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== उपनिषद में मन की संकल्पना ==
 
== उपनिषद में मन की संकल्पना ==
मानव के व्यक्तित्व के चार पहलूओं के परस्पर संबंधों का वर्णन इस में किया गया है। एक रथ की कल्पना की गयी है। शरीर की इन्द्रियाँ रथ के घोड़े हैं। मन उस की लगाम है। बुद्धि सारथी है। और आत्मा रथी है। जब आत्मा बुद्धि के अधीन, बुद्धि मन के अधीन, मन इन्द्रियों के अधीन होता है तो मानव विपरीत कर्म करता है। इन्द्रियों के अधीन हो जाता है। विषयासक्त हो जाता है। लेकिन जब इन्द्रियाँ मन के, मन बुद्धि के, और बुद्धि आत्मा के अधीन रहती है तब मानव श्रेष्ठ बनता है। इसमें मन की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण है। जीवात्मा स्वत: होकर तो विषयासक्त नहीं होता। जब वह अपने को बुद्धि, मन या शरीर समझने लग जाता है तब वह उन के अधीन हो जाता है। बुद्धि भी सामान्यत: सत्यान्वेषी होती है। सत्वगुणी होती है। मन रजोगुणी होने से चंचल और प्रमादी होता है। मन के बुद्धि के वश में रहने न रहने से ही मनुष्य श्रेष्ठ या निकृष्ट बन जाता है। इसलिए इस मनरूपी लगाम को कसकर बुद्धिके नियंत्रण में रखना आवश्यक होता है।
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मानव के व्यक्तित्व के चार पहलूओं के परस्पर संबंधों का वर्णन इस में किया गया है। एक रथ की कल्पना की गयी है। शरीर की इन्द्रियाँ रथ के घोड़े हैं। मन उस की लगाम है। बुद्धि सारथी है। और आत्मा रथी है। जब आत्मा बुद्धि के अधीन, बुद्धि मन के अधीन, मन इन्द्रियों के अधीन होता है तो मानव विपरीत कर्म करता है। इन्द्रियों के अधीन हो जाता है। विषयासक्त हो जाता है। लेकिन जब इन्द्रियाँ मन के, मन बुद्धि के, और बुद्धि आत्मा के अधीन रहती है तब मानव श्रेष्ठ बनता है। इसमें मन की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण है। जीवात्मा स्वत: होकर तो विषयासक्त नहीं होता। जब वह अपने को बुद्धि, मन या शरीर समझने लग जाता है तब वह उन के अधीन हो जाता है। बुद्धि भी सामान्यत: सत्यान्वेषी होती है। सत्वगुणी होती है। मन रजोगुणी होने से चंचल और प्रमादी होता है। मन के बुद्धि के वश में रहने न रहने से ही मनुष्य श्रेष्ठ या निकृष्ट बन जाता है। अतः इस मनरूपी लगाम को कसकर बुद्धिके नियंत्रण में रखना आवश्यक होता है।
    
मनुष्य के मन के श्रेष्ठ विकास के लिये मार्गदर्शन करने के लिये 'अष्टांग योग' की प्रस्तुति हुई है। इसीलिये अष्टांग योग यह शिक्षा का भी अनिवार्य हिस्सा होना चाहिए। अष्टांग योग की चर्चा हम आगे करेंगे।
 
मनुष्य के मन के श्रेष्ठ विकास के लिये मार्गदर्शन करने के लिये 'अष्टांग योग' की प्रस्तुति हुई है। इसीलिये अष्टांग योग यह शिक्षा का भी अनिवार्य हिस्सा होना चाहिए। अष्टांग योग की चर्चा हम आगे करेंगे।
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अर्थ : आशा या इच्छा ऐसी साँकल है जिससे बंधा मनुष्य बहुत दौड़भाग करता रहता है और जिससे मुक्त होने से मनुष्य अपाहिज की तरह निष्क्रिय हो जाता है।  
 
अर्थ : आशा या इच्छा ऐसी साँकल है जिससे बंधा मनुष्य बहुत दौड़भाग करता रहता है और जिससे मुक्त होने से मनुष्य अपाहिज की तरह निष्क्रिय हो जाता है।  
मन इच्छा करता है इसलिए दुनियाँ चलती है। मन इच्छा करना जिस दिन बंद कर देगा मानव जीवन ठप्प हो जाएगा। इसलिए इच्छा करना अच्छी बात ही है। लेकिन जब ये इच्छाएं धर्म अविरोधी होतीं हैं अर्थात् साथ ही में इच्छापूर्ति के लिए उपयोग में प्रयुक्त धन, साधन और संसाधनों की इच्छाएँ भी धर्म अविरोधी होतीं हैं तब वे काम पुरूषार्थ और अर्थ पुरूषार्थ का स्वरूप ले लेतीं हैं। मोक्षप्राप्ति का साधन बन जातीं हैं। परमात्मपद प्राप्ति का साधन बनतीं है।  
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मन इच्छा करता है अतः दुनियाँ चलती है। मन इच्छा करना जिस दिन बंद कर देगा मानव जीवन ठप्प हो जाएगा। अतः इच्छा करना अच्छी बात ही है। लेकिन जब ये इच्छाएं धर्म अविरोधी होतीं हैं अर्थात् साथ ही में इच्छापूर्ति के लिए उपयोग में प्रयुक्त धन, साधन और संसाधनों की इच्छाएँ भी धर्म अविरोधी होतीं हैं तब वे काम पुरूषार्थ और अर्थ पुरूषार्थ का स्वरूप ले लेतीं हैं। मोक्षप्राप्ति का साधन बन जातीं हैं। परमात्मपद प्राप्ति का साधन बनतीं है।  
    
श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान कहते हैं -
 
श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान कहते हैं -
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== मन के आयामों का विकास ==
 
== मन के आयामों का विकास ==
 
# एकाग्रता : मन चंचल है। एक विषय पर स्थिर नहीं रहता। मन अनेकाग्र होता है। एक के बाद एक ऐसे कई आलम्बनों पर घूमता रहता है। ऐसा कहते हैं कि मन एक सेकण्ड में ३०० से अधिक विषयों पर एक के बाद एक कर विचार कर सकता है। मन की शक्ति विशाल होती है। मन को एकाग्र करने से मन की विशाल शक्ति के लाभ प्राप्त हो सकते हैं। ऐसे लोग आज भी विद्यमान हैं जो केवल इच्छा मात्र से देखते देखते इच्छा की शक्ति का उपयोग कर थोड़े अंतर पर रखे हुए चम्मच को हाथ लगाए बिना ही मोड़ने या तोड़ने की सिद्धि रखते हैं। यह वे मन की शक्ति के केन्द्रिकरण के कारण ही कर पाते हैं। मन जब तक एकाग्र नहीं होता बुद्धि काम नहीं करती। मन को एकाग्र करने की क्षमता मन का विकास है।
 
# एकाग्रता : मन चंचल है। एक विषय पर स्थिर नहीं रहता। मन अनेकाग्र होता है। एक के बाद एक ऐसे कई आलम्बनों पर घूमता रहता है। ऐसा कहते हैं कि मन एक सेकण्ड में ३०० से अधिक विषयों पर एक के बाद एक कर विचार कर सकता है। मन की शक्ति विशाल होती है। मन को एकाग्र करने से मन की विशाल शक्ति के लाभ प्राप्त हो सकते हैं। ऐसे लोग आज भी विद्यमान हैं जो केवल इच्छा मात्र से देखते देखते इच्छा की शक्ति का उपयोग कर थोड़े अंतर पर रखे हुए चम्मच को हाथ लगाए बिना ही मोड़ने या तोड़ने की सिद्धि रखते हैं। यह वे मन की शक्ति के केन्द्रिकरण के कारण ही कर पाते हैं। मन जब तक एकाग्र नहीं होता बुद्धि काम नहीं करती। मन को एकाग्र करने की क्षमता मन का विकास है।
# शान्ति : तनाव और उत्तेजना यह मन के लक्षण हैं। इन दोनों के रहते मनुष्य कोई बुद्धियुक्त काम नहीं कर सकता। मन रजोगुणी होता है। इसलिए अशांत होता है। उत्तेजित या तनावपूर्ण अवस्था में बुद्धि काम नहीं करती। बुद्धि की धारणाशक्ति, विवेकशक्ति आदि क्षीण या नष्ट हो जाती हैं। शांत स्थिर मन होना यह मन का विकास है।
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# शान्ति : तनाव और उत्तेजना यह मन के लक्षण हैं। इन दोनों के रहते मनुष्य कोई बुद्धियुक्त काम नहीं कर सकता। मन रजोगुणी होता है। अतः अशांत होता है। उत्तेजित या तनावपूर्ण अवस्था में बुद्धि काम नहीं करती। बुद्धि की धारणाशक्ति, विवेकशक्ति आदि क्षीण या नष्ट हो जाती हैं। शांत स्थिर मन होना यह मन का विकास है।
 
# अनासक्ति : मन आलंबन के बिना नहीं रह सकता। आसक्ति यह मन का स्वभाव है। वह विषयों के आलंबन को छोड़ना नहीं चाहता। प्रयासपूर्वक उसे आलंबन से दूर हटाने से दु:ख अनुभव करता है। विषयों के चिंतन से क्या क्या होता है इस बारे में श्रीमद्भगवद्गीता में कहा है <blockquote>ध्यायतो विषयान्पुंसः सङ्गस्तेषूपजायते।</blockquote><blockquote>सङ्गात् संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते।।2.62।।</blockquote><blockquote>क्रोधाद्भवति संमोहः संमोहात्स्मृतिविभ्रमः।</blockquote><blockquote>स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति।।2.63।।</blockquote><blockquote>अर्थ : विषयों का चिंतन करनेसे उन विषयों में आसक्ति निर्माण हो जाती है। आसक्ति के कारण विषयों की प्राप्ति की कामना याने इच्छा जागती है। कामनाओं की पूर्ति नहीं होने पर क्रोध याने गुस्सा आता है। गुस्से के कारण अविचार पनपता है। अविचार के कारण स्मरणशक्ति भ्रष्ट हो जाती है। स्मरणशक्ति भ्रष्ट होनेपर बुद्धि का याने ज्ञान का नाश होता है। और बुद्धि के नाश के कारण मनुष्य का अध:पात होता है। मन को विषयों से सहजता से अलिप्त बनाने की क्षमता मन का विकास है।</blockquote>
 
# अनासक्ति : मन आलंबन के बिना नहीं रह सकता। आसक्ति यह मन का स्वभाव है। वह विषयों के आलंबन को छोड़ना नहीं चाहता। प्रयासपूर्वक उसे आलंबन से दूर हटाने से दु:ख अनुभव करता है। विषयों के चिंतन से क्या क्या होता है इस बारे में श्रीमद्भगवद्गीता में कहा है <blockquote>ध्यायतो विषयान्पुंसः सङ्गस्तेषूपजायते।</blockquote><blockquote>सङ्गात् संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते।।2.62।।</blockquote><blockquote>क्रोधाद्भवति संमोहः संमोहात्स्मृतिविभ्रमः।</blockquote><blockquote>स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति।।2.63।।</blockquote><blockquote>अर्थ : विषयों का चिंतन करनेसे उन विषयों में आसक्ति निर्माण हो जाती है। आसक्ति के कारण विषयों की प्राप्ति की कामना याने इच्छा जागती है। कामनाओं की पूर्ति नहीं होने पर क्रोध याने गुस्सा आता है। गुस्से के कारण अविचार पनपता है। अविचार के कारण स्मरणशक्ति भ्रष्ट हो जाती है। स्मरणशक्ति भ्रष्ट होनेपर बुद्धि का याने ज्ञान का नाश होता है। और बुद्धि के नाश के कारण मनुष्य का अध:पात होता है। मन को विषयों से सहजता से अलिप्त बनाने की क्षमता मन का विकास है।</blockquote>
 
# द्वंद्वों की समाप्ति : मन द्वंद्वात्मक होता है। हर्ष-क्रोध, सुख-दु:ख, शान्ति-अशांति, राग-द्वेष, संकल्प-विकल्प में फँस जाता है। उसे द्वंद्वात्मकता से हटाकर निश्चयात्मक बनाना आवश्यक होता है। अन्यथा मनुष्य कोइ निर्णय नहीं ले पाता। इस द्वंद्वात्मकता के विषय में श्रीमद्भगवद्गीता में कहा है <blockquote>व्यवसायात्मिका बुद्धिरेकेह कुरुनन्दन। बहुशाखा ह्यनन्ताश्च बुद्धयोऽव्यवसायिनाम्।।2.41।। <br />अर्थ : निश्चयात्मक बुद्धि एक ही होती है। अस्थिर विचार करनेवाले, अविचारी, कामलिप्त मनुष्यों की बुद्धि अनेकों विकल्पों में भटक जाती है। ऐसी बुद्धि निश्चयात्मक नहीं हो सकती। मन की द्वंद्वातीत अवस्था मन का विकास है।</blockquote>
 
# द्वंद्वों की समाप्ति : मन द्वंद्वात्मक होता है। हर्ष-क्रोध, सुख-दु:ख, शान्ति-अशांति, राग-द्वेष, संकल्प-विकल्प में फँस जाता है। उसे द्वंद्वात्मकता से हटाकर निश्चयात्मक बनाना आवश्यक होता है। अन्यथा मनुष्य कोइ निर्णय नहीं ले पाता। इस द्वंद्वात्मकता के विषय में श्रीमद्भगवद्गीता में कहा है <blockquote>व्यवसायात्मिका बुद्धिरेकेह कुरुनन्दन। बहुशाखा ह्यनन्ताश्च बुद्धयोऽव्यवसायिनाम्।।2.41।। <br />अर्थ : निश्चयात्मक बुद्धि एक ही होती है। अस्थिर विचार करनेवाले, अविचारी, कामलिप्त मनुष्यों की बुद्धि अनेकों विकल्पों में भटक जाती है। ऐसी बुद्धि निश्चयात्मक नहीं हो सकती। मन की द्वंद्वातीत अवस्था मन का विकास है।</blockquote>
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अस्तेय का अर्थ है चोरी नहीं करना। मैं अपने परिश्रम से अर्जित जो है उसी का सेवन करूंगा। ऐसा दृढनिश्चय। सडक पर मिली वस्तू भी मेरे लिये वर्जित है। मेरे परिश्रम से अर्जित जो बात नहीं है उस का सेवन करना चोरी है। भ्रष्टाचार तो डकैती है। भ्रष्टाचार नहीं करना अस्तेय ही है।
 
अस्तेय का अर्थ है चोरी नहीं करना। मैं अपने परिश्रम से अर्जित जो है उसी का सेवन करूंगा। ऐसा दृढनिश्चय। सडक पर मिली वस्तू भी मेरे लिये वर्जित है। मेरे परिश्रम से अर्जित जो बात नहीं है उस का सेवन करना चोरी है। भ्रष्टाचार तो डकैती है। भ्रष्टाचार नहीं करना अस्तेय ही है।
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अपरिग्रह का अर्थ है संचय नहीं करना। अपने लिये आवश्यक बातों का अनावश्यक स्तर तक संचय नहीं करना। मेरे लोभ के कारण मैं अन्यों के लिये न्यूनतम आवश्यकताओं की पूर्ति भी असंभव कर दूं, यह बात तो और भी बुरी है। अतिरिक्त संचय के तीन ही फल हैं: दान, भोग या नाश। इसलिए जो भी अतिरिक्त है उसे दान कर पुण्य कमाओ। अन्यथा उसका नाश (तुम्हारे लिए उपयोग न होना) होनेवाला ही है।
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अपरिग्रह का अर्थ है संचय नहीं करना। अपने लिये आवश्यक बातों का अनावश्यक स्तर तक संचय नहीं करना। मेरे लोभ के कारण मैं अन्यों के लिये न्यूनतम आवश्यकताओं की पूर्ति भी असंभव कर दूं, यह बात तो और भी बुरी है। अतिरिक्त संचय के तीन ही फल हैं: दान, भोग या नाश। अतः जो भी अतिरिक्त है उसे दान कर पुण्य कमाओ। अन्यथा उसका नाश (तुम्हारे लिए उपयोग न होना) होनेवाला ही है।
    
ब्रह्मचर्य का अर्थ है संयम। केवल स्त्री-पुरूष संबंधों तक या वासना तक ही यह सीमित नहीं है। उपभोग लेने वाले सभी इंद्रियों और मन पर संयम से भी यह सम्बन्धित है। आठ प्रकार से ब्रह्मचर्य नष्ट हो सकता है।  
 
ब्रह्मचर्य का अर्थ है संयम। केवल स्त्री-पुरूष संबंधों तक या वासना तक ही यह सीमित नहीं है। उपभोग लेने वाले सभी इंद्रियों और मन पर संयम से भी यह सम्बन्धित है। आठ प्रकार से ब्रह्मचर्य नष्ट हो सकता है।  

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