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| बहुत ही साधारण अर्थ है जन्मजन्मांतर से मुक्ति। यह संसार दुःखमय है और अपने दुर्भाग्य से एक के बाद दूसरे ऐसे अनेक जन्मों में संसार में दुःख भोगने के लिए आना ही पड़ता है। जन्म-पुनर्जन्म के चक्र से मुक्ति को मोक्ष कहा जाता है और सब मोक्ष चाहते हैं। विरोधाभास यह भी है कि साधु सन्त, तत्वज्ञानी, दुःखी और पीड़ित लोग कहते हैं कि यह संसार मिथ्या है और हम इससे छुटकारा चाहते हैं तो भी संसार की आसक्ति से मुक्त होना उनके लिए कठिन होता है। मोक्ष की बात करते-करते भी वे संसार से मुक्ति चाहते ही हैं, ऐसा नहीं होता । वे दुःखों से मुक्ति चाहते हैं, संसार से नहीं । | | बहुत ही साधारण अर्थ है जन्मजन्मांतर से मुक्ति। यह संसार दुःखमय है और अपने दुर्भाग्य से एक के बाद दूसरे ऐसे अनेक जन्मों में संसार में दुःख भोगने के लिए आना ही पड़ता है। जन्म-पुनर्जन्म के चक्र से मुक्ति को मोक्ष कहा जाता है और सब मोक्ष चाहते हैं। विरोधाभास यह भी है कि साधु सन्त, तत्वज्ञानी, दुःखी और पीड़ित लोग कहते हैं कि यह संसार मिथ्या है और हम इससे छुटकारा चाहते हैं तो भी संसार की आसक्ति से मुक्त होना उनके लिए कठिन होता है। मोक्ष की बात करते-करते भी वे संसार से मुक्ति चाहते ही हैं, ऐसा नहीं होता । वे दुःखों से मुक्ति चाहते हैं, संसार से नहीं । |
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− | हमारे सभी दर्शन भिन्न भिन्न शब्दावली का प्रयोग करने पर भी एक मुद्दे पर सहमत हैं कि हम अपने मूल रूप में आत्मा हैं, शरीर, प्राण, मन, बुद्धि आदि नहीं हैं। परंतु हम इस जगत में जन्म लेते हैं तो इस मूल स्वरूप का हमें विस्मरण हो जाता है। शास्त्र भले ही कहते हों तो भी हम अपने आपको शरीर, मन आदि ही कहते हैं। और वैसा ही व्यवहार करते हैं। अपने मूल सही स्वरूप को जानना मोक्ष है। यहाँ जानने का अर्थ बुद्धि से जानना नहीं होता, वह अनुभूति का विषय है। हमारा सारा विचार और व्यवहार का क्षेत्र बुद्धि में सीमित हो जाता है । अपने सही स्वरूप को जानना इस क्षेत्र से परे है । इसलिए वह कठिन भी हो जाता है। मूल स्वरूप को जानने को आत्मसाक्षात्कार भी कहते हैं । | + | हमारे सभी दर्शन भिन्न भिन्न शब्दावली का प्रयोग करने पर भी एक मुद्दे पर सहमत हैं कि हम अपने मूल रूप में आत्मा हैं, शरीर, प्राण, मन, बुद्धि आदि नहीं हैं। परंतु हम इस जगत में जन्म लेते हैं तो इस मूल स्वरूप का हमें विस्मरण हो जाता है। शास्त्र भले ही कहते हों तो भी हम अपने आपको शरीर, मन आदि ही कहते हैं। और वैसा ही व्यवहार करते हैं। अपने मूल सही स्वरूप को जानना मोक्ष है। यहाँ जानने का अर्थ बुद्धि से जानना नहीं होता, वह अनुभूति का विषय है। हमारा सारा विचार और व्यवहार का क्षेत्र बुद्धि में सीमित हो जाता है । अपने सही स्वरूप को जानना इस क्षेत्र से परे है । अतः वह कठिन भी हो जाता है। मूल स्वरूप को जानने को आत्मसाक्षात्कार भी कहते हैं । |
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| आत्मसाक्षात्कार या अपने मूल स्वरूप की अनुभूति पढ़ने से नहीं होती, अत्यंत बुद्धिमान होने से भी नहीं होती, अध्ययन करने से नहीं होती, दानपुण्य करने से नहीं होती, त्याग और तपश्चर्या करने से नहीं होती, कथा सुनने से, तीर्थयात्रा करने से, व्रत-उपवास करने से नहीं होती । लौकिक जगत में जिन्हें अच्छे काम कहा जाता है, ऐसे कामों से भी मुक्ति नहीं मिलती। संन्यासी बनने से भी नहीं मिलती। लोकोक्ति है कि काशी जाकर गंगा में डुबकी लगाने से मोक्ष प्राप्त होता है, काशी जाकर आरी से सर कटवाने से मोक्ष मिलता है। परन्तु यह केवल काशी का पुण्यनगरी के रूप में महत्व दर्शाने के लिए कहा गया है । वास्तव में इनका मोक्ष से कोई सम्बन्ध नहीं है। | | आत्मसाक्षात्कार या अपने मूल स्वरूप की अनुभूति पढ़ने से नहीं होती, अत्यंत बुद्धिमान होने से भी नहीं होती, अध्ययन करने से नहीं होती, दानपुण्य करने से नहीं होती, त्याग और तपश्चर्या करने से नहीं होती, कथा सुनने से, तीर्थयात्रा करने से, व्रत-उपवास करने से नहीं होती । लौकिक जगत में जिन्हें अच्छे काम कहा जाता है, ऐसे कामों से भी मुक्ति नहीं मिलती। संन्यासी बनने से भी नहीं मिलती। लोकोक्ति है कि काशी जाकर गंगा में डुबकी लगाने से मोक्ष प्राप्त होता है, काशी जाकर आरी से सर कटवाने से मोक्ष मिलता है। परन्तु यह केवल काशी का पुण्यनगरी के रूप में महत्व दर्शाने के लिए कहा गया है । वास्तव में इनका मोक्ष से कोई सम्बन्ध नहीं है। |
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| जन्म और मृत्यु कर्मों के कारण होते हैं। मनुष्य योनि ही कर्म करने वाली होती है। कर्म के फल होते हैं। जैसा कर्म वैसा फल मिलता है। उन फलों को भोगने के लिए यदि यह जन्म पर्याप्त नहीं होता है तब दूसरा जन्म होता है और वहाँ किए हुए कर्मों का फल भोगना होता है। मनुष्य के अलावा अन्य योनियों में केवल भोग ही भोगने होते हैं, वहाँ कर्म नहीं किया जाता। मनुष्य के सारे कर्मों का फल भोगना समाप्त हो जाता है, तब उसका दूसरा जन्म नहीं होता और वह मुक्त हो जाता है। परन्तु एक बार किए हुए कर्मों का फल भोगते भोगते और अनेक कर्म मनुष्य कर लेता है। फिर उनका फल होता है । इस प्रकार कर्म, कर्मफल, फिर कर्म ऐसा चक्र चलता रहता है और जन्म, पुनर्जन्म भी होता रहता है और मुक्ति नहीं मिलती । | | जन्म और मृत्यु कर्मों के कारण होते हैं। मनुष्य योनि ही कर्म करने वाली होती है। कर्म के फल होते हैं। जैसा कर्म वैसा फल मिलता है। उन फलों को भोगने के लिए यदि यह जन्म पर्याप्त नहीं होता है तब दूसरा जन्म होता है और वहाँ किए हुए कर्मों का फल भोगना होता है। मनुष्य के अलावा अन्य योनियों में केवल भोग ही भोगने होते हैं, वहाँ कर्म नहीं किया जाता। मनुष्य के सारे कर्मों का फल भोगना समाप्त हो जाता है, तब उसका दूसरा जन्म नहीं होता और वह मुक्त हो जाता है। परन्तु एक बार किए हुए कर्मों का फल भोगते भोगते और अनेक कर्म मनुष्य कर लेता है। फिर उनका फल होता है । इस प्रकार कर्म, कर्मफल, फिर कर्म ऐसा चक्र चलता रहता है और जन्म, पुनर्जन्म भी होता रहता है और मुक्ति नहीं मिलती । |
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− | इसलिए भगवद गीता कहती है कि कर्म के फल भोगते समय ऐसी कोई युक्ति करना सीख लें कि दूसरे कर्म न बनें। इसी युक्ति को श्री भगवान योग कहते हैं। इसे कर्मयोग भी कहते हैं। यह कैसे होता है? श्री भगवान कहते हैं कि कर्मों में आसक्त नहीं होने से कर्म हमें बाँधते नहीं हैं और फल नहीं देते। आसक्ति मन का स्वभाव है। इसलिए अनासक्त होने के लिए मन को वश में कर उसे अनासक्त बनाना सिखाना चाहिए। मन को वश में करना बहुत कठिन है परन्तु अभ्यास और वैराग्य से उसे वश में किया जा सकता है। इस प्रकार मोक्ष का शास्त्र भगवद्वीता बताती है ।
| + | अतः भगवद गीता कहती है कि कर्म के फल भोगते समय ऐसी कोई युक्ति करना सीख लें कि दूसरे कर्म न बनें। इसी युक्ति को श्री भगवान योग कहते हैं। इसे कर्मयोग भी कहते हैं। यह कैसे होता है? श्री भगवान कहते हैं कि कर्मों में आसक्त नहीं होने से कर्म हमें बाँधते नहीं हैं और फल नहीं देते। आसक्ति मन का स्वभाव है। अतः अनासक्त होने के लिए मन को वश में कर उसे अनासक्त बनाना सिखाना चाहिए। मन को वश में करना बहुत कठिन है परन्तु अभ्यास और वैराग्य से उसे वश में किया जा सकता है। इस प्रकार मोक्ष का शास्त्र भगवद्वीता बताती है । |
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| == मोक्ष प्राप्ति के मार्ग == | | == मोक्ष प्राप्ति के मार्ग == |
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| जिस प्रकार दृष्टि हीन स्वयं नहीं देख सकता परन्तु जो दृष्टियुक्त है वह स्वयं के और दूसरे के दृष्टि दोष को भी देख सकता है। मोक्षमार्ग की यात्रा को जानने का प्रकार भी ऐसा ही है। एक जीवनमुक्त दूसरे जीवनमुक्त को और मोक्षमार्ग पर चलने वाले की स्थिति को और जो मोक्षमार्ग पर नहीं चल रहे हैं, उनकी भी स्थिति को जान सकता है। पर यह कैसे जान पाता है यह लौकिक बुद्धि नहीं जान सकती । | | जिस प्रकार दृष्टि हीन स्वयं नहीं देख सकता परन्तु जो दृष्टियुक्त है वह स्वयं के और दूसरे के दृष्टि दोष को भी देख सकता है। मोक्षमार्ग की यात्रा को जानने का प्रकार भी ऐसा ही है। एक जीवनमुक्त दूसरे जीवनमुक्त को और मोक्षमार्ग पर चलने वाले की स्थिति को और जो मोक्षमार्ग पर नहीं चल रहे हैं, उनकी भी स्थिति को जान सकता है। पर यह कैसे जान पाता है यह लौकिक बुद्धि नहीं जान सकती । |
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− | बुद्धि पूछती है कि कोई जीवनमुक्त हो गया, अर्थात् किसी को मोक्ष मिल गया इसका क्या प्रमाण है? उत्तर यह है कि बुद्धि के क्षेत्र में तो कोई प्रमाण नहीं है क्योंकि यह बुद्धि से परे का क्षेत्र है। यह अनुभूति का क्षेत्र है और अनुभूति ही उसका प्रमाण है। बुद्धि नहीं समझती है तो भी युगों से लौकिक जगत ने अनुभूति के अस्तित्व को स्वीकार किया ही है और उसे श्रेष्ठतम प्रमाण के रूप में मान्यता भी प्राप्त है; अन्य सारे प्रमाणों का प्रमाण भी अनुभूति ही है। जब शेष सारे प्रमाण अपर्याप्त हो जाते हैं तब अनुभूति ही प्रमाण के रूप में रह जाती है। इसलिए उसे नकारा तो नहीं जाता। | + | बुद्धि पूछती है कि कोई जीवनमुक्त हो गया, अर्थात् किसी को मोक्ष मिल गया इसका क्या प्रमाण है? उत्तर यह है कि बुद्धि के क्षेत्र में तो कोई प्रमाण नहीं है क्योंकि यह बुद्धि से परे का क्षेत्र है। यह अनुभूति का क्षेत्र है और अनुभूति ही उसका प्रमाण है। बुद्धि नहीं समझती है तो भी युगों से लौकिक जगत ने अनुभूति के अस्तित्व को स्वीकार किया ही है और उसे श्रेष्ठतम प्रमाण के रूप में मान्यता भी प्राप्त है; अन्य सारे प्रमाणों का प्रमाण भी अनुभूति ही है। जब शेष सारे प्रमाण अपर्याप्त हो जाते हैं तब अनुभूति ही प्रमाण के रूप में रह जाती है। अतः उसे नकारा तो नहीं जाता। |
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| मोक्ष का एक अत्यंत व्यावहारिक अर्थ गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने बताया है। वे कहते हैं कि इस सृष्टि में सभी मनुष्यों का अपना अपना एक प्रयोजन होता है। उस प्रयोजन को पूर्ण करने के लिए ही हरेक को अपना अपना स्वभाव मिला है। उस स्वभाव के अनुसार सबका स्वधर्म अर्थात् कर्तव्य निश्चित होता है। इस कर्त्तव्य और स्वभाव को जानना और उसके प्रयोजन को पूर्ण कर लेना ही मोक्ष है। इसे ही भगवदूगीता ने अपने अपने कर्मों को करने के माध्यम से सिद्धि अर्थात जीवन का लक्ष्य अर्थात् मुक्ति अर्थात मोक्ष प्राप्त करना कहा है। | | मोक्ष का एक अत्यंत व्यावहारिक अर्थ गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने बताया है। वे कहते हैं कि इस सृष्टि में सभी मनुष्यों का अपना अपना एक प्रयोजन होता है। उस प्रयोजन को पूर्ण करने के लिए ही हरेक को अपना अपना स्वभाव मिला है। उस स्वभाव के अनुसार सबका स्वधर्म अर्थात् कर्तव्य निश्चित होता है। इस कर्त्तव्य और स्वभाव को जानना और उसके प्रयोजन को पूर्ण कर लेना ही मोक्ष है। इसे ही भगवदूगीता ने अपने अपने कर्मों को करने के माध्यम से सिद्धि अर्थात जीवन का लक्ष्य अर्थात् मुक्ति अर्थात मोक्ष प्राप्त करना कहा है। |
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| मोक्ष एक ऐसा लक्ष्य है. जिसकी अपेक्षा की, तो वह नहीं मिलता परन्तु अपेक्षा किए बिना यदि प्रामाणिकतापूर्वक मार्ग पर चलते रहे तो सहज ही मोक्ष मिल जाता है । | | मोक्ष एक ऐसा लक्ष्य है. जिसकी अपेक्षा की, तो वह नहीं मिलता परन्तु अपेक्षा किए बिना यदि प्रामाणिकतापूर्वक मार्ग पर चलते रहे तो सहज ही मोक्ष मिल जाता है । |
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− | दुःख से मुक्ति तो हम हमेशा चाहते ही हैं परन्तु दुःख किसे मानते हैं वह अपने अपने स्तर के अनुसार, अपनी अपनी स्थिति के अनुसार, अपनी अपनी शक्ति के अनुसार तय होता है। किसी एक व्यक्ति को जिससे सुख मिलता है वही दूसरे के लिए दुःख देने वाला होता है। इसलिए मुक्ति की धारणा भी सबकी भिन्न भिन्न होती है । फिर भी जाने अनजाने सबकी यात्रा तो मुक्ति की ओर ही होती है। | + | दुःख से मुक्ति तो हम हमेशा चाहते ही हैं परन्तु दुःख किसे मानते हैं वह अपने अपने स्तर के अनुसार, अपनी अपनी स्थिति के अनुसार, अपनी अपनी शक्ति के अनुसार तय होता है। किसी एक व्यक्ति को जिससे सुख मिलता है वही दूसरे के लिए दुःख देने वाला होता है। अतः मुक्ति की धारणा भी सबकी भिन्न भिन्न होती है । फिर भी जाने अनजाने सबकी यात्रा तो मुक्ति की ओर ही होती है। |
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| '''सीधी सादी बात कही जाय तो मोक्ष की चिंता न कर शेष तीनों पुरुषार्थ अर्थात् काम, अर्थ और धर्म पुरुषार्थों को समुचित आचरण में लाया जाय तो मोक्ष अपने आप हमारे लिए सुलभ हो जाता है।''' | | '''सीधी सादी बात कही जाय तो मोक्ष की चिंता न कर शेष तीनों पुरुषार्थ अर्थात् काम, अर्थ और धर्म पुरुषार्थों को समुचित आचरण में लाया जाय तो मोक्ष अपने आप हमारे लिए सुलभ हो जाता है।''' |
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| == मोक्ष पुरुषार्थ हेतु शिक्षा == | | == मोक्ष पुरुषार्थ हेतु शिक्षा == |
− | यह बड़ा कठिन मामला है। यह बड़ा अजीब मामला है। यह परा विद्या का क्षेत्र है इसलिए अपरा विद्या का एक भी मापदंड इसे लागू नहीं है। | + | यह बड़ा कठिन मामला है। यह बड़ा अजीब मामला है। यह परा विद्या का क्षेत्र है अतः अपरा विद्या का एक भी मापदंड इसे लागू नहीं है। |
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| मुंडक उपनिषद् भी कहता है{{Citation needed}} | | मुंडक उपनिषद् भी कहता है{{Citation needed}} |
| :<blockquote>अथ परा यया तद् अक्षरम् अधिगम्यते।।</blockquote> | | :<blockquote>अथ परा यया तद् अक्षरम् अधिगम्यते।।</blockquote> |
− | :अर्थात् परा विद्या वह है जिससे उस अक्षर को अर्थात् ब्रह्म को प्राप्त किया जाता है, कहकर मौन हो जाता है । बृहदारण्यक उपनिषद कहता है कि यह आत्मा (जो स्वयं ज्ञान है, मोक्ष है) अध्ययन, अध्यापन, बुद्धि, अत्यधिक बहुश्नुतता आदि से प्राप्त नहीं होता है। वह जिसका वरण करता है उसे ही प्राप्त होता है। लौकिक शिक्षा में भी अनुभूति की झलक कभी कभी मिलती रहती है परन्तु उसकी विधिवत शिक्षा नहीं दी जा सकती। इसलिए यहाँ भी उसका विवरण देना सम्भव नहीं होगा। | + | :अर्थात् परा विद्या वह है जिससे उस अक्षर को अर्थात् ब्रह्म को प्राप्त किया जाता है, कहकर मौन हो जाता है । बृहदारण्यक उपनिषद कहता है कि यह आत्मा (जो स्वयं ज्ञान है, मोक्ष है) अध्ययन, अध्यापन, बुद्धि, अत्यधिक बहुश्नुतता आदि से प्राप्त नहीं होता है। वह जिसका वरण करता है उसे ही प्राप्त होता है। लौकिक शिक्षा में भी अनुभूति की झलक कभी कभी मिलती रहती है परन्तु उसकी विधिवत शिक्षा नहीं दी जा सकती। अतः यहाँ भी उसका विवरण देना सम्भव नहीं होगा। |
| == References == | | == References == |
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