Changes

Jump to navigation Jump to search
m
Text replacement - "मदद" to "सहायता"
Line 130: Line 130:  
चित्त संस्कार संग्रहण का स्थान है। इसमें सभी प्रकार का ज्ञान अंकित होता है। लेकिन चित्त बच्चे के शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि और अहंकार से आवेष्टित होने से प्रकट नहीं होता। ज्ञानेन्द्रिय कला वस्तु का आकलन करते हैं, इस आकलन के संस्कार चित्त पर होते हैं। मन इन संस्कारों के साथ ही चित्त पर अंकित और विषयवस्तु से सम्बंधित विभिन्न विकल्प बुद्धि के सामने प्रस्तुत करता है। चित्त पर हुए संस्कारों के साथ बुद्धि जीवात्मा के प्रकाश में चित्त पर अंकित पूर्व के संस्कारों (ज्ञान) के साथ तुलना कर के देखती है और यह तय करती है कि उचित संस्कार क्या है। क्योंकि बुद्धि व्यवसायात्मिका होती है, सत्यान्वेषी होती है। जीवात्मा के प्रकाश के कारण चित्त में पहले से उपस्थित संस्कारों (ज्ञान) अनावृत्त हो जाता है। प्रकाशित हो जाता है। तब आकलन का अनुभव होता है। तब अंत:करण के एक घटक अहंकार जो जीवात्मा का प्रतिनिधि है, ज्ञान प्राप्त होता है। आकलन होता है। यह है आकलन की प्रक्रिया। यह आकलन उतना ही यथार्थ होगा जितनी ज्ञानेन्द्रियों की, मन, और बुद्धि की क्षमता और चित्त की निर्मलता होगी।   
 
चित्त संस्कार संग्रहण का स्थान है। इसमें सभी प्रकार का ज्ञान अंकित होता है। लेकिन चित्त बच्चे के शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि और अहंकार से आवेष्टित होने से प्रकट नहीं होता। ज्ञानेन्द्रिय कला वस्तु का आकलन करते हैं, इस आकलन के संस्कार चित्त पर होते हैं। मन इन संस्कारों के साथ ही चित्त पर अंकित और विषयवस्तु से सम्बंधित विभिन्न विकल्प बुद्धि के सामने प्रस्तुत करता है। चित्त पर हुए संस्कारों के साथ बुद्धि जीवात्मा के प्रकाश में चित्त पर अंकित पूर्व के संस्कारों (ज्ञान) के साथ तुलना कर के देखती है और यह तय करती है कि उचित संस्कार क्या है। क्योंकि बुद्धि व्यवसायात्मिका होती है, सत्यान्वेषी होती है। जीवात्मा के प्रकाश के कारण चित्त में पहले से उपस्थित संस्कारों (ज्ञान) अनावृत्त हो जाता है। प्रकाशित हो जाता है। तब आकलन का अनुभव होता है। तब अंत:करण के एक घटक अहंकार जो जीवात्मा का प्रतिनिधि है, ज्ञान प्राप्त होता है। आकलन होता है। यह है आकलन की प्रक्रिया। यह आकलन उतना ही यथार्थ होगा जितनी ज्ञानेन्द्रियों की, मन, और बुद्धि की क्षमता और चित्त की निर्मलता होगी।   
   −
आगे उस आकलन के अनुसार कला के प्रस्तुतीकरण की प्रक्रिया चलती है। यह आकलन जीवात्मा के प्रतिनिधि अहंकार (ज्ञाता) को होता है। अब कला की अभियक्ति की प्रक्रिया आरम्भ होती है। जीवात्मा के आदेश से चित्त पर अंकित संस्कारों के अनुसार, बुद्धि सही दिशा देती है, जो आकलन हुआ है उस विकल्प पर मन एकाग्र हो जाता है और कर्मेन्द्रियाँ, ज्ञानेन्द्रियों की मदद से कला को अभिव्यक्त करतीं हैं। इस पूरी प्रक्रिया में यथार्थता तब ही आती है जब ज्ञानेन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, चित्त और कर्मेन्द्रियाँ सभी सधे हुए याने शिक्षित या विकसित होते हैं।   
+
आगे उस आकलन के अनुसार कला के प्रस्तुतीकरण की प्रक्रिया चलती है। यह आकलन जीवात्मा के प्रतिनिधि अहंकार (ज्ञाता) को होता है। अब कला की अभियक्ति की प्रक्रिया आरम्भ होती है। जीवात्मा के आदेश से चित्त पर अंकित संस्कारों के अनुसार, बुद्धि सही दिशा देती है, जो आकलन हुआ है उस विकल्प पर मन एकाग्र हो जाता है और कर्मेन्द्रियाँ, ज्ञानेन्द्रियों की सहायता से कला को अभिव्यक्त करतीं हैं। इस पूरी प्रक्रिया में यथार्थता तब ही आती है जब ज्ञानेन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, चित्त और कर्मेन्द्रियाँ सभी सधे हुए याने शिक्षित या विकसित होते हैं।   
    
प्रत्येक व्यक्ति का व्यक्तित्व भिन्न होता है। यह प्रत्येक व्यक्ति के शरीर, प्राण, मन, बुद्धि और चित्त आदि में भिन्नता होने के कारण से होता है। इसीलिये कलाकार जब मन लगाकर कला का निर्माण करता है तब वह अपने व्यक्तित्व को ही कला के माध्यम से अभिव्यक्त करता है। जैसे राजा रविवर्मा की चित्रकला में उनके चरित्र की झलक मिलती है। जब कई कलाकार ऐसे कलाकार का अनुसरण करते हैं तब वह शैली का रूप ले लेता है।   
 
प्रत्येक व्यक्ति का व्यक्तित्व भिन्न होता है। यह प्रत्येक व्यक्ति के शरीर, प्राण, मन, बुद्धि और चित्त आदि में भिन्नता होने के कारण से होता है। इसीलिये कलाकार जब मन लगाकर कला का निर्माण करता है तब वह अपने व्यक्तित्व को ही कला के माध्यम से अभिव्यक्त करता है। जैसे राजा रविवर्मा की चित्रकला में उनके चरित्र की झलक मिलती है। जब कई कलाकार ऐसे कलाकार का अनुसरण करते हैं तब वह शैली का रूप ले लेता है।   

Navigation menu