चित्त संस्कार संग्रहण का स्थान है। इसमें सभी प्रकार का ज्ञान अंकित होता है। लेकिन चित्त बच्चे के शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि और अहंकार से आवेष्टित होने से प्रकट नहीं होता। ज्ञानेन्द्रिय कला वस्तु का आकलन करते हैं, इस आकलन के संस्कार चित्त पर होते हैं। मन इन संस्कारों के साथ ही चित्त पर अंकित और विषयवस्तु से सम्बंधित विभिन्न विकल्प बुद्धि के सामने प्रस्तुत करता है। चित्त पर हुए संस्कारों के साथ बुद्धि जीवात्मा के प्रकाश में चित्त पर अंकित पूर्व के संस्कारों (ज्ञान) के साथ तुलना कर के देखती है और यह तय करती है कि उचित संस्कार क्या है। क्योंकि बुद्धि व्यवसायात्मिका होती है, सत्यान्वेषी होती है। जीवात्मा के प्रकाश के कारण चित्त में पहले से उपस्थित संस्कारों (ज्ञान) अनावृत्त हो जाता है। प्रकाशित हो जाता है। तब आकलन का अनुभव होता है। तब अंत:करण के एक घटक अहंकार जो जीवात्मा का प्रतिनिधि है, ज्ञान प्राप्त होता है। आकलन होता है। यह है आकलन की प्रक्रिया। यह आकलन उतना ही यथार्थ होगा जितनी ज्ञानेन्द्रियों की, मन, और बुद्धि की क्षमता और चित्त की निर्मलता होगी। | चित्त संस्कार संग्रहण का स्थान है। इसमें सभी प्रकार का ज्ञान अंकित होता है। लेकिन चित्त बच्चे के शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि और अहंकार से आवेष्टित होने से प्रकट नहीं होता। ज्ञानेन्द्रिय कला वस्तु का आकलन करते हैं, इस आकलन के संस्कार चित्त पर होते हैं। मन इन संस्कारों के साथ ही चित्त पर अंकित और विषयवस्तु से सम्बंधित विभिन्न विकल्प बुद्धि के सामने प्रस्तुत करता है। चित्त पर हुए संस्कारों के साथ बुद्धि जीवात्मा के प्रकाश में चित्त पर अंकित पूर्व के संस्कारों (ज्ञान) के साथ तुलना कर के देखती है और यह तय करती है कि उचित संस्कार क्या है। क्योंकि बुद्धि व्यवसायात्मिका होती है, सत्यान्वेषी होती है। जीवात्मा के प्रकाश के कारण चित्त में पहले से उपस्थित संस्कारों (ज्ञान) अनावृत्त हो जाता है। प्रकाशित हो जाता है। तब आकलन का अनुभव होता है। तब अंत:करण के एक घटक अहंकार जो जीवात्मा का प्रतिनिधि है, ज्ञान प्राप्त होता है। आकलन होता है। यह है आकलन की प्रक्रिया। यह आकलन उतना ही यथार्थ होगा जितनी ज्ञानेन्द्रियों की, मन, और बुद्धि की क्षमता और चित्त की निर्मलता होगी। |