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छात्र जिस प्रक्रिया से ज्ञानार्जन करता है उसे हम पंचपदी कह सकते हैं । पंचपटदी का अर्थ है पाँच पद वाली प्रक्रिया । पाँच पद इस प्रकार हैं । अधीति, बोध, अभ्यास, प्रयोग और प्रसार । अधीति पहला पद है । अध्येता किसी भी विषय को सुनता है, देखता है या पढ़ता है । यह कार्य ज्ञानेंद्रियों से होता है । उदाहरण के लिए वह गीत या कहानी या भाषण सुनता है । वह नाटक देखता है । वह किसी वस्तु को छूकर परखने का प्रयास करता है । वह किसी घटना को देखता और सुनता है । वह और लोगों की बातचीत सुनता है । वह किसी वार्तालाप या घटना का साक्षी बनता है । वह हाथ से परखता भी है । किसी चित्र के रंग और आकृति का निरीक्षण करता है। अपनी कर्मेन्द्रियों  और ज्ञानेन्द्रियों से वह विषय को ग्रहण करता है । यह श्रवण, दर्शन, निरीक्षण । परीक्षण अधीति है । परंतु अधीति मात्र से वह विषय को जानता नहीं है । जानने का यह केवल प्रारंभ है । दूसरा पद है बोध । बोध का अर्थ है समझना । जो देखा है, सुना है या परखा है उसके ऊपर मनन करके वह विषय को आत्मसात करने का प्रयास करता है। ज्ञानेंद्रियों से ग्रहण किए हुए विषय को वह विचारों में रूपांतरित करता है और जानने के लिए विचारों को बुद्धि के आगे प्रस्तुत करता है । बुद्धि निरीक्षण और परीक्षण के साथ साथ विश्लेषण, संश्लेषण, कार्यकारण भाव आदि की सहायता से अपनी चिंतन प्रक्रिया चलाती है ।
 
छात्र जिस प्रक्रिया से ज्ञानार्जन करता है उसे हम पंचपदी कह सकते हैं । पंचपटदी का अर्थ है पाँच पद वाली प्रक्रिया । पाँच पद इस प्रकार हैं । अधीति, बोध, अभ्यास, प्रयोग और प्रसार । अधीति पहला पद है । अध्येता किसी भी विषय को सुनता है, देखता है या पढ़ता है । यह कार्य ज्ञानेंद्रियों से होता है । उदाहरण के लिए वह गीत या कहानी या भाषण सुनता है । वह नाटक देखता है । वह किसी वस्तु को छूकर परखने का प्रयास करता है । वह किसी घटना को देखता और सुनता है । वह और लोगों की बातचीत सुनता है । वह किसी वार्तालाप या घटना का साक्षी बनता है । वह हाथ से परखता भी है । किसी चित्र के रंग और आकृति का निरीक्षण करता है। अपनी कर्मेन्द्रियों  और ज्ञानेन्द्रियों से वह विषय को ग्रहण करता है । यह श्रवण, दर्शन, निरीक्षण । परीक्षण अधीति है । परंतु अधीति मात्र से वह विषय को जानता नहीं है । जानने का यह केवल प्रारंभ है । दूसरा पद है बोध । बोध का अर्थ है समझना । जो देखा है, सुना है या परखा है उसके ऊपर मनन करके वह विषय को आत्मसात करने का प्रयास करता है। ज्ञानेंद्रियों से ग्रहण किए हुए विषय को वह विचारों में रूपांतरित करता है और जानने के लिए विचारों को बुद्धि के आगे प्रस्तुत करता है । बुद्धि निरीक्षण और परीक्षण के साथ साथ विश्लेषण, संश्लेषण, कार्यकारण भाव आदि की सहायता से अपनी चिंतन प्रक्रिया चलाती है ।
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इस मनन और चिंतन के आधार पर सुने हुए या देखे हुए विषय का बोध होता है अर्थात छात्र विषय को समझता है । यह अध्ययन का दूसरा पद है । अभी भी अध्ययन पूर्ण नहीं हुआ । सुने हुए और समझे हुए विषय की धारणा भी होनी चाहिए अर्थात वह दीर्घकाल तक अध्येता की बुद्धि का अविभाज्य अंग बनकर रहना चाहिए । हम कई बार अनुभव करते हैं की हमारे द्वारा पढ़ाए हुए विषय को छात्र ने समझ तो लिया है परंतु दूसरे दिन अथवा १ सप्ताह के बाद यदि उससे उस विषय के संबंध में पूछा जाए तो वह ठीक से बता नहीं पाता । इसका कारण यह है कि पढ़ा हुआ विषय उसने धारण नहीं किया है । धारणा के लिए समझे हुए विषय का अभ्यास आवश्यक है । अभ्यास अध्ययन का तीसरा पद है । अभ्यास का अर्थ है किसी भी क्रिया को पुनः पुनः करना । इसे ही पुनरावर्तन कहते हैं । पुनरावर्तन करने से विषय का बोध पक्का हो जाता है और वह अध्येता की बुद्धि का अंग बन जाता है । अभ्यास से पूर्व यह सावधानी रखनी चाहिए कि विषय का बोध ठीक से हुआ हो । यदि ठीक से नहीं हुआ और अभ्यास पक्का हुआ तो गलत बात पक्की हो जाती है । उसे ठीक करना बहुत कठिन या लगभग असंभव हो जाता है । उदाहरण के लिए उसने गीत सुना, उसे समझने का प्रयास भी किया, कहीं पर गलती हुई है तो उसे भी ठीक कर लिया, परंतु वह ठीक नहीं हुआ है । वह कच्चा रह गया है । इस कच्चे स्वर के साथ ही यदि अभ्यास किया तो गीत का स्वर गलत ही पक्का हो जाएगा । बाद में उसे ठीक करना अत्यंत कठिन हो जाएगा । छात्रों के संबंध में यह दोष तो हम अनेक बार देखते ही हैं। इसलिए अभ्यास से पूर्व बोध ठीक होना चाहिए। बोध ठीक हो गया परंतु अभ्यास नहीं हुआ तो विषय जल्दी भूल जाता है । इसलिए अभ्यास अत्यंत आवश्यक है । किसी भी बात का अभ्यास ज्ञान को सहज बनाता है । ज्ञान व्यक्तित्व के साथ समरस हो जाता है । उदाहरण के लिए बचपन में पहाड़ों का रोज रोज अभ्यास किया है तो वह बड़ी आयु में भी भूला नहीं जाता । नींद से उठाकर भी कोई कहे तो हम पहाड़े बोल सकते हैं । और कोई काम करते हुए पहाड़े बोलना हमारे लिए सहज होता है । पहाड़े बोलने के लिए कोई विशेष प्रयास नहीं करना पड़ता । यही बात बचपन में रटे हुए श्लोकों, मंत्रों, गीतों के लिए लागू है । संगीत का, योग का, धनुर्विद्या का, साइकिल चलाने का अभ्यास भी बहुत मायने रखता है । अभ्यास से ही परिपक्कता आती है । अभ्यास के बाद अध्ययन चौथे पद की ओर बढ़ता है । चौथा पद है प्रयोग। ज्ञान यदि व्यवहार में व्यक्त नहीं होता तो वह निरुपयोगी है अथवा निरर्थक है । उदाहरण के लिए नाड़ी शुद्धि प्राणायाम का अच्छा अभ्यास हुआ है तो व्यक्ति को देखते ही उसका पता चल जाता है । शरीर कृश और हल्का हो जाता है, वाणी मधुर हो जाती है, नेत्र निर्मल हो जाते हैं और चित्त की प्रसन्नता मुख पर झलकती है । उसे कहना नहीं पड़ता कि उसने नाडीशुद्धि प्राणायाम का अभ्यास किया है । जिस कक्षा में पचास छात्र एक साथ प्रतिदिन ओमकार का उच्चारण करते हैं उस कक्षा का वातावरण ही ओमकार की तरंगों से भर जाता है । किसी को कहना नहीं पड़ता कि वहाँ ओमकार का उच्चारण होता है ।
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इस मनन और चिंतन के आधार पर सुने हुए या देखे हुए विषय का बोध होता है अर्थात छात्र विषय को समझता है । यह अध्ययन का दूसरा पद है । अभी भी अध्ययन पूर्ण नहीं हुआ । सुने हुए और समझे हुए विषय की धारणा भी होनी चाहिए अर्थात वह दीर्घकाल तक अध्येता की बुद्धि का अविभाज्य अंग बनकर रहना चाहिए । हम कई बार अनुभव करते हैं की हमारे द्वारा पढ़ाए हुए विषय को छात्र ने समझ तो लिया है परंतु दूसरे दिन अथवा १ सप्ताह के बाद यदि उससे उस विषय के संबंध में पूछा जाए तो वह ठीक से बता नहीं पाता । इसका कारण यह है कि पढ़ा हुआ विषय उसने धारण नहीं किया है । धारणा के लिए समझे हुए विषय का अभ्यास आवश्यक है । अभ्यास अध्ययन का तीसरा पद है । अभ्यास का अर्थ है किसी भी क्रिया को पुनः पुनः करना । इसे ही पुनरावर्तन कहते हैं । पुनरावर्तन करने से विषय का बोध पक्का हो जाता है और वह अध्येता की बुद्धि का अंग बन जाता है । अभ्यास से पूर्व यह सावधानी रखनी चाहिए कि विषय का बोध ठीक से हुआ हो । यदि ठीक से नहीं हुआ और अभ्यास पक्का हुआ तो गलत बात पक्की हो जाती है । उसे ठीक करना बहुत कठिन या लगभग असंभव हो जाता है । उदाहरण के लिए उसने गीत सुना, उसे समझने का प्रयास भी किया, कहीं पर गलती हुई है तो उसे भी ठीक कर लिया, परंतु वह ठीक नहीं हुआ है । वह कच्चा रह गया है । इस कच्चे स्वर के साथ ही यदि अभ्यास किया तो गीत का स्वर गलत ही पक्का हो जाएगा । बाद में उसे ठीक करना अत्यंत कठिन हो जाएगा । छात्रों के संबंध में यह दोष तो हम अनेक बार देखते ही हैं। अतः अभ्यास से पूर्व बोध ठीक होना चाहिए। बोध ठीक हो गया परंतु अभ्यास नहीं हुआ तो विषय जल्दी भूल जाता है । अतः अभ्यास अत्यंत आवश्यक है । किसी भी बात का अभ्यास ज्ञान को सहज बनाता है । ज्ञान व्यक्तित्व के साथ समरस हो जाता है । उदाहरण के लिए बचपन में पहाड़ों का रोज रोज अभ्यास किया है तो वह बड़ी आयु में भी भूला नहीं जाता । नींद से उठाकर भी कोई कहे तो हम पहाड़े बोल सकते हैं । और कोई काम करते हुए पहाड़े बोलना हमारे लिए सहज होता है । पहाड़े बोलने के लिए कोई विशेष प्रयास नहीं करना पड़ता । यही बात बचपन में रटे हुए श्लोकों, मंत्रों, गीतों के लिए लागू है । संगीत का, योग का, धनुर्विद्या का, साइकिल चलाने का अभ्यास भी बहुत मायने रखता है । अभ्यास से ही परिपक्कता आती है । अभ्यास के बाद अध्ययन चौथे पद की ओर बढ़ता है । चौथा पद है प्रयोग। ज्ञान यदि व्यवहार में व्यक्त नहीं होता तो वह निरुपयोगी है अथवा निरर्थक है । उदाहरण के लिए नाड़ी शुद्धि प्राणायाम का अच्छा अभ्यास हुआ है तो व्यक्ति को देखते ही उसका पता चल जाता है । शरीर कृश और हल्का हो जाता है, वाणी मधुर हो जाती है, नेत्र निर्मल हो जाते हैं और चित्त की प्रसन्नता मुख पर झलकती है । उसे कहना नहीं पड़ता कि उसने नाडीशुद्धि प्राणायाम का अभ्यास किया है । जिस कक्षा में पचास छात्र एक साथ प्रतिदिन ओमकार का उच्चारण करते हैं उस कक्षा का वातावरण ही ओमकार की तरंगों से भर जाता है । किसी को कहना नहीं पड़ता कि वहाँ ओमकार का उच्चारण होता है ।
    
धार्मिक शास्त्रीय संगीत का अच्छा अभ्यास करने वाले का व्यक्तित्व अत्यंत संतुलित और मधुर बन जाता है । भौतिक विज्ञान का अच्छा अभ्यास करने वाले का व्यवहार भौतिक विज्ञान के सिद्धांतों को ध्यान में रखकर ही होता है। शरीरविज्ञान का अध्ययन करने वाला और जिसका अभ्यास पक्का हुआ है वह अपने शरीर की सफाई ठीक से रखता है। आहारशास्त्र का ज्ञान जब प्रयोग के स्तर पर पहुंचता है तब वह व्यक्ति कभी विरुद्ध आहार नहीं करता । आहार के सभी नियमों का सहज ही पालन करता है। प्रयोग के बाद पाँचवा पद है प्रसार । प्राप्त किए हुए ज्ञान को अन्य लोगों तक पहुँचाना ही प्रसार है । प्रसार के दो आयाम हैं । एक है स्वाध्याय और दूसरा है प्रवचन। स्वाध्याय का अर्थ है स्वयं ही अध्ययन करना अथवा स्वयं का अध्ययन करना । स्वयं ही अध्ययन करने का अर्थ है प्राप्त किए हुए ज्ञान को मनन, चिंतन, अभ्यास और प्रयोग के आधार पर निरंतर परिष्कृत करते रहना । ऐसा करने से ज्ञान अधिकाधिक आत्मसात होता जाता है । चिंतन के नए नए आविष्कार होते जाते हैं । अध्येता को अपने आप समझने लगता है कि संदर्भ के अनुसार ज्ञान को प्रयुक्त करने के लिए किस प्रकार उसका स्वरूप परिवर्तन करना । यही अनुसंधान है । इसमें सारी मौलिकता और सृजनशीलता प्रयुक्त होती है । व्यक्ति के अंतःकरण से ज्ञान प्रस्फुटित होता है । सीखा हुआ पूर्ण रूप से व्यक्ति का अपना हो जाता है और वह प्रकट होता है। स्व के अध्ययन का अर्थ है अपने व्यवहार को, अपने विचारों को अपने चिंतन को नित्य परखते रहना और उत्तरोत्तर निर्दोष बनाते जाना । यह प्रगत अध्ययन का क्षेत्र है। अपने सीखे हुए विषय पर और लोग क्या कहते हैं इसको भी जानते जाना । अपने विषय की अपने ही जैसे अध्ययन करने वालों के साथ चर्चा करना, विमर्श करना और ज्ञान को समृद्ध बनाना । प्रसार का दूसरा आयाम है प्रवचन । प्रवचन का अर्थ है अध्यापन । सीखे हुए ज्ञान को अध्येता को देना अध्यापन है । यह प्रक्रिया कैसे होती है ?
 
धार्मिक शास्त्रीय संगीत का अच्छा अभ्यास करने वाले का व्यक्तित्व अत्यंत संतुलित और मधुर बन जाता है । भौतिक विज्ञान का अच्छा अभ्यास करने वाले का व्यवहार भौतिक विज्ञान के सिद्धांतों को ध्यान में रखकर ही होता है। शरीरविज्ञान का अध्ययन करने वाला और जिसका अभ्यास पक्का हुआ है वह अपने शरीर की सफाई ठीक से रखता है। आहारशास्त्र का ज्ञान जब प्रयोग के स्तर पर पहुंचता है तब वह व्यक्ति कभी विरुद्ध आहार नहीं करता । आहार के सभी नियमों का सहज ही पालन करता है। प्रयोग के बाद पाँचवा पद है प्रसार । प्राप्त किए हुए ज्ञान को अन्य लोगों तक पहुँचाना ही प्रसार है । प्रसार के दो आयाम हैं । एक है स्वाध्याय और दूसरा है प्रवचन। स्वाध्याय का अर्थ है स्वयं ही अध्ययन करना अथवा स्वयं का अध्ययन करना । स्वयं ही अध्ययन करने का अर्थ है प्राप्त किए हुए ज्ञान को मनन, चिंतन, अभ्यास और प्रयोग के आधार पर निरंतर परिष्कृत करते रहना । ऐसा करने से ज्ञान अधिकाधिक आत्मसात होता जाता है । चिंतन के नए नए आविष्कार होते जाते हैं । अध्येता को अपने आप समझने लगता है कि संदर्भ के अनुसार ज्ञान को प्रयुक्त करने के लिए किस प्रकार उसका स्वरूप परिवर्तन करना । यही अनुसंधान है । इसमें सारी मौलिकता और सृजनशीलता प्रयुक्त होती है । व्यक्ति के अंतःकरण से ज्ञान प्रस्फुटित होता है । सीखा हुआ पूर्ण रूप से व्यक्ति का अपना हो जाता है और वह प्रकट होता है। स्व के अध्ययन का अर्थ है अपने व्यवहार को, अपने विचारों को अपने चिंतन को नित्य परखते रहना और उत्तरोत्तर निर्दोष बनाते जाना । यह प्रगत अध्ययन का क्षेत्र है। अपने सीखे हुए विषय पर और लोग क्या कहते हैं इसको भी जानते जाना । अपने विषय की अपने ही जैसे अध्ययन करने वालों के साथ चर्चा करना, विमर्श करना और ज्ञान को समृद्ध बनाना । प्रसार का दूसरा आयाम है प्रवचन । प्रवचन का अर्थ है अध्यापन । सीखे हुए ज्ञान को अध्येता को देना अध्यापन है । यह प्रक्रिया कैसे होती है ?
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हम अनेक उदाहरण ढूंढते हैं । केवल सिद्धांत समझने का ही नहीं तो प्रक्रियाओं को समझने का कार्य भी हमारी बुद्धि कर रही है। इसके अभ्यास के द्वारा हमारा मन एकाग्र होता है और बुद्धि परिष्कृत होती रहती है। यह भी अभ्यास का ही परिणाम है। एक विषय को या मुद्दे को समझते समझते हमारी बुद्धि सक्षम, निर्दोष और परिपक्व बनती जाती है। यह हमारी उपलब्धि है। अन्यत्र कहीं हमने सुना है कि विषयों की जानकारी का उपयोग ज्ञानार्जन के करणों के विकास में होता है। इन सिद्धांतों को लागू करने का अभ्यास स्वयं इस सिद्धांत को ठीक से समझने में तो होता ही है परंतु अन्य सिद्धांत समझने के लिए भी उपयोगी होता है । विषय और करण दोनों एक दूसरे के लिए सहयोगी बनते हैं । यह भी ज्ञानार्जन की प्रक्रिया का एक महत्त्वपूर्ण अंग है । अभ्यास से विषय तो पक्का होता ही है, साथ ही विवेक भी बढ़ता है और ज्ञान प्राप्त करने से जो प्रसन्नता होती है उसका भी अनुभव होता है। यह कदाचित अंतःकरण के स्तर पर होने वाली ज्ञानार्जन की प्रक्रिया है । यह हमारे लिए अभ्यास का पद है । इसके बाद हम प्रयोग के पद पर पहुंचते हैं । हमारे अध्यापन कार्य में पंचपदी के सिद्धांत का ज्ञान व्यक्त होता है । हमारा अध्यापन अध्ययन का कार्य अधिक समर्थ और अधिक प्रभावी बनता है । हम भी अध्यापन का कार्य इस सिद्धांत के प्रकाश में करते हैं । छात्र अध्ययन के किस पद से गुजर रहा है इसका भी पता हमें चलता है । छात्र का बोध का पद ठीक हुआ कि नहीं इसकी और हमारा विशेष ध्यान रहता है । हमारा अध्यापन छात्रों को भी ठीक लगता है । सामान्य भाषा में इसे ही अनुभवी अध्यापक कहते हैं । यह हमारे लिए प्रयोग का पद है । हम देख रहे हैं कि पंचपदी के सिद्धांत को लेकर लेखक के लिए प्रसार का पद है । लेखक प्रवचन कर रहा है। अर्थात उसने जो समझा है वह पाठकों तक पहुंचाने का प्रयास वह कर रहा है । हम जब वैसा करेंगे तब वह हमारे लिए प्रसार का पद होगा । परंतु केवल पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करना ही प्रसार नहीं है । वह उसका एक आयाम है । यह प्रवचन है । पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करते समय लेखक स्वयं का परीक्षण करता है । वह देखता है कि उसे ठीक से प्रस्तुत करना आया कि नहीं । लेखक ज्ञानार्जन की प्रक्रिया के अन्य सिद्धांतों के साथ पंचपदी के सिद्धांत की तुलना करता है । वह यह प्रक्रिया किस प्रकार होती है इसका भी चिंतन करता है । पाठक भी यह करेंगे । तब लेखक और पाठक सबके लिए यह स्वाध्याय का पद होगा । इसी प्रकार से अन्य विषयों को भी समझा जाता है । दोनों पद्धतियों की तुलना शिक्षक प्रशिक्षण के कई पाठ्यक्रमों में हमने हर्बर्ट की पंचपदी के विषय में सुना है और पढ़ा भी है । यहाँ जो पंचपदी प्रस्तुत हुई है उसमें और हर्बर्ट की पंचपदी में क्या अंतर है ? क्या दोनों का समन्वय किया जा सकता है ?
 
हम अनेक उदाहरण ढूंढते हैं । केवल सिद्धांत समझने का ही नहीं तो प्रक्रियाओं को समझने का कार्य भी हमारी बुद्धि कर रही है। इसके अभ्यास के द्वारा हमारा मन एकाग्र होता है और बुद्धि परिष्कृत होती रहती है। यह भी अभ्यास का ही परिणाम है। एक विषय को या मुद्दे को समझते समझते हमारी बुद्धि सक्षम, निर्दोष और परिपक्व बनती जाती है। यह हमारी उपलब्धि है। अन्यत्र कहीं हमने सुना है कि विषयों की जानकारी का उपयोग ज्ञानार्जन के करणों के विकास में होता है। इन सिद्धांतों को लागू करने का अभ्यास स्वयं इस सिद्धांत को ठीक से समझने में तो होता ही है परंतु अन्य सिद्धांत समझने के लिए भी उपयोगी होता है । विषय और करण दोनों एक दूसरे के लिए सहयोगी बनते हैं । यह भी ज्ञानार्जन की प्रक्रिया का एक महत्त्वपूर्ण अंग है । अभ्यास से विषय तो पक्का होता ही है, साथ ही विवेक भी बढ़ता है और ज्ञान प्राप्त करने से जो प्रसन्नता होती है उसका भी अनुभव होता है। यह कदाचित अंतःकरण के स्तर पर होने वाली ज्ञानार्जन की प्रक्रिया है । यह हमारे लिए अभ्यास का पद है । इसके बाद हम प्रयोग के पद पर पहुंचते हैं । हमारे अध्यापन कार्य में पंचपदी के सिद्धांत का ज्ञान व्यक्त होता है । हमारा अध्यापन अध्ययन का कार्य अधिक समर्थ और अधिक प्रभावी बनता है । हम भी अध्यापन का कार्य इस सिद्धांत के प्रकाश में करते हैं । छात्र अध्ययन के किस पद से गुजर रहा है इसका भी पता हमें चलता है । छात्र का बोध का पद ठीक हुआ कि नहीं इसकी और हमारा विशेष ध्यान रहता है । हमारा अध्यापन छात्रों को भी ठीक लगता है । सामान्य भाषा में इसे ही अनुभवी अध्यापक कहते हैं । यह हमारे लिए प्रयोग का पद है । हम देख रहे हैं कि पंचपदी के सिद्धांत को लेकर लेखक के लिए प्रसार का पद है । लेखक प्रवचन कर रहा है। अर्थात उसने जो समझा है वह पाठकों तक पहुंचाने का प्रयास वह कर रहा है । हम जब वैसा करेंगे तब वह हमारे लिए प्रसार का पद होगा । परंतु केवल पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करना ही प्रसार नहीं है । वह उसका एक आयाम है । यह प्रवचन है । पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करते समय लेखक स्वयं का परीक्षण करता है । वह देखता है कि उसे ठीक से प्रस्तुत करना आया कि नहीं । लेखक ज्ञानार्जन की प्रक्रिया के अन्य सिद्धांतों के साथ पंचपदी के सिद्धांत की तुलना करता है । वह यह प्रक्रिया किस प्रकार होती है इसका भी चिंतन करता है । पाठक भी यह करेंगे । तब लेखक और पाठक सबके लिए यह स्वाध्याय का पद होगा । इसी प्रकार से अन्य विषयों को भी समझा जाता है । दोनों पद्धतियों की तुलना शिक्षक प्रशिक्षण के कई पाठ्यक्रमों में हमने हर्बर्ट की पंचपदी के विषय में सुना है और पढ़ा भी है । यहाँ जो पंचपदी प्रस्तुत हुई है उसमें और हर्बर्ट की पंचपदी में क्या अंतर है ? क्या दोनों का समन्वय किया जा सकता है ?
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हर्बर्ट की पंचपदी मूल रूप से अध्यापन की पंचपदी है । अध्यापक को कक्षाकक्ष में विषय किस प्रकार प्रस्तुत करना है उसका मार्गदर्शन यह पंचपदी करती है । व्यापक संदर्भ में कहे तो पाश्चात्य जगत की सारी अध्ययन अध्यापन प्रक्रिया यांत्रिकता से ग्रस्त हो गई है। अध्यापन को कालांश नामक समयसीमा में बद्ध करती है । अध्यापन कौशल को छोटे छोटे हिस्सों में बांटती है । जिस प्रकार एक यंत्र के छोटो छोटे हिस्से बनते हैं उसी प्रकार एक विषय को उपपविषयों में विभाजित किया जाता है उस के मुद्दे बनाए जाते हैं और एक ३५ या ४५ मिनट की समय सीमा में कया पढ़ाना है यह तय किया जाता है । उस समय सीमा के भी हिस्से किए जाते हैं और उन हिस्सों में क्या क्या करना है किस प्रकार करना है यह निश्चित किया जाता है । मोटे मोटे यह पांचपद से होते हैं और वे क्रमशः भी होते हैं इसलिए उसे पंचपदी कहा जाता है । हर्बर्ट नामक शिक्षाशास्त्री उस का आविष्कार किया था इसलिए उसे हर्बर्ट की पंचपदी कहते हैं । हमारे पंचपदी के सिद्धांत और हर्बर्ट की पंचपदी में जो मौलिक अंतर है वह है हर्बर्ट की पंचपदी, अध्यापक की पंचपदी है जबकि हमारी पंचपदी अध्ययन की पंचपदी है । हर्बर्ट की पंचपदी क्रिया है और हमारी पंचपदी प्रक्रिया है । क्रिया कौशल के साथ जुड़ी हुई है और प्रक्रिया अर्जन के साथ । हर्बर्ट की पंचपदी अध्यापन कौशल को विकसित करती है जबकि हमारी पंचपदी अध्ययन के मनोविज्ञान को दर्शाती है । मुझे लगता है कि इस मूल अंतर को समझने से सारी बातें स्पष्ट हो जाती हैं ।
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हर्बर्ट की पंचपदी मूल रूप से अध्यापन की पंचपदी है । अध्यापक को कक्षाकक्ष में विषय किस प्रकार प्रस्तुत करना है उसका मार्गदर्शन यह पंचपदी करती है । व्यापक संदर्भ में कहे तो पाश्चात्य जगत की सारी अध्ययन अध्यापन प्रक्रिया यांत्रिकता से ग्रस्त हो गई है। अध्यापन को कालांश नामक समयसीमा में बद्ध करती है । अध्यापन कौशल को छोटे छोटे हिस्सों में बांटती है । जिस प्रकार एक यंत्र के छोटो छोटे हिस्से बनते हैं उसी प्रकार एक विषय को उपपविषयों में विभाजित किया जाता है उस के मुद्दे बनाए जाते हैं और एक ३५ या ४५ मिनट की समय सीमा में कया पढ़ाना है यह तय किया जाता है । उस समय सीमा के भी हिस्से किए जाते हैं और उन हिस्सों में क्या क्या करना है किस प्रकार करना है यह निश्चित किया जाता है । मोटे मोटे यह पांचपद से होते हैं और वे क्रमशः भी होते हैं अतः उसे पंचपदी कहा जाता है । हर्बर्ट नामक शिक्षाशास्त्री उस का आविष्कार किया था अतः उसे हर्बर्ट की पंचपदी कहते हैं । हमारे पंचपदी के सिद्धांत और हर्बर्ट की पंचपदी में जो मौलिक अंतर है वह है हर्बर्ट की पंचपदी, अध्यापक की पंचपदी है जबकि हमारी पंचपदी अध्ययन की पंचपदी है । हर्बर्ट की पंचपदी क्रिया है और हमारी पंचपदी प्रक्रिया है । क्रिया कौशल के साथ जुड़ी हुई है और प्रक्रिया अर्जन के साथ । हर्बर्ट की पंचपदी अध्यापन कौशल को विकसित करती है जबकि हमारी पंचपदी अध्ययन के मनोविज्ञान को दर्शाती है । मुझे लगता है कि इस मूल अंतर को समझने से सारी बातें स्पष्ट हो जाती हैं ।
    
कवि श्रीहर्ष के नैषधिचरित नामक महाकाव्य में एक प्रकार से इसका उल्लेख आता है । नल राजा गुरुकुल में पढ़ते हैं तब उनका अध्ययन जिस पद्धति से चलता है उसे ४ पदों में बताया गया है | ये चार पद है अधीति, बोध, आचरण और प्रचार । हमारे देश में शिक्षा क्षेत्र में अभी विद्याभारती नामक एक अखिल धार्मिक संगठन कार्यरत हैं। इस संगठन के प्रथम संगठन मंत्री थे श्री लज्जाराम जी तोमर ।
 
कवि श्रीहर्ष के नैषधिचरित नामक महाकाव्य में एक प्रकार से इसका उल्लेख आता है । नल राजा गुरुकुल में पढ़ते हैं तब उनका अध्ययन जिस पद्धति से चलता है उसे ४ पदों में बताया गया है | ये चार पद है अधीति, बोध, आचरण और प्रचार । हमारे देश में शिक्षा क्षेत्र में अभी विद्याभारती नामक एक अखिल धार्मिक संगठन कार्यरत हैं। इस संगठन के प्रथम संगठन मंत्री थे श्री लज्जाराम जी तोमर ।
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# कालांश के ही समान आज की व्यवस्था स्थान से बद्ध हो गई है । विभिन्न कक्षाओं को विभिन्न कक्षों के साथ जोड़ दिया गया है । यह आठवीं का, यह पाँचवीं का, यह प्रथमा का कक्ष है ऐसा निश्चित किया जाता है और उस कक्षा के छात्र सारे विषय उसी कक्ष में बैठकर पढ़ते हैं । स्वाभाविक बात तो यह है कि सारे विषय केवल कक्षाकक्ष में पढे जाते हैं ऐसा भी नहीं है । वे कक्षाकक्ष के बाहर, विद्यालय परिसर में, घर में, समाज में पढे जाते हैं । विभिन्न क्रियाकलापों के माध्यम से पढ़े जाते हैं। उन्हें निश्चित कालावधि में बांधना, निश्चित स्थान और व्यवस्था में बांधना सर्वथा अनुचित है । ऐसा करना अध्ययन प्रक्रिया में ही अवरोध निर्माण करता है । इसमें परिवर्तन की अत्यधिक आवश्यकता है ।
 
# कालांश के ही समान आज की व्यवस्था स्थान से बद्ध हो गई है । विभिन्न कक्षाओं को विभिन्न कक्षों के साथ जोड़ दिया गया है । यह आठवीं का, यह पाँचवीं का, यह प्रथमा का कक्ष है ऐसा निश्चित किया जाता है और उस कक्षा के छात्र सारे विषय उसी कक्ष में बैठकर पढ़ते हैं । स्वाभाविक बात तो यह है कि सारे विषय केवल कक्षाकक्ष में पढे जाते हैं ऐसा भी नहीं है । वे कक्षाकक्ष के बाहर, विद्यालय परिसर में, घर में, समाज में पढे जाते हैं । विभिन्न क्रियाकलापों के माध्यम से पढ़े जाते हैं। उन्हें निश्चित कालावधि में बांधना, निश्चित स्थान और व्यवस्था में बांधना सर्वथा अनुचित है । ऐसा करना अध्ययन प्रक्रिया में ही अवरोध निर्माण करता है । इसमें परिवर्तन की अत्यधिक आवश्यकता है ।
 
# किसी भी विषय का अध्ययन केवल निश्चित समय पर, निश्चित समयावधि में, निश्चित पद्धति और प्रक्रिया से, निश्चित एक ही स्थान पर नहीं हो सकता है। यह बहुत कृत्रिम पद्धति है। शिक्षा जैसी आध्यात्मिक प्रक्रिया, जो सम्पूर्ण व्यक्तित्व के साथ जुड़ी हुई है, यांत्रिक पद्धति से नहीं हो सकती है । जीवन जिस प्रकार चलता है उसी प्रकार से शिक्षा भी चलती है ।  
 
# किसी भी विषय का अध्ययन केवल निश्चित समय पर, निश्चित समयावधि में, निश्चित पद्धति और प्रक्रिया से, निश्चित एक ही स्थान पर नहीं हो सकता है। यह बहुत कृत्रिम पद्धति है। शिक्षा जैसी आध्यात्मिक प्रक्रिया, जो सम्पूर्ण व्यक्तित्व के साथ जुड़ी हुई है, यांत्रिक पद्धति से नहीं हो सकती है । जीवन जिस प्रकार चलता है उसी प्रकार से शिक्षा भी चलती है ।  
# इसलिए कक्षों का विभाजन कक्षाओं के अनुसार करने के स्थान पर विषयों के अनुसार करना उचित है। यह शिक्षा के जीवमान स्वभाव को ध्यान में रखकर की गई व्यवस्था है ।  
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# अतः कक्षों का विभाजन कक्षाओं के अनुसार करने के स्थान पर विषयों के अनुसार करना उचित है। यह शिक्षा के जीवमान स्वभाव को ध्यान में रखकर की गई व्यवस्था है ।  
 
# इस प्रकार विभाजन करने से विभिन्न विषयों के स्वरूप के अनुसार व्यवस्था करने की सुविधा निर्माण होती है। हर विषय का कक्ष उस विषय की प्रयोगशाला हो सकता है । विषय के साथ संबन्धित सम्पूर्ण साहित्य और सामाग्री उस कक्ष में हो सकती है ।  
 
# इस प्रकार विभाजन करने से विभिन्न विषयों के स्वरूप के अनुसार व्यवस्था करने की सुविधा निर्माण होती है। हर विषय का कक्ष उस विषय की प्रयोगशाला हो सकता है । विषय के साथ संबन्धित सम्पूर्ण साहित्य और सामाग्री उस कक्ष में हो सकती है ।  
 
# बैठक व्यवस्था से लेकर वातावरण उसी विषय के अनुरूप बनाया जा सकता है । विज्ञान की प्रयोगशाला, उद्योग की कार्यशाला, संगीत की संगीतशाला, चित्र तथा अन्य कलाओं की कलाशाला, भाषा और साहित्य का साहित्यमंदिर, इतिहास और भूगोल की पुरातत्त्वशाला आदि की रचना की जा सकती है।
 
# बैठक व्यवस्था से लेकर वातावरण उसी विषय के अनुरूप बनाया जा सकता है । विज्ञान की प्रयोगशाला, उद्योग की कार्यशाला, संगीत की संगीतशाला, चित्र तथा अन्य कलाओं की कलाशाला, भाषा और साहित्य का साहित्यमंदिर, इतिहास और भूगोल की पुरातत्त्वशाला आदि की रचना की जा सकती है।
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# किंबहुना अब कक्षाओं के अनुसार छात्रों का विभाजन नहीं हो सकता, विषयों के अनुसार छात्रों का विभाजन होगा । यह नौवीं का, यह सातवीं का, यह पाँचवीं का इस प्रकार कक्षों का विभाजन करने के स्थान पर विज्ञान, भाषा, इतिहास आदि के अनुसार कक्षों का विभाजन होगा।  
 
# किंबहुना अब कक्षाओं के अनुसार छात्रों का विभाजन नहीं हो सकता, विषयों के अनुसार छात्रों का विभाजन होगा । यह नौवीं का, यह सातवीं का, यह पाँचवीं का इस प्रकार कक्षों का विभाजन करने के स्थान पर विज्ञान, भाषा, इतिहास आदि के अनुसार कक्षों का विभाजन होगा।  
 
# विषय के अनुसार कक्ष रचना करने के लिए एक एक वर्ष की एक एक कक्षा की अवधि भी नहीं रहेगी। कुल बारह वर्ष पढ़ना है तो छात्र अपनी अपनी क्षमता के अनुसार विभिन्न विषयों के कक्षों में बैठकर अध्ययन करेंगे। विषयों का पाठ्यक्रम एक एक वर्ष में विभाजित होने के स्थान पर निरन्तर बारह वर्षों का होगा और छात्र अपनी अपनी क्षमता के अनुसार किसी विषय का पाठ्यक्रम बारह, ग्यारह या हो सकता है कि पंद्रह वर्षों में पूर्ण करेंगे । अर्थात बारह वर्षों कि अवधि में कोई छात्र बारह वर्ष सामाजिक शास्त्रों का अध्ययन पूर्ण करता है तो उसके तीन बचे हुए वर्ष कठिन लगने वाले विषय का अधिक अध्ययन करने के लिए दे सकता है।  
 
# विषय के अनुसार कक्ष रचना करने के लिए एक एक वर्ष की एक एक कक्षा की अवधि भी नहीं रहेगी। कुल बारह वर्ष पढ़ना है तो छात्र अपनी अपनी क्षमता के अनुसार विभिन्न विषयों के कक्षों में बैठकर अध्ययन करेंगे। विषयों का पाठ्यक्रम एक एक वर्ष में विभाजित होने के स्थान पर निरन्तर बारह वर्षों का होगा और छात्र अपनी अपनी क्षमता के अनुसार किसी विषय का पाठ्यक्रम बारह, ग्यारह या हो सकता है कि पंद्रह वर्षों में पूर्ण करेंगे । अर्थात बारह वर्षों कि अवधि में कोई छात्र बारह वर्ष सामाजिक शास्त्रों का अध्ययन पूर्ण करता है तो उसके तीन बचे हुए वर्ष कठिन लगने वाले विषय का अधिक अध्ययन करने के लिए दे सकता है।  
# इस व्यवस्था में अध्ययन स्वाभाविक हो सकता है, आवश्यक और सहज गति से हो सकता है, पर्याप्त समय देकर हो सकता है । छोटे और बड़े छात्र एक साथ अध्ययन करते हैं इसलिए बड़े छात्र छोटे छात्रों को सहायता कर सकते हैं । एक ही कक्षा में किसी छात्र का अधिति का, किसीका बोध का । किसीका अभ्यास का, किसीका प्रसार का पद सम्भव होता है। पंचपदी अध्ययन पद्धति के लिए इस प्रकार की रचना अनिवार्य है।  
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# इस व्यवस्था में अध्ययन स्वाभाविक हो सकता है, आवश्यक और सहज गति से हो सकता है, पर्याप्त समय देकर हो सकता है । छोटे और बड़े छात्र एक साथ अध्ययन करते हैं अतः बड़े छात्र छोटे छात्रों को सहायता कर सकते हैं । एक ही कक्षा में किसी छात्र का अधिति का, किसीका बोध का । किसीका अभ्यास का, किसीका प्रसार का पद सम्भव होता है। पंचपदी अध्ययन पद्धति के लिए इस प्रकार की रचना अनिवार्य है।  
 
# आचार्य और छात्रों का समरस सम्बन्ध बनने में यह रचना बहुत सहायक होती है। यह एक एक विषय का छोटा गुरुकुल अथवा छोटा विद्यालय बन जाता  
 
# आचार्य और छात्रों का समरस सम्बन्ध बनने में यह रचना बहुत सहायक होती है। यह एक एक विषय का छोटा गुरुकुल अथवा छोटा विद्यालय बन जाता  
 
# सभी कक्षाओं का नियोजन भी विषयों के अनुसार ही होता है, न कि कक्षाओं के अनुसार ।
 
# सभी कक्षाओं का नियोजन भी विषयों के अनुसार ही होता है, न कि कक्षाओं के अनुसार ।

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