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| # इकाई के प्रत्येक अवयव के अस्तित्व का प्रयोजन होता है। हर अवयव का प्रयोजन अन्य अवयव के प्रयोजन से भिन्न होता है। उस अवयव की क्षमता की विधा ही उस अवयव का प्रयोजन तय करती है। | | # इकाई के प्रत्येक अवयव के अस्तित्व का प्रयोजन होता है। हर अवयव का प्रयोजन अन्य अवयव के प्रयोजन से भिन्न होता है। उस अवयव की क्षमता की विधा ही उस अवयव का प्रयोजन तय करती है। |
| # यह आवश्यक होता है कि हर अवयव उसके प्रयोजन के अनुसार ही काम करे। | | # यह आवश्यक होता है कि हर अवयव उसके प्रयोजन के अनुसार ही काम करे। |
− | # आपात काल में या नियमित काम करते समय भी इकाई के किसी भी अवयव पर विशेष दबाव या तनाव आता है तब इकाई के सारे अवयव उस अवयव की मदद के लिये तत्पर रहें। इकाई की प्राणशक्ति उस अवयव पर केंद्रित हो। | + | # आपात काल में या नियमित काम करते समय भी इकाई के किसी भी अवयव पर विशेष दबाव या तनाव आता है तब इकाई के सारे अवयव उस अवयव की सहायता के लिये तत्पर रहें। इकाई की प्राणशक्ति उस अवयव पर केंद्रित हो। |
| # इकाई का प्रत्येक अवयव इकाई के मुखिया की आज्ञा का पालन करे। | | # इकाई का प्रत्येक अवयव इकाई के मुखिया की आज्ञा का पालन करे। |
| # इकाई के मुखिया की आज्ञा का सभी अवयव पालन करें। मुखिया भी इकाई के हर अवयव के रक्षण और पोषण की सुनिश्चिति करे। प्रत्येक अवयव की प्रत्येक आवश्यकता की पूर्ति करे। | | # इकाई के मुखिया की आज्ञा का सभी अवयव पालन करें। मुखिया भी इकाई के हर अवयव के रक्षण और पोषण की सुनिश्चिति करे। प्रत्येक अवयव की प्रत्येक आवश्यकता की पूर्ति करे। |
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| === आश्रम प्रणाली-3: ग्राम === | | === आश्रम प्रणाली-3: ग्राम === |
− | स्वतंत्रता मानव जीवन का सामाजिक स्तर का लक्ष्य है। परावलंबन से स्वतंत्रता नष्ट हो जाती है। परस्परावलंबन से स्वतंत्रता की मात्रा कम हो जाती है। लेकिन एक सीमा तक स्वतंत्रता की आश्वस्ति हो जाती है। मानव के अधिकतम संभाव्य सामर्थ्य और उसके जीवन की विभिन्न आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए आवश्यक सामर्थ्य में बहुत अंतर होता है। इस अंतर को वह केवल कुटुंब के रक्तसम्बंधी लोगों की मदद के आधार पर कुछ सीमा तक ही पाट सकता है। आगे उसे परस्परावलंबन का सहारा लेना आवश्यक हो जाता है। परस्परावलंबी कुटुम्बों के समायोजन से एक सीमा तक स्वावलंबन संभव हो सकता है। व्यक्ति अपनी सभी आवश्यकताओं की पूर्ति केवल अपने प्रयासों से नहीं कर सकता। केवल दैनंदिन आवश्यकताओं की पूर्ति भी संभव नहीं है। व्यक्ति की कितनी ही दैनंदिन आवश्यकताओं की पूर्ति कुटुंब भी नहीं करा सकता। व्यक्ति और परिवार दोनों को समाज के अन्य घटकों पर निर्भर होना ही पड़ता है। यह जैसे समाज के एक व्यक्ति या एक परिवार के लिए लागू है उसी तरह समाज के सभी व्यक्तियों के लिए और सभी कुटुंबों के लिए भी लागू है। सामाजिक स्तर पर जीवन का लक्ष्य स्वतंत्रता होकर भी व्यक्ति या कुटुंब पूर्णत: स्वतन्त्र नहीं रह सकते। कुछ मात्रा में परावलंबन अनिवार्य होता है। इसलिए सुख से जीने के लिए मनुष्य को और कुटुंबों को स्वतंत्रता और परावलंबन में संतुलन रखना आवश्यक हो जाता है। केवल परावलंबन से परस्परावलंबन में स्वतंत्रता की मात्रा बढ़ जाती है। इसलिए कुटुंबों में आपस में परस्परावलंबन होना आवश्यक हो जाता है। जैसे जैसे भूक्षेत्र बढ़ता है परस्परावलंबन कठिन होता जाता है। प्राकृतिक संसाधन भी विकेन्द्रित ही होते हैं। इसलिए न्यूनतम या छोटे से छोटे भूक्षेत्र में रहनेवाले परस्परावलंबी परिवार मिलकर उपलब्ध प्राकृतिक संसाधनों के आधारपर दैनंदिन आवश्यकताओं की पूर्ति के सन्दर्भ में स्वावलंबी समुदाय बनाना उचित होता है। अन्न वस्त्र, मकान, प्राथमिक शिक्षा और स्वास्थ्य ये मनुष्य की दैनन्दिन आवश्यकताएं हैं। | + | स्वतंत्रता मानव जीवन का सामाजिक स्तर का लक्ष्य है। परावलंबन से स्वतंत्रता नष्ट हो जाती है। परस्परावलंबन से स्वतंत्रता की मात्रा कम हो जाती है। लेकिन एक सीमा तक स्वतंत्रता की आश्वस्ति हो जाती है। मानव के अधिकतम संभाव्य सामर्थ्य और उसके जीवन की विभिन्न आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए आवश्यक सामर्थ्य में बहुत अंतर होता है। इस अंतर को वह केवल कुटुंब के रक्तसम्बंधी लोगों की सहायता के आधार पर कुछ सीमा तक ही पाट सकता है। आगे उसे परस्परावलंबन का सहारा लेना आवश्यक हो जाता है। परस्परावलंबी कुटुम्बों के समायोजन से एक सीमा तक स्वावलंबन संभव हो सकता है। व्यक्ति अपनी सभी आवश्यकताओं की पूर्ति केवल अपने प्रयासों से नहीं कर सकता। केवल दैनंदिन आवश्यकताओं की पूर्ति भी संभव नहीं है। व्यक्ति की कितनी ही दैनंदिन आवश्यकताओं की पूर्ति कुटुंब भी नहीं करा सकता। व्यक्ति और परिवार दोनों को समाज के अन्य घटकों पर निर्भर होना ही पड़ता है। यह जैसे समाज के एक व्यक्ति या एक परिवार के लिए लागू है उसी तरह समाज के सभी व्यक्तियों के लिए और सभी कुटुंबों के लिए भी लागू है। सामाजिक स्तर पर जीवन का लक्ष्य स्वतंत्रता होकर भी व्यक्ति या कुटुंब पूर्णत: स्वतन्त्र नहीं रह सकते। कुछ मात्रा में परावलंबन अनिवार्य होता है। इसलिए सुख से जीने के लिए मनुष्य को और कुटुंबों को स्वतंत्रता और परावलंबन में संतुलन रखना आवश्यक हो जाता है। केवल परावलंबन से परस्परावलंबन में स्वतंत्रता की मात्रा बढ़ जाती है। इसलिए कुटुंबों में आपस में परस्परावलंबन होना आवश्यक हो जाता है। जैसे जैसे भूक्षेत्र बढ़ता है परस्परावलंबन कठिन होता जाता है। प्राकृतिक संसाधन भी विकेन्द्रित ही होते हैं। इसलिए न्यूनतम या छोटे से छोटे भूक्षेत्र में रहनेवाले परस्परावलंबी परिवार मिलकर उपलब्ध प्राकृतिक संसाधनों के आधारपर दैनंदिन आवश्यकताओं की पूर्ति के सन्दर्भ में स्वावलंबी समुदाय बनाना उचित होता है। अन्न वस्त्र, मकान, प्राथमिक शिक्षा और स्वास्थ्य ये मनुष्य की दैनन्दिन आवश्यकताएं हैं। |
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| वास्तव में ऐसे समुदाय को बड़ा कुटुंब भी कहा जा सकता है। ऐसे बड़े कुटुंब को ग्राम कहना उचित होता है। ग्राम शब्द भी ‘गृ’ धातु से बना है। इसका अर्थ भी ‘गृह’ ऐसा ही है। परस्परावलंबी कुटुम्बों के एकत्र आने से जो स्वावलंबी समुदाय बनता है उसे ग्राम कहते हैं। यह आश्रम प्रणाली का तीसरा हिस्सा है। कौटुम्बिक उद्योगों के आधारपर ग्राम स्वावलंबी बनते हैं। आवश्यकताओं और आपूर्ति का मेल बिठाने के लिए कौटुम्बिक उद्योगों को अनुवांशिक बनाने की आवश्यकता होती है। ज्ञान, कला, कौशल आदि की प्राप्ति के लिए पूरा विश्व ही ग्राम होता है। लेकिन जीवन जीने के लिए ग्राम ही पूरा विश्व होता है। ऐसी सोच के कारण समाज पगढ़ीला नहीं हो पाता। पगढ़ीले समाज में कोई श्रेष्ठ संस्कृति पनप नहीं पाती। ग्राम की सीमा भी सुबह घर से निकलकर समाज की सामान्य आवश्यकताओं की पूर्ति में अपना योगदान देकर शामतक फिर से अपने घर लौट सके इतनी ही होनी चाहिये। ग्राम की विशेषताएँ निम्न कही जा सकतीं हैं: | | वास्तव में ऐसे समुदाय को बड़ा कुटुंब भी कहा जा सकता है। ऐसे बड़े कुटुंब को ग्राम कहना उचित होता है। ग्राम शब्द भी ‘गृ’ धातु से बना है। इसका अर्थ भी ‘गृह’ ऐसा ही है। परस्परावलंबी कुटुम्बों के एकत्र आने से जो स्वावलंबी समुदाय बनता है उसे ग्राम कहते हैं। यह आश्रम प्रणाली का तीसरा हिस्सा है। कौटुम्बिक उद्योगों के आधारपर ग्राम स्वावलंबी बनते हैं। आवश्यकताओं और आपूर्ति का मेल बिठाने के लिए कौटुम्बिक उद्योगों को अनुवांशिक बनाने की आवश्यकता होती है। ज्ञान, कला, कौशल आदि की प्राप्ति के लिए पूरा विश्व ही ग्राम होता है। लेकिन जीवन जीने के लिए ग्राम ही पूरा विश्व होता है। ऐसी सोच के कारण समाज पगढ़ीला नहीं हो पाता। पगढ़ीले समाज में कोई श्रेष्ठ संस्कृति पनप नहीं पाती। ग्राम की सीमा भी सुबह घर से निकलकर समाज की सामान्य आवश्यकताओं की पूर्ति में अपना योगदान देकर शामतक फिर से अपने घर लौट सके इतनी ही होनी चाहिये। ग्राम की विशेषताएँ निम्न कही जा सकतीं हैं: |