान पर नहीं बैठना, अपने आसपास अस्वछता नहीं होने देना, विद्यालय परिसर में शान्ति रखना, मौन का अभ्यास करना, धीरे बोलना, कम बोलना आदि बातों का. अप्रहपूर्वक पालन करना चाहिये । भडकीले रंगों के कपडे नहीं पहनना भी सहायक है ।रबर प्लास्टिक के जूते मस्तिष्क तक गर्मी पहुँचाते हैं, सिन्थेटिक वस्त्र शरीर में गर्मी पैदा करते हैं, चिन्ता और भय नसों और नाडियों को तंग कर देते हैं । इन सबसे मन अशान्त रहता है, उत्तेजित रहता है । गाय थोपे का दूध और घी, चन्दन का लेप, बालों में ब्राह्मी या आँवलें का तेल शरीर को ठण्डक पहुँचाता है, साथ ही मन को भी शान्त करता है । विद्यालय के बगीचे में दूर्व की घास, देशी महेंदी के पौधे, देशी गुलाब वातावरण को शीतल और शान्त बनाता है । सुन्दर, सात्तिक अनुभवों से ज्ञानेन्ट्रियों का सन्तर्पण करने से मन भी शान्ति और सुख का अनुभव करता है। विद्यार्थियों के साथ स्नेहपूर्ण वार्तालाप और स्निग्ध व्यवहार करने से, हम उनका भला चाहते हैं, हम उनके स्वजन हैं ऐसी अनुभूति करवाने से विद्यार्थियों का मन आश्वस्त और शान्त होता है । अच्छे लोगों की, अच्छी और भलाई की बातें सुनने से भी मन अच्छा होने लगता है ।
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# विद्यालय को पवित्र मानने का मानस बनाना चाहिए। विद्यालय में, कक्षाकक्ष में जूते पहनकर प्रवेश नहीं करना, अस्वच्छ स्थान पर नहीं बैठना, अपने आसपास अस्वछता नहीं होने देना, विद्यालय परिसर में शान्ति रखना, मौन का अभ्यास करना, धीरे बोलना, कम बोलना आदि बातों का. अप्रहपूर्वक पालन करना चाहिये । भडकीले रंगों के कपडे नहीं पहनना भी सहायक है ।रबर प्लास्टिक के जूते मस्तिष्क तक गर्मी पहुँचाते हैं, सिन्थेटिक वस्त्र शरीर में गर्मी पैदा करते हैं, चिन्ता और भय नसों और नाडियों को तंग कर देते हैं । इन सबसे मन अशान्त रहता है, उत्तेजित रहता है । गाय थोपे का दूध और घी, चन्दन का लेप, बालों में ब्राह्मी या आँवलें का तेल शरीर को ठण्डक पहुँचाता है, साथ ही मन को भी शान्त करता है । विद्यालय के बगीचे में दूर्व की घास, देशी महेंदी के पौधे, देशी गुलाब वातावरण को शीतल और शान्त बनाता है । सुन्दर, सात्तिक अनुभवों से ज्ञानेन्ट्रियों का सन्तर्पण करने से मन भी शान्ति और सुख का अनुभव करता है। विद्यार्थियों के साथ स्नेहपूर्ण वार्तालाप और स्निग्ध व्यवहार करने से, हम उनका भला चाहते हैं, हम उनके स्वजन हैं ऐसी अनुभूति करवाने से विद्यार्थियों का मन आश्वस्त और शान्त होता है । अच्छे लोगोंं की, अच्छी और भलाई की बातें सुनने से भी मन अच्छा होने लगता है ।
 
विद्यालय की यह दुनिया सुन्दर है, यहाँ लोग अच्छे . हैं, यहाँ अच्छा काम होता है ऐसी प्रतीति से मन शान्त होने लगता है ।
 
विद्यालय की यह दुनिया सुन्दर है, यहाँ लोग अच्छे . हैं, यहाँ अच्छा काम होता है ऐसी प्रतीति से मन शान्त होने लगता है ।
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# ॐकार्‌ उच्चारण, मन्त्रपाठ और ध्यान भी मन को एकाग्र करने में सहायक हैं ।
 
# ॐकार्‌ उच्चारण, मन्त्रपाठ और ध्यान भी मन को एकाग्र करने में सहायक हैं ।
 
# प्राणायाम भी बहुत सहायक है ।
 
# प्राणायाम भी बहुत सहायक है ।
# शरीर के अंगों की निर्स्थक और अनावश्यक हलचल रोकना चाहिये । उदाहरण के लिये लोगों को हाथ पैर हिलाते रहने की, कपडों पर हाथ फेरते रहने की, इधरउधर देखते रहने की, हाथ से कुछ करते रहने की, बगीचें में बैठे है तो घास तोडते रहने की, मोज पर या पैर पर हाथ से बजाते रहने की आदत होती है।  अनजाने में भी ये क्रियाएँ होती रहती है । इन्हें प्रयासपूर्वक रोकना चाहिये ।
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# शरीर के अंगों की निर्स्थक और अनावश्यक हलचल रोकना चाहिये । उदाहरण के लिये लोगोंं को हाथ पैर हिलाते रहने की, कपडों पर हाथ फेरते रहने की, इधरउधर देखते रहने की, हाथ से कुछ करते रहने की, बगीचें में बैठे है तो घास तोडते रहने की, मोज पर या पैर पर हाथ से बजाते रहने की आदत होती है।  अनजाने में भी ये क्रियाएँ होती रहती है । इन्हें प्रयासपूर्वक रोकना चाहिये ।
 
# वायु करने वाला पदार्थ खाने से, बहुत चलते, भागते रहने से, बहुत बोलने से मन चंचल हो जाता है। बोलते समय दूसरे का बोलना पूर्ण होने से पहले ही बोलना आरम्भ कर देते हैं । इसे अभ्यासपूर्वक रोकना चाहिये । बोलने से पूर्व ठीक से विचार कर लेने के बाद बोलना चाहिये । ठीक से योजना कर लेने के बाद काम आरम्भ करना चाहिये । परिस्थिति का ठीक से आकलन कर लेने के बाद कार्य का निश्चय कर लेना चाहिये । किसी भी बात का समग्र पहलुओं में विचार करने से आकलन ठीक से होता है । ये सब अभ्यास के विषय हैं । इन सबका अभ्यास हो सके ऐसा आयोजन विद्यालय में होना चाहिये ।  
 
# वायु करने वाला पदार्थ खाने से, बहुत चलते, भागते रहने से, बहुत बोलने से मन चंचल हो जाता है। बोलते समय दूसरे का बोलना पूर्ण होने से पहले ही बोलना आरम्भ कर देते हैं । इसे अभ्यासपूर्वक रोकना चाहिये । बोलने से पूर्व ठीक से विचार कर लेने के बाद बोलना चाहिये । ठीक से योजना कर लेने के बाद काम आरम्भ करना चाहिये । परिस्थिति का ठीक से आकलन कर लेने के बाद कार्य का निश्चय कर लेना चाहिये । किसी भी बात का समग्र पहलुओं में विचार करने से आकलन ठीक से होता है । ये सब अभ्यास के विषय हैं । इन सबका अभ्यास हो सके ऐसा आयोजन विद्यालय में होना चाहिये ।  
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# असफल होने पर भी निराश नहीं होना, हताश नहीं होना, पुनः प्रयास करने के लिये उद्यत होना ।आज इस बात का कुछ विपर्यास भी दीखता है । काम पूरा नहीं होने पर भी खेद नहीं, प्रश्न का उत्तर नहीं आने पर भी संकोच नहीं, वादा पूरा नहीं करने पर भी खेद नहीं, भरोसा तोड़ देने पर भी शरम नहीं, अयशस्वी होने पर भी आपत्ति नहीं... होता है तो करो नहीं तो छोड दो, आसानी से सफलता मिलती है तो ठीक नहीं तो छोड दो, जितना हुआ उतना ठीक है, जैसा हुआ वैसा किया, और कितना करें, दबाव मत बनाओ, टेन्शन मत लो, चिन्ता मत करो, परेशानी मत उठाओ, स्ट्रेस नहीं होने दो... ऐसी ही बातें होती हैं । मन को कोई कसाव नहीं मिलता, कोई व्यायाम ही नहीं मिलता । इससे उसकी शक्ति नहीं बढती । जीवन ही पोला पोला बन जाता है। इस दृष्टि से विद्यालय में मन के कसाव की तो चिन्ता करनी चाहिये । छोटे छोटे चुनौतीपूर्ण काम करने को बताना चाहिये । उलझना पडे ऐसे कार्य और ऐसी स्थितियाँ निर्माण करनी चाहिये । धैर्य रखे बिना रास्ता नहीं मिलेगा ऐसा अनुभव होना चाहिये | भाषण प्रतियोगिता में हार गये तो कुछ नहीं बिगडता ऐसा विचार कर तैयारी करने का श्रम ही नहीं करना  यह स्थिति ठीक नहीं है और बहुत अच्छी तैयारी की और प्रस्तुति भी अच्छी हुई परन्तु दूसरे किसी की प्रस्तुति अच्छी थी इसलिये प्रथम पारितोषिक उसे मिला इस स्थिति को भी अच्छे मन से स्वीकार करना चाहिये, साथ ही प्रस्तुति सही में सर्वश्रेष्ठ थी तो भी परीक्षक ने पक्षपातपूर्वक दूसरे को प्रथम क्रमांक दिया और में इसे स्वीकार करने के अलावा कुछ नहीं कर सकता इस स्थिति में भी धैर्य नहीं खोना, निराश नहीं होना, सन्तुलन नहीं खोना आवश्यक है । ये सब प्रयासपूर्वक सिखाने की बातें हैं क्योंकि ये सब बहुत मूल्यवान बातें हैं ।
 
# असफल होने पर भी निराश नहीं होना, हताश नहीं होना, पुनः प्रयास करने के लिये उद्यत होना ।आज इस बात का कुछ विपर्यास भी दीखता है । काम पूरा नहीं होने पर भी खेद नहीं, प्रश्न का उत्तर नहीं आने पर भी संकोच नहीं, वादा पूरा नहीं करने पर भी खेद नहीं, भरोसा तोड़ देने पर भी शरम नहीं, अयशस्वी होने पर भी आपत्ति नहीं... होता है तो करो नहीं तो छोड दो, आसानी से सफलता मिलती है तो ठीक नहीं तो छोड दो, जितना हुआ उतना ठीक है, जैसा हुआ वैसा किया, और कितना करें, दबाव मत बनाओ, टेन्शन मत लो, चिन्ता मत करो, परेशानी मत उठाओ, स्ट्रेस नहीं होने दो... ऐसी ही बातें होती हैं । मन को कोई कसाव नहीं मिलता, कोई व्यायाम ही नहीं मिलता । इससे उसकी शक्ति नहीं बढती । जीवन ही पोला पोला बन जाता है। इस दृष्टि से विद्यालय में मन के कसाव की तो चिन्ता करनी चाहिये । छोटे छोटे चुनौतीपूर्ण काम करने को बताना चाहिये । उलझना पडे ऐसे कार्य और ऐसी स्थितियाँ निर्माण करनी चाहिये । धैर्य रखे बिना रास्ता नहीं मिलेगा ऐसा अनुभव होना चाहिये | भाषण प्रतियोगिता में हार गये तो कुछ नहीं बिगडता ऐसा विचार कर तैयारी करने का श्रम ही नहीं करना  यह स्थिति ठीक नहीं है और बहुत अच्छी तैयारी की और प्रस्तुति भी अच्छी हुई परन्तु दूसरे किसी की प्रस्तुति अच्छी थी इसलिये प्रथम पारितोषिक उसे मिला इस स्थिति को भी अच्छे मन से स्वीकार करना चाहिये, साथ ही प्रस्तुति सही में सर्वश्रेष्ठ थी तो भी परीक्षक ने पक्षपातपूर्वक दूसरे को प्रथम क्रमांक दिया और में इसे स्वीकार करने के अलावा कुछ नहीं कर सकता इस स्थिति में भी धैर्य नहीं खोना, निराश नहीं होना, सन्तुलन नहीं खोना आवश्यक है । ये सब प्रयासपूर्वक सिखाने की बातें हैं क्योंकि ये सब बहुत मूल्यवान बातें हैं ।
 
# विभिन्न प्रकार की तपश्चर्या मन की शक्ति को बढाने के लिये बहुत उपयोगी है । तप के बिना सिद्धि नहीं मिलती । इस जगत का कल्याण भी तप करते हैं वे ही कर सकते हैं । तप का अर्थ है कष्ट सहना । परन्तु मजबूरी में कष्ट सहने को तप नहीं कहते । स्वेच्छा से जो कष्ट सहा जाता है वही तप है । अपने ही स्वार्थ के लिये जो कष्ट सहा जाता है वह तप नहीं है, दूसरों के लिये जो कष्ट उठाया जाता है वह तप है । रोते रोते, शिकायत करते करते जो कष्ट उठाया जाता है वह तप नहीं है, अच्छे मन से जो कष्ट उठाया जाता है वह तप है । आयु, अवस्था, परिस्थिति और आवश्यकता के अनुसार तप अनेक प्रकार के होते हैं। ऐसे विभिन्न प्रकार के तप करना सिखाना भी विद्यालयों में होना चाहिये । तप से ही मन की अशुद्धियाँ दूर होती हैं और शक्तियाँ निखरती हैं ।
 
# विभिन्न प्रकार की तपश्चर्या मन की शक्ति को बढाने के लिये बहुत उपयोगी है । तप के बिना सिद्धि नहीं मिलती । इस जगत का कल्याण भी तप करते हैं वे ही कर सकते हैं । तप का अर्थ है कष्ट सहना । परन्तु मजबूरी में कष्ट सहने को तप नहीं कहते । स्वेच्छा से जो कष्ट सहा जाता है वही तप है । अपने ही स्वार्थ के लिये जो कष्ट सहा जाता है वह तप नहीं है, दूसरों के लिये जो कष्ट उठाया जाता है वह तप है । रोते रोते, शिकायत करते करते जो कष्ट उठाया जाता है वह तप नहीं है, अच्छे मन से जो कष्ट उठाया जाता है वह तप है । आयु, अवस्था, परिस्थिति और आवश्यकता के अनुसार तप अनेक प्रकार के होते हैं। ऐसे विभिन्न प्रकार के तप करना सिखाना भी विद्यालयों में होना चाहिये । तप से ही मन की अशुद्धियाँ दूर होती हैं और शक्तियाँ निखरती हैं ।
# सत्संग और स्वाध्याय मन को प्रेरणा और प्रोत्साहन देते हैं और बल तथा धैर्य बढाते हैं । सत्संग का अर्थ है अच्छे लोगों का संग । जहाँ अच्छे लोग हैं, वे अच्छा काम कर रहे हैं वहाँ जाना और उनसे बात करना उन्हें जानना एक प्रकार है, ऐसे लोगों को विद्यालय में आमन्त्रित करना और उनकी सेवा करना दूसरा प्रकार है । विद्यार्थियों के लिये उनके शिक्षकों का संग भी सत्संग ही बनना चाहिये । स्वाध्याय का अर्थ है अच्छी पुस्तकें पढ़ना । हम विभिन्न विषयों की जानकारी देने वाली पुस्तकें तो पढ़ते हैं परन्तु मन को अच्छी सीख मिले ऐसी पुस्तकों का वाचन भी करना चाहिये ।
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# सत्संग और स्वाध्याय मन को प्रेरणा और प्रोत्साहन देते हैं और बल तथा धैर्य बढाते हैं । सत्संग का अर्थ है अच्छे लोगोंं का संग । जहाँ अच्छे लोग हैं, वे अच्छा काम कर रहे हैं वहाँ जाना और उनसे बात करना उन्हें जानना एक प्रकार है, ऐसे लोगोंं को विद्यालय में आमन्त्रित करना और उनकी सेवा करना दूसरा प्रकार है । विद्यार्थियों के लिये उनके शिक्षकों का संग भी सत्संग ही बनना चाहिये । स्वाध्याय का अर्थ है अच्छी पुस्तकें पढ़ना । हम विभिन्न विषयों की जानकारी देने वाली पुस्तकें तो पढ़ते हैं परन्तु मन को अच्छी सीख मिले ऐसी पुस्तकों का वाचन भी करना चाहिये ।
 
मन की शिक्षा को परीक्षा से मुक्त रखना चाहिये । परीक्षा आते ही सबकुछ कृत्रिम हो जाता है, कर्मकाण्ड हो जाता है । कर्मकाण्ड हुआ तो मन अच्छा नहीं होता, चालाक बन जाता है । यह तो अनर्थ है ।
 
मन की शिक्षा को परीक्षा से मुक्त रखना चाहिये । परीक्षा आते ही सबकुछ कृत्रिम हो जाता है, कर्मकाण्ड हो जाता है । कर्मकाण्ड हुआ तो मन अच्छा नहीं होता, चालाक बन जाता है । यह तो अनर्थ है ।
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==== गड़बड़ क्या है ? ====
 
==== गड़बड़ क्या है ? ====
अनेक लोगों की चर्चा सुनते है तो ध्यान में आता है कि कुछ इन बातों का प्रचलन है....
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अनेक लोगोंं की चर्चा सुनते है तो ध्यान में आता है कि कुछ इन बातों का प्रचलन है....
    
सरकारी तंत्र में पढ़ने की, निरीक्षण करने की, परीक्षा की, प्रशिक्षण की पूरी व्यवस्था होती है, पुस्तके, गणवेश आदि भी दिए जाते है, मध्याहन भोजन योजना भी चलती है परन्तु तंत्र  इतना व्यक्तिहीन है कि पढ़ने पढ़ाने का काम ही नहीं चलता है। तर्क यह दिया जाता है की सरकारी विद्यालयों में झुग्गी झोंपड़ियों के बच्चे ही आतें हैं अतः वहां पढाई अच्छी नहीं होती। परन्तु यह तर्क सही नहीं है। वे भी पढ़ सकते है, अच्छा पढ़ सकते है परन्तु पढाने की कोई परवाह नहीं करता। सरकारी प्राथमिक विद्यालयों के नहीं पढ़ाने के कारनामे  इतने अधिक प्रसिद्ध है कि उनका वर्णन करने की आवश्यकता ही नहीं।  
 
सरकारी तंत्र में पढ़ने की, निरीक्षण करने की, परीक्षा की, प्रशिक्षण की पूरी व्यवस्था होती है, पुस्तके, गणवेश आदि भी दिए जाते है, मध्याहन भोजन योजना भी चलती है परन्तु तंत्र  इतना व्यक्तिहीन है कि पढ़ने पढ़ाने का काम ही नहीं चलता है। तर्क यह दिया जाता है की सरकारी विद्यालयों में झुग्गी झोंपड़ियों के बच्चे ही आतें हैं अतः वहां पढाई अच्छी नहीं होती। परन्तु यह तर्क सही नहीं है। वे भी पढ़ सकते है, अच्छा पढ़ सकते है परन्तु पढाने की कोई परवाह नहीं करता। सरकारी प्राथमिक विद्यालयों के नहीं पढ़ाने के कारनामे  इतने अधिक प्रसिद्ध है कि उनका वर्णन करने की आवश्यकता ही नहीं।  
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विद्वज्जन ज्ञान की चर्चा करते हैं, शिक्षाशास्त्री अध्ययन अध्यापन पद्धतियों की चर्चा करते हैं, मातापिता अपनी सन्तान के सुनहरे भविष्य की चिन्ता करते हैं, सरकारी अधिकारी नियम, कानून, प्रशासन, कारवाई आदि की बातें करते हैं, राजकीय पक्ष के लोग शिक्षा की नई नई योजना बनाते हैं परन्तु इस तन्त्र से किसी भी प्रकार के सार्थक ज्ञान की अपेक्षा ही नहीं की जा सकती ।
 
विद्वज्जन ज्ञान की चर्चा करते हैं, शिक्षाशास्त्री अध्ययन अध्यापन पद्धतियों की चर्चा करते हैं, मातापिता अपनी सन्तान के सुनहरे भविष्य की चिन्ता करते हैं, सरकारी अधिकारी नियम, कानून, प्रशासन, कारवाई आदि की बातें करते हैं, राजकीय पक्ष के लोग शिक्षा की नई नई योजना बनाते हैं परन्तु इस तन्त्र से किसी भी प्रकार के सार्थक ज्ञान की अपेक्षा ही नहीं की जा सकती ।
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ज्ञान श्रेष्ठ है, पवित्र है, उद्धारक है, सब का कल्याण करने वाला है, तन्त्र आसुरी और निष्प्राण है, तन्त्र चलाने वाले लोगों की नीयत ठीक नहीं है । ऐसे में ज्ञान ने तन्त्र और व्यक्तियों का त्याग कर दिया है । वह अपनी श्रेष्ठता और पवित्रता को इन कनिष्ठ तत्वों के अधीन कैसे करेगा ? इसलिये उसने स्वयं ही इनका त्याग कर दिया है । भारत में जो अभी भी पवित्र और ज्ञान का आदर करनेवाले, ज्ञान की साधना करनेवाले लोग हैं उनका आश्रय ज्ञानने ढूँढ लिया है ।
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ज्ञान श्रेष्ठ है, पवित्र है, उद्धारक है, सब का कल्याण करने वाला है, तन्त्र आसुरी और निष्प्राण है, तन्त्र चलाने वाले लोगोंं की नीयत ठीक नहीं है । ऐसे में ज्ञान ने तन्त्र और व्यक्तियों का त्याग कर दिया है । वह अपनी श्रेष्ठता और पवित्रता को इन कनिष्ठ तत्वों के अधीन कैसे करेगा ? इसलिये उसने स्वयं ही इनका त्याग कर दिया है । भारत में जो अभी भी पवित्र और ज्ञान का आदर करनेवाले, ज्ञान की साधना करनेवाले लोग हैं उनका आश्रय ज्ञानने ढूँढ लिया है ।
    
परन्तु तन्त्र इन्हें पूछने वाला नहीं है क्योंकि उसे ज्ञान की चिन्ता ही नहीं है । ऐसे में क्या होगा ? ज्ञानी लोग स्वयं समाज की चिन्ता करेंगे कि तन्त्र को ज्ञानियों से परामर्श करने की अकल आयेगी ? अभी तो दो में से एक भी बात सम्भव नहीं लगती है । न तन्त्र को होश है न ज्ञानियों में करुणा ।
 
परन्तु तन्त्र इन्हें पूछने वाला नहीं है क्योंकि उसे ज्ञान की चिन्ता ही नहीं है । ऐसे में क्या होगा ? ज्ञानी लोग स्वयं समाज की चिन्ता करेंगे कि तन्त्र को ज्ञानियों से परामर्श करने की अकल आयेगी ? अभी तो दो में से एक भी बात सम्भव नहीं लगती है । न तन्त्र को होश है न ज्ञानियों में करुणा ।
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# हम अर्थवान को गुणवान और ज्ञानवान से अधिक आदर देते हैं । अर्थ की प्रतिष्ठा ही सर्वोपरि है । अर्थ की सत्ता ही सर्वोच्च है। राज्यसत्ता भी अर्थ के नियन्त्रण में आ गई है ।
 
# हम अर्थवान को गुणवान और ज्ञानवान से अधिक आदर देते हैं । अर्थ की प्रतिष्ठा ही सर्वोपरि है । अर्थ की सत्ता ही सर्वोच्च है। राज्यसत्ता भी अर्थ के नियन्त्रण में आ गई है ।
 
# अर्थपरायणता और कामपरायणता साथ साथ चलते हैं । अतः उपभोग ही सुख का पर्याय बन गया है । अधिक उपभोग करने में विकास और अधिक उपभोग हेतु अधिक साधन, अधिक अर्थ प्राप्त करने में सफलता तथा अधिक उपभोग और अधिक अर्थ को विकास का मापदण्ड हमारे लिये जीवनमान का और जीवन की सार्थकता का पर्याय बन गया है ।
 
# अर्थपरायणता और कामपरायणता साथ साथ चलते हैं । अतः उपभोग ही सुख का पर्याय बन गया है । अधिक उपभोग करने में विकास और अधिक उपभोग हेतु अधिक साधन, अधिक अर्थ प्राप्त करने में सफलता तथा अधिक उपभोग और अधिक अर्थ को विकास का मापदण्ड हमारे लिये जीवनमान का और जीवन की सार्थकता का पर्याय बन गया है ।
# अर्थ और काम दोनों साथ साथ चलते हैं और उपभोग परायणता हमारी सामान्य प्रवृत्ति बन गई है यह सत्य होने पर भी अर्थ और काम में अर्थ ही प्रमुख बन गया है । यह बुद्धिगम्य नहीं है, तार्किक नहीं है तो भी व्यवहार ऐसा ही दिखाई देता है। सारा आराम और सुख दाँव पर लगाकर मनुष्य पैसा कमाने में लगा है । व्यवसाय करने वाले का स्वास्थ्य खराब हो रहा है । अनेक प्रकार की बीमारियाँ लग गई हैं, आराम नहीं मिल रहा है, परिवार के लोगों के साथ मिलकर आनन्दुप्रमोद नहीं प्राप्त हो रहा है, बच्चों की और ध्यान देने का समय नहीं है, विचार करने की फुर्सत नहीं है तो भी लोग धन कमाने में लगे हैं । सुख के लिये धन नहीं, धन के लिये ही धन चाहिये ऐसी स्थिति बन गई है । इस कारण से उपभोग की दृष्टि भी बदल गई है। काम करने में सुख नहीं पैसा है और पैसा खर्च करके उपभोग करना है तब काम नहीं करना ऐसी श्रान्‍्त धारणा बन गई है। पैसा कमाने का सुख अलग प्रकार का है और पैसा खर्च करने का अलग प्रकार का । दोनों ही अस्वाभाविक हैं ।
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# अर्थ और काम दोनों साथ साथ चलते हैं और उपभोग परायणता हमारी सामान्य प्रवृत्ति बन गई है यह सत्य होने पर भी अर्थ और काम में अर्थ ही प्रमुख बन गया है । यह बुद्धिगम्य नहीं है, तार्किक नहीं है तो भी व्यवहार ऐसा ही दिखाई देता है। सारा आराम और सुख दाँव पर लगाकर मनुष्य पैसा कमाने में लगा है । व्यवसाय करने वाले का स्वास्थ्य खराब हो रहा है । अनेक प्रकार की बीमारियाँ लग गई हैं, आराम नहीं मिल रहा है, परिवार के लोगोंं के साथ मिलकर आनन्दुप्रमोद नहीं प्राप्त हो रहा है, बच्चों की और ध्यान देने का समय नहीं है, विचार करने की फुर्सत नहीं है तो भी लोग धन कमाने में लगे हैं । सुख के लिये धन नहीं, धन के लिये ही धन चाहिये ऐसी स्थिति बन गई है । इस कारण से उपभोग की दृष्टि भी बदल गई है। काम करने में सुख नहीं पैसा है और पैसा खर्च करके उपभोग करना है तब काम नहीं करना ऐसी श्रान्‍्त धारणा बन गई है। पैसा कमाने का सुख अलग प्रकार का है और पैसा खर्च करने का अलग प्रकार का । दोनों ही अस्वाभाविक हैं ।
 
# अर्थनिष्ठता के कारण सभी बातों की कीमत पैसे में ही आँकी जाती है । जो अधिक पैसे देकर खरीदा जाता है वह अच्छा है और कम पैसा देकर प्राप्त होता है वह हल्का है ऐसी समझ बनती है । जिसमें अधिक वेतन मिलता है वह काम अच्छा है और कम मिलता है वह हल्का ऐसा माना जाता है । अधिक कमाई होती है वह धन्धा अच्छा है और कम होती है वह अच्छा नहीं ऐसा प्रस्थापित होता है । जिससे अधिक वेतन वाली नौकरी मिलती है वह पढाई अच्छी है और कम वेतन वाली मिलती है वह अच्छी नहीं ऐसी मानसिकता बनती है । जिसमें अधिक वेतन वाली नौकरी मिलती है उस पढ़ाई का शुल्क ऊँचा होना और कम वेतन प्राप्त करवाने वाली पढ़ाई का शुल्क कम होना स्वाभाविक माना जाता है । पैसा प्राप्त करने हेतु ईमान, स्वमान, स्वतन्त्रता, स्वजन, स्वधर्म, संस्कार का त्याग करने में कोई हिचकिचाहट नहीं लगती । धनप्राप्ति के लिये देश छोड़ना और विदेश की सेवा करना, विदेश में बस जाना बुरा काम है ऐसा नहीं लगता । कितना भी शिक्षित हो तो भी पैसा नहीं कमाया तो उसकी शिक्षा का कोई मूल्य नहीं ऐसा लगता है । पैसा लेने वाला पैसा देनेवाले की ख़ुशामद करेगा यही स्वाभाविक है ।
 
# अर्थनिष्ठता के कारण सभी बातों की कीमत पैसे में ही आँकी जाती है । जो अधिक पैसे देकर खरीदा जाता है वह अच्छा है और कम पैसा देकर प्राप्त होता है वह हल्का है ऐसी समझ बनती है । जिसमें अधिक वेतन मिलता है वह काम अच्छा है और कम मिलता है वह हल्का ऐसा माना जाता है । अधिक कमाई होती है वह धन्धा अच्छा है और कम होती है वह अच्छा नहीं ऐसा प्रस्थापित होता है । जिससे अधिक वेतन वाली नौकरी मिलती है वह पढाई अच्छी है और कम वेतन वाली मिलती है वह अच्छी नहीं ऐसी मानसिकता बनती है । जिसमें अधिक वेतन वाली नौकरी मिलती है उस पढ़ाई का शुल्क ऊँचा होना और कम वेतन प्राप्त करवाने वाली पढ़ाई का शुल्क कम होना स्वाभाविक माना जाता है । पैसा प्राप्त करने हेतु ईमान, स्वमान, स्वतन्त्रता, स्वजन, स्वधर्म, संस्कार का त्याग करने में कोई हिचकिचाहट नहीं लगती । धनप्राप्ति के लिये देश छोड़ना और विदेश की सेवा करना, विदेश में बस जाना बुरा काम है ऐसा नहीं लगता । कितना भी शिक्षित हो तो भी पैसा नहीं कमाया तो उसकी शिक्षा का कोई मूल्य नहीं ऐसा लगता है । पैसा लेने वाला पैसा देनेवाले की ख़ुशामद करेगा यही स्वाभाविक है ।
 
शिक्षा के क्षेत्र में इसके अनर्थ विविध स्वरूपों में दिखाई देते हैं। जिस विद्यालय की फीस अधिक है, जिसका भवन भव्य है, सुविधायें अधिक हैं वह विद्यालय अच्छा माना जाता है। डॉक्टर, इन्जिनियर प्रबन्धन, संगणक आदि विषयों की पढाई अच्छी मानी जाती है । साहित्य, समाजशास्त्र, नीति शास्त्र आदि की पढाई की उपेक्षा होती है । परीक्षा के लिये ही पढ़ाई की जाती है, पुरस्कार प्राप्त करने के लिये ही कार्यक्रमों का आयोजन होता है । सेवाकार्य भी पुरस्कार की अपेक्षा से होता है। नैतिक शिक्षा भी परीक्षा का विषय है । विद्यालय और विद्यार्थी के सम्बन्ध व्यापारी और ग्राहक के हैं, पैसे के बदले में पदवी के रूप में विद्या बेची जाती है। इस व्यवस्था में शिक्षक सेल्समेन है जिसे उसके काम का वेतन मिलता है । शिक्षा सर्वव्यापी बाजारतन्त्र का एक हिस्सा है । वह एक बडा उद्योग है जिसका आश्रय करके पुस्तकों ; लेखन सामग्री, शैक्षिक साधनसामग्री, गणवेश, जूते, नाश्ते के डिब्बे, बस्ते आदि के व्यवसाय चलते हैं।
 
शिक्षा के क्षेत्र में इसके अनर्थ विविध स्वरूपों में दिखाई देते हैं। जिस विद्यालय की फीस अधिक है, जिसका भवन भव्य है, सुविधायें अधिक हैं वह विद्यालय अच्छा माना जाता है। डॉक्टर, इन्जिनियर प्रबन्धन, संगणक आदि विषयों की पढाई अच्छी मानी जाती है । साहित्य, समाजशास्त्र, नीति शास्त्र आदि की पढाई की उपेक्षा होती है । परीक्षा के लिये ही पढ़ाई की जाती है, पुरस्कार प्राप्त करने के लिये ही कार्यक्रमों का आयोजन होता है । सेवाकार्य भी पुरस्कार की अपेक्षा से होता है। नैतिक शिक्षा भी परीक्षा का विषय है । विद्यालय और विद्यार्थी के सम्बन्ध व्यापारी और ग्राहक के हैं, पैसे के बदले में पदवी के रूप में विद्या बेची जाती है। इस व्यवस्था में शिक्षक सेल्समेन है जिसे उसके काम का वेतन मिलता है । शिक्षा सर्वव्यापी बाजारतन्त्र का एक हिस्सा है । वह एक बडा उद्योग है जिसका आश्रय करके पुस्तकों ; लेखन सामग्री, शैक्षिक साधनसामग्री, गणवेश, जूते, नाश्ते के डिब्बे, बस्ते आदि के व्यवसाय चलते हैं।
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छोटे से लेकर बडे उपाय इस प्रकार हो सकते हैं.....
 
छोटे से लेकर बडे उपाय इस प्रकार हो सकते हैं.....
# विद्यार्थियों का बस्ता बहुत कम करना चाहिये कम से कम सामग्री से अच्छी से अच्छी पढाई किस प्रकार हो सकती है इसके प्रयोग करने चाहिये और उचित आयु में विद्यार्थियों को भी प्रयोग करने में सहभागी बनाना चाहिये । उदाहरण के लिये रेत में ऊँगली से 'क' लिखा जाता है, भूमि पर खडिया से 'क' लिखा जाता है, पाटी पर पेन से 'क' लिखा जाता है, कागज पर पेंसिल से 'क' लिखा जाता है और टैब पर भी 'क' लिखा जाता है । इसमें आर्थिक और शैक्षिक दोनों दृष्टि से रेत पर ऊँगली से लिखा जानेवाला 'क' सर्वश्रेष्ठ है यह कोई भी बुद्धिमान व्यक्ति कहेगा । क्या विद्यालय इस पद्धति को अपना सकेंगे ? खर्च बहुत ही कम हो जायेगा । हाँ, कम्प्यूटर बेचने वाली कम्पनियाँ इसके विस्द्ध लोगों को भडकाने का और शासन के शिक्षा विभाग को 'पटाने' का अभियान अवश्य छेडेंगी ।  
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# विद्यार्थियों का बस्ता बहुत कम करना चाहिये कम से कम सामग्री से अच्छी से अच्छी पढाई किस प्रकार हो सकती है इसके प्रयोग करने चाहिये और उचित आयु में विद्यार्थियों को भी प्रयोग करने में सहभागी बनाना चाहिये । उदाहरण के लिये रेत में ऊँगली से 'क' लिखा जाता है, भूमि पर खडिया से 'क' लिखा जाता है, पाटी पर पेन से 'क' लिखा जाता है, कागज पर पेंसिल से 'क' लिखा जाता है और टैब पर भी 'क' लिखा जाता है । इसमें आर्थिक और शैक्षिक दोनों दृष्टि से रेत पर ऊँगली से लिखा जानेवाला 'क' सर्वश्रेष्ठ है यह कोई भी बुद्धिमान व्यक्ति कहेगा । क्या विद्यालय इस पद्धति को अपना सकेंगे ? खर्च बहुत ही कम हो जायेगा । हाँ, कम्प्यूटर बेचने वाली कम्पनियाँ इसके विस्द्ध लोगोंं को भडकाने का और शासन के शिक्षा विभाग को 'पटाने' का अभियान अवश्य छेडेंगी ।  
 
# शैक्षिक सामग्री का कम से कम व्यय हो इसका हिसाब प्रत्येक छात्र को करना ही होगा । एक पेंसिल कितने दिन चलती है, एक कंपास कितने दिन अच्छी स्थिति में रहती है, जूते मोजे, गणवेश, बस्ता, पुस्तकें कितने अधिक दिन सुस्थिति में रहते हैं इसका हिसाब रखना सिखाना चाहिये । पुस्तकों का एक संच दो या तीन वर्षों तक चलना चाहये ऐसा मानक भी विद्यालय बना सकते हैं ।  
 
# शैक्षिक सामग्री का कम से कम व्यय हो इसका हिसाब प्रत्येक छात्र को करना ही होगा । एक पेंसिल कितने दिन चलती है, एक कंपास कितने दिन अच्छी स्थिति में रहती है, जूते मोजे, गणवेश, बस्ता, पुस्तकें कितने अधिक दिन सुस्थिति में रहते हैं इसका हिसाब रखना सिखाना चाहिये । पुस्तकों का एक संच दो या तीन वर्षों तक चलना चाहये ऐसा मानक भी विद्यालय बना सकते हैं ।  
 
# कागज का कम से कम उपयोग करना, पीठकोरे कागजों की कापी बनाना, फटे कागजों का पुनरुपयोग करना आदि वस्तुओं के उपयोग, पुनरुपयोग करने की और दुरुपयोग को टालने की व्यावहारिक शिक्षा देनी चाहिये ।
 
# कागज का कम से कम उपयोग करना, पीठकोरे कागजों की कापी बनाना, फटे कागजों का पुनरुपयोग करना आदि वस्तुओं के उपयोग, पुनरुपयोग करने की और दुरुपयोग को टालने की व्यावहारिक शिक्षा देनी चाहिये ।
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# बडी आयु में अब यह सब पाठ्यक्रम का हिस्सा बनना चाहिये । देश गरीब क्यों है, गरीब है कि गरीब कहा जाता है, देशों को गरीब और अमीर मानने के मापदृण्ड कौन से हैं, ये किसने बनाये हैं, ये किस आधार पर नने हैं, क्या हमें ये मापदण्ड मान्य हैं, आदि विषयों की चर्चा केवल अर्थशास्त्र के विद्यार्थी ही करें यह पर्याप्त नहीं है। यह सबकी चिन्ता का विषय है ।
 
# बडी आयु में अब यह सब पाठ्यक्रम का हिस्सा बनना चाहिये । देश गरीब क्यों है, गरीब है कि गरीब कहा जाता है, देशों को गरीब और अमीर मानने के मापदृण्ड कौन से हैं, ये किसने बनाये हैं, ये किस आधार पर नने हैं, क्या हमें ये मापदण्ड मान्य हैं, आदि विषयों की चर्चा केवल अर्थशास्त्र के विद्यार्थी ही करें यह पर्याप्त नहीं है। यह सबकी चिन्ता का विषय है ।
 
# देश की समृद्धि के आधार कौन से होते हैं इसका विचार करने पर तीन बातें ध्यान में आती हैं । एक है प्रकृति सम्पदा, दूसरी है मनुष्य की बुद्धि और तीसरी है मनुष्य के हाथों की कुशलता । भारत की प्रकृति सम्पदा विश्व में सबसे अधिक है यह तो अनेक रूपों में सिद्ध हुआ है। भारत के मनुष्य के हाथों ने अदूभुत कारीगरी के नमूने दिये हैं और भारत के मनीषियों की बुद्धि ने उत्पादन, वितरण और उपभोग का अदूभुत सामंजस्य बिठाया है। यहाँ उसकी विस्तार से चर्चा करना सम्भव नहीं है परन्तु भारत का आर्थिक इतिहास सरलता से पढने को मिलता है। इन तीन संसाधनों का धर्म के अविरोधी उपयोग करने पर चिरस्थायी समृद्धि प्राप्त हो सकती है इसका प्रत्यक्ष उदाहरण स्वयं भारत ही है और भारत जैसा और कोई नहीं है । भारत के विद्यालयों में भारत के शिक्षकों को भारत के विद्यार्थियों को ऐसा अर्थशास्त्र पढाना चाहिये और विद्यालय की तथा घर की व्यवस्था इसके अनुसार करनी चाहिये ।
 
# देश की समृद्धि के आधार कौन से होते हैं इसका विचार करने पर तीन बातें ध्यान में आती हैं । एक है प्रकृति सम्पदा, दूसरी है मनुष्य की बुद्धि और तीसरी है मनुष्य के हाथों की कुशलता । भारत की प्रकृति सम्पदा विश्व में सबसे अधिक है यह तो अनेक रूपों में सिद्ध हुआ है। भारत के मनुष्य के हाथों ने अदूभुत कारीगरी के नमूने दिये हैं और भारत के मनीषियों की बुद्धि ने उत्पादन, वितरण और उपभोग का अदूभुत सामंजस्य बिठाया है। यहाँ उसकी विस्तार से चर्चा करना सम्भव नहीं है परन्तु भारत का आर्थिक इतिहास सरलता से पढने को मिलता है। इन तीन संसाधनों का धर्म के अविरोधी उपयोग करने पर चिरस्थायी समृद्धि प्राप्त हो सकती है इसका प्रत्यक्ष उदाहरण स्वयं भारत ही है और भारत जैसा और कोई नहीं है । भारत के विद्यालयों में भारत के शिक्षकों को भारत के विद्यार्थियों को ऐसा अर्थशास्त्र पढाना चाहिये और विद्यालय की तथा घर की व्यवस्था इसके अनुसार करनी चाहिये ।
# विद्यार्थियों और शिक्षकों के व्यवहार में और मानस में बैठने के बाद इसे शिक्षाक्षेत्र में व्यापक रूप देना चाहिये । अन्य विद्यालयों के साथ, शिक्षकों के सम्मेलनों और परिषदों में, लेखों और प्रदर्शनियों के माध्यम से इसकी व्यापक चर्चा होनी चाहिये । समारोहों में इसके प्रयोग करने के आदर्श दिखाई देने चाहिये । भारत के लोगों की बुद्धि इस दिशा में बहुत चलेगी क्योंकि भारत के स्वभाव का यह अंग है । अभी अज्ञान और विपरीत ज्ञान का जो आवरण चढ़ गया है उसे दूर होने में देर नहीं लगेगी |
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# विद्यार्थियों और शिक्षकों के व्यवहार में और मानस में बैठने के बाद इसे शिक्षाक्षेत्र में व्यापक रूप देना चाहिये । अन्य विद्यालयों के साथ, शिक्षकों के सम्मेलनों और परिषदों में, लेखों और प्रदर्शनियों के माध्यम से इसकी व्यापक चर्चा होनी चाहिये । समारोहों में इसके प्रयोग करने के आदर्श दिखाई देने चाहिये । भारत के लोगोंं की बुद्धि इस दिशा में बहुत चलेगी क्योंकि भारत के स्वभाव का यह अंग है । अभी अज्ञान और विपरीत ज्ञान का जो आवरण चढ़ गया है उसे दूर होने में देर नहीं लगेगी |
# लोगों के व्यवहार में और मानस में बैठने के साथ साथ यह लोगों की अर्थार्जन की और स्वरूप क्‍या है, इसके निहितार्थ क्या हैं और इसके अर्थविनियोग की पद्धति में आना चाहिये, बेरोजगारी, परिणाम क्या होंगे यह समझना आवश्यक है । इस गरीबी, बाजार, आर्थिक शोषण आदि मुद्दों को स्पर्श विनाश से बचने का और दुनिया को बचाने का मार्ग करना चाहिये । देश की आर्थिक समस्याओं के भारत के पास है यह बात भी समझ में आने लगेगी | ज्ञानात्मक और भावात्मक हल खोजने का काम इस प्रकार आर्थिक दृष्टि और व्यवहार का यह विषय विद्यार्थियों और शिक्षकों को मिलकर करना चाहिये ।.... केवल विद्यार्थियों तक सीमित नहीं रह सकता । यह संकट इसके साथ ही देश की अर्थव्यवस्था, अर्थनीति आदि... पूर्ण रूप से मूलगामी है । इसका विचार भी इसी पद्धति से समझने की आवश्यकता है । धर्मनिष्ठता के स्थान पर... होना आवश्यक है । विद्यालय को यह करना चाहिये । यह अर्थनिष्ठता कैसे आ गई इसकी प्रक्रिया जाननी... शिक्षाक्षेत्र से जुडे सभी घटकों का राष्ट्रीय कर्तव्य है । चाहिये । आर्थिक क्षेत्र में अमेरिका के वर्चस्व का स्वरूप क्या है, इसके निहितार्थ क्या है और इसके परिणाम क्या होंगे यह समज़ना आवश्यक है। इस विनाश से बचने का और दुनिया को बचाने का मार्ग भारत के पास है यह बात भी समज में आने लगेगी।  
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# लोगोंं के व्यवहार में और मानस में बैठने के साथ साथ यह लोगोंं की अर्थार्जन की और स्वरूप क्‍या है, इसके निहितार्थ क्या हैं और इसके अर्थविनियोग की पद्धति में आना चाहिये, बेरोजगारी, परिणाम क्या होंगे यह समझना आवश्यक है । इस गरीबी, बाजार, आर्थिक शोषण आदि मुद्दों को स्पर्श विनाश से बचने का और दुनिया को बचाने का मार्ग करना चाहिये । देश की आर्थिक समस्याओं के भारत के पास है यह बात भी समझ में आने लगेगी | ज्ञानात्मक और भावात्मक हल खोजने का काम इस प्रकार आर्थिक दृष्टि और व्यवहार का यह विषय विद्यार्थियों और शिक्षकों को मिलकर करना चाहिये ।.... केवल विद्यार्थियों तक सीमित नहीं रह सकता । यह संकट इसके साथ ही देश की अर्थव्यवस्था, अर्थनीति आदि... पूर्ण रूप से मूलगामी है । इसका विचार भी इसी पद्धति से समझने की आवश्यकता है । धर्मनिष्ठता के स्थान पर... होना आवश्यक है । विद्यालय को यह करना चाहिये । यह अर्थनिष्ठता कैसे आ गई इसकी प्रक्रिया जाननी... शिक्षाक्षेत्र से जुडे सभी घटकों का राष्ट्रीय कर्तव्य है । चाहिये । आर्थिक क्षेत्र में अमेरिका के वर्चस्व का स्वरूप क्या है, इसके निहितार्थ क्या है और इसके परिणाम क्या होंगे यह समज़ना आवश्यक है। इस विनाश से बचने का और दुनिया को बचाने का मार्ग भारत के पास है यह बात भी समज में आने लगेगी।  
 
इस प्रकार आर्थिक दृष्टि और व्यव्हार का यह विषय केवल विद्यार्थियों तक सीमित नहीं रह सकता। यह संकट पूर्ण रूप से मूलगामी है। इसका विचार भी इसी पद्धति से होना आवश्यक है। विद्यालय को यह करना चाहिए। यह शिक्षाक्षेत्र से जुड़े सभी घटकों का राष्ट्रीय कर्त्तव्य है।  
 
इस प्रकार आर्थिक दृष्टि और व्यव्हार का यह विषय केवल विद्यार्थियों तक सीमित नहीं रह सकता। यह संकट पूर्ण रूप से मूलगामी है। इसका विचार भी इसी पद्धति से होना आवश्यक है। विद्यालय को यह करना चाहिए। यह शिक्षाक्षेत्र से जुड़े सभी घटकों का राष्ट्रीय कर्त्तव्य है।  
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# घर अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान है । घर में रहना सबके लिये अनिवार्य है । घर में रहना सबको अच्छा लगना चाहिये ।
 
# घर अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान है । घर में रहना सबके लिये अनिवार्य है । घर में रहना सबको अच्छा लगना चाहिये ।
 
# घर में सबको साथ साथ न केवल रहना है, साथ साथ जीना भी है । रहना भी आज तो नहीं होता । व्यवसाय ने बड़ों को और शिक्षा ने छोटों को ग्रस लिया है । सब इतने व्यस्त हो गये हैं कि साथ रहना, समय बिताना, हास्यविनोद करना दूभर हो गया है । विद्यालयों में सिखाना चाहिये कि दोनों अपनी अपनी व्यस्तता कम करें और एकदूसरे के साथ अधिक समय बितायें । इस दृष्टि से टी.वी. और मोबाइल भी एक बडा अवरोध है जिसे कठोरतापूर्वक नियन्त्रण में रखना सिखाना चाहिये ।
 
# घर में सबको साथ साथ न केवल रहना है, साथ साथ जीना भी है । रहना भी आज तो नहीं होता । व्यवसाय ने बड़ों को और शिक्षा ने छोटों को ग्रस लिया है । सब इतने व्यस्त हो गये हैं कि साथ रहना, समय बिताना, हास्यविनोद करना दूभर हो गया है । विद्यालयों में सिखाना चाहिये कि दोनों अपनी अपनी व्यस्तता कम करें और एकदूसरे के साथ अधिक समय बितायें । इस दृष्टि से टी.वी. और मोबाइल भी एक बडा अवरोध है जिसे कठोरतापूर्वक नियन्त्रण में रखना सिखाना चाहिये ।
# साथ साथ रहना तो समझ में आता है परन्तु साथ जीना अब लोगों को समझ में नहीं आता । एक तीसरी कक्षा में पढने वाली बालिका एक दिन घर आकर अपनी दादीमाँ को वर्षा कैसे होती है यह समझाती है क्योंकि आज विद्यालय में यह सिखाया गया है । दादीमाँ यह नहीं कहती कि मुझे सब पता है । वह पोती से सीखती है । विद्यालय की सारी बातों की चर्चा भोजन की टेबल पर होती है । पिताजी के कार्यालय की बातें भी होती है । टीवी की भी होती है । हास्यविनोद, मार्गदर्शन, नियमन, नियन्त्रण सब कुछ होता है । एकदूसरे में रुचि बढती है । ऐसा साथ जीना आज असम्भव सा हो गया है । संवाद ही नहीं होता है । घर में रहनेवालों की हरेक की दुनिया अलग अलग हो गई है । घर के सब लोग साथ जीयें यह देखना मातापिता का काम है परन्तु ऐसे मातापिता बनने हेतु प्रेरित करना विद्यालयों का काम है ।
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# साथ साथ रहना तो समझ में आता है परन्तु साथ जीना अब लोगोंं को समझ में नहीं आता । एक तीसरी कक्षा में पढने वाली बालिका एक दिन घर आकर अपनी दादीमाँ को वर्षा कैसे होती है यह समझाती है क्योंकि आज विद्यालय में यह सिखाया गया है । दादीमाँ यह नहीं कहती कि मुझे सब पता है । वह पोती से सीखती है । विद्यालय की सारी बातों की चर्चा भोजन की टेबल पर होती है । पिताजी के कार्यालय की बातें भी होती है । टीवी की भी होती है । हास्यविनोद, मार्गदर्शन, नियमन, नियन्त्रण सब कुछ होता है । एकदूसरे में रुचि बढती है । ऐसा साथ जीना आज असम्भव सा हो गया है । संवाद ही नहीं होता है । घर में रहनेवालों की हरेक की दुनिया अलग अलग हो गई है । घर के सब लोग साथ जीयें यह देखना मातापिता का काम है परन्तु ऐसे मातापिता बनने हेतु प्रेरित करना विद्यालयों का काम है ।
 
# घर में रहनेवाले तीन मास के, तीन वर्ष के तेरह वर्ष के, सत्रह वर्ष के, पचास वर्ष के और पचहत्तर वर्ष की आयु के लोग एक साथ रहते हैं । विद्यालय के तेरह वर्ष की आयु के, महाविद्यलय के अठारह वर्ष की आयु के विद्यार्थियों को इन सबके साथ कैसा व्यवहार करना चाहिये ? अठारह वर्ष का छात्र स्वयं तीस वर्ष का होगा तब क्या करेगा ? अठारह से तीस वर्ष का होने के मध्य में क्या क्या होगा और उस समय उसकी भूमिका क्या रहेगी आदि सब विद्यार्थियों को सीखने को मिलना अति आवश्यक है । वर्तमान समय में घर में यह सीखने को नहीं मिलता है, अब भविष्य के लिये विद्यार्थियों को विद्यालय में सीखने को मिलना चाहिये । हो सकता है कि दो पीढ़ियों के बाद यह सारी शिक्षा घर में स्थानान्तरित हो जाय ।
 
# घर में रहनेवाले तीन मास के, तीन वर्ष के तेरह वर्ष के, सत्रह वर्ष के, पचास वर्ष के और पचहत्तर वर्ष की आयु के लोग एक साथ रहते हैं । विद्यालय के तेरह वर्ष की आयु के, महाविद्यलय के अठारह वर्ष की आयु के विद्यार्थियों को इन सबके साथ कैसा व्यवहार करना चाहिये ? अठारह वर्ष का छात्र स्वयं तीस वर्ष का होगा तब क्या करेगा ? अठारह से तीस वर्ष का होने के मध्य में क्या क्या होगा और उस समय उसकी भूमिका क्या रहेगी आदि सब विद्यार्थियों को सीखने को मिलना अति आवश्यक है । वर्तमान समय में घर में यह सीखने को नहीं मिलता है, अब भविष्य के लिये विद्यार्थियों को विद्यालय में सीखने को मिलना चाहिये । हो सकता है कि दो पीढ़ियों के बाद यह सारी शिक्षा घर में स्थानान्तरित हो जाय ।
 
# एक बहुत बडा अनर्थ आज फैल रहा है । आज के युवक युवतियों की जनन क्षमता का भयानक गति से क्षरण हो रहा है । जन्म लेने वाली भावी पीढी का जीवन ही संकट में पड गया है । अर्थात्‌ जैविक अर्थ में भी युवकयुवतियों की मातापिता बनने की क्षमता कम हो रही है । सांस्कृतिक अर्थ में तो मातापिता बनना वे कब के भूल चुके हैं । इससे तो आज संकट निर्माण हो रहे हैं । इस संकट से आज की पीढ़ी को और उसके साथ ही भावी पीढी को भी बचाने का काम आज विद्यालयों को करना चाहिये । विद्यालयों में नये विषय जोडना, विद्यालयों की कार्यपद्धति बदलना, यान्त्रिकता कम करना, मानवीयता बढाना अत्यन्त आवश्यक बन गया है। महाविद्यालयों को इस सन्दर्भ में अध्ययन और अनुसंधान की योजना भी बनाने की आवश्यकता है ।
 
# एक बहुत बडा अनर्थ आज फैल रहा है । आज के युवक युवतियों की जनन क्षमता का भयानक गति से क्षरण हो रहा है । जन्म लेने वाली भावी पीढी का जीवन ही संकट में पड गया है । अर्थात्‌ जैविक अर्थ में भी युवकयुवतियों की मातापिता बनने की क्षमता कम हो रही है । सांस्कृतिक अर्थ में तो मातापिता बनना वे कब के भूल चुके हैं । इससे तो आज संकट निर्माण हो रहे हैं । इस संकट से आज की पीढ़ी को और उसके साथ ही भावी पीढी को भी बचाने का काम आज विद्यालयों को करना चाहिये । विद्यालयों में नये विषय जोडना, विद्यालयों की कार्यपद्धति बदलना, यान्त्रिकता कम करना, मानवीयता बढाना अत्यन्त आवश्यक बन गया है। महाविद्यालयों को इस सन्दर्भ में अध्ययन और अनुसंधान की योजना भी बनाने की आवश्यकता है ।
# गृहजीवन के सन्दर्भ में और एक विषय चिन्ताजनक है । घर के सारे काम अब अत्यन्त हेय माने जाने लगे हैं । पढे लिखे और कमाई करने वाले इन्हें नहीं कर सकते । इन्हें करने के लिये नौकर ही चाहिये ऐसी मानसिकता पक्की बनती जा रही है । यहाँ तक कि भोजन बनाने का और खिलाने का काम भी नीचा ही माना जाने लगा है । वृद्धों की परिचर्या करने का काम नर्स का, भोजन बनाने का काम रसोइये का, बच्चों को सम्हालने का काम आया का, बच्चों को पढ़ाने का काम शिक्षक का, घर के अन्य काम करने का काम नौकर का, बगीचा सम्हालने का काम माली का होता है । इनमें से एक भी काम घर के लोगों को नहीं करना है । खरीदी ओन लाइन करना, आवश्यकता पड़ने पर होटेल से भोजन मँगवाना, महेमानों की खातिरदारी होटेल में ले जाकर करना, जन्मदिन, सगाई आदि मनाने के लिये ठेका देना आदि का प्रचलन बढ गया है । अर्थात्‌ गृहजीवन सक्रिय रूप से जीना नहीं है, घर में भी होटेल की तरह रहना है । इस पद्धति से रहने में घर घर नहीं रहता । इसका उपाय क्या है ? प्रथम तो मानसिकता में परिवर्तन करने की आवश्यकता है । घर के काम अच्छे हैं, अच्छे लोगों को करने लायक हैं, अच्छी तरह से करने लायक हैं यह मन में बिठाना चाहिये । ये सब काम करना सिखाना भी चाहिये । थोडी बडी आयु में ऐसा करने के कितने प्रकार के लाभ हैं यह भी सिखाना चाहिये ।
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# गृहजीवन के सन्दर्भ में और एक विषय चिन्ताजनक है । घर के सारे काम अब अत्यन्त हेय माने जाने लगे हैं । पढे लिखे और कमाई करने वाले इन्हें नहीं कर सकते । इन्हें करने के लिये नौकर ही चाहिये ऐसी मानसिकता पक्की बनती जा रही है । यहाँ तक कि भोजन बनाने का और खिलाने का काम भी नीचा ही माना जाने लगा है । वृद्धों की परिचर्या करने का काम नर्स का, भोजन बनाने का काम रसोइये का, बच्चों को सम्हालने का काम आया का, बच्चों को पढ़ाने का काम शिक्षक का, घर के अन्य काम करने का काम नौकर का, बगीचा सम्हालने का काम माली का होता है । इनमें से एक भी काम घर के लोगोंं को नहीं करना है । खरीदी ओन लाइन करना, आवश्यकता पड़ने पर होटेल से भोजन मँगवाना, महेमानों की खातिरदारी होटेल में ले जाकर करना, जन्मदिन, सगाई आदि मनाने के लिये ठेका देना आदि का प्रचलन बढ गया है । अर्थात्‌ गृहजीवन सक्रिय रूप से जीना नहीं है, घर में भी होटेल की तरह रहना है । इस पद्धति से रहने में घर घर नहीं रहता । इसका उपाय क्या है ? प्रथम तो मानसिकता में परिवर्तन करने की आवश्यकता है । घर के काम अच्छे हैं, अच्छे लोगोंं को करने लायक हैं, अच्छी तरह से करने लायक हैं यह मन में बिठाना चाहिये । ये सब काम करना सिखाना भी चाहिये । थोडी बडी आयु में ऐसा करने के कितने प्रकार के लाभ हैं यह भी सिखाना चाहिये ।
 
# जीवन की कौन सी आयु में क्या क्‍या होता है और उसके अनुरूप क्या क्या करना होता है यह सिखाना महत्वपूर्ण विषय है । उदाहरण के लिये
 
# जीवन की कौन सी आयु में क्या क्‍या होता है और उसके अनुरूप क्या क्या करना होता है यह सिखाना महत्वपूर्ण विषय है । उदाहरण के लिये
 
#* सात वर्ष की आयु तक औपचारिक शिक्षा आरम्भ करना लाभदायी नहीं है ।
 
#* सात वर्ष की आयु तक औपचारिक शिक्षा आरम्भ करना लाभदायी नहीं है ।
Line 376: Line 376:  
* जब रासायनिक खाद का और यंत्रों का प्रयोग होता है तब अधिक फसल तो प्राप्त होती है परन्तु भूमि का प्रदूषण होता है और ऐसा अनाज खाने वालों का स्वास्थ्य खराब होता है । यह समय के बीतते भूमि को बंजर बनाती है और प्रजा को दुर्बल बनाकर नाश की ओर ले जाती है । यह संस्कृतिविहीन समृद्धि है ।
 
* जब रासायनिक खाद का और यंत्रों का प्रयोग होता है तब अधिक फसल तो प्राप्त होती है परन्तु भूमि का प्रदूषण होता है और ऐसा अनाज खाने वालों का स्वास्थ्य खराब होता है । यह समय के बीतते भूमि को बंजर बनाती है और प्रजा को दुर्बल बनाकर नाश की ओर ले जाती है । यह संस्कृतिविहीन समृद्धि है ।
 
* जब यन्त्रआधारित बड़े बड़े कारखानों में वस्तुओं का उत्पादन होता है तब उत्पादन अधिक होता है, कारखाने के मालिक को समृद्धि प्राप्त होती है परन्तु अनेक लोग बेरोजगार हो जाते हैं अथवा कारखानों में मजदूर बनने के लिये मजबूर बन जाते हैं, उनकी आर्थिक स्वतन्त्रता का नाश होता है । यह संस्कृतिविहीन समृद्धि का लक्षण है ।
 
* जब यन्त्रआधारित बड़े बड़े कारखानों में वस्तुओं का उत्पादन होता है तब उत्पादन अधिक होता है, कारखाने के मालिक को समृद्धि प्राप्त होती है परन्तु अनेक लोग बेरोजगार हो जाते हैं अथवा कारखानों में मजदूर बनने के लिये मजबूर बन जाते हैं, उनकी आर्थिक स्वतन्त्रता का नाश होता है । यह संस्कृतिविहीन समृद्धि का लक्षण है ।
* केन्द्रीकृत उत्पादन के कारण से परिवहन की व्यवस्था करनी पड़ती है, सड़कें बनानी पड़ती हैं, सड़कों के लिये खेतों का बलिदान दिया जाता है, खेतों के कम होने से अनाज का उत्पादन कम होता है, किसान और प्रजा दोनों परेशान होते हैं, विज्ञापन उद्योग में वृद्धि होती है, विज्ञापनों का आधार झूठ ही होता है। ये सब संस्कृति विहीनता के लक्षण हैं। यह विनाशक अर्थतन्त्र है जो गिनेचुने लोगों को समृद्ध, अधिकांश लोगों को दृरिद्रि बनाता है और अन्ततोगत्वा विनाश की ओर ले जाता है ।
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* केन्द्रीकृत उत्पादन के कारण से परिवहन की व्यवस्था करनी पड़ती है, सड़कें बनानी पड़ती हैं, सड़कों के लिये खेतों का बलिदान दिया जाता है, खेतों के कम होने से अनाज का उत्पादन कम होता है, किसान और प्रजा दोनों परेशान होते हैं, विज्ञापन उद्योग में वृद्धि होती है, विज्ञापनों का आधार झूठ ही होता है। ये सब संस्कृति विहीनता के लक्षण हैं। यह विनाशक अर्थतन्त्र है जो गिनेचुने लोगोंं को समृद्ध, अधिकांश लोगोंं को दृरिद्रि बनाता है और अन्ततोगत्वा विनाश की ओर ले जाता है ।
 
* संस्कृतिविहीन समृद्धि दम्भ, अभिमान, मदोन्मत्तता, शोषण आदि में प्रवृत्त होती है । महानगरों की सडकों पर महँगी कारों या मोटरसाइकलों पर घूमते हुए, युवतियों को छेडते हुए, शराब पीकर उधम मचाते हुए, फूटपाथ पर सोने वालों को कुचलते हुए निठल्ले  युवक समृद्ध पिताओं के पुत्र होते हैं जो आसुरी समृद्धि के जीतेजागते नमूने हैं ।
 
* संस्कृतिविहीन समृद्धि दम्भ, अभिमान, मदोन्मत्तता, शोषण आदि में प्रवृत्त होती है । महानगरों की सडकों पर महँगी कारों या मोटरसाइकलों पर घूमते हुए, युवतियों को छेडते हुए, शराब पीकर उधम मचाते हुए, फूटपाथ पर सोने वालों को कुचलते हुए निठल्ले  युवक समृद्ध पिताओं के पुत्र होते हैं जो आसुरी समृद्धि के जीतेजागते नमूने हैं ।
 
* अर्थात्‌ आसुरी समृद्धि स्वयं का तथा दूसरों का नाश करती है ।
 
* अर्थात्‌ आसुरी समृद्धि स्वयं का तथा दूसरों का नाश करती है ।
Line 383: Line 383:  
* मनुष्य को खाने के लिये अन्न नहीं, पहनने के लिये वस्त्र नहीं हो तो वह अपने जीवित की रक्षा कैसे कर सकेगा ? उसे किसी न किसी प्रकार से अन्न और वस्त्र तो प्राप्त करने ही होंगे । वह नीति और संस्कारों को भी छोडने के लिये बाध्य हो ही जायेगा । जीवन बचाना तो कोई अपराध नहीं है ।
 
* मनुष्य को खाने के लिये अन्न नहीं, पहनने के लिये वस्त्र नहीं हो तो वह अपने जीवित की रक्षा कैसे कर सकेगा ? उसे किसी न किसी प्रकार से अन्न और वस्त्र तो प्राप्त करने ही होंगे । वह नीति और संस्कारों को भी छोडने के लिये बाध्य हो ही जायेगा । जीवन बचाना तो कोई अपराध नहीं है ।
 
* बडे बडे कारखानों में यांत्रिकीकरण होता है । एक नया यंत्र आता है और सैंकडो कर्मचारी नौकरी में से मुक्त कर दिये जाते हैं । उनके पत्नी और बच्चों का पेट भरने के लिये वे यदि चोरी या डकैती करते हैं तो उसका पाप उन्हें नहीं अपितु कारखाने के मालिकों को ही लगेगा । अर्थ के अभाव में चोरी करने वाले नीति की रक्षा कैसे करेंगे ?
 
* बडे बडे कारखानों में यांत्रिकीकरण होता है । एक नया यंत्र आता है और सैंकडो कर्मचारी नौकरी में से मुक्त कर दिये जाते हैं । उनके पत्नी और बच्चों का पेट भरने के लिये वे यदि चोरी या डकैती करते हैं तो उसका पाप उन्हें नहीं अपितु कारखाने के मालिकों को ही लगेगा । अर्थ के अभाव में चोरी करने वाले नीति की रक्षा कैसे करेंगे ?
* अनुचित अर्थव्यवस्था के कारण लोगों को दिन में बारह घण्टे अथार्जिन हेतु काम करना पडता है । उसके बाद भी मालिकों की हाँजी हाँजी और खुशामद करनी पड़ती है । उनकी अनैतिक प्रवृत्तियों की साझेदारी भी  करनी पड़ती है । दिनभर काम करने के बाद स्वाध्याय, सत्संग, सत्प्रवृत्ति वे कैसे करेंगे ? बच्चों के चरित्र की चिन्ता कैसे करेंगे ? ऐसी स्थिति में संस्कृति की रक्षा कैसे होगी ?
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* अनुचित अर्थव्यवस्था के कारण लोगोंं को दिन में बारह घण्टे अथार्जिन हेतु काम करना पडता है । उसके बाद भी मालिकों की हाँजी हाँजी और खुशामद करनी पड़ती है । उनकी अनैतिक प्रवृत्तियों की साझेदारी भी  करनी पड़ती है । दिनभर काम करने के बाद स्वाध्याय, सत्संग, सत्प्रवृत्ति वे कैसे करेंगे ? बच्चों के चरित्र की चिन्ता कैसे करेंगे ? ऐसी स्थिति में संस्कृति की रक्षा कैसे होगी ?
 
तात्पर्य यह है कि आर्थिक निश्चिन्तता नहीं रही तो संस्कृति की रक्षा सम्भव ही नहीं है। अतः समाज को  समृद्धि और संस्कृति दोनों की एक साथ चिन्ता करनी  चाहिये । यह चिन्ता करने का दायित्व समाज के सभी  घटकों का है । इस दायित्व का हृदय से स्वीकार करना सामाजिक दायित्वबोध है ।
 
तात्पर्य यह है कि आर्थिक निश्चिन्तता नहीं रही तो संस्कृति की रक्षा सम्भव ही नहीं है। अतः समाज को  समृद्धि और संस्कृति दोनों की एक साथ चिन्ता करनी  चाहिये । यह चिन्ता करने का दायित्व समाज के सभी  घटकों का है । इस दायित्व का हृदय से स्वीकार करना सामाजिक दायित्वबोध है ।
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# जिस समाज में स्त्री और गाय, धर्म केन्द्र और ज्ञानकेन्द्र सुरक्षित हैं, आदर के पात्र हैं, सम्माननीय हैं वह समाज सुसंस्कृत होता है । संस्कृति की रक्षा करने हेतु इन सबका सम्मान करने की वृत्ति और प्रवृत्ति छात्रों में जगानी चाहिये । साथ ही स्त्रियों को स्त्रीत्व की, ज्ञानकेन्द्रों को ज्ञान की, धर्म केन्द्रों को धर्म की रक्षा को, प्रतिष्ठा को प्रथम स्थान देना भी सिखाना चाहिये ।
 
# जिस समाज में स्त्री और गाय, धर्म केन्द्र और ज्ञानकेन्द्र सुरक्षित हैं, आदर के पात्र हैं, सम्माननीय हैं वह समाज सुसंस्कृत होता है । संस्कृति की रक्षा करने हेतु इन सबका सम्मान करने की वृत्ति और प्रवृत्ति छात्रों में जगानी चाहिये । साथ ही स्त्रियों को स्त्रीत्व की, ज्ञानकेन्द्रों को ज्ञान की, धर्म केन्द्रों को धर्म की रक्षा को, प्रतिष्ठा को प्रथम स्थान देना भी सिखाना चाहिये ।
 
# समाजधारणा हेतु अनेक सांस्कृतिक पर्वों, उत्सवों , त्योहारों, रीतिरिवाजों की योजना हुई होती हैं । इन उत्सवों आदि का तात्पर्य समझकर उनका सार्थक निर्वहन करना हरेक समाजघटक का दायित्व है ।
 
# समाजधारणा हेतु अनेक सांस्कृतिक पर्वों, उत्सवों , त्योहारों, रीतिरिवाजों की योजना हुई होती हैं । इन उत्सवों आदि का तात्पर्य समझकर उनका सार्थक निर्वहन करना हरेक समाजघटक का दायित्व है ।
# समाज में कोई भूखा न रहे, आवश्यकताओं से वंचित न रहे, दीन और दरिद्र न रहे, बेरोजगार न रहे इसकी व्यवस्था की गई होती है । इस दृष्टि से विभिन्न प्रकार की धर्मादाय संस्थाओं की भी रचना होती है । इनके निभाव हेतु अर्थदान और समयदान देना भी सक्षम लोगों का सामाजिक दायित्व है । तीर्थयात्रा को जानेवाले लोगों को मार्ग में अन्न, पानी और रात्रिनिवास की व्यवस्था मिलनी चाहिये, संन्यासियों को भिक्षा मिलनी चाहिये, निर्धन विद्यार्थियों को शिक्षा मिलनी चाहिये, जिनके पुत्र नहीं है ऐसे वृद्धों को और मातापिता नहीं है ऐसे अनाथ बच्चों को, दुर्घटनाग्रस्त लोगों को अनेक प्रकार की सहायता की आवश्यकता होती है । इन आवश्यकताओं की पूर्ति करना सरकार का नहीं अपितु समाज का दायित्व होता है । इस दृष्टि से दान, यज्ञ, भण्डारा, अन्नसत्र, प्याऊ, धर्मशाला आदि की व्यवस्था हमारा समाज युगों से करता आया है । इस परम्परा को खण्डित नहीं होने देना आज की पीढ़ी को सिखाना चाहिये । सामाजिक दायित्वों का सरकारीकरण करने की पश्चिमी पद्धति है। उसे यहाँ हावी नहीं होने देना चाहिये । यदि सामाजिक दायित्वों का सरकारीकरण हुआ तो समाज की स्वायत्तता समाप्त हो जायेगी । जिस देश का समाज स्वायत्त नहीं रहता वह देश सरलता से गुलाम बन जाता है ऐसा विश्व के अनेक देशों का अनुभव है जबकि जो समाज स्वायत्त होता है वह आसानी से गुलाम नहीं होता ऐसा भारत का ही उदाहरण हमने देखा है ।
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# समाज में कोई भूखा न रहे, आवश्यकताओं से वंचित न रहे, दीन और दरिद्र न रहे, बेरोजगार न रहे इसकी व्यवस्था की गई होती है । इस दृष्टि से विभिन्न प्रकार की धर्मादाय संस्थाओं की भी रचना होती है । इनके निभाव हेतु अर्थदान और समयदान देना भी सक्षम लोगोंं का सामाजिक दायित्व है । तीर्थयात्रा को जानेवाले लोगोंं को मार्ग में अन्न, पानी और रात्रिनिवास की व्यवस्था मिलनी चाहिये, संन्यासियों को भिक्षा मिलनी चाहिये, निर्धन विद्यार्थियों को शिक्षा मिलनी चाहिये, जिनके पुत्र नहीं है ऐसे वृद्धों को और मातापिता नहीं है ऐसे अनाथ बच्चों को, दुर्घटनाग्रस्त लोगोंं को अनेक प्रकार की सहायता की आवश्यकता होती है । इन आवश्यकताओं की पूर्ति करना सरकार का नहीं अपितु समाज का दायित्व होता है । इस दृष्टि से दान, यज्ञ, भण्डारा, अन्नसत्र, प्याऊ, धर्मशाला आदि की व्यवस्था हमारा समाज युगों से करता आया है । इस परम्परा को खण्डित नहीं होने देना आज की पीढ़ी को सिखाना चाहिये । सामाजिक दायित्वों का सरकारीकरण करने की पश्चिमी पद्धति है। उसे यहाँ हावी नहीं होने देना चाहिये । यदि सामाजिक दायित्वों का सरकारीकरण हुआ तो समाज की स्वायत्तता समाप्त हो जायेगी । जिस देश का समाज स्वायत्त नहीं रहता वह देश सरलता से गुलाम बन जाता है ऐसा विश्व के अनेक देशों का अनुभव है जबकि जो समाज स्वायत्त होता है वह आसानी से गुलाम नहीं होता ऐसा भारत का ही उदाहरण हमने देखा है ।
 
# जब व्यक्ति स्वकेन्द्री बनता है तो स्वार्थी बनता है । स्वार्थी व्यक्ति दूसरे का विचार नहीं कर सकता । स्वार्थी व्यक्ति अपनी सारी क्षमताओं का विनियोग दूसरों को अपने लाभ हेतु किस प्रकार उपयोग में लाना इस प्रकार ही करता है। व्यक्ति को स्वार्थी नहीं अपितु समाजार्थी बनाने से समाज का और व्यक्ति का भला होता है, स्वार्थी बनने देने से दोनों का अहित होता है। इस दृष्टि से सम्यक व्यवहार करना सिखाना सामाजिक दायित्वबोध की शिक्षा देना है।
 
# जब व्यक्ति स्वकेन्द्री बनता है तो स्वार्थी बनता है । स्वार्थी व्यक्ति दूसरे का विचार नहीं कर सकता । स्वार्थी व्यक्ति अपनी सारी क्षमताओं का विनियोग दूसरों को अपने लाभ हेतु किस प्रकार उपयोग में लाना इस प्रकार ही करता है। व्यक्ति को स्वार्थी नहीं अपितु समाजार्थी बनाने से समाज का और व्यक्ति का भला होता है, स्वार्थी बनने देने से दोनों का अहित होता है। इस दृष्टि से सम्यक व्यवहार करना सिखाना सामाजिक दायित्वबोध की शिक्षा देना है।
 
हम देखते हैं कि विद्यालयों में यान्त्रिक पद्धति से, प्रयोजनों, उद्देश्यों और सन्दर्भों को छोडकर ही पढाये जाता हैं। ऐसे में विद्यार्थियों के आयुष्य के अत्यन्त मूल्यवान वर्ष, देश का अनेक प्रकार का संसाधन और व्यष्टि और  समष्टि का भविष्य ही नष्ट हो रहे हैं । हमें गम्भीरतापूर्वक इस बात पर विचार करना होगा और कृति भी करनी होगी।  
 
हम देखते हैं कि विद्यालयों में यान्त्रिक पद्धति से, प्रयोजनों, उद्देश्यों और सन्दर्भों को छोडकर ही पढाये जाता हैं। ऐसे में विद्यार्थियों के आयुष्य के अत्यन्त मूल्यवान वर्ष, देश का अनेक प्रकार का संसाधन और व्यष्टि और  समष्टि का भविष्य ही नष्ट हो रहे हैं । हमें गम्भीरतापूर्वक इस बात पर विचार करना होगा और कृति भी करनी होगी।  
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# भारतमाता पूजन, मातृभूमि वंदन जैसे कार्यक्रमों का आयोजन हो सकता है।  
 
# भारतमाता पूजन, मातृभूमि वंदन जैसे कार्यक्रमों का आयोजन हो सकता है।  
 
# देशदर्शन का कार्यक्रम शैक्षिक भ्रमण के अंतर्गत हो सकता है।  
 
# देशदर्शन का कार्यक्रम शैक्षिक भ्रमण के अंतर्गत हो सकता है।  
# हमारे द्वादश ज्योतिर्लिंग, इक्यावन शक्तिपीठ, चार धाम आदि एक और मुग़ल विषय का अंग है तो दूसरी और तीर्थयात्रा के केंद्र है। इनके अतिरिक्त देशभर में असंख्य मंदिर है और हजारों वर्षों से लोगो के श्रद्धा केंद्र बने हुए है। इन सब के साथ विद्यार्थी श्रद्धा से जुड़ें ऐसा आयोजन करना चाहिए। विद्यार्थियों की श्रद्धा ज्ञानात्मक होनी चाहिए यह विशेषता है।  
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# हमारे द्वादश ज्योतिर्लिंग, इक्यावन शक्तिपीठ, चार धाम आदि एक और मुग़ल विषय का अंग है तो दूसरी और तीर्थयात्रा के केंद्र है। इनके अतिरिक्त देशभर में असंख्य मंदिर है और हजारों वर्षों से लोगों के श्रद्धा केंद्र बने हुए है। इन सब के साथ विद्यार्थी श्रद्धा से जुड़ें ऐसा आयोजन करना चाहिए। विद्यार्थियों की श्रद्धा ज्ञानात्मक होनी चाहिए यह विशेषता है।  
 
# विश्व में हमारी मातृभूमि का अपमान न हो, किसी.का आक्रमण हम सहन न करें, उसकी रक्षा हेतु हम सदैव तत्पर रहें ऐसी मनःस्थिति बननी चाहिये ।  
 
# विश्व में हमारी मातृभूमि का अपमान न हो, किसी.का आक्रमण हम सहन न करें, उसकी रक्षा हेतु हम सदैव तत्पर रहें ऐसी मनःस्थिति बननी चाहिये ।  
 
# मातृभूमि की रक्षा करना केवल सीमाओं की रक्षा.करना ही नहीं है। सीमाओं की रक्षा का प्रश्न तो आक्रमण होता है तभी पैदा होता है, या सीमा असुरक्षित रही तो कोई भी अतिक्रमण कर सकता.है इसलिये सावधानी के रूप में पैदा होता है। यह काम सैन्य करता है और सरकार करती है । परन्तु देश पर आर्थिक, राजकीय, सांस्कृतिक, मनोवैज्ञानिक आदि अनेक प्रकार के आक्रमण होते हैं। इन आक्रमणों को यशस्वी नहीं होने देने का काम प्रजा का है, सर्कार या सैन्य का नहीं।  इस दृष्टि से नित्य जागृत रहने की भावना प्रजा में जगाने का काम विद्यालयों का है।  
 
# मातृभूमि की रक्षा करना केवल सीमाओं की रक्षा.करना ही नहीं है। सीमाओं की रक्षा का प्रश्न तो आक्रमण होता है तभी पैदा होता है, या सीमा असुरक्षित रही तो कोई भी अतिक्रमण कर सकता.है इसलिये सावधानी के रूप में पैदा होता है। यह काम सैन्य करता है और सरकार करती है । परन्तु देश पर आर्थिक, राजकीय, सांस्कृतिक, मनोवैज्ञानिक आदि अनेक प्रकार के आक्रमण होते हैं। इन आक्रमणों को यशस्वी नहीं होने देने का काम प्रजा का है, सर्कार या सैन्य का नहीं।  इस दृष्टि से नित्य जागृत रहने की भावना प्रजा में जगाने का काम विद्यालयों का है।  
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कुछ इन बातों का विचार करना चाहिये:
 
कुछ इन बातों का विचार करना चाहिये:
 
# हम हमेशा स्वदेशी वस्तुओं का ही प्रयोग करेंगे  ऐसा विद्यार्थियों का निश्चय बनना चाहिये । विदेशी वस्तु खरीदने से देश का पैसा विदेश में चला जाता है और देश की समृद्धि कम होकर देश गरीब बनता है । विदेशी वस्तु खरीदने से देश का पैसा विदेश में चला जाता है और देश की समृद्धि काम होकर देश गरीब बनता है।  विदेशी वास्तु कैसी भी आकर्षक हो, हमें मोहित नहीं होना चाहिए, कितनी भि सस्ती हो हमें अपने स्वार्थ का विचार नहीं करना चाहिए।  विदेशी वास्तु कितनी भी दुर्लभहो, हमें सय्यम करना चाहिए।  एक तर्क ऐसा हो सकता है कि हमारे देश में देशविदेश की मूल्यवान वस्तुएं आती ही थी। ईरान के गलीचे, बसरा के और लंका के मोती, अरबस्तान के घोडे बहुत प्रसिद्ध थे। और हम उन्हें  खरीदते ही थे । फिर स्वदेशी वस्तुओं का ही आग्रह क्यों ? एक बात स्मरण में रखनी चाहिये कि हमारा विदेश व्यापार यदि अधिक हो तो हम भी बाहर से वस्तुयें ला सकते हैं। इस बात का भी स्मरण रहे कि सतन्रहवीं शताब्दी में सबसे अधिक विश्वव्यापार भारत का था । भारत की बराबरी करने वाला केवल चीन ही था। सोलहवी  शताब्दी में सात समन्दर में भारत के जहाजों की ख्याति थी । भारत के व्यापारी विश्वभर में व्यापार करते थे । ऐसे समय में दुर्लभ वस्तुयें भारत में भी आ सकती हैं। परन्तु यह दुर्लभ वस्तुओं का ही मामला है । साबुन, दन्तमंजन, रोज पहनने के वस्त्र आदि विदेशी होने में गौरव तो है ही नहीं, बुद्धिमानी भी नहीं है । यह तो अविचार, मिथ्या विचार अथवा स्वार्थी विचार है ।
 
# हम हमेशा स्वदेशी वस्तुओं का ही प्रयोग करेंगे  ऐसा विद्यार्थियों का निश्चय बनना चाहिये । विदेशी वस्तु खरीदने से देश का पैसा विदेश में चला जाता है और देश की समृद्धि कम होकर देश गरीब बनता है । विदेशी वस्तु खरीदने से देश का पैसा विदेश में चला जाता है और देश की समृद्धि काम होकर देश गरीब बनता है।  विदेशी वास्तु कैसी भी आकर्षक हो, हमें मोहित नहीं होना चाहिए, कितनी भि सस्ती हो हमें अपने स्वार्थ का विचार नहीं करना चाहिए।  विदेशी वास्तु कितनी भी दुर्लभहो, हमें सय्यम करना चाहिए।  एक तर्क ऐसा हो सकता है कि हमारे देश में देशविदेश की मूल्यवान वस्तुएं आती ही थी। ईरान के गलीचे, बसरा के और लंका के मोती, अरबस्तान के घोडे बहुत प्रसिद्ध थे। और हम उन्हें  खरीदते ही थे । फिर स्वदेशी वस्तुओं का ही आग्रह क्यों ? एक बात स्मरण में रखनी चाहिये कि हमारा विदेश व्यापार यदि अधिक हो तो हम भी बाहर से वस्तुयें ला सकते हैं। इस बात का भी स्मरण रहे कि सतन्रहवीं शताब्दी में सबसे अधिक विश्वव्यापार भारत का था । भारत की बराबरी करने वाला केवल चीन ही था। सोलहवी  शताब्दी में सात समन्दर में भारत के जहाजों की ख्याति थी । भारत के व्यापारी विश्वभर में व्यापार करते थे । ऐसे समय में दुर्लभ वस्तुयें भारत में भी आ सकती हैं। परन्तु यह दुर्लभ वस्तुओं का ही मामला है । साबुन, दन्तमंजन, रोज पहनने के वस्त्र आदि विदेशी होने में गौरव तो है ही नहीं, बुद्धिमानी भी नहीं है । यह तो अविचार, मिथ्या विचार अथवा स्वार्थी विचार है ।
# आजकल विदेश पढने और नौकरी करने जाने का प्रचलन बहुत बढ़ा है । विदेश में कमाई अधिक होती है ऐसा कहा जाता है । विदेश में पढ़ाई अच्छी होती है ऐसा भी कहा जाता है। विदेश की पढ़ाई की प्रतिष्ठा अधिक होती है ऐसा भी कहा जाता है। कई महानुभाव विदेशी नागरिकता भी ले लेते हैं। क्या यह सही है ? जरा विश्लेषणपूर्वक विचार करें । लोग अमेरिका, यूरोप या ऑस्ट्रेलिया में नौकरी या व्यापार करने के लिये क्यों जाते हैं ? अधिक पैसा मिलता है इसलिये । परन्तु अधिक पैसा प्राप्त करने हेतु अपना परिवार और अपना देश छोड़ना पड़ता है इसका दुःख क्यों नहीं होता ? विदेश जानेवाले अनेक युवकों के मातापिता देश में वृद्धावस्था में अकेले हो जाते हैं और दुःख में रहते हैं । वृद्धावस्था में पैसे के सहारे, पराये लोगों के सहारे तो नहीं रहा जा सकता । यह क्या विचारणीय विषय नहीं है ? जिस देश की जलवायु और संस्कृति ने पोषण किया, जिस देश के अध्यापकों ने ज्ञान दिया, जिस देश के लोगों ने कर के रूप में पढ़ाई हेतु पैसा दिया उस देश का हमारे ज्ञान पर, कर्तृत्व पर, बुद्धि पर क्या प्रथम अधिकार नहीं है ? उसे छोड़कर अन्य देश को लाभ पहुँचाने हेतु हमारे ज्ञान का उपयोग करना क्या उचित है ? यह तो निरास्वार्थ है । अपने मातापिता के बल पर बडा होने के बाद अन्य मातापिता के पुत्र हो जाने के बराबर है । विदेशी पदवियों की अधिक प्रतिष्ठा है यह तो हमारे लिये और भी लज्जाजनक बात बननी चाहिये । भारत तो हमेशा से ज्ञान का उपासक देश रहा है, विश्वभर से भारत में ज्ञान प्राप्त करने हेतु विद्वान आते थे, भारत से ऋषि, व्यापारी, कारीगर विश्व को ज्ञान और संस्कार देने के लिये जाते थे । आज अचानक क्या हो गया कि हम पिछड़ गये ? यह तो हमारे लिये चुनौती का विषय बनना चाहिये । हमारे ज्ञान, संस्कार और कर्ृत्व से पुनः हमारे देश को वही स्वाभाविक विश्वगुरु का स्थान प्राप्त होना चाहिये । विद्वत्ता के, संस्कार के, संस्कृति के मानक स्थापित करना हमारा काम है। इस काम में हमारा योगदान नहीं हुआ तो फिर देशभक्ति कहाँ रही ? ज्ञानक्षेत्र, अर्थक्षेत्र और संस्कृति के क्षेत्र में हम अपने देश के काम में नहीं आ सके तो यह तो कृतघ्नता ही है । और विदेशी नागरिकता स्वीकार करने की बात तो तर्क से परे हैं । सांस्कृतिक कारणों से हमारे पूर्वज विश्वभर में गये हैं। विश्व का एक भी देश ऐसा नहीं है जहाँ हमारे ऋषि, वैज्ञानिक, व्यापारी या कारीगर न गये हों । परन्तु उनका उद्देश्य उन लोगों का भला करने का था। “कृण्वन्तो विश्वमार्यम ही उनका सूत्र था। आज भी यदि विश्वकल्याण की भावना से ही हम विदेशों में जाते हैं या शुद्ध जिज्ञासा से ही अध्ययन हेतु जाते हैं तो वह प्रशंसा के पात्र है, परन्तु ऐसी स्थिति है उस विषय में सन्देह ही है।
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# आजकल विदेश पढने और नौकरी करने जाने का प्रचलन बहुत बढ़ा है । विदेश में कमाई अधिक होती है ऐसा कहा जाता है । विदेश में पढ़ाई अच्छी होती है ऐसा भी कहा जाता है। विदेश की पढ़ाई की प्रतिष्ठा अधिक होती है ऐसा भी कहा जाता है। कई महानुभाव विदेशी नागरिकता भी ले लेते हैं। क्या यह सही है ? जरा विश्लेषणपूर्वक विचार करें । लोग अमेरिका, यूरोप या ऑस्ट्रेलिया में नौकरी या व्यापार करने के लिये क्यों जाते हैं ? अधिक पैसा मिलता है इसलिये । परन्तु अधिक पैसा प्राप्त करने हेतु अपना परिवार और अपना देश छोड़ना पड़ता है इसका दुःख क्यों नहीं होता ? विदेश जानेवाले अनेक युवकों के मातापिता देश में वृद्धावस्था में अकेले हो जाते हैं और दुःख में रहते हैं । वृद्धावस्था में पैसे के सहारे, पराये लोगोंं के सहारे तो नहीं रहा जा सकता । यह क्या विचारणीय विषय नहीं है ? जिस देश की जलवायु और संस्कृति ने पोषण किया, जिस देश के अध्यापकों ने ज्ञान दिया, जिस देश के लोगोंं ने कर के रूप में पढ़ाई हेतु पैसा दिया उस देश का हमारे ज्ञान पर, कर्तृत्व पर, बुद्धि पर क्या प्रथम अधिकार नहीं है ? उसे छोड़कर अन्य देश को लाभ पहुँचाने हेतु हमारे ज्ञान का उपयोग करना क्या उचित है ? यह तो निरास्वार्थ है । अपने मातापिता के बल पर बडा होने के बाद अन्य मातापिता के पुत्र हो जाने के बराबर है । विदेशी पदवियों की अधिक प्रतिष्ठा है यह तो हमारे लिये और भी लज्जाजनक बात बननी चाहिये । भारत तो हमेशा से ज्ञान का उपासक देश रहा है, विश्वभर से भारत में ज्ञान प्राप्त करने हेतु विद्वान आते थे, भारत से ऋषि, व्यापारी, कारीगर विश्व को ज्ञान और संस्कार देने के लिये जाते थे । आज अचानक क्या हो गया कि हम पिछड़ गये ? यह तो हमारे लिये चुनौती का विषय बनना चाहिये । हमारे ज्ञान, संस्कार और कर्ृत्व से पुनः हमारे देश को वही स्वाभाविक विश्वगुरु का स्थान प्राप्त होना चाहिये । विद्वत्ता के, संस्कार के, संस्कृति के मानक स्थापित करना हमारा काम है। इस काम में हमारा योगदान नहीं हुआ तो फिर देशभक्ति कहाँ रही ? ज्ञानक्षेत्र, अर्थक्षेत्र और संस्कृति के क्षेत्र में हम अपने देश के काम में नहीं आ सके तो यह तो कृतघ्नता ही है । और विदेशी नागरिकता स्वीकार करने की बात तो तर्क से परे हैं । सांस्कृतिक कारणों से हमारे पूर्वज विश्वभर में गये हैं। विश्व का एक भी देश ऐसा नहीं है जहाँ हमारे ऋषि, वैज्ञानिक, व्यापारी या कारीगर न गये हों । परन्तु उनका उद्देश्य उन लोगोंं का भला करने का था। “कृण्वन्तो विश्वमार्यम ही उनका सूत्र था। आज भी यदि विश्वकल्याण की भावना से ही हम विदेशों में जाते हैं या शुद्ध जिज्ञासा से ही अध्ययन हेतु जाते हैं तो वह प्रशंसा के पात्र है, परन्तु ऐसी स्थिति है उस विषय में सन्देह ही है।
 
# कृतिशील देशभक्ति तो दूर की बात है, आज तो कृतिशील देशद्रोह से परावृत्त होने की चिन्ता करने का समय आया है । जरा इन बातों का विचार करें। हम अंग्रेजी माध्यम के विद्यालयों में क्यों पढना और पढ़ाना चाहते है ? हम अंग्रेजी माध्यम के विद्यालय क्यों चलाना चाहते हैं ? अभी भी केन्द्र सरकार अंग्रेजी को इतना महत्व क्यों देती है ? अभी भी उच्च स्तर के प्रशासनिक अधिकारी अंग्रेजी में ही क्यों रोब जमाते हैं ? अभी भी हमें शुद्ध मातृभाषा की तो चिन्ता नहीं है परन्तु शुद्ध अंग्रेजी की चाह क्यों है ? क्या हम हीनताबोध से इतने ग्रस्त हो गये हैं कि भाषा के विषय में स्वस्थतापूर्वक विचार भी न कर सके और धार्मिक भाषा की, मातृभाषा की प्रतिष्ठा न कर सकें ?
 
# कृतिशील देशभक्ति तो दूर की बात है, आज तो कृतिशील देशद्रोह से परावृत्त होने की चिन्ता करने का समय आया है । जरा इन बातों का विचार करें। हम अंग्रेजी माध्यम के विद्यालयों में क्यों पढना और पढ़ाना चाहते है ? हम अंग्रेजी माध्यम के विद्यालय क्यों चलाना चाहते हैं ? अभी भी केन्द्र सरकार अंग्रेजी को इतना महत्व क्यों देती है ? अभी भी उच्च स्तर के प्रशासनिक अधिकारी अंग्रेजी में ही क्यों रोब जमाते हैं ? अभी भी हमें शुद्ध मातृभाषा की तो चिन्ता नहीं है परन्तु शुद्ध अंग्रेजी की चाह क्यों है ? क्या हम हीनताबोध से इतने ग्रस्त हो गये हैं कि भाषा के विषय में स्वस्थतापूर्वक विचार भी न कर सके और धार्मिक भाषा की, मातृभाषा की प्रतिष्ठा न कर सकें ?
 
इसका एक ही उत्तर है। हमारी शिक्षा ने हमें स्वतन्त्रता की चाह से युक्त, स्वगौरव की भावना से युक्त और देशभक्ति का अर्थ समझने वाले बनाया ही नहीं । हम देश से भी अधिक अपने आप को मानने लगे हैं इसलिये हमारी बुद्धि और हमारा कर्तृत्व देश के काम में नहीं आता ।
 
इसका एक ही उत्तर है। हमारी शिक्षा ने हमें स्वतन्त्रता की चाह से युक्त, स्वगौरव की भावना से युक्त और देशभक्ति का अर्थ समझने वाले बनाया ही नहीं । हम देश से भी अधिक अपने आप को मानने लगे हैं इसलिये हमारी बुद्धि और हमारा कर्तृत्व देश के काम में नहीं आता ।

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