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अन्याय, अनीति, स्वार्थ से प्रेरित ऐसा कोई भी कार्य हिंसा है। जो किसी भी रूप में दूसरे का अधिकार छीनता है अहित करता है वह हिंसापूर्ण कृत्य है। इस दृष्टि से वर्तमान अर्थव्यवस्था पराकोटि की हिंसक व्यवस्था है। पर्यावरण का प्रदूषण करने वाला व्यवहार और व्यवस्था - आचरण और व्यवसाय - हिंसा है। प्राणियों के लिये जीवन दूभर बनाने वाला कृत्य हिंसा है। उदाहरण के लिये पक्की सडक पर पक्षी दाना नहीं चुग सकते और पशुओं के पैरों के खुर खराब होते हैं। प्रदूषण के कारण पक्षी, प्लास्टिक के कारण गायें मरती हैं। यह हिंसा है। बीजों को उत्पादन के लिये अक्षम बनाना हिंसा है । खाद्य पदार्थों और औषधियों में मिलावट करना हिंसा है। दूसरों को बेरोजगार बनाना हिंसा है । अर्थात् आज की समृद्धि हिंसक समृद्धि है। इस समृद्धि को उचित बनाने वाला विचार हिंसक है। उसके अनुकूल शिक्षा देना हिंसक शिक्षा है। इसी के पक्ष में न्याय देना हिंसा है। योगशास्त्र में अहिंसा का परिणाम बताते हुए कहा है, 'अहिंसा प्रतिष्ठायां तत्सन्निधौ वैरत्यागः।' अर्थात् अहिंसा में प्रतिष्ठा होने से उसके आसपास का वै शान्त हो जाता है। अर्थात् जो व्यक्ति अहिंसक है उसकी उपस्थिति में एक दूसरे के स्वाभाविक शत्रु भी अपना वैर छोड़ देते हैं। हम ऋषियों के आश्रम के चित्र देखते हैं तब अनेक बार देखा है कि आश्रम के जलाशय में शेर और हिरन साथ साथ पानी पीते हैं। यह कल्पना नहीं है, ऋषि की अहिंसा का यह प्रभाव है। अर्थात् अहिंसक समाज में सुरक्षा, आश्वस्ति, सहृदयता, सज्जनता अपने आप पनपते हैं। हिंसक वातावरण में भय, चिन्ता, तनाव, असुरक्षा आदि बढते जाते हैं। हिंसक समाज में जेल, न्यायालय, अस्पताल, पुलीस आदि की बहुतायत होती है।
 
अन्याय, अनीति, स्वार्थ से प्रेरित ऐसा कोई भी कार्य हिंसा है। जो किसी भी रूप में दूसरे का अधिकार छीनता है अहित करता है वह हिंसापूर्ण कृत्य है। इस दृष्टि से वर्तमान अर्थव्यवस्था पराकोटि की हिंसक व्यवस्था है। पर्यावरण का प्रदूषण करने वाला व्यवहार और व्यवस्था - आचरण और व्यवसाय - हिंसा है। प्राणियों के लिये जीवन दूभर बनाने वाला कृत्य हिंसा है। उदाहरण के लिये पक्की सडक पर पक्षी दाना नहीं चुग सकते और पशुओं के पैरों के खुर खराब होते हैं। प्रदूषण के कारण पक्षी, प्लास्टिक के कारण गायें मरती हैं। यह हिंसा है। बीजों को उत्पादन के लिये अक्षम बनाना हिंसा है । खाद्य पदार्थों और औषधियों में मिलावट करना हिंसा है। दूसरों को बेरोजगार बनाना हिंसा है । अर्थात् आज की समृद्धि हिंसक समृद्धि है। इस समृद्धि को उचित बनाने वाला विचार हिंसक है। उसके अनुकूल शिक्षा देना हिंसक शिक्षा है। इसी के पक्ष में न्याय देना हिंसा है। योगशास्त्र में अहिंसा का परिणाम बताते हुए कहा है, 'अहिंसा प्रतिष्ठायां तत्सन्निधौ वैरत्यागः।' अर्थात् अहिंसा में प्रतिष्ठा होने से उसके आसपास का वै शान्त हो जाता है। अर्थात् जो व्यक्ति अहिंसक है उसकी उपस्थिति में एक दूसरे के स्वाभाविक शत्रु भी अपना वैर छोड़ देते हैं। हम ऋषियों के आश्रम के चित्र देखते हैं तब अनेक बार देखा है कि आश्रम के जलाशय में शेर और हिरन साथ साथ पानी पीते हैं। यह कल्पना नहीं है, ऋषि की अहिंसा का यह प्रभाव है। अर्थात् अहिंसक समाज में सुरक्षा, आश्वस्ति, सहृदयता, सज्जनता अपने आप पनपते हैं। हिंसक वातावरण में भय, चिन्ता, तनाव, असुरक्षा आदि बढते जाते हैं। हिंसक समाज में जेल, न्यायालय, अस्पताल, पुलीस आदि की बहुतायत होती है।
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पश्चिमी जीवनव्यवस्था के जितने भी आयाम हैं वे सब हिंसक हैं । इसी लिये वह आसुरी समाज है । भारत में असुर नहीं है ऐसा तो नहीं है । युगों से असुर रहे ही हैं और प्रभावी भी रहे हैं परन्तु भारत की मान्य व्यवस्था आसुरी नहीं है। भारत हमेशा अहिंसक समाजव्यवस्था का पक्षधर रहा है। आज भारत का अहिंसक समाज हिंसा से दृषित हो गया है यह सत्य है । परन्तु वह अस्वास्थ्य है, बिमारी है, व्याधि और उपाधि है, स्वभाव नहीं है । इसलिये इस रोग से मुक्त होना है। भारत के प्रदीर्घ इतिहास में पाँचसौ वर्षों से लगी यह बिमारी बहत लम्बी नहीं कही जा सकती तथापि उपचार की दृष्टि से पर्याप्त रूप से कष्टसाध्य है। यह परमात्मा की कृपा माननी चाहिये कि अभी यह बिमारी असाध्य या प्राणघातक नहीं बनी है। परन्तु इसे हल्के से भी नहीं लेना चाहिये। इससे मुक्त हुए बिना न हमारा राष्ट्रजीवन ठीक हो सकता है न विश्व भारत से लाभान्वित हो सकता है।
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पश्चिमी जीवनव्यवस्था के जितने भी आयाम हैं वे सब हिंसक हैं । इसी लिये वह आसुरी समाज है । भारत में असुर नहीं है ऐसा तो नहीं है । युगों से असुर रहे ही हैं और प्रभावी भी रहे हैं परन्तु भारत की मान्य व्यवस्था आसुरी नहीं है। भारत सदा अहिंसक समाजव्यवस्था का पक्षधर रहा है। आज भारत का अहिंसक समाज हिंसा से दृषित हो गया है यह सत्य है । परन्तु वह अस्वास्थ्य है, बिमारी है, व्याधि और उपाधि है, स्वभाव नहीं है । इसलिये इस रोग से मुक्त होना है। भारत के प्रदीर्घ इतिहास में पाँचसौ वर्षों से लगी यह बिमारी बहत लम्बी नहीं कही जा सकती तथापि उपचार की दृष्टि से पर्याप्त रूप से कष्टसाध्य है। यह परमात्मा की कृपा माननी चाहिये कि अभी यह बिमारी असाध्य या प्राणघातक नहीं बनी है। परन्तु इसे हल्के से भी नहीं लेना चाहिये। इससे मुक्त हुए बिना न हमारा राष्ट्रजीवन ठीक हो सकता है न विश्व भारत से लाभान्वित हो सकता है।
    
==== ६. एकरूपता नहीं एकात्मता ====
 
==== ६. एकरूपता नहीं एकात्मता ====
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==== ७. धर्म के स्वीकार की बाध्यता ====
 
==== ७. धर्म के स्वीकार की बाध्यता ====
यह कितने आश्चर्य की बात है कि भारत में हम जिस धर्म की हमेशा बात करते हैं उस धर्म का पश्चिम में कोई स्थान ही नहीं है, किंबहुना वहाँ के जीवनविचार में धर्म संकल्पना का अस्तित्व ही नहीं है । उनके शब्दकोष में धर्म के लिये कोई पर्यायवाची शब्द भी नहीं है। यह तो धार्मिकों की ही गलती है कि उन्होंने धर्म का पर्यायवाची शब्द रिलीजन को बनाया अथवा पश्चिम के लोगों द्वारा धर्म को रिलीजन कहे जाने पर कोई आपत्ति नहीं उठाई । इस कारण से विश्व में तो ठीक, भारत में भी धर्म विवाद का विषय बन गया।
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यह कितने आश्चर्य की बात है कि भारत में हम जिस धर्म की सदा बात करते हैं उस धर्म का पश्चिम में कोई स्थान ही नहीं है, किंबहुना वहाँ के जीवनविचार में धर्म संकल्पना का अस्तित्व ही नहीं है । उनके शब्दकोष में धर्म के लिये कोई पर्यायवाची शब्द भी नहीं है। यह तो धार्मिकों की ही गलती है कि उन्होंने धर्म का पर्यायवाची शब्द रिलीजन को बनाया अथवा पश्चिम के लोगों द्वारा धर्म को रिलीजन कहे जाने पर कोई आपत्ति नहीं उठाई । इस कारण से विश्व में तो ठीक, भारत में भी धर्म विवाद का विषय बन गया।
    
धर्म के सन्दर्भ में पश्चिम की स्थिति को समझने के लिये अत्यन्त संक्षेप में धर्म और रिलीजन के अर्थ और अन्तर को संक्षेप में समझ लेना उचित रहेगा।
 
धर्म के सन्दर्भ में पश्चिम की स्थिति को समझने के लिये अत्यन्त संक्षेप में धर्म और रिलीजन के अर्थ और अन्तर को संक्षेप में समझ लेना उचित रहेगा।

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