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* इन सब के लिये ‘इच्छाओं के संयम की शिक्षा के साथ ही सर्वे भवन्तु सुखिन: की शिक्षा’ आवश्यक है।
 
* इन सब के लिये ‘इच्छाओं के संयम की शिक्षा के साथ ही सर्वे भवन्तु सुखिन: की शिक्षा’ आवश्यक है।
 
* अर्थव्यवस्था क्रय-विक्रय की नहीं व्यय की होनी चाहिये। देने की होनी चाहिये। माँग की नहीं। छोडने की होनी चाहिये। हथियाने की नहीं। दान की होनी चाहिये। भीख की नहीं। ऐसी मानसिकता बनाने का काम मुख्यत: विद्याकेंद्रों का और इस मानसिकता को दृढ बनाने का काम केंद्रों की शिक्षा व्यवस्था का होता है।
 
* अर्थव्यवस्था क्रय-विक्रय की नहीं व्यय की होनी चाहिये। देने की होनी चाहिये। माँग की नहीं। छोडने की होनी चाहिये। हथियाने की नहीं। दान की होनी चाहिये। भीख की नहीं। ऐसी मानसिकता बनाने का काम मुख्यत: विद्याकेंद्रों का और इस मानसिकता को दृढ बनाने का काम केंद्रों की शिक्षा व्यवस्था का होता है।
* संपन्नता और समृध्दि में अन्तर होता है। धन-संचय होने से संपन्नता आती है। लेकिन देने की मानसिकता नहीं हो तो उसे समृध्दि नहीं कह सकते। धन का कम अधिक होना नहीं, देने की मानसिकता ही व्यक्ति और समाज को समृध्द बनाती है। इसीलिये भारत में अभी अभी ५०-६० वर्ष पहले तक बाजार में कीमत तो एक  सैंकडा आम की तय होती थी। लेकिन बेचने वाला १३२ आम देता था। जीवन की गति बढ जाने से समाज पगढीला बन जाता है। संस्कृति विहीन हो जाता है। हर समाज की अपनी संस्कृति होती है। संस्कृति नष्ट होने के साथ समाज भी विघटित हो जाता है। जीवन की इष्ट गति संस्कृति के विकास के लिये पूरक और पोषक होती है। इसलिए जीवन की इष्ट गति की शिक्षा भी शिक्षा का एक अत्यंत महत्वपूर्ण पहलू है। अर्थ पुरुषार्थ के अन्य महत्त्वपूर्ण बिदू जानने के लिये कृपया [[Bharat's Economic Systems (भारतीय समृद्धि शास्त्रीय दृष्टि)|यह]] अध्याय देखें।
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* संपन्नता और समृध्दि में अन्तर होता है। धन-संचय होने से संपन्नता आती है। लेकिन देने की मानसिकता नहीं हो तो उसे समृध्दि नहीं कह सकते। धन का कम अधिक होना नहीं, देने की मानसिकता ही व्यक्ति और समाज को समृध्द बनाती है। इसीलिये भारत में अभी अभी ५०-६० वर्ष पहले तक बाजार में कीमत तो एक  सैंकडा आम की तय होती थी। लेकिन बेचने वाला १३२ आम देता था। जीवन की गति बढ जाने से समाज पगढीला बन जाता है। संस्कृति विहीन हो जाता है। हर समाज की अपनी संस्कृति होती है। संस्कृति नष्ट होने के साथ समाज भी विघटित हो जाता है। जीवन की इष्ट गति संस्कृति के विकास के लिये पूरक और पोषक होती है। अतः जीवन की इष्ट गति की शिक्षा भी शिक्षा का एक अत्यंत महत्वपूर्ण पहलू है। अर्थ पुरुषार्थ के अन्य महत्त्वपूर्ण बिदू जानने के लिये कृपया [[Bharat's Economic Systems (भारतीय समृद्धि शास्त्रीय दृष्टि)|यह]] अध्याय देखें।
    
=== धर्म पुरुषार्थ की शिक्षा ===
 
=== धर्म पुरुषार्थ की शिक्षा ===
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* इच्छाओं को और प्रयासों को धर्म की सीमा में रखना सिखाना ही धर्म शिक्षा है।
 
* इच्छाओं को और प्रयासों को धर्म की सीमा में रखना सिखाना ही धर्म शिक्षा है।
 
* अपने समाज, सृष्टि के विविध घटकों के प्रति कर्तव्यों के अनुसार व्यवहार करना सिखाना धर्मशिक्षा है।
 
* अपने समाज, सृष्टि के विविध घटकों के प्रति कर्तव्यों के अनुसार व्यवहार करना सिखाना धर्मशिक्षा है।
* सृष्टि में हर अस्तित्व का अपना अपना प्रयोजन है। इस प्रयोजन के अनुसार उसका उपयोग करना धर्म है। जैसे मनुष्य का शरीर मांसाहार के लिये नहीं बना हुआ है। इसलिए मांसाहार करना अधर्म है।
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* सृष्टि में हर अस्तित्व का अपना अपना प्रयोजन है। इस प्रयोजन के अनुसार उसका उपयोग करना धर्म है। जैसे मनुष्य का शरीर मांसाहार के लिये नहीं बना हुआ है। अतः मांसाहार करना अधर्म है।
 
* करणीय अकरणीय विवेक ही वास्तव में धर्म का आधार है।   
 
* करणीय अकरणीय विवेक ही वास्तव में धर्म का आधार है।   
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# शिक्षा क्रय विक्रय की वस्तू नहीं है। समाज के हर बालक को उस की योग्यता और क्षमता के अनुसार शिक्षा प्राप्त हो यह सामाजिक जिम्मेदारी है। समाज के प्रत्येक घटक की जिम्मेदारी है। इसीलिए भारत में अंग्रेजों के आने से पूर्व अन्न और औषधि के साथ ही शिक्षा नि:शुल्क ही हुआ करती थी। शिक्षा नि:शुल्क ही होनी चाहिए।
 
# शिक्षा क्रय विक्रय की वस्तू नहीं है। समाज के हर बालक को उस की योग्यता और क्षमता के अनुसार शिक्षा प्राप्त हो यह सामाजिक जिम्मेदारी है। समाज के प्रत्येक घटक की जिम्मेदारी है। इसीलिए भारत में अंग्रेजों के आने से पूर्व अन्न और औषधि के साथ ही शिक्षा नि:शुल्क ही हुआ करती थी। शिक्षा नि:शुल्क ही होनी चाहिए।
 
# ज्ञानी, समर्पित, कुशल शिक्षक को ऐश्वर्य तो नहीं मिलता था लेकिन उसे अपनी आजीविका की चिंता भी नहीं करनी पड़ती थी। शिक्षक की आजीविका की जिम्मेदारी समाज की है। शासन भी समाज का ही एक हिस्सा होता है। शिक्षक के माँगे बिना ही उसकी सारी आवश्यकताओं की पूर्ति समाज को करनी होती है। गुरुदक्षिणा, समित्पाणिता, दान, भिक्षा आदि के माध्यम से समाज को अपना उत्तरदायित्व निभाना चाहिए।
 
# ज्ञानी, समर्पित, कुशल शिक्षक को ऐश्वर्य तो नहीं मिलता था लेकिन उसे अपनी आजीविका की चिंता भी नहीं करनी पड़ती थी। शिक्षक की आजीविका की जिम्मेदारी समाज की है। शासन भी समाज का ही एक हिस्सा होता है। शिक्षक के माँगे बिना ही उसकी सारी आवश्यकताओं की पूर्ति समाज को करनी होती है। गुरुदक्षिणा, समित्पाणिता, दान, भिक्षा आदि के माध्यम से समाज को अपना उत्तरदायित्व निभाना चाहिए।
# मानव कोई यंत्र से उत्पादन की हुई वस्तू नहीं है। मानव एक जीवंत ईकाई है। इसलिये शिक्षा एक जीवमान प्रक्रिया है। हर बालक को उसकी अन्यों से भिन्नता को समझकर उसके और सभी के हित की दृष्टि से ढालने की प्रक्रिया है। इसलिए हर बालक के लिये शिक्षा की प्रक्रिया एक जैसी नहीं होगी।
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# मानव कोई यंत्र से उत्पादन की हुई वस्तू नहीं है। मानव एक जीवंत ईकाई है। इसलिये शिक्षा एक जीवमान प्रक्रिया है। हर बालक को उसकी अन्यों से भिन्नता को समझकर उसके और सभी के हित की दृष्टि से ढालने की प्रक्रिया है। अतः हर बालक के लिये शिक्षा की प्रक्रिया एक जैसी नहीं होगी।
 
# हर बालक के ज्ञानार्जन के कारणों (साधनों) का विकास आयु की अवस्था के अनुसार होता है। इसी तरह ज्ञानार्जन की या शिक्षा की प्रक्रिया भी आयु की अवस्था के अनुसार भिन्न होती है।
 
# हर बालक के ज्ञानार्जन के कारणों (साधनों) का विकास आयु की अवस्था के अनुसार होता है। इसी तरह ज्ञानार्जन की या शिक्षा की प्रक्रिया भी आयु की अवस्था के अनुसार भिन्न होती है।
 
# शिक्षा मुख्यत: ज्ञानार्जन, कौशालार्जन, बलार्जन, गुनार्जन के लिये होती है। अर्थार्जन याने पैसा कमाना यह तो उसका आनुषंगिक लाभ है। यह भी जीवन के लिये महत्वपूर्ण होता है। लेकिन अन्य बातों के अर्जन से अर्थार्जन तो सहज ही किया जा सकता है।
 
# शिक्षा मुख्यत: ज्ञानार्जन, कौशालार्जन, बलार्जन, गुनार्जन के लिये होती है। अर्थार्जन याने पैसा कमाना यह तो उसका आनुषंगिक लाभ है। यह भी जीवन के लिये महत्वपूर्ण होता है। लेकिन अन्य बातों के अर्जन से अर्थार्जन तो सहज ही किया जा सकता है।
# अध्ययन शिक्षा की मूल प्रक्रिया है। अध्यापन तो अध्ययन की प्रक्रिया का प्रेरक रूप ही है। अध्ययन तो अध्यापन के बगैर भी हो सकता है। लेकिन बिना अध्ययनकर्ता के कोई अध्यापन संभव नहीं होता। इसलिए शिक्षा अच्छी होने के लिये बालक का विद्यार्थी होना अनिवार्य है। हर बालक प्रारंभ से ही विद्यार्थी नहीं होता। उसे विद्यार्थी बनाना यह माता-पिता की प्राथमिक और बाद में शिक्षक की जिम्मेदारी है।
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# अध्ययन शिक्षा की मूल प्रक्रिया है। अध्यापन तो अध्ययन की प्रक्रिया का प्रेरक रूप ही है। अध्ययन तो अध्यापन के बगैर भी हो सकता है। लेकिन बिना अध्ययनकर्ता के कोई अध्यापन संभव नहीं होता। अतः शिक्षा अच्छी होने के लिये बालक का विद्यार्थी होना अनिवार्य है। हर बालक प्रारंभ से ही विद्यार्थी नहीं होता। उसे विद्यार्थी बनाना यह माता-पिता की प्राथमिक और बाद में शिक्षक की जिम्मेदारी है।
 
# बालक को व्यक्तिगत तथा सामूहिक रूप में और साथ ही में समाज को भी निकट से देखने वाला शिक्षक जैसा अन्य घटक नहीं होता। इसीलिये शिक्षा श्रेष्ठ तब ही बन सकती है जब शिक्षा शिक्षक के अधीन रहे। शिक्षक धर्मनिष्ठ रहे, समाजनिष्ठ रहे, राष्ट्रनिष्ठ रहे और शिक्षा शिक्षकाधिष्ठित रहे यही धार्मिक (भारतीय) परंपरा है। जब शिक्षा शिक्षकाधिष्ठीत होती है शिक्षा को स्वायत्त कहा जाता है। क्योंकि शिक्षक ही शिक्षा का मूर्तिमंत स्वरूप  होता है। राजा शिक्षा नियंत्रक तो प्रजा में अराजक।  
 
# बालक को व्यक्तिगत तथा सामूहिक रूप में और साथ ही में समाज को भी निकट से देखने वाला शिक्षक जैसा अन्य घटक नहीं होता। इसीलिये शिक्षा श्रेष्ठ तब ही बन सकती है जब शिक्षा शिक्षक के अधीन रहे। शिक्षक धर्मनिष्ठ रहे, समाजनिष्ठ रहे, राष्ट्रनिष्ठ रहे और शिक्षा शिक्षकाधिष्ठित रहे यही धार्मिक (भारतीय) परंपरा है। जब शिक्षा शिक्षकाधिष्ठीत होती है शिक्षा को स्वायत्त कहा जाता है। क्योंकि शिक्षक ही शिक्षा का मूर्तिमंत स्वरूप  होता है। राजा शिक्षा नियंत्रक तो प्रजा में अराजक।  
 
# केवल शिक्षक के अधीन होने से शिक्षा श्रेष्ठ नहीं बनती। उसके लिये शिक्षक का ज्ञानी, कुशल, श्रेष्ठ समाज निर्माण के लिये समर्पित राष्ट्रनिष्ठ, शिक्षानिष्ठ और विद्यार्थीनिष्ठ होना भी आवश्यक है।
 
# केवल शिक्षक के अधीन होने से शिक्षा श्रेष्ठ नहीं बनती। उसके लिये शिक्षक का ज्ञानी, कुशल, श्रेष्ठ समाज निर्माण के लिये समर्पित राष्ट्रनिष्ठ, शिक्षानिष्ठ और विद्यार्थीनिष्ठ होना भी आवश्यक है।

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