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संपूर्ण रूप से साम्यवादी, मार्क्सवादी संरचना रखनेवाली कल्चरल स्टडीझ की विद्याशाखा पूरे विश्व के जो भी देशों के विश्वविद्यालय अथवा संशोधन केंद्रों में सीखाई जाती है, उन सभी देशों में 'वहाँ के 'राष्ट्रवाद' को सिर से पाँव तक छेद कर, मार्क्सवाद के, साम्यवाद के गृहितों को, तर्कों को बुद्धिप्रमाण्यवादी, तर्कशुद्ध वैज्ञानिक ऐसी प्रतिष्ठा प्राप्त करा कर 'शैक्षिक पाठ्यक्रम' के रूप में अध्ययन के लिये उपलब्ध करवाया जाता हैं । १९१० से १९३० के दौरान इटली की 'कम्युनिस्ट पार्टी' के अध्यक्ष अन्तोनिओ ग्रामची ( -पींपळे ऋवशीलळ) के क्लासिकल मार्क्सिझम की पुनर्रचना पर लेखन तथा लुइस अल्थुझर के 'संरचनावाद' के आधार पर विकसित यह विद्याशाखा माने बहुसंख्य देशों में राजकीय दृष्टि से असफल सिद्ध हुई साम्यवादी विचारधारा को एक बार फिर से खडा होने के लिये निर्माण किया हआ रंगमंच है। ग्रामची के मतानुसार 'कारीगर और कृषिमझदूरों ने सांप्रदायिक (फासीस्ट) लोगों को मत नहीं देना चाहिये । बुद्धिनिष्ठ साम्यवादी विचारों के प्रति सामान्य लोगों की पसंद निर्माण करने के लिये योजनाबद्ध पद्धति से कार्य करना पड़ेगा क्लासिकल मार्क्सिझम के अनुसार सामाजिक वर्गव्यवस्था आर्थिक स्थिति के अनुसार परिभाषित होती है इसलिये मार्क्स ने वर्ग विग्रह को क्रांति का कारण और ध्येय माना । परंतु ग्रामची ने मार्क्स के वर्ग विग्रह के तर्क को अधिक व्यापक बना कर ‘राजकीय एवं सामाजिक संघर्ष का क्षेत्र आर्थिकता न हो कर संस्कृति हैं' ऐसा विचार प्रस्तुत किया । उसके मतानुसार पूंजीवादी सामाजिक और राजकीय नियंत्रण करने के लिये केवल पुलिस, केद, दमन और लश्कर के ही पाशवी माध्यमों का प्रयोग करते हैं ऐसा नहीं है । बल्कि पूंजीवादी जो सामाजिक अथवा राजकीय नियंत्रण करते हैं उसके प्रति सामान्य लोगों की सम्मति प्राप्त करने का माध्यम 'संस्कृति' है । इस प्रकार के 'संस्कृतिजन्यराजकीय, आर्थिक नियंत्रण को ग्रामची 'सांस्कृतिक आपखुदशाही' कहता है । इसलिये 'संघर्ष का, क्रांति का आधार आर्थिक वर्ग व्यवस्था अथवा राजकीय व्यवस्था नहीं, परंतु सांस्कृतिक आधार पर क्रांति करने से ही साम्यवादी व्यवस्था का लक्ष्य प्राप्त हो सकता है। ' कल्चरल स्टडीझ का संपूर्ण लेखन इसी 'प्रतिकारवादी'तर्क पर आधारित रहा है।
 
संपूर्ण रूप से साम्यवादी, मार्क्सवादी संरचना रखनेवाली कल्चरल स्टडीझ की विद्याशाखा पूरे विश्व के जो भी देशों के विश्वविद्यालय अथवा संशोधन केंद्रों में सीखाई जाती है, उन सभी देशों में 'वहाँ के 'राष्ट्रवाद' को सिर से पाँव तक छेद कर, मार्क्सवाद के, साम्यवाद के गृहितों को, तर्कों को बुद्धिप्रमाण्यवादी, तर्कशुद्ध वैज्ञानिक ऐसी प्रतिष्ठा प्राप्त करा कर 'शैक्षिक पाठ्यक्रम' के रूप में अध्ययन के लिये उपलब्ध करवाया जाता हैं । १९१० से १९३० के दौरान इटली की 'कम्युनिस्ट पार्टी' के अध्यक्ष अन्तोनिओ ग्रामची ( -पींपळे ऋवशीलळ) के क्लासिकल मार्क्सिझम की पुनर्रचना पर लेखन तथा लुइस अल्थुझर के 'संरचनावाद' के आधार पर विकसित यह विद्याशाखा माने बहुसंख्य देशों में राजकीय दृष्टि से असफल सिद्ध हुई साम्यवादी विचारधारा को एक बार फिर से खडा होने के लिये निर्माण किया हआ रंगमंच है। ग्रामची के मतानुसार 'कारीगर और कृषिमझदूरों ने सांप्रदायिक (फासीस्ट) लोगों को मत नहीं देना चाहिये । बुद्धिनिष्ठ साम्यवादी विचारों के प्रति सामान्य लोगों की पसंद निर्माण करने के लिये योजनाबद्ध पद्धति से कार्य करना पड़ेगा क्लासिकल मार्क्सिझम के अनुसार सामाजिक वर्गव्यवस्था आर्थिक स्थिति के अनुसार परिभाषित होती है इसलिये मार्क्स ने वर्ग विग्रह को क्रांति का कारण और ध्येय माना । परंतु ग्रामची ने मार्क्स के वर्ग विग्रह के तर्क को अधिक व्यापक बना कर ‘राजकीय एवं सामाजिक संघर्ष का क्षेत्र आर्थिकता न हो कर संस्कृति हैं' ऐसा विचार प्रस्तुत किया । उसके मतानुसार पूंजीवादी सामाजिक और राजकीय नियंत्रण करने के लिये केवल पुलिस, केद, दमन और लश्कर के ही पाशवी माध्यमों का प्रयोग करते हैं ऐसा नहीं है । बल्कि पूंजीवादी जो सामाजिक अथवा राजकीय नियंत्रण करते हैं उसके प्रति सामान्य लोगों की सम्मति प्राप्त करने का माध्यम 'संस्कृति' है । इस प्रकार के 'संस्कृतिजन्यराजकीय, आर्थिक नियंत्रण को ग्रामची 'सांस्कृतिक आपखुदशाही' कहता है । इसलिये 'संघर्ष का, क्रांति का आधार आर्थिक वर्ग व्यवस्था अथवा राजकीय व्यवस्था नहीं, परंतु सांस्कृतिक आधार पर क्रांति करने से ही साम्यवादी व्यवस्था का लक्ष्य प्राप्त हो सकता है। ' कल्चरल स्टडीझ का संपूर्ण लेखन इसी 'प्रतिकारवादी'तर्क पर आधारित रहा है।
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अंत में यही कहना है कि उपरोक्त जानकारी तो थोडासा हिस्सा ही है । १९५७ में आरम्भ हुई 'कल्चरल स्टडीझ' विद्याशाखा वर्तमान में विश्व के प्रमुख विश्वविद्यालयों की 'आंतरविद्याशाखा' स्तर की सब से अधिक लोकप्रिय शाखा मानी जाती है । उसमें कार्यरत वर्तमान बुद्धिवादियों की सूची बहुत लम्बी है । वैश्विक स्तर पर कुल मिला कर ३२ देशों के सभी प्रमुख विश्वविद्यालयों में यह विषय पढा और पढाया जाता है । इन विश्वविद्यालयों में इस विद्याशाखा में कार्यरत प्राध्यापक, विचारक हमेशां परस्पर संपर्क में रहते हैं । उनका नेटवर्क बहुत सक्रिय है। परस्पर विचार विमर्श निरंतर चलता रहता है । अपनी कारकिर्द को परदेश गमन का स्पर्श हो कर वह अधिकाधिक विकसित हो ऐसी महत्त्वाकांक्षा के साथ अनेक प्राध्यापक लोग 'कल्चरल स्टडीझ के 'ट्रेंड'का अनुसरण कर के कुछ भी वैचारिक स्पष्टता के बिना ही इस विद्याशाखा के अंतर्गत अनुसन्धान करते हैं और विद्यार्थियों को भी उसके लिये प्रोत्साहित करते हैं । विशेष रूप से कुछ सीमित स्वरूप में इस विषय की 'वैल्कपिक' रचना का तर्क कुशलतापूर्वक भारत देश के संदर्भ में प्रस्तुत हो सकता है।
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अंत में यही कहना है कि उपरोक्त जानकारी तो थोडासा हिस्सा ही है । १९५७ में आरम्भ हुई 'कल्चरल स्टडीझ' विद्याशाखा वर्तमान में विश्व के प्रमुख विश्वविद्यालयों की 'आंतरविद्याशाखा' स्तर की सब से अधिक लोकप्रिय शाखा मानी जाती है । उसमें कार्यरत वर्तमान बुद्धिवादियों की सूची बहुत लम्बी है । वैश्विक स्तर पर कुल मिला कर ३२ देशों के सभी प्रमुख विश्वविद्यालयों में यह विषय पढा और पढाया जाता है । इन विश्वविद्यालयों में इस विद्याशाखा में कार्यरत प्राध्यापक, विचारक सदां परस्पर संपर्क में रहते हैं । उनका नेटवर्क बहुत सक्रिय है। परस्पर विचार विमर्श निरंतर चलता रहता है । अपनी कारकिर्द को परदेश गमन का स्पर्श हो कर वह अधिकाधिक विकसित हो ऐसी महत्त्वाकांक्षा के साथ अनेक प्राध्यापक लोग 'कल्चरल स्टडीझ के 'ट्रेंड'का अनुसरण कर के कुछ भी वैचारिक स्पष्टता के बिना ही इस विद्याशाखा के अंतर्गत अनुसन्धान करते हैं और विद्यार्थियों को भी उसके लिये प्रोत्साहित करते हैं । विशेष रूप से कुछ सीमित स्वरूप में इस विषय की 'वैल्कपिक' रचना का तर्क कुशलतापूर्वक भारत देश के संदर्भ में प्रस्तुत हो सकता है।
    
साम्यवाद के 'सामाजिक वर्ग विग्रह के तर्क एवं सिद्धांत पर आधारित तथा सशस्त्र अथवा आंदोलनात्मक प्रतिकार की कार्य पद्धति पर आधारित 'कल्चरल स्टडीझ' नामक विद्याशाखा अथवा विषय भारत में पढाया जाना अपने आप में दुर्भाग्य की बात है। भारत पहले ही सेंकडों वर्षों से मुगल अथवा ब्रिटिश साम्राज्य के आधिपत्य में रहने के कारण अपना स्वत्व एवं अस्मिता बड़े पैमाने पर गँवा बैठा है । ऐसे आघातों के कारण दुर्बल मानसिकता प्राप्त देश में ऐसा विषय पढाने का अर्थ है वैविध्यपूर्ण धार्मिक समाज को राष्ट्रीयता की भावना से एक करने वाले विचारों के स्थान पर देश विघातक विचारों की सहायता से देश के युवकों की उर्जा और उत्साह नष्ट करना । सामाजिक सौहार्दपूर्ण वातावरण नष्ट करना, प्रत्येक समुदाय को एक दूसरे के विरुद्ध, व्यक्ति को व्यक्ति विरुद्ध, युवा पीढी को अपनी पूर्व पीढी विरुद्ध, स्त्रियों को पुरुषों के विरुद्ध, व्यक्ति को अपने परिवार एवं समाज विरुद्ध, नागरिकों को सरकार विरुद्ध, कर्मचारियों को अपनी अपनी कम्पनी के विरुद्ध, देश के लोगों को अपने देश विरुद्ध निरंतर संघर्षमय रखने का प्रशिक्षण देनेवाली यह शिक्षा के माध्यम से निर्माण की गई व्यवस्था है । उसका उद्देश्य भारत के वैशिष्ट्यपूर्ण विविधतायुक्त समाज को एकत्व के संस्कारों द्वारा संगठित कर देश की शक्ति बढाने के कार्य में बाधा उत्पन्न करना है । तथा उसके परिणामस्वरूप विभाजित और असंगठित समाज का, युवा, महिला, दलित, अल्पसंख्यांक, मझदूर, शोषित, पीडित वर्ग का, कुलमिलाकर 'सामाजिक विषमता का लाभ उठाकर, सदियों के राजकीय एवं सांस्कृतिक पारतंत्र्य के बाद फिर से विश्व स्तर पर अपनी पहचान बनाने का प्रयत्न कर रहे भारत को फिर एक बार स्वविस्मृति की गर्ता में धकेलने का यह कारस्थान शिक्षा के माध्यम से हो रहा है यह बडे दुर्भाग्य की बात है।
 
साम्यवाद के 'सामाजिक वर्ग विग्रह के तर्क एवं सिद्धांत पर आधारित तथा सशस्त्र अथवा आंदोलनात्मक प्रतिकार की कार्य पद्धति पर आधारित 'कल्चरल स्टडीझ' नामक विद्याशाखा अथवा विषय भारत में पढाया जाना अपने आप में दुर्भाग्य की बात है। भारत पहले ही सेंकडों वर्षों से मुगल अथवा ब्रिटिश साम्राज्य के आधिपत्य में रहने के कारण अपना स्वत्व एवं अस्मिता बड़े पैमाने पर गँवा बैठा है । ऐसे आघातों के कारण दुर्बल मानसिकता प्राप्त देश में ऐसा विषय पढाने का अर्थ है वैविध्यपूर्ण धार्मिक समाज को राष्ट्रीयता की भावना से एक करने वाले विचारों के स्थान पर देश विघातक विचारों की सहायता से देश के युवकों की उर्जा और उत्साह नष्ट करना । सामाजिक सौहार्दपूर्ण वातावरण नष्ट करना, प्रत्येक समुदाय को एक दूसरे के विरुद्ध, व्यक्ति को व्यक्ति विरुद्ध, युवा पीढी को अपनी पूर्व पीढी विरुद्ध, स्त्रियों को पुरुषों के विरुद्ध, व्यक्ति को अपने परिवार एवं समाज विरुद्ध, नागरिकों को सरकार विरुद्ध, कर्मचारियों को अपनी अपनी कम्पनी के विरुद्ध, देश के लोगों को अपने देश विरुद्ध निरंतर संघर्षमय रखने का प्रशिक्षण देनेवाली यह शिक्षा के माध्यम से निर्माण की गई व्यवस्था है । उसका उद्देश्य भारत के वैशिष्ट्यपूर्ण विविधतायुक्त समाज को एकत्व के संस्कारों द्वारा संगठित कर देश की शक्ति बढाने के कार्य में बाधा उत्पन्न करना है । तथा उसके परिणामस्वरूप विभाजित और असंगठित समाज का, युवा, महिला, दलित, अल्पसंख्यांक, मझदूर, शोषित, पीडित वर्ग का, कुलमिलाकर 'सामाजिक विषमता का लाभ उठाकर, सदियों के राजकीय एवं सांस्कृतिक पारतंत्र्य के बाद फिर से विश्व स्तर पर अपनी पहचान बनाने का प्रयत्न कर रहे भारत को फिर एक बार स्वविस्मृति की गर्ता में धकेलने का यह कारस्थान शिक्षा के माध्यम से हो रहा है यह बडे दुर्भाग्य की बात है।

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