| इसका अर्थ यह हुआ कि एक जन्म का परिणाम दूसरे जन्म पर होता है। हमारा इस जन्म का जीवन पूर्वजन्मों का परिणाम है और इस जन्म के परिणामस्वरूप अगला जन्म होने वाला है। इसमें से कर्म, कर्मफल और भाग्य का कर्मसिद्धान्त बना है। यह सिद्धान्त कहता है कि हम जो कर्म करते हैं उसके फल हमें भुगतने ही होते हैं, कुछ कर्मों का फल तत्काल तो कुछ का फल कुछ समय बाद भुगतना होता है। जब तक भुगत नहीं लेते तब तक वे संस्कारों के रूप में संचित रहते हैं और चित्त में संग्रहीत होते हैं। इस जन्म में नहीं भुगत लिए तो अगले जन्म में भुगतने होते हैं। कर्मफल भुगतते भुगतते नए कर्म बनते जाते हैं। कर्मों के आधार पर पुनर्जन्म होता है। कर्मों के आधार पर जन्मभर में कैसे भोग होंगे यह निश्चित होता है। कर्मसिद्धान्त के साथ ही श्रीमद्धगवद्टीता द्वारा प्रतिपादित निष्काम कर्म, कर्म के फल की अपेक्षा छोड़ देने पर मुक्ति का सिद्धान्त भी समझ जाता है। जीवन की गतिविधियों को समझाने वाला यह जन्म पुनर्जन्म का सिद्धान्त है जो भारतीय जीवनदृष्टि का महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त है। | | इसका अर्थ यह हुआ कि एक जन्म का परिणाम दूसरे जन्म पर होता है। हमारा इस जन्म का जीवन पूर्वजन्मों का परिणाम है और इस जन्म के परिणामस्वरूप अगला जन्म होने वाला है। इसमें से कर्म, कर्मफल और भाग्य का कर्मसिद्धान्त बना है। यह सिद्धान्त कहता है कि हम जो कर्म करते हैं उसके फल हमें भुगतने ही होते हैं, कुछ कर्मों का फल तत्काल तो कुछ का फल कुछ समय बाद भुगतना होता है। जब तक भुगत नहीं लेते तब तक वे संस्कारों के रूप में संचित रहते हैं और चित्त में संग्रहीत होते हैं। इस जन्म में नहीं भुगत लिए तो अगले जन्म में भुगतने होते हैं। कर्मफल भुगतते भुगतते नए कर्म बनते जाते हैं। कर्मों के आधार पर पुनर्जन्म होता है। कर्मों के आधार पर जन्मभर में कैसे भोग होंगे यह निश्चित होता है। कर्मसिद्धान्त के साथ ही श्रीमद्धगवद्टीता द्वारा प्रतिपादित निष्काम कर्म, कर्म के फल की अपेक्षा छोड़ देने पर मुक्ति का सिद्धान्त भी समझ जाता है। जीवन की गतिविधियों को समझाने वाला यह जन्म पुनर्जन्म का सिद्धान्त है जो भारतीय जीवनदृष्टि का महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त है। |
− | जीवन के मूल तत्व को भारतीय चिन्तन में अनेक नामों से कहा गया है। कहीं ब्रह्म है, कहीं परब्रह्म है, कहीं आत्मा है, कहीं परमात्मा है, कहीं ईश्वर है, कहीं परमेश्वर है, कहीं परम चैतन्य है, कहीं जगन्नियन्ता है, कहीं सीधा सादा भगवान है। जैसी जिसकी मति वैसा नाम उस मूल तत्व को मनीषियों ने दिया है। इसको लेकर ही ऋग्वेद कहता है: ‘एकं सत विप्राः बहुधा वदन्ति' अर्थात् सत्य एक है, मनीषी उसे अलग अलग नाम देते हैं। यह मूल तत्व अव्यक्त अचिंत्य, अकल्प्य, अदृश्य, अस्पयं, अजर, अमर होता है। यह जगत या सृष्टि उस अव्यक्त तत्व का व्यक्त रूप है। व्यक्त रूप वैविध्य से युक्त है। यहाँ रस, रूप, स्पर्श, गंध आदि का अपरिमित वैविध्य है। सृष्टि का हर पदार्थ दूसरे पदार्थ से किसी न किसी रूप में भिन्न है। परन्तु दिखाई देने वाली भिन्नता में मूल तत्व का एकत्व है। मूल एकत्व और दिखाई देने वाली भिन्नता एक ही तत्व के दो रूप हैं। इस आधारभूत धारणा पर भारतीय जीवन की व्यवस्था हुई है। इस सृष्टि के सारे पदार्थ एकात्म सम्बन्ध से एकदूसरे से जुड़े हुए हैं। एकात्मता का व्यावहारिक रूप चक्रीयता और परस्पर पूरकता है। सारे पदार्थ गतिशील और परिवर्तनशील हैं। पदार्थों की गति वृत्तीय है। वे जहाँ से आए हैं वहीं वापस जाते हैं। इस प्रकार एक वृत्त पूर्ण होकर दूसरा वृत्त शुरू होता है। सारे पदार्थ जिसमें से बने हैं उसमें वापस विलीन होते हैं। गतिशीलता और परिवर्तनशीलता के साथ ही परस्परावलम्बन और परस्परपूरकता भी सृष्टि में दिखाई देती है। इन तत्वों के कारण सब एकदूसरे के पोषक बनते हैं। सब एक दूसरे के सहायक और एक दूसरे पर आधारित हैं। इस तत्व को ध्यान में लेकर भारत के जीवन की व्यवस्था हुई है। सृष्टि में दिखाई देने वाले या नहीं दिखाई देने वाले अस्तित्वधारी सभी पदार्थों की स्वतन्त्र सत्ता है। उनका कोई न कोई प्रयोजन है। इस तत्व को स्वीकार कर भारत की जीवनशैली का विकास हुआ है। उनकी स्वतन्त्र सत्ता को स्वीकार करना उनका आदर करना और उनकी स्वतन्त्रता की रक्षा करना मनुष्य का कर्तव्य बताया गया है। मूल अव्यक्त तत्व के भावात्मक रूप प्रेम, सौन्दर्य, ज्ञान और आनन्द हैं। जिस प्रकार आत्मतत्व सृष्टि की विविधता के रूप में व्यक्त हुआ है उसी प्रकार ये सारे तत्व भी सृष्टि में विविध रूप धारण करके व्यक्त हुए हैं। इन तत्वों को भी मूल तत्व मानकर भारतीय जीवन की व्यवस्था हुई है। जगत में जितने भी सम्बन्ध हैं। उनका आधारभूत तत्व प्रेम है, जितने भी सृजन और निर्माण हैं उनका आधारभूत तत्व सौन्दर्य है, जितने भी कार्य है, उनकी परिणति आनन्द है और जितने भी अनुभव है उनका आधारभूत तत्व ज्ञान है। सर्वत्र इन तत्वों का अनुभव करना ही जीवन को जानना है। | + | जीवन के मूल तत्व को भारतीय चिन्तन में अनेक नामों से कहा गया है। कहीं ब्रह्म है, कहीं परब्रह्म है, कहीं आत्मा है, कहीं परमात्मा है, कहीं ईश्वर है, कहीं परमेश्वर है, कहीं परम चैतन्य है, कहीं जगन्नियन्ता है, कहीं सीधा सादा भगवान है। जैसी जिसकी मति वैसा नाम उस मूल तत्व को मनीषियों ने दिया है। इसको लेकर ही ऋग्वेद कहता है: ‘एकं सत विप्राः बहुधा वदन्ति' अर्थात् सत्य एक है, मनीषी उसे अलग अलग नाम देते हैं। यह मूल तत्व अव्यक्त अचिंत्य, अकल्प्य, अदृश्य, अस्पयं, अजर, अमर होता है। यह जगत या सृष्टि उस अव्यक्त तत्व का व्यक्त रूप है। व्यक्त रूप वैविध्य से युक्त है। यहाँ रस, रूप, स्पर्श, गंध आदि का अपरिमित वैविध्य है। सृष्टि का हर पदार्थ दूसरे पदार्थ से किसी न किसी रूप में भिन्न है। परन्तु दिखाई देने वाली भिन्नता में मूल तत्व का एकत्व है। मूल एकत्व और दिखाई देने वाली भिन्नता एक ही तत्व के दो रूप हैं। इस आधारभूत धारणा पर भारतीय जीवन की व्यवस्था हुई है। इस सृष्टि के सारे पदार्थ एकात्म सम्बन्ध से एकदूसरे से जुड़े हुए हैं। एकात्मता का व्यावहारिक रूप चक्रीयता और परस्पर पूरकता है। सारे पदार्थ गतिशील और परिवर्तनशील हैं। पदार्थों की गति वृत्तीय है। वे जहाँ से आए हैं वहीं वापस जाते हैं। इस प्रकार एक वृत्त पूर्ण होकर दूसरा वृत्त आरम्भ होता है। सारे पदार्थ जिसमें से बने हैं उसमें वापस विलीन होते हैं। गतिशीलता और परिवर्तनशीलता के साथ ही परस्परावलम्बन और परस्परपूरकता भी सृष्टि में दिखाई देती है। इन तत्वों के कारण सब एकदूसरे के पोषक बनते हैं। सब एक दूसरे के सहायक और एक दूसरे पर आधारित हैं। इस तत्व को ध्यान में लेकर भारत के जीवन की व्यवस्था हुई है। सृष्टि में दिखाई देने वाले या नहीं दिखाई देने वाले अस्तित्वधारी सभी पदार्थों की स्वतन्त्र सत्ता है। उनका कोई न कोई प्रयोजन है। इस तत्व को स्वीकार कर भारत की जीवनशैली का विकास हुआ है। उनकी स्वतन्त्र सत्ता को स्वीकार करना उनका आदर करना और उनकी स्वतन्त्रता की रक्षा करना मनुष्य का कर्तव्य बताया गया है। मूल अव्यक्त तत्व के भावात्मक रूप प्रेम, सौन्दर्य, ज्ञान और आनन्द हैं। जिस प्रकार आत्मतत्व सृष्टि की विविधता के रूप में व्यक्त हुआ है उसी प्रकार ये सारे तत्व भी सृष्टि में विविध रूप धारण करके व्यक्त हुए हैं। इन तत्वों को भी मूल तत्व मानकर भारतीय जीवन की व्यवस्था हुई है। जगत में जितने भी सम्बन्ध हैं। उनका आधारभूत तत्व प्रेम है, जितने भी सृजन और निर्माण हैं उनका आधारभूत तत्व सौन्दर्य है, जितने भी कार्य है, उनकी परिणति आनन्द है और जितने भी अनुभव है उनका आधारभूत तत्व ज्ञान है। सर्वत्र इन तत्वों का अनुभव करना ही जीवन को जानना है। |
| इसके उदाहरण हमें सर्वत्र दिखाई देते हैं। कला, काव्य, साहित्य के सृजन में तो आनन्द आता ही है परन्तु रोज रोज की सफाई करना, मिट्टी के पात्र बनाना, रुग्ण की परिचर्या करना, कपड़े सीना आदि कामों में भी वही आनन्द का अनुभव रहता है। राजा प्रजा के, मालिक नौकर के, शिक्षक विद्यार्थी के सम्बन्ध में पितापुत्र के सम्बन्ध की आत्मीयता रहती है। आत्मीयता ही प्रेम है। प्रेम के कारण सृष्टि में सौन्दर्य ही दिखाई देता है। आत्मीयता में ही विविध स्वरूप में एकत्व का बोध रहता है। यही ज्ञान है। यह आध्यात्मिक जीवनदृष्टि है। आत्मतत्व को अधिष्ठान के रूप में स्वीकार कर जो स्थित है वहीं आध्यात्मिक है। भारत की पहचान भी विश्व में आध्यात्मिक देश की है। | | इसके उदाहरण हमें सर्वत्र दिखाई देते हैं। कला, काव्य, साहित्य के सृजन में तो आनन्द आता ही है परन्तु रोज रोज की सफाई करना, मिट्टी के पात्र बनाना, रुग्ण की परिचर्या करना, कपड़े सीना आदि कामों में भी वही आनन्द का अनुभव रहता है। राजा प्रजा के, मालिक नौकर के, शिक्षक विद्यार्थी के सम्बन्ध में पितापुत्र के सम्बन्ध की आत्मीयता रहती है। आत्मीयता ही प्रेम है। प्रेम के कारण सृष्टि में सौन्दर्य ही दिखाई देता है। आत्मीयता में ही विविध स्वरूप में एकत्व का बोध रहता है। यही ज्ञान है। यह आध्यात्मिक जीवनदृष्टि है। आत्मतत्व को अधिष्ठान के रूप में स्वीकार कर जो स्थित है वहीं आध्यात्मिक है। भारत की पहचान भी विश्व में आध्यात्मिक देश की है। |