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अनेक आन्तरिक एवं बाह्य कारणों के परिणामस्वरूप १९८९ में सोवियत संघ की साम्यवादी व्यवस्था का विघटन हुआ, और द्विध्रुवीय विश्व-व्यवस्था व  शीत-बुद्ध के दौर का पटक्षेप हुआ । शीत-युद्धोत्तर काल में संयुक्त राज्य अमेरिका विश्व-राजनीति की एकमात्र धुरी बनकर उभरा, और इस नए दौर को एकध्रुवीय (unipolar) विश्व कहा गया । सोवियत संघ के विघटन को अमेरिका ने उदारवादी-पूंजीवादी व्यवस्था की नैतिक-राजनीतिक श्रेष्ठता का प्रमाण कहा और राजशास्त्रियों ने इसे 'विचारधारा के अन्त' (End of ideology) और 'इतिहास के अन्त' (End of History) की संज्ञा दी। शीत-युद्धोत्तर काल को वैश्वीकरण (Globalization) का आविर्भाव माना गया, जिसका अन्तर्निहित अर्थ सम्पूर्ण विश्व को अमेरिकी वैचारिक एवं सांस्कृतिक साँचे में ढालना है । यद्यपि विश्वराजनीति आज अमेरिका केन्द्रित है, किन्तु यह भी एक तथ्य है कि अमेरिका के राजनीतिक, सांस्कृतिक व सैनिक प्रभुत्व को चीन, जापान, भारत, रूस आदि नवोदित शक्तियों से चुनौतियाँ मिलनी प्रारम्भ हो गयी हैं। प्रश्न यह भी है कि क्या अमेरिका इस वैश्विक भूमिका को ओढ़कर आर्थिक, राजनीतिक एवं सैनिक दृष्टि से बोझिल, दुर्बल और विवादास्पद नहीं बन रहा है? सर्वाधिक शक्तिशाली भी कब तक शक्ति-सम्पन्न रह सकता है? अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के यथार्थवादी और नव-यथार्थवादी व्याख्याकार जिस प्रभुत्व-केन्द्रित विश्व की अनिवार्यता का प्रतिपादन करते हैं और अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों को मूलतः और तत्त्वतः अराजक (Anarchical) मानते हैं, क्या ऐसा मानकर वे विश्व के राजनीतिक मानचित्र को रक्त-रंजित मानते हुए अमानवीयता का सिंहनाद नहीं कर रहे हैं? विश्व को शक्ति-राजनीति के साँचे में गढ़ने की इस विचार-दृष्टि की भारी कीमत चुकाकर भी क्या हम असंतुष्ट नहीं हैं? विश्व को महाशक्ति, मध्यम-शक्ति व लघु-शक्ति राज्यों में वर्गीकृत करने के पीछे कौन-सी दृष्टि, कौन-सा उद्देश्य है?  
 
अनेक आन्तरिक एवं बाह्य कारणों के परिणामस्वरूप १९८९ में सोवियत संघ की साम्यवादी व्यवस्था का विघटन हुआ, और द्विध्रुवीय विश्व-व्यवस्था व  शीत-बुद्ध के दौर का पटक्षेप हुआ । शीत-युद्धोत्तर काल में संयुक्त राज्य अमेरिका विश्व-राजनीति की एकमात्र धुरी बनकर उभरा, और इस नए दौर को एकध्रुवीय (unipolar) विश्व कहा गया । सोवियत संघ के विघटन को अमेरिका ने उदारवादी-पूंजीवादी व्यवस्था की नैतिक-राजनीतिक श्रेष्ठता का प्रमाण कहा और राजशास्त्रियों ने इसे 'विचारधारा के अन्त' (End of ideology) और 'इतिहास के अन्त' (End of History) की संज्ञा दी। शीत-युद्धोत्तर काल को वैश्वीकरण (Globalization) का आविर्भाव माना गया, जिसका अन्तर्निहित अर्थ सम्पूर्ण विश्व को अमेरिकी वैचारिक एवं सांस्कृतिक साँचे में ढालना है । यद्यपि विश्वराजनीति आज अमेरिका केन्द्रित है, किन्तु यह भी एक तथ्य है कि अमेरिका के राजनीतिक, सांस्कृतिक व सैनिक प्रभुत्व को चीन, जापान, भारत, रूस आदि नवोदित शक्तियों से चुनौतियाँ मिलनी प्रारम्भ हो गयी हैं। प्रश्न यह भी है कि क्या अमेरिका इस वैश्विक भूमिका को ओढ़कर आर्थिक, राजनीतिक एवं सैनिक दृष्टि से बोझिल, दुर्बल और विवादास्पद नहीं बन रहा है? सर्वाधिक शक्तिशाली भी कब तक शक्ति-सम्पन्न रह सकता है? अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के यथार्थवादी और नव-यथार्थवादी व्याख्याकार जिस प्रभुत्व-केन्द्रित विश्व की अनिवार्यता का प्रतिपादन करते हैं और अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों को मूलतः और तत्त्वतः अराजक (Anarchical) मानते हैं, क्या ऐसा मानकर वे विश्व के राजनीतिक मानचित्र को रक्त-रंजित मानते हुए अमानवीयता का सिंहनाद नहीं कर रहे हैं? विश्व को शक्ति-राजनीति के साँचे में गढ़ने की इस विचार-दृष्टि की भारी कीमत चुकाकर भी क्या हम असंतुष्ट नहीं हैं? विश्व को महाशक्ति, मध्यम-शक्ति व लघु-शक्ति राज्यों में वर्गीकृत करने के पीछे कौन-सी दृष्टि, कौन-सा उद्देश्य है?  
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वैश्विक राजनीति का वैचारिक मानचित्र एक दूसरे बियावान को दर्शाता है। विचारधाराओं (ideologies) के रूप में जो इहलोकवादी दृष्टिकोण (secular religions) उभरे, उन्होंने एक मानसिक लौह-पिंजर में हमारी बुद्धि एवं स्मृति को कैद कर लिया। वर्तमान विश्व के राजनीतिक दर्शन को उदारवाद, समाजवाद और फासीवाद के छोटे-बड़े संस्करणों ने सजाया-संवारा है। यूरोप व अमेरिका में पली-बढ़ी इन विचारधाराओं ने एशिया-अफ्रीका की प्राचीन सभ्यताओं को अपनी विरासत से विमुख कर इन्हें एक नए रूप में गढ़ने का कार्य किया है। परिणामतः, सम्पूर्ण विश्व इन विचार-प्रवाहों से अनुप्रेरित एवं आक्रान्त है। यह अवश्य है कि विचारधाराओं की उठापटक में कभी कोई तो कभी कोई विचारधारा मानव-मुक्ति का वाहक मानी गयी । १९१७ में सोवियत संघ की बोल्शेविक क्रान्ति के उपरान्त मार्क्सवादी समाजवाद का डंका बजने लगा । परन्तु १९८९ में सोवियत संघ की साम्यवादी व्यवस्था के विघटन के बाद उदारवादी लोकतंत्र को सार्वभौम दर्शन के रूप में प्रस्तुत किया गया । समकालीन उदारवाद शास्त्रीय उदारवाद की मूल मान्यताओं- व्यक्तिवाद, बुद्धिवाद, सीमित राज्य, मुक्त व्यापार को तो स्वीकार करता है, परन्तु समानता व न्याय की स्थापना हेतु कतिपय मौलिक मान्यताओं को पुनर्व्याख्यायित करता है। जॉन रॉल्स जैसे समतावादी उदारवादियों ने मूलभूत वस्तुओं के पुनर्वितरण का जो सिद्धान्त प्रतिपादित किया उसमें स्वतंत्रता का इस प्रकार विस्तार करने का आग्रह किया गया कि उससे अनौचित्यपूर्ण विषमता का उदय न हो। इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए वह राज्य की सक्रिय भूमिका का समर्थन करता है। परन्तु नॉजिक, हॉयक, मिल्टन फ्रीडमेन जैसे उग्र स्वतंत्रतावादी विचारक शास्त्रीय उदारवाद की मान्यताओं में छेड़छाड़ के विरुद्ध हैं। उनकी दृष्टि में सामाजिक-आर्थिक जीवन एक स्वचालित व्यवस्था (spontaneous order) है, उसके अपने अन्तर्भूत सिद्धान्त हैं, जो मानव-कल्याण का मार्ग प्रशस्त करते है, और इसलिए इन्हें निर्बाध रूप से संचालित होने देना चाहिए । राज्य या कोई अन्य बाह्य हस्तक्षेप मानव-स्वतंत्रता (एवं कल्याण) के लिये विघातक है। स्पष्ट है कि समकालीन उदारवाद मानव-कल्याण को न केवल आर्थिक-सामाजिक परिप्रेक्ष्य में व्याख्यायित करता है, वरन् इस संकुचित कल्याण की उपलब्धि के साधन को लेकर भी द्वन्द्वग्रस्त है। वस्तुतः, उदारवाद मानव-कल्याण की कोई सम्यक् अवधारणा प्रस्तुत कर ही नहीं सकता क्योंकि उसकी मनुष्य की अवधारणा ही नितान्त अपरिपक्क और भ्रान्तिपूर्ण है।
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वैश्विक राजनीति का वैचारिक मानचित्र एक दूसरे बियावान को दर्शाता है। विचारधाराओं (ideologies) के रूप में जो इहलोकवादी दृष्टिकोण (secular religions) उभरे, उन्होंने एक मानसिक लौह-पिंजर में हमारी बुद्धि एवं स्मृति को कैद कर लिया। वर्तमान विश्व के राजनीतिक दर्शन को उदारवाद, समाजवाद और फासीवाद के छोटे-बड़े संस्करणों ने सजाया-संवारा है। यूरोप व अमेरिका में पली-बढ़ी इन विचारधाराओं ने एशिया-अफ्रीका की प्राचीन सभ्यताओं को अपनी विरासत से विमुख कर इन्हें एक नए रूप में गढ़ने का कार्य किया है। परिणामतः, सम्पूर्ण विश्व इन विचार-प्रवाहों से अनुप्रेरित एवं आक्रान्त है। यह अवश्य है कि विचारधाराओं की उठापटक में कभी कोई तो कभी कोई विचारधारा मानव-मुक्ति का वाहक मानी गयी । १९१७ में सोवियत संघ की बोल्शेविक क्रान्ति के उपरान्त मार्क्सवादी समाजवाद का डंका बजने लगा । परन्तु १९८९ में सोवियत संघ की साम्यवादी व्यवस्था के विघटन के बाद उदारवादी लोकतंत्र को सार्वभौम दर्शन के रूप में प्रस्तुत किया गया । समकालीन उदारवाद शास्त्रीय उदारवाद की मूल मान्यताओं- व्यक्तिवाद, बुद्धिवाद, सीमित राज्य, मुक्त व्यापार को तो स्वीकार करता है, परन्तु समानता व न्याय की स्थापना हेतु कतिपय मौलिक मान्यताओं को पुनर्व्याख्यायित करता है। जॉन रॉल्स जैसे समतावादी उदारवादियों ने मूलभूत वस्तुओं के पुनर्वितरण का जो सिद्धान्त प्रतिपादित किया उसमें स्वतंत्रता का इस प्रकार विस्तार करने का आग्रह किया गया कि उससे अनौचित्यपूर्ण विषमता का उदय न हो। इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए वह राज्य की सक्रिय भूमिका का समर्थन करता है। परन्तु नॉजिक, हॉयक, मिल्टन फ्रीडमेन जैसे उग्र स्वतंत्रतावादी विचारक शास्त्रीय उदारवाद की मान्यताओं में छेड़छाड़ के विरुद्ध हैं। उनकी दृष्टि में सामाजिक-आर्थिक जीवन एक स्वचालित व्यवस्था (spontaneous order) है, उसके अपने अन्तर्भूत सिद्धान्त हैं, जो मानव-कल्याण का मार्ग प्रशस्त करते है, और अतः इन्हें निर्बाध रूप से संचालित होने देना चाहिए । राज्य या कोई अन्य बाह्य हस्तक्षेप मानव-स्वतंत्रता (एवं कल्याण) के लिये विघातक है। स्पष्ट है कि समकालीन उदारवाद मानव-कल्याण को न केवल आर्थिक-सामाजिक परिप्रेक्ष्य में व्याख्यायित करता है, वरन् इस संकुचित कल्याण की उपलब्धि के साधन को लेकर भी द्वन्द्वग्रस्त है। वस्तुतः, उदारवाद मानव-कल्याण की कोई सम्यक् अवधारणा प्रस्तुत कर ही नहीं सकता क्योंकि उसकी मनुष्य की अवधारणा ही नितान्त अपरिपक्क और भ्रान्तिपूर्ण है।
    
वास्तव में प्रबोध काल (Age of Enlightenment) की सम्पूर्ण विरासत, जिसका उदारवादी सार्वभौमवाद (Liberal Universalism) एक प्रधान घटक रहा है, आज सन्देह के घेरे में है, समीक्षा व समालोचना का विषय है। फ्रांसिस फुकुयामा जैसे विचारक उदारवादी लोकतंत्र के सार्वजनीकरण का दावा भले ही करें, उदारवादी विचारदृष्टि के समक्ष नित नई चुनौतियाँ उभर रही हैं। अमेरिका में समुदायवाद विश्व में विभिन्न भागों व देशों में धर्म-केन्द्रित/ प्रजातीयता-केन्द्रित राष्ट्रवाद एवं बहुसंस्कृतिवाद, एशिया-अफ्रीका के देशों में उत्तर-उपनिवेशवाद एवं वैश्विक धरातल पर पर्यावरणवाद उदारवादी विचार-दृष्टि के विरुद्ध प्रतिक्रिया के ही विभिन्न स्वरूप हैं। वे सभी मिलकर उदारवादी सामान्यीकरण और सरलीकरण को क्षत-विक्षत कर देते हैं। अमेरिका में माइकेल सेन्डल, मैकन्टायर, वाल्जर, चार्ल्स टेलर आदि विचारकों ने व्यक्ति व समाज की अणुवादी अवधारणा को गम्भीर चुनौती दी है। उनका विचार है कि व्यक्ति की पहचान, उसके लक्ष्य, अपने परिवेश की व्याख्या स्व-प्रसत्त न होकर सांस्कृतिक, ऐतिहासिक व सामाजिक संदर्भो की उपज होती है। व्यक्ति 'भारमुक्त' (Unencumbered) न होकर अपने संदर्भो से निर्देशित, प्रेरित व व्याख्यायित होता है। हमारे भाव, विचार, मान्यताएँ, उद्देश्य संस्कृति-सापेक्ष हैं। हमारे जीवन में इच्छा एवं चयन की भूमिका सीमित है। राज्य व समाज प्राकृतिक और आवश्यक संस्थाएँ हैं, कृत्रिम या अनावश्यक नहीं। उदारवादी चिन्तन में जिस स्व-पर्याप्त व स्व-प्रेरित व्यक्ति की अवधारणा प्रतिपादित की गयी है वह एक ऐसी कपोलकल्पना मात्र है जो व्यक्ति को अहंवादी व स्वकेन्द्रित बनाकर उसमें सामुदायिकता व सामूहिकता की सम्भावना को ही नकार देती है । संदर्भ और वैशिष्ट्य की यही अपरिहार्यता उत्तर-नारीवाद, बहुसंस्कृतिवाद और धर्म/प्रजातीयता केन्द्रित राष्ट्रवाद को परिभाषित व प्रेरित करती है।
 
वास्तव में प्रबोध काल (Age of Enlightenment) की सम्पूर्ण विरासत, जिसका उदारवादी सार्वभौमवाद (Liberal Universalism) एक प्रधान घटक रहा है, आज सन्देह के घेरे में है, समीक्षा व समालोचना का विषय है। फ्रांसिस फुकुयामा जैसे विचारक उदारवादी लोकतंत्र के सार्वजनीकरण का दावा भले ही करें, उदारवादी विचारदृष्टि के समक्ष नित नई चुनौतियाँ उभर रही हैं। अमेरिका में समुदायवाद विश्व में विभिन्न भागों व देशों में धर्म-केन्द्रित/ प्रजातीयता-केन्द्रित राष्ट्रवाद एवं बहुसंस्कृतिवाद, एशिया-अफ्रीका के देशों में उत्तर-उपनिवेशवाद एवं वैश्विक धरातल पर पर्यावरणवाद उदारवादी विचार-दृष्टि के विरुद्ध प्रतिक्रिया के ही विभिन्न स्वरूप हैं। वे सभी मिलकर उदारवादी सामान्यीकरण और सरलीकरण को क्षत-विक्षत कर देते हैं। अमेरिका में माइकेल सेन्डल, मैकन्टायर, वाल्जर, चार्ल्स टेलर आदि विचारकों ने व्यक्ति व समाज की अणुवादी अवधारणा को गम्भीर चुनौती दी है। उनका विचार है कि व्यक्ति की पहचान, उसके लक्ष्य, अपने परिवेश की व्याख्या स्व-प्रसत्त न होकर सांस्कृतिक, ऐतिहासिक व सामाजिक संदर्भो की उपज होती है। व्यक्ति 'भारमुक्त' (Unencumbered) न होकर अपने संदर्भो से निर्देशित, प्रेरित व व्याख्यायित होता है। हमारे भाव, विचार, मान्यताएँ, उद्देश्य संस्कृति-सापेक्ष हैं। हमारे जीवन में इच्छा एवं चयन की भूमिका सीमित है। राज्य व समाज प्राकृतिक और आवश्यक संस्थाएँ हैं, कृत्रिम या अनावश्यक नहीं। उदारवादी चिन्तन में जिस स्व-पर्याप्त व स्व-प्रेरित व्यक्ति की अवधारणा प्रतिपादित की गयी है वह एक ऐसी कपोलकल्पना मात्र है जो व्यक्ति को अहंवादी व स्वकेन्द्रित बनाकर उसमें सामुदायिकता व सामूहिकता की सम्भावना को ही नकार देती है । संदर्भ और वैशिष्ट्य की यही अपरिहार्यता उत्तर-नारीवाद, बहुसंस्कृतिवाद और धर्म/प्रजातीयता केन्द्रित राष्ट्रवाद को परिभाषित व प्रेरित करती है।
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उदारवादी सार्वभौमवाद को राष्ट्रीयता के पुनरुदय से कड़ी चुनौती मिल रही है। धर्म, प्रजाति, भाषा आदि के आधार पर अस्मिता/राष्ट्रीयता का मुद्दा एकाएक बहुत महत्वपूर्ण हो गया है। विडम्बना यह है कि एक ओर जहाँ वैश्वीकरण के प्रतिपादक संचारक्रान्ति, सांस्कृतिक संकरता, राजनीतिक व आर्थिक अन्तर्निर्भरता के प्रबल प्रवाह में राष्ट्र-भाव के विगलित होने का सिंहनाद कर रहे हैं, वहीं दूसरी ओर राष्ट्रीयता का भाव विभिन्न रूपों में और विश्व के विभिन्न क्षेत्रों में प्रभावी सिद्ध हो रहा है । बहु-सांस्कृतिक एवं बहु-राष्ट्रीय राज्यों में उपराष्ट्रीयताएँ अपनी अस्मिता को लेकर व्यग्र हैं, तो उपनिवेशवाद के शिकार रहे एशिया व अफ्रीका के देश पश्चिम की वैचारिक छाया से उबरने के लिए आतुर हैं। साम्यवादी रूस का अधि-राष्ट्रीय (Supra-national) राज्य बनाने का उपक्रम बुरी तरह विफल हुआ। यूरोपीय संघ, अफ्रीकी संघ, अरब लीग आदि अधि-राष्ट्रीय संगठनों के निर्माण से राष्ट्रीयता का भाव मन्द नहीं पड़ा है। इंग्लैण्ड का यूरोपीय संघ से अलग होना इसका ताजा उदाहरण है। वेनेजुएला में हूगो चावेज़ ने अमेरिकी-यूरोपीय जीवन-शैली व उपभोक्ता संस्कृति का विरोध कर व्यापक जन-समर्थन प्राप्त किया और राष्ट्र-भाव की शक्ति को प्रमाणित किया। भारत में हिन्दुत्व का उभार, अमेरिका में डोनाल्ड ट्रंप की 'नव दक्षिणपंथी' राजनीति को मिला जन-समर्थन, जर्मनी की राजनीति में राष्ट्रवादी नीतियों का प्रभाव, मध्यपूर्व में 'राजनीतिक इस्लाम' का बढ़ता प्रभाव राष्ट्रवाद की चिर प्रासंगिकता और प्रभाशीलता को रेखांकित करते हैं।
 
उदारवादी सार्वभौमवाद को राष्ट्रीयता के पुनरुदय से कड़ी चुनौती मिल रही है। धर्म, प्रजाति, भाषा आदि के आधार पर अस्मिता/राष्ट्रीयता का मुद्दा एकाएक बहुत महत्वपूर्ण हो गया है। विडम्बना यह है कि एक ओर जहाँ वैश्वीकरण के प्रतिपादक संचारक्रान्ति, सांस्कृतिक संकरता, राजनीतिक व आर्थिक अन्तर्निर्भरता के प्रबल प्रवाह में राष्ट्र-भाव के विगलित होने का सिंहनाद कर रहे हैं, वहीं दूसरी ओर राष्ट्रीयता का भाव विभिन्न रूपों में और विश्व के विभिन्न क्षेत्रों में प्रभावी सिद्ध हो रहा है । बहु-सांस्कृतिक एवं बहु-राष्ट्रीय राज्यों में उपराष्ट्रीयताएँ अपनी अस्मिता को लेकर व्यग्र हैं, तो उपनिवेशवाद के शिकार रहे एशिया व अफ्रीका के देश पश्चिम की वैचारिक छाया से उबरने के लिए आतुर हैं। साम्यवादी रूस का अधि-राष्ट्रीय (Supra-national) राज्य बनाने का उपक्रम बुरी तरह विफल हुआ। यूरोपीय संघ, अफ्रीकी संघ, अरब लीग आदि अधि-राष्ट्रीय संगठनों के निर्माण से राष्ट्रीयता का भाव मन्द नहीं पड़ा है। इंग्लैण्ड का यूरोपीय संघ से अलग होना इसका ताजा उदाहरण है। वेनेजुएला में हूगो चावेज़ ने अमेरिकी-यूरोपीय जीवन-शैली व उपभोक्ता संस्कृति का विरोध कर व्यापक जन-समर्थन प्राप्त किया और राष्ट्र-भाव की शक्ति को प्रमाणित किया। भारत में हिन्दुत्व का उभार, अमेरिका में डोनाल्ड ट्रंप की 'नव दक्षिणपंथी' राजनीति को मिला जन-समर्थन, जर्मनी की राजनीति में राष्ट्रवादी नीतियों का प्रभाव, मध्यपूर्व में 'राजनीतिक इस्लाम' का बढ़ता प्रभाव राष्ट्रवाद की चिर प्रासंगिकता और प्रभाशीलता को रेखांकित करते हैं।
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इस परिप्रेक्ष्य में एरिक हाब्सबाम का तर्क कि राष्ट्र मात्र संरचना (Construct) है, परिस्थिति-जन्य है और इसलिए उसका विखण्डन (Deconstruction) स्वाभाविक व अपरिहार्य है, नितान्त अपरिपक्व और अटकलबाजी है। आज राष्ट्रीयता के अनेक व्याख्याता ऐसी ही भ्रान्ति के शिकार हैं। जॉन ब्रुएली राष्ट्रीयता को 'राजनीति का रूप' (Form of Politics) कहते हैं, तो रोजर्स ब्रूबेकर उसे रिवाज की श्रेणी (Category of Practice) में रखते हैं, और बेनेडिक्ट एंडरसन उसके उदय का कारण 'प्रिन्ट कैपिटलिज्म' मानते हैं। इन सभी के लिए राष्ट्रवाद 'हाशिए की विचारधारा' (ideology of Periphery) है। ये सभी विश्लेषक राष्ट्रीयता के आन्तरिक, सनातन स्रोतों को जाने-अनजाने में अनदेखा करते हैं। राष्ट्रीयता एक धर्म है, आत्म-तत्त्व है, सहज है और शाश्वत है। मानव-इतिहास की घटनाओं ने बार-बार प्रमाणित किया है कि राष्ट्रीयता के प्रबल प्रवाह के आगे राजनीति, अर्थनीति, सैन्य-शक्ति आदि बाह्य संरचनाएँ निष्प्रभ हो जाती हैं। यह राष्ट्रीयता का ज्वार ही था जिसने यूरोपीय साम्राज्यवाद को घुटने टेकने को विवश कर दिया।
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इस परिप्रेक्ष्य में एरिक हाब्सबाम का तर्क कि राष्ट्र मात्र संरचना (Construct) है, परिस्थिति-जन्य है और अतः उसका विखण्डन (Deconstruction) स्वाभाविक व अपरिहार्य है, नितान्त अपरिपक्व और अटकलबाजी है। आज राष्ट्रीयता के अनेक व्याख्याता ऐसी ही भ्रान्ति के शिकार हैं। जॉन ब्रुएली राष्ट्रीयता को 'राजनीति का रूप' (Form of Politics) कहते हैं, तो रोजर्स ब्रूबेकर उसे रिवाज की श्रेणी (Category of Practice) में रखते हैं, और बेनेडिक्ट एंडरसन उसके उदय का कारण 'प्रिन्ट कैपिटलिज्म' मानते हैं। इन सभी के लिए राष्ट्रवाद 'हाशिए की विचारधारा' (ideology of Periphery) है। ये सभी विश्लेषक राष्ट्रीयता के आन्तरिक, सनातन स्रोतों को जाने-अनजाने में अनदेखा करते हैं। राष्ट्रीयता एक धर्म है, आत्म-तत्त्व है, सहज है और शाश्वत है। मानव-इतिहास की घटनाओं ने बार-बार प्रमाणित किया है कि राष्ट्रीयता के प्रबल प्रवाह के आगे राजनीति, अर्थनीति, सैन्य-शक्ति आदि बाह्य संरचनाएँ निष्प्रभ हो जाती हैं। यह राष्ट्रीयता का ज्वार ही था जिसने यूरोपीय साम्राज्यवाद को घुटने टेकने को विवश कर दिया।
    
आधुनिक विश्व की आर्थिक संरचना पूँजीवाद के आधार पर हुई है जो उदारवादी सार्वभौमवाद का आर्थिक पक्ष है। मनुष्य को मूलतः आर्थिक प्राणी मान कर उसकी भौतिक-आर्थिक आवश्यकताओं की निरन्तर वृद्धि, इसके लिए बड़े पैमाने पर उत्पादन, वितरण व उपभोग के विशाल विश्वव्यापी तंत्र का निर्माण, औद्योगिकीकरण व मशीनीकरण, विश्व के प्राकृतिक संसाधनों पर स्वामित्व की होड़, बाजारों पर नियंत्रण करने की प्रतिस्पर्धा- इन मूल प्रतिस्थापनाओं पर आधारित उदारवादी/नव-उदारवादी परिप्रेक्ष्य ने मनुष्य-मनुष्य और मनुष्य-प्रकृति के सम्बन्धों को दूषित व विरूपित कर दिया है। पर्यावरणवाद (Environmentalism) इसी की उपज है। सम्भवतः विश्व-इतिहास में पहली बार पर्यावरण एक महत्वपूर्ण राजनीतिक प्रश्न बन गया है। पर्यावरण का संकट एक राष्ट्रीय व अन्तर्राष्ट्रीय चिन्ता का विषय है। जल, थल और नभ- सभी गम्भीर प्रदूषण की चपेट में हैं। प्रकृति का संतुलन बिगड़ चुका है। विकास की आधुनिक अवधारणा की परिणति विनाश में होती दिखाई पड़ रही है। विकास और पर्यावरण का सम्बन्ध वैज्ञानिकों एवं विचारकों के लिए गम्भीर चिन्ता और चिन्तन का विषय बन गया है। इस सम्बन्ध में चल रहे विमर्श में दो विचार-प्रवाह उभर कर सामने आए हैं- प्रथम, वे चिन्तक हैं जो विकास और पर्यावरण में कोई विरोधाभास नहीं देखते और, द्वितीय, वे चिन्तक हैं जो विकास और पर्यावरण में परस्पर विरोधी सम्बन्ध मानते हैं।
 
आधुनिक विश्व की आर्थिक संरचना पूँजीवाद के आधार पर हुई है जो उदारवादी सार्वभौमवाद का आर्थिक पक्ष है। मनुष्य को मूलतः आर्थिक प्राणी मान कर उसकी भौतिक-आर्थिक आवश्यकताओं की निरन्तर वृद्धि, इसके लिए बड़े पैमाने पर उत्पादन, वितरण व उपभोग के विशाल विश्वव्यापी तंत्र का निर्माण, औद्योगिकीकरण व मशीनीकरण, विश्व के प्राकृतिक संसाधनों पर स्वामित्व की होड़, बाजारों पर नियंत्रण करने की प्रतिस्पर्धा- इन मूल प्रतिस्थापनाओं पर आधारित उदारवादी/नव-उदारवादी परिप्रेक्ष्य ने मनुष्य-मनुष्य और मनुष्य-प्रकृति के सम्बन्धों को दूषित व विरूपित कर दिया है। पर्यावरणवाद (Environmentalism) इसी की उपज है। सम्भवतः विश्व-इतिहास में पहली बार पर्यावरण एक महत्वपूर्ण राजनीतिक प्रश्न बन गया है। पर्यावरण का संकट एक राष्ट्रीय व अन्तर्राष्ट्रीय चिन्ता का विषय है। जल, थल और नभ- सभी गम्भीर प्रदूषण की चपेट में हैं। प्रकृति का संतुलन बिगड़ चुका है। विकास की आधुनिक अवधारणा की परिणति विनाश में होती दिखाई पड़ रही है। विकास और पर्यावरण का सम्बन्ध वैज्ञानिकों एवं विचारकों के लिए गम्भीर चिन्ता और चिन्तन का विषय बन गया है। इस सम्बन्ध में चल रहे विमर्श में दो विचार-प्रवाह उभर कर सामने आए हैं- प्रथम, वे चिन्तक हैं जो विकास और पर्यावरण में कोई विरोधाभास नहीं देखते और, द्वितीय, वे चिन्तक हैं जो विकास और पर्यावरण में परस्पर विरोधी सम्बन्ध मानते हैं।

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