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| मराठवाड़ा के जाम्ब ग्राम में जन्मे समर्थ रामदास ने विवाह-मण्डप से भागकर पंचवटी में 12 वर्ष तपस्या की, सम्पूर्ण देश का भ्रमण कर प्रदेश-प्रदेश का अवलोकन किया और धर्मोद्धार एवं समाजोद्धार के कार्य में प्रवृत्त हुए तथा विदेशी-विधर्मी आक्रान्ताओं से त्रस्त हिन्दूजाति को समर्थ, स्फूर्त और तेजस्वी बनाने के लिए कर्मयोग का संदेश दिया। | | मराठवाड़ा के जाम्ब ग्राम में जन्मे समर्थ रामदास ने विवाह-मण्डप से भागकर पंचवटी में 12 वर्ष तपस्या की, सम्पूर्ण देश का भ्रमण कर प्रदेश-प्रदेश का अवलोकन किया और धर्मोद्धार एवं समाजोद्धार के कार्य में प्रवृत्त हुए तथा विदेशी-विधर्मी आक्रान्ताओं से त्रस्त हिन्दूजाति को समर्थ, स्फूर्त और तेजस्वी बनाने के लिए कर्मयोग का संदेश दिया। |
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| + | '''<big>पुरन्दरदास</big>''' |
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| + | कलियुगाब्द 47 वीं शताब्दी (ई० 16वीं) के कर्नाटक के महान् संत कवि, जिनके भजन कर्नाटकमें जन-जन की जिह्वा पर हैं। ये मध्य सम्प्रदाय के वैरागी कृष्णभक्त थे। इन्होंने भारत की तीर्थयात्रा की थी और विभिन्न क्षेत्रों में कुछ काल तक निवास करते हुए वहाँ के देवताओं पर भक्तिरसयुक्त पदों की रचना की थी। बड़ी संख्या में लिखे इनके पदों में से आज थोड़े ही उपलब्ध हैं। ये ‘दसिरपदगलू' के नाम से प्रसिद्ध हैं। |
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| + | <blockquote>'''बिरसा सहजानन्दो रामानन्दस्तथा महान्। वितरन्तु सदैवैते दैवीं सद्गुणसम्पदम् ॥19 ॥''' </blockquote> |
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| + | '''<big>बिरसा</big>''' |
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| + | वनवासियों में ‘बिरसा भगवान् के नाम से स्मरण किये जाने वाले बिरसा मुण्डा उत्कट देशभक्त हुएहैं। इनका जन्म बिहार के जनजाति-बहुल छोटानागपुर क्षेत्र के रॉची जिले में युगाब्द 4976 (ई०1875) में हुआ। अंग्रेजों द्वारा भारतीयों पर किये जाने वाले अत्याचारों और भारत की सम्पदा की उनके द्वारा की जा रही लूट को देखकर बिरसा ने उनका प्रतिरोध करने का निश्चय कर लिया। इन्होंने अंग्रेज शासकों के विरुद्ध वनवासियों को संगठित किया और सशस्त्र विद्रोह कर अंग्रेजों को कड़ी चुनौतीदी। 25 वर्ष की आयु में बंदी बना लिये जाने परइन्हेंकारागारमें ही मार दिया गया। |
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| + | '''<big>सहजानन्द</big>''' |
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| + | युगाब्द 4882 (ई० 1781) में अयोध्या के निकट छपैया ग्राम में जन्मे हरिकृष्ण की बाल्यावस्था में ही उसके माता-पिता परलोक सिधार गये और वह बालक विरक्त होकर एक तीर्थ से दूसरे तीर्थ में भ्रमण करने लगा। किसी योगी ने सुपात्र जानकर योगसाधना का मार्ग बता दिया। 16 वर्ष की आयु में सौराष्ट्र (गुजरात) के लोज ग्राम पहुँचे। वहाँ रामानन्द सम्प्रदाय का मठ था। उनके संचालक स्वामी रामानन्द ने हरिकृष्ण को संन्यास-दीक्षादेकर सहजानन्द नाम दिया। स्वामी सहजानन्द ने मठमें आचार्य का कार्य करने के अतिरिक्त समाज के खोजा, मोची, कारीगर आदि वर्गों में अध्यात्म—चेतना जगाने का विशेष कार्य किया। उन्होंने स्वामीनारायण सम्प्रदाय के माध्यम से वैष्णव धर्म का प्रचार किया और कच्छ-काठियावाड़ क्षेत्र में सामान्यजनों के अतिरिक्त अपराधकर्मियों की भी सन्मार्ग पर लगाया। |
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| + | '''<big>रामानन्द</big>''' |
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| + | काशीवासी सुप्रसिद्ध रामभक्त श्री रामानन्द का आविर्भाव कलियुगाब्द 45वीं (ई० 14वीं) शताब्दी में हुआ। इन्होंने शैव और वैष्णव सम्प्रदायों में बढ़ रहे वैमनस्य को मिटाया और वैष्णव सम्प्रदाय के कठोरनियमों में छूटदेकर उसे सर्वजन-सुलभ बनाया। भक्ति के क्षेत्र में छुआछूत और जातिभेद के लिए कोई स्थान नहीं, भगवान् का द्वार बिना किसी भेदभाव के सबके लिए खुला है, ऐसी अपनी मान्यता को उन्होंने व्यावहारिक रूप में स्थापित किया। महात्मा कबीर ने उन्हीं से राम-नाम का गुरु-मंत्र ग्रहण किया था। कबीर,रैदास, पीपा आदि अनेक संत और भक्त कवि उनके शिष्य थे। यवन शासन-काल में उन्होंने अपने रामानन्दीय सम्प्रदाय का प्रवर्तन कर समाज को संगठित किया और उसकी रक्षा की। उक्ति प्रसिद्ध है: |
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| + | भक्ति द्राविड़ ऊपजी लाये रामानन्द। प्रकट किया। कबीर ने सप्त द्वीप नवखण्ड। |
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| + | <blockquote>'''<big>भरतर्षि: कालिदास: श्रीभोजो जकणास्तथा। सूरदासस्त्यागराजो रसखानश्च सत्कविः ॥20 ॥</big>''' </blockquote> |
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| + | '''<big>भरत ऋषि</big>''' |
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| + | नाट्यशास्त्र के आद्याचार्य। भरत मुनि के नाट्यशास्त्र में नाटक, संगीत, नृत्य और रस सिद्धान्त का सूक्ष्म विवेचन किया गया है। यही नहीं,चारों प्रकार के (सुषिर, तन्त्री, आतोद्य और घन) वाद्य यंत्रो के निर्माण की विधियाँ भी भरत मुनि ने अपने ग्रंथ में बतायीं। संगीतशास्त्र का उन्होंने केवल कला पक्ष ही नहीं, अपितु वैज्ञानिक पक्ष भी उजागर किया है। |
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| + | '''<big>कालिदास</big>''' |
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| + | संस्कृत के श्रेष्ठतम कवि और नाटककार कालिदास राजा विक्रमादित्य के समकालीन थे। कुछविद्वान्इन्हेंईसा से कुछवर्षपूर्वकातथा कुछगुप्त-काल का मानतेहैं। किंवदन्ती हैकि इनका विवाह एक विदुषी राजकुमारी से करा दिया गया था,जिसने इन्हें मूर्ख कहकर अपमानित किया। अपमान के दंश ने उनके हृदय में संकल्प जगा दिया। कालिदास सरस्वती की कठिन साधना में जुटगये और काव्यकलामें महानतम स्थान पर पहुँचकर ही शान्ति की साँसली। इनके चारकाव्य तथा तीन नाटक प्रसिद्ध हैं। काव्य हैं : रघुवंश, कुमारसम्भव, मेघदूत और ऋतुसंहार। नाटक हैं: अभिज्ञान शाकुन्तलम्, विक्रमोर्वशीयम् और मालविकाग्निमित्रम्। अभिज्ञान शाकुन्तलम् नाटक पढ़कर प्रसिद्ध जर्मन कवि गेटे भाव-विभोर हो गया था। कालिदास ने अपनी रचनाओं में भारतीय संस्कृति की रसभीनी अभिव्यक्ति की है। इनकी रचनाओं मेंप्रेम के ललित औरउदात्तरूपउत्कृष्ट कलात्मकता से प्रस्तुत हुएहैं। उपमा अलंकार में कालिदास की कोई तुलना नहीं। |
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| + | '''<big>भोज</big>''' |
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| + | एक राजा,जिन्होंने स्वप्न देखा था कि उन्होंने अपनेशत्रुओं का उच्छिष्ठ खाया हैतथा उनके शत्रुओं ने उन्हें राज्य तथा स्त्रियों से वंचित कर दिया है। उन्होंने इससे अत्यंत प्रभावित होकर गृहत्याग किया और साधना द्वारा ब्रह्मनिर्वाण प्राप्त किया। मालवा के परमारवंशी राजा भोज भी प्रसिद्ध हुए हैं जो स्वयं बहुविद्याविशारद थे और विद्वानों को प्रश्रय देने के लिए उनकी बड़ी ख्याति थी। योगदर्शन पर भोजवृत्ति नाम से प्रसिद्ध टीकाग्रंथ के अतिरिक्त ज्योतिष, साहित्य, संगीत, अश्वशास्त्र आदि अनेक विषयों पर भोज के नाम से जो ग्रंथ उपलब्ध हैं, वे राजा भोज की ही कृतियाँमानी जाती हैं। कुछ अन्य पौराणिक व्यक्तियों के भी भोज नाम से उल्लेख मिलते हैं। |
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| + | '''<big>जकणाचार्य</big>''' |
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| + | कर्नाटक के प्रसिद्ध शिल्पी। इन्होंने कर्नाटक के प्रसिद्ध हलेबीड़, बेलूर, सोमनाथपुर आदि मन्दिरों का निर्माण किया। शिल्पशास्त्र की 'होयसल शैली' इन्हीं की देन है। सूरदासकलियुग की 47वीं (ई० 16वीं) शताब्दी मेंहुए, भक्तिकाल के सर्वश्रेष्ठकृष्णभक्त महाकवि। ये अष्टछाप (आठउच्चकोटि के कृष्णभक्त कवियों का समूह) के कवि थे। इन्होंने श्रीकृष्ण की लीलाओं का— विशेष रूप से बाल-लीलाओं और प्रेमलीलाओं का – भक्ति-विह्वल भाव से वर्णन किया है। ये श्री वल्लभाचार्य के शिष्य थे और वृन्दावन में श्रीनाथ जी के समक्ष प्रतिदिन एक नया पद (भजन) बनाकर गाते थे। अंधे होते हुए भी इन्होंने अपने आराध्य श्रीकृष्ण की लीलाओं का अत्यंत सूक्ष्म एवं मनोवैज्ञानिक वर्णन किया है। इसी कारण विद्वानों की मान्यता है कि वे जन्मांध नहीं रहेहोंगे। बाद मेंही किसी कारणवशउनकी दृष्टिहानि हुई होगी,क्योंकि जिसने कोई भी रूप कभी देखा ही न हो वह उसका इतना सजीव वर्णन नहीं कर सकता। इनका काव्य संगीत गुण से युक्त है। 'सूरसागर' इनका उत्कृष्ट ग्रंथ है। यह ब्रजभाषा में रचे पदों का विशाल संग्रह है। |
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| + | '''<big>त्यागराज</big>''' |
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| + | कर्नाटक संगीत के प्रख्यातगायक एवं निष्ठावान् रामभक्त त्यागराज का जन्म युगाब्द 4868 (ई० 1767) में तमिलनाडु के तंजौर जिले में तिरुवायूर में हुआ था। त्यागराज ने लौकिक मनुष्य के स्तुतिगान से इंकार किया और अपने उपास्य की समृति में पंचरत्न कीर्तन रचे तथा गाये। उनके गीत तेलुगूमें रचे गये हैं। अस्सी वर्ष की आयु मेंउनकी मृत्युहुई। उनकी समाधि पर तिरुवायूर में प्रति पाँचवे वर्ष त्यागराज—आराधना नाम से संगीतोत्सव आयोजित किया जाता है जिसमें देश के बड़े-बड़े संगीतकार भाग लेते हैं और त्यागराज के कीर्तनों का गायन करते हैं। |
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| + | '''<big>रसखान [युगाब्द 4659-4719(1558-1618 ई०)]</big>''' |
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| + | सुप्रसिद्ध कृष्णभक्त कवि। इनका पूरा नाम सैयद इब्राहीम ‘रसखान' था। ये दिल्ली के पठान सरदार थे। इनका देश की राष्ट्रीय परम्परा से अटूट नाता था। इन्होंने भगवान् श्रीकृष्ण के अलौकिक प्रेम के रंग में रंगकर ब्रजभाषा में भक्ति रस के कवित्त-सवैयों की रचना की। वृन्दावन मेंगोस्वामी विट्ठलनाथने इन्हेंपुष्टिमार्ग की दीक्षा दी। इनकी रचनाओंमें कृष्णभक्ति की सहज और निर्मल अभिव्यक्ति पूर्ण आन्तरिकता और मार्मिकता से हुई है। 'प्रेम-वाटिका' और 'सुजान रसखान' इनके प्रसिद्ध काव्य-संग्रह हैं। |
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| + | <blockquote>'''<big>रविवर्मा भातखण्डे भाग्यचन्द्रः स भूपतिः। कलावन्तश्च विख्याता स्मरणीया निरन्तरम् ।। २१ ।।</big>'''</blockquote> |
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| + | '''<big>रविवर्मा [युगाब्द 4949-5006 (ई० 1848-1905)]</big>''' |
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| + | केरल में जन्मे सुप्रसिद्ध चित्रकार। इन्होंने लगभग 30 वर्ष भारतीय चित्रकला की साधना में लगाये। इनके चित्रों में से अधिकांश पौराणिक विषयों के हैं। कुछराजा-महाराजाओं के व्यक्ति-चित्र भी हैं। इनकी चित्रकला-शैली में भारतीय तथा यूरोपीय शैलियों का सम्मिश्रण है। |
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| + | '''<big>भातखण्डे</big>''' |
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| + | युगाब्द 51वींशताब्दी (ईसा की 20वीं शती) में भारतीय संगीत केपुनरुद्धार कामहान्कार्य करने वाले मनीषियों में एक प्रमुख व्यक्तित्व, श्री भातखण्डे, व्यवसाय से अधिवक्ता थे। उनका जन्म महाराष्ट्र में हुआ था और वे बम्बई में सॉलिसिटर के रूप में कार्य करते थे। प्रारम्भ से ही संगीत में रुचि थी। मनरंग घराने के मुहम्मद अली खाँऔर अन्य संगीताचार्योंसे संगीत सीख कर उन्होंने अपना अधिकांश जीवन भारतीय संगीत में अनुसन्धान-कार्य और उसके प्रचार-प्रसार में लगा दिया। 'लक्ष्य मंजरी' और 'अभिनव राग मंजरी' उनकी बहुमूल्य कृतियाँहैं तथा लखनऊ *N का 'भातखण्डे संगीत विद्यापीठ' उनके योगदान का स्मरण दिलाता हुआ खड़ा है। |
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| + | '''<big>भाग्यचन्द्र</big>''' |
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| + | मणिपुर के ललितकलाउन्नायक राजा,जिनका मणिपुर में भारतीय संस्कृति के प्रचार-प्रसार में असाधारण योगदान रहा है। कृष्ण-कथाओं पर आधारित मणिपुरी नृत्य का विकास इनकी ही देन है। |
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| + | <blockquote>'''<big>अगस्त्यः कम्बुकौण्डिन्यौ राजेन्द्रश्चोलवं शजः । अशोकः पुष्यमित्रश्च खारवेलः सुनीतिमान् । २२ ।।</big>'''</blockquote> |
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| + | '''<big>अगस्त्य</big>''' |
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| + | एक वैदिक ऋषि,जिनका उल्लेखऋग्वेद में एकाधिक स्थानों पर मिलता है। इनके कर्तृत्व के सूचक तीन महत्वपूर्ण कार्य हैं-वातापि राक्षस का संहार,विन्ध्याचल की बाढ़को रोकना तथा समुद्र आचमन। ये विन्ध्याचल लांघकर दक्षिण की ओर गये थे और आर्य सभ्यता का दक्षिण भारत में विस्तार किया था। बृहत्तर भारत में भी भारतीय संस्कृति और सभ्यता के प्रसार का महत्वपूर्ण कार्य इन्होंने सम्पन्न किया। दक्षिण-पूर्व एशिया के द्वीपों में अगस्त्य की मूर्ति की अर्चना आज भी की जाती है। |
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| + | '''<big>कम्बु</big>''' |
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| + | आधुनिक कम्बोडिया का प्राचीन नाम कम्बुज था। यह नाम कम्बु नामक महापुरुष के कारण रखा गया था। कम्बु मूलत: भारतवर्ष के निवासी राजा थे जिन्होंने पूर्व दिशा में दिग्विजय अभियान कर एक अरण्यमय प्रदेश में प्रवेश किया,वहाँ के नागपूजक राजा को परास्त करउसकी कन्यासे विवाहकिया और उस प्रदेश का उद्धार किया। कम्बुज साम्राज्य का प्रारम्भ कलियुग की 32वीं अर्थात् ईसा की पहली शताब्दी के श्रुतवर्मा नामक सम्राट् से हुआ। श्रुतवर्मा और उसके परवर्ती राजाओं ने कम्बुज साम्राज्य में हिन्दूधर्म तथा संस्कृति की पताका फहरायी। बाद में युगाब्द 38वीं से46वीं (ईसा की 7वीं से 15वीं) शताब्दी तक शैलेन्द्र वंश के राजाओंने कम्बुज पर शासन किया। |
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| + | '''<big>कौण्डिन्य</big>''' |
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| + | दक्षिण भारतवासी वीर पुरुष, जिन्होंने कलियुग की 32वीं (ईसा की प्रथम) शताब्दी में समुद्र-मार्ग से पूर्व की ओर जाकर महान् साम्राज्य की स्थापना की,जिसे (चीनी भाषा में) फूनान साम्राज्य के नाम से जाना जाता है और जिसमें कम्बोडिया, अनाम, स्याम, मलाया, इण्डो—चायना इत्यादि पौर्वात्य प्रदेशों का अन्तर्भाव था। युगाब्द 35वीं (ई० चौथी) शताब्दी में दक्षिण भारत से कौण्डिन्य नाम का ही एक दूसरा वीर पुरुष फूनान साम्राज्य में गया था, जिसने हिन्दू धर्म तथा संस्कृति के पुनरुत्थान का अविस्मरणीय कार्य किया। कौण्डिन्य साम्राज्य के संस्थापक प्रथम कौण्डिन्य के राजवंश (सोमवंश) में चन्द्रवर्मा,जयवर्मा,रुद्रवर्मा इत्यादि महान् राजा हुए। फूनान के हिन्दूसाम्राज्य की ओर से पूर्व के अन्य राज्यों में दूतमण्डल भेजे जाते थे। इसी वंश के युगाब्द 36वीं (ई० पाँचवी) शताब्दी के शासक कौण्डिन्य जयवर्मा ने शाक्य नागसेन नामक भिक्षु को धर्म-प्रचारार्थ चीन भेजा था। |
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| + | '''<big>राजेन्द्रचोल</big>''' |
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| + | दक्षिण भारत के सुप्रसिद्धचोल वंश के पराक्रमी शासक,जिन्होंने चोल साम्राज्य का विस्तार समुद्रपारतक कर मलायाद्वीप पर अधिकार करलिया।युगाब्द 42वीं (ई०11वीं) शताब्दी के इस पराक्रमी राजा नेदक्षिण-पूर्व एशिया के द्वीपों (मलाया,सुमात्रा,जावा) को जीतकर वहाँभारतीय संस्कृति का प्रचार किया। इससे पूर्व वहाँ भारत से ही गये हुएशैलेन्द्र वंश का शासन था जिसके शिथिल पड़ने पर वह कार्य राजेन्द्र ने संभाल लिया। राजेन्द्र पराक्रमी शासक राजराज के पुत्र थे। उन्होंने अपने पिता के साम्राज्य का दूर-दूर तक विस्तार किया। उनकी नौसेना बहुत शक्तिशाली थी। राजेन्द्र चोल ने अपने लगभग तीस वर्ष के सफलशासन में धर्म,साहित्य औरकला को बहुत प्रोत्साहन दिया। उन्होंने अनेक भव्य मन्दिरों का निर्माण भी कराया। |
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| + | '''<big>अशोक [युगाब्द 1630 (ई० पू०1472)में सिंहासनारूढ़]</big>''' |
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| + | सम्राट्चन्द्रगुप्त मौर्य के पौत्र तथा बिम्बसारकेपुत्र सम्राट् अशोक काशासनकाल पाश्चात्य इतिहासकार कलियुग की 28वीं (ईसा-पूर्व तीसरी) शताब्दी बताते हैं जबकि भारतीय परम्परा में यह उससे 1100 वर्ष पूर्व युगाब्द 17वीं शती माना जाता है। शासन के प्रारम्भ में अशोक ने साम्राज्य-विस्तार की नीति अपनायी। अशोकका साम्राज्यप्राय: सम्पूर्ण भारत पर औरपश्चिमोत्तर में हिन्दूकुश एवं ईरान की सीमा तक था। कलिंग के भीषण युद्ध में विजयी होने पर भी, भयंकर नरसंहार देखकर अशोक का हृदय-परिवर्तन हुआ। तत्पश्चात् अशोक ने शस्त्र और हिंसा पर आधारितदिग्विजय की नीति छोड़कर धर्म-विजय की नीति अपनायी। उन्होंने बौद्ध धर्म ग्रहण कर अपने साम्राज्य के सभी साधनों को लोकमंगल के कार्यों में लगाया। धर्म-विजय की प्राप्ति के लिए अशोक ने पर्वत-शिलाओं,प्रस्तर-स्तम्भोंऔरगुहाओंमें धर्मप्रेरकवाक्यअंकितकराये,प्रचारक-संघ का गठन किया तथा धर्मचक्र-प्रवर्तन हेतु विदेशों में प्रचारक भेजे। |
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| + | <big>'''पुष्यमित्र [युगाब्द 1884 (ई० पू० 1218) में सिंहासनारूढ़]'''</big> |
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| + | मौर्यों के बाद मगध में शुग वंश का राज्य प्रतिष्ठित करने वाले एक प्रतापी राजा। इन्होंने अन्तिम मौर्य राजा बृहद्रथ का वध कर मगध का सिंहासन प्राप्त किया, क्योंकि बृहद्रथ की अहिंसा-नीति सेनापति पुष्यमित्र शुग को देश की सीमाओं को आक्रान्त कर रहे विदेशियों के विरुद्ध सैनिक अभियान की अनुमतिदेनेमें सर्वथाबाधक थी। पुष्यमित्र ने पश्चिमी सीमान्त तक दिग्विजय कर यवनों को बाहर खदेड़ा और सिन्धु नदी के तट पर अश्वमेध यज्ञ किया। इन्होंने वैदिक धर्म की पुन:प्रतिष्ठा का महान् कार्य सम्पादित किया। पाटलिपुत्र में भी पुष्यमित्र ने भारी अश्वमेध यज्ञ किया। इनके दो अश्वमेध यज्ञ करने का उल्लेख अयोध्या के शिलालेख में मिलता है। भारतीय काल-गणना में पुष्यमित्र का समय कलियुग की 19वीं शताब्दी (ईसा से 1298 वर्ष पूर्व) माना जाताहै,किन्तु पाश्चात्य इतिहासकारों ने यह ईसा से दो शती पूर्व बताया है। इनके पुत्र अग्निमित्र का वृत्तान्त कालिदास के 'मालविकाग्निमित्रम्' नाटक में आया है। |
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| + | '''<big>खारवेल</big>''' |
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| + | उत्कल प्रदेश के चेदि या चेत वंश के प्रतापी राजा,जिन्होंनेसमकालीन अनेक शत्रुराजाओं कोपरास्त करने के बादमगधराजपुष्यमित्र शुग से युद्ध प्रारम्भ किया,किन्तुउसी समय यवनराज दिमित्र के मध्यदेश पर आक्रमण की राष्ट्रीय विपत्ति को पहचानकर सम्राट्पुष्यमित्र से सन्धि की और दिमित्र को परास्त किया। राजा खारवेल ने सातवाहन और उत्तरापथ के यवनों को परास्त करने के बाद अपने राज्य में जैन महासम्मेलन किया, जिसमें इन्हें'खेमराजा' और ' धर्मराजा' की उपाधियाँ प्रदान की गयीं। जैन मतावलम्बी राजा खारवेल के शिलालेख भुवनेश्वर के निकट खंडगिरि और उदयगिरि में पाये गये हैं। |