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== बुद्धि की विकृति का संकट ==
 
== बुद्धि की विकृति का संकट ==
अब दूसरा सवाल यह पैदा होता है कि ये पैदा कैसे हुआ। और इसका जवाब भी हमें नहीं देना है, उसका जवाब वहाँ के एक बड़े विद्वानने ही दिया है। रेनेगेनों के नाम से एक बहुत बड़े ऋषितुल्य विद्वान ने उन्नीसवीं शताब्दी के अन्त में और बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ में अपनी पुस्तक 'ध क्राईसिस ऑफ मॉडर्न सिविलाईझेशन' में कहा कि क्या यह प्रवृत्ति का विचलन (perversion of will) है कि क्रिया की विकृति (perversion of act) है जिससे यह संकट पैदा हुआ है। उन्होंने कहा कि वृत्ति और क्रिया बुद्धि के अधीन होती हैं । जब बुद्धि में विकार पैदा होता है, दोष पैदा होता है तो वृत्ति भी दूषित होती है और क्रिया भी दूषित होती है, तब व्यक्ति और समाज दोनों संकटग्रस्त हो जाते हैं। इसलिए उन्होंने कहा कि ये बुद्धि की विकृति का संकट है और यह बात सही है । हमारे यहाँ बुद्धि के और ज्ञान के सात धरातल माने गये हैं। हमारी परम्परा में सप्तज्ञान भूमियाँ भी कही गई हैं और सप्तअज्ञान भूमियाँ भी कही गई हैं। और उस दृष्टि से देखें तो या तो हम आखिरी अज्ञान की भूमि पर खडे हैं या ज्ञान की प्रथम भूमि पर खड़े हैं । और प्रथम ज्ञान की भूमि क्या होती है ? देहात्मक, देह ही आत्मा है, देह ही साध्य है, संसार ही साध्य है, हम केवल शरीर हैं। यह देहात्मवाद की दृष्टि का प्रारम्भ यूरोप की आधुनिकता के साथ हुआ। लेकिन जैसे-जैसे उनका राजनैतिक साम्राज्य बढ़ा और साथसाथ विचारों का साम्राज्य भी बढ़ता गया तब वह हमारे यहाँ भी आ गया । हमारी शिक्षा प्रणाली भी उसी तरह की हुई। लोगों ने भी यही मानना शुरु कर दिया कि देह ही आत्मा है, शरीर का सुख ही साध्य है, शरीर का कल्याण ही कल्याण है और भौतिक उपलब्धि ही प्रगति और विकास है। इसलिए यह बुद्धि की विकृति, perversion of intellect, के कारण ही तमाम विचारधारायें पैदा हुई हैं।  
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अब दूसरा सवाल यह पैदा होता है कि ये पैदा कैसे हुआ। और इसका जवाब भी हमें नहीं देना है, उसका जवाब वहाँ के एक बड़े विद्वानने ही दिया है। रेनेगेनों के नाम से एक बहुत बड़े ऋषितुल्य विद्वान ने उन्नीसवीं शताब्दी के अन्त में और बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ में अपनी पुस्तक 'ध क्राईसिस ऑफ मॉडर्न सिविलाईझेशन' में कहा कि क्या यह प्रवृत्ति का विचलन (perversion of will) है कि क्रिया की विकृति (perversion of act) है जिससे यह संकट पैदा हुआ है। उन्होंने कहा कि वृत्ति और क्रिया बुद्धि के अधीन होती हैं । जब बुद्धि में विकार पैदा होता है, दोष पैदा होता है तो वृत्ति भी दूषित होती है और क्रिया भी दूषित होती है, तब व्यक्ति और समाज दोनों संकटग्रस्त हो जाते हैं। इसलिए उन्होंने कहा कि ये बुद्धि की विकृति का संकट है और यह बात सही है । हमारे यहाँ बुद्धि के और ज्ञान के सात धरातल माने गये हैं। हमारी परम्परा में सप्तज्ञान भूमियाँ भी कही गई हैं और सप्तअज्ञान भूमियाँ भी कही गई हैं। और उस दृष्टि से देखें तो या तो हम आखिरी अज्ञान की भूमि पर खडे हैं या ज्ञान की प्रथम भूमि पर खड़े हैं । और प्रथम ज्ञान की भूमि क्या होती है ? देहात्मक, देह ही आत्मा है, देह ही साध्य है, संसार ही साध्य है, हम केवल शरीर हैं। यह देहात्मवाद की दृष्टि का प्रारम्भ यूरोप की आधुनिकता के साथ हुआ। लेकिन जैसे-जैसे उनका राजनैतिक साम्राज्य बढ़ा और साथसाथ विचारों का साम्राज्य भी बढ़ता गया तब वह हमारे यहाँ भी आ गया । हमारी शिक्षा प्रणाली भी उसी तरह की हुई। लोगों ने भी यही मानना आरम्भ कर दिया कि देह ही आत्मा है, शरीर का सुख ही साध्य है, शरीर का कल्याण ही कल्याण है और भौतिक उपलब्धि ही प्रगति और विकास है। इसलिए यह बुद्धि की विकृति, perversion of intellect, के कारण ही तमाम विचारधारायें पैदा हुई हैं।  
    
== संविधान में पाश्चात्य उदारवादी जीवनदृष्टि ==
 
== संविधान में पाश्चात्य उदारवादी जीवनदृष्टि ==
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== नैतिकता का अभाव ==
 
== नैतिकता का अभाव ==
अब इसका परिणाम यह हुआ कि ईश्वर और मनुष्य का, ज्ञान और क्रिया का, भौतिक और पराभौतिक का, विचार और आचार का जो अन्तरंग सम्बन्ध है जो उनकी अन्योन्याश्रितता है, जो उनकी interdependence है वह समाप्त हो गई, ओझल हो गई। world view की जो integrity थी, विश्वदृष्टि की जो समग्रता थी, जिसे आज कल हम लोग holistic कहते हैं, वह समाप्त हो गई। अब दृष्टि रह गई partial, आधी-अधूरी fragmented | हमने टुकडों टुकड़ों में चीजों को देखना शुरु किया। और हमने संकट को कभी राजनीतिक मानकर उसके राजनीतिक उपाय करके समाधान करना चाहा, कभी आर्थिक मानकर उसके आर्थिक उपाय करके समाधान करना चाहा तो कभी उसको सामाजिक मानकर सामाजिक उपाय अपनाने शुरु किये। लेकिन संकट तो नैतिक था,' the crisis was moral and spiritual' बीमारी कुछ और उपचार कुछ ऐसा होने से रोग बढ़ता ही गया । जो राजनीतिक जीवन के संकट हैं, जो आर्थिक जगत के भी संकट हैं, जो परिवार के संकट है उसको हम ध्यान से देखें तो जान सकेंगे कि हमारा मूल संकट है आत्मिक-नैतिक (spiritual - moral) जिसकी इन अलग-अलग क्षेत्रों में अलग-अलग अभिव्यक्तियाँ हैं । भ्रष्टाचार से हम सब लोग ग्रस्त हैं, वो कोई राजनीतिक प्रश्न है, प्रशासनिक प्रश्न है क्या ? यह तो नैतिक प्रश्न है। नवउदारवाद में अगर मुनाफाखोरी है, बेरजोगारी है तो क्यों हैं ? क्योंकि जिनके पास धन है उनकी दृष्टि दूषित है, उनकी दृष्टि अनैतिक है। तो इस प्रकार की ही अर्थव्यवस्था बनेगी जो शोषण पर आधारित होगी, अन्याय पर आधारित होगी। इसलिए जो मूल बात है, उस की ओर ध्यान ही नहीं गया । जो पहला काम था देश के निर्माण का, मनुष्य निर्माण का वह होना चाहिए था। मनुष्य पर अच्छे संस्कार होने चाहिए थे, मनुष्य को सम्यक् दृष्टि मिलनी चाहिए थीं वो तो मिली नहीं । हमने अपना आर्थिक निर्माण किया, राजनैतिक निर्माण किया । दूसरे तरह-तरह के निर्माण किये लेकिन जो मूल दायित्व था उसकी कतई उपेक्षा की। परिणाम क्या हुआ ? परिणाम यह हुआ कि शुरु में जब तक पुराना चरित्र बल था, ५० व ६० के दशक तक जो चरित्र बल था, वह कायम रहा तब तक संस्थायें फिर भी ठीक-ठाक चलती रहीं। लेकिन पिछली तीन-चार पीढियों में जब से यह नई सोच नया चरित्र आया है तो अब कुछ भी ठीक-ठाक नहीं चल सकता है क्यों कि अपवाद अगर छोड़ दीजिए तो चरित्र अब कोई बड़ी सम्पत्ति नहीं रहा । हमारा चरित्र अब कोई primary consideration नहीं रहा। यह केवल कहने की बात रह गई कि 'when character is lost everything is lost' | किसी को भी इसकी चिन्ता है नहीं । इसलिए जब मूल प्रश्न की उपेक्षा हुई तो गाँधीजी ने हिन्द स्वराज में कहा कि मेरी शिकायत अंग्रेजों से नहीं है, मेरी लड़ाई अंगेजों से नहीं है, अंग्रेजियत से है, इस पश्चिमी सभ्यता से है, इस पश्चिमी जीवन दृष्टि से है। अंग्रेज तो ठीक है, आज हैं, कल चले जायेंगे, उससे कोई फर्क नहीं पड़ता । कब तक रहेंगे हमारे यहाँ । लेकिन ये जो दृष्टि आ गई है, ये कब जायेगी मुझे इसकी चिन्ता है। 'भारत आजाद होने के बाद जो मार्ग चुना जा रहा था, वह उसके निर्माण का मार्ग नहीं था। तो एक प्रश्न यह है कि बुद्धि का क्षरण हुआ, जिससे हमारी दृष्टि का विखण्डन हुआ और हम टुकडों-टुकडों में समस्याओं को देखने व समाधान करने में लग गये । मूल प्रश्न क्या है और उस मूल प्रश्न की ओर समग्र दृष्टि से देखा जाना क्यों आवश्यक है, यह शायद चिन्ता नहीं रही।
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अब इसका परिणाम यह हुआ कि ईश्वर और मनुष्य का, ज्ञान और क्रिया का, भौतिक और पराभौतिक का, विचार और आचार का जो अन्तरंग सम्बन्ध है जो उनकी अन्योन्याश्रितता है, जो उनकी interdependence है वह समाप्त हो गई, ओझल हो गई। world view की जो integrity थी, विश्वदृष्टि की जो समग्रता थी, जिसे आज कल हम लोग holistic कहते हैं, वह समाप्त हो गई। अब दृष्टि रह गई partial, आधी-अधूरी fragmented | हमने टुकडों टुकड़ों में चीजों को देखना आरम्भ किया। और हमने संकट को कभी राजनीतिक मानकर उसके राजनीतिक उपाय करके समाधान करना चाहा, कभी आर्थिक मानकर उसके आर्थिक उपाय करके समाधान करना चाहा तो कभी उसको सामाजिक मानकर सामाजिक उपाय अपनाने आरम्भ किये। लेकिन संकट तो नैतिक था,' the crisis was moral and spiritual' बीमारी कुछ और उपचार कुछ ऐसा होने से रोग बढ़ता ही गया । जो राजनीतिक जीवन के संकट हैं, जो आर्थिक जगत के भी संकट हैं, जो परिवार के संकट है उसको हम ध्यान से देखें तो जान सकेंगे कि हमारा मूल संकट है आत्मिक-नैतिक (spiritual - moral) जिसकी इन अलग-अलग क्षेत्रों में अलग-अलग अभिव्यक्तियाँ हैं । भ्रष्टाचार से हम सब लोग ग्रस्त हैं, वो कोई राजनीतिक प्रश्न है, प्रशासनिक प्रश्न है क्या ? यह तो नैतिक प्रश्न है। नवउदारवाद में अगर मुनाफाखोरी है, बेरजोगारी है तो क्यों हैं ? क्योंकि जिनके पास धन है उनकी दृष्टि दूषित है, उनकी दृष्टि अनैतिक है। तो इस प्रकार की ही अर्थव्यवस्था बनेगी जो शोषण पर आधारित होगी, अन्याय पर आधारित होगी। इसलिए जो मूल बात है, उस की ओर ध्यान ही नहीं गया । जो पहला काम था देश के निर्माण का, मनुष्य निर्माण का वह होना चाहिए था। मनुष्य पर अच्छे संस्कार होने चाहिए थे, मनुष्य को सम्यक् दृष्टि मिलनी चाहिए थीं वो तो मिली नहीं । हमने अपना आर्थिक निर्माण किया, राजनैतिक निर्माण किया । दूसरे तरह-तरह के निर्माण किये लेकिन जो मूल दायित्व था उसकी कतई उपेक्षा की। परिणाम क्या हुआ ? परिणाम यह हुआ कि आरम्भ में जब तक पुराना चरित्र बल था, ५० व ६० के दशक तक जो चरित्र बल था, वह कायम रहा तब तक संस्थायें फिर भी ठीक-ठाक चलती रहीं। लेकिन पिछली तीन-चार पीढियों में जब से यह नई सोच नया चरित्र आया है तो अब कुछ भी ठीक-ठाक नहीं चल सकता है क्यों कि अपवाद अगर छोड़ दीजिए तो चरित्र अब कोई बड़ी सम्पत्ति नहीं रहा । हमारा चरित्र अब कोई primary consideration नहीं रहा। यह केवल कहने की बात रह गई कि 'when character is lost everything is lost' | किसी को भी इसकी चिन्ता है नहीं । इसलिए जब मूल प्रश्न की उपेक्षा हुई तो गाँधीजी ने हिन्द स्वराज में कहा कि मेरी शिकायत अंग्रेजों से नहीं है, मेरी लड़ाई अंगेजों से नहीं है, अंग्रेजियत से है, इस पश्चिमी सभ्यता से है, इस पश्चिमी जीवन दृष्टि से है। अंग्रेज तो ठीक है, आज हैं, कल चले जायेंगे, उससे कोई फर्क नहीं पड़ता । कब तक रहेंगे हमारे यहाँ । लेकिन ये जो दृष्टि आ गई है, ये कब जायेगी मुझे इसकी चिन्ता है। 'भारत आजाद होने के बाद जो मार्ग चुना जा रहा था, वह उसके निर्माण का मार्ग नहीं था। तो एक प्रश्न यह है कि बुद्धि का क्षरण हुआ, जिससे हमारी दृष्टि का विखण्डन हुआ और हम टुकडों-टुकडों में समस्याओं को देखने व समाधान करने में लग गये । मूल प्रश्न क्या है और उस मूल प्रश्न की ओर समग्र दृष्टि से देखा जाना क्यों आवश्यक है, यह शायद चिन्ता नहीं रही।
    
== समग्र दृष्टि का अभाव ==
 
== समग्र दृष्टि का अभाव ==
 
यहाँ पर एक दूसरी बात यह है कि हमारी जो समस्या है, वह यह है कि हमने हरचीज specialist लोगों के हवाले कर रखी है। यह राजनैतिक प्रश्न है इसको राजनीतिज्ञ देखेंगे, संसद देखेंगी। यह आर्थिक प्रश्न है तो अर्थशास्त्री देखेंगे । घर-परिवार का प्रश्न है तो समाजशास्त्री देखेंगे। भारत की यह दृष्टि कभी नहीं थी। हमारे यहाँ इस प्रश्न को पहले तत्त्वशास्त्री को refer किया जाता था । हमारे यहाँ के तत्त्वदर्शी केवल ब्रह्म चिन्तन नहीं करते थे वे विश्व चिन्तन भी करते थे। वे विश्वकल्याण का मार्ग भी बताते थे । तत्त्व चिन्तन हमारे देश में रहा नहीं, ज्ञान खेमों में बँट गया इसलिए ज्ञान की कोई समग्र दृष्टि रही नहीं । ऐसी स्थिति में बुद्धि में विकार आना स्वाभाविक था और वह आ गया और उससे बचा नहीं जा सकता था।
 
यहाँ पर एक दूसरी बात यह है कि हमारी जो समस्या है, वह यह है कि हमने हरचीज specialist लोगों के हवाले कर रखी है। यह राजनैतिक प्रश्न है इसको राजनीतिज्ञ देखेंगे, संसद देखेंगी। यह आर्थिक प्रश्न है तो अर्थशास्त्री देखेंगे । घर-परिवार का प्रश्न है तो समाजशास्त्री देखेंगे। भारत की यह दृष्टि कभी नहीं थी। हमारे यहाँ इस प्रश्न को पहले तत्त्वशास्त्री को refer किया जाता था । हमारे यहाँ के तत्त्वदर्शी केवल ब्रह्म चिन्तन नहीं करते थे वे विश्व चिन्तन भी करते थे। वे विश्वकल्याण का मार्ग भी बताते थे । तत्त्व चिन्तन हमारे देश में रहा नहीं, ज्ञान खेमों में बँट गया इसलिए ज्ञान की कोई समग्र दृष्टि रही नहीं । ऐसी स्थिति में बुद्धि में विकार आना स्वाभाविक था और वह आ गया और उससे बचा नहीं जा सकता था।
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तो पहली बात तो यह है कि बुद्धि विपर्यय का परिणाम क्या होता है तो धर्मबुद्धि का अभाव होने लगता है। धर्म का क्षय होता है। अब धर्म शब्द को हम ने केवल एक पूजा-उपासना तक केन्द्रित कर दिया है। समस्या भारत के साथ तो यह है । पश्चिम में तो नहीं है, क्योंकि उनके यहाँ धर्म को 'सेक्रेड' और 'प्रोफेन में अलग-अलग बाँट दिया गया है। हमारे यहाँ कुछ भी प्रोफेन नहीं है । हर चीज पवित्र है, हर चीज महत्त्वपूर्ण है। क्योंकि हर वस्तु में परमात्मा की झलक है। हर वस्तु में परमसत्ता विद्यमान है। इसलिए भारत की दृष्टि सेक्रेड और प्रोफेन में चीजों को बाँटने में विश्वास नहीं करती। भगवत् चिन्तन, कर्मकाण्ड ये आवश्यक हैं क्यों कि उससे बुद्धि को एक सम्यकरूप में चीजों को देखने की शक्ति आती है। इसलिए उपासना धर्म का अनिवार्य पक्ष है। लेकिन जिसको हमलोग secular life कहते हैं, ऐसा हमारे यहाँ कुछ नहीं है। कोई भी चीज 'सेकुलर' नहीं है। जबसे यह शब्द वहाँ से हमारे यहाँ आया तब से हमने मानना शुरु कर दिया । यह 'रीलिजियस' है और यह 'सेकुलर' है। हमारी दृष्टि उस प्रकार की है नहीं। राजनीति क्या कोई 'सेकुलर' प्रवृत्ति है ? गाँधीजीने एक जगह लिखा कि 'धर्म विहीन राजनीति मोत का फन्दा है (politics bereft of religion is deathtrap) | अगर धर्म से राजनीति स्वतन्त्र हो जायेगी, अर्थशास्त्र स्वतन्त्र हो जायेगा, कला स्वतन्त्र हो जायेगी, साहित्य स्वतन्त्र हो जायेगा तो वे केवल entertainment रह जायेंगे और अन्ततः अनाचार के साधक बनेंगे । इसलिए भी इनको धर्म से स्वतन्त्र नहीं होना है, तो यह धर्म का वैश्विक पक्ष है । एक धर्म का उपासना परक पक्ष है, पारलौकिक पक्ष है, और एक धर्म का लौकिक पक्ष है। एक उतना ही आवश्यक है जितना कि दूसरा । इसीलिए हमारे यहाँ शब्द ही है नारीधर्म, पुरुषधर्म, अतिथिधर्म, साधारणधर्म, असाधारणधर्म, आपदधर्म, कृषकधर्म, पुत्र धर्म, पिता का धर्म । भारत की तो सारी शब्दावली यही है । कलाकार का क्या धर्म है, संगीतकार का क्या धर्म है। धर्म से कोई स्वतन्त्र नहीं है। क्योंकि धर्म ही तो वह दिशा है, मर्यादा है, जो इन योग्यताओं को, इन क्षमताओं को सम्यक् रखती हैं। अगर वह मर्यादा न रहें तो वे सब चीजें बेलगाम हो जायेंगी, अराजक हो जायेगा और कला के नाम पर अश्लीलता की स्थापना हो जायेगी ।
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तो पहली बात तो यह है कि बुद्धि विपर्यय का परिणाम क्या होता है तो धर्मबुद्धि का अभाव होने लगता है। धर्म का क्षय होता है। अब धर्म शब्द को हम ने केवल एक पूजा-उपासना तक केन्द्रित कर दिया है। समस्या भारत के साथ तो यह है । पश्चिम में तो नहीं है, क्योंकि उनके यहाँ धर्म को 'सेक्रेड' और 'प्रोफेन में अलग-अलग बाँट दिया गया है। हमारे यहाँ कुछ भी प्रोफेन नहीं है । हर चीज पवित्र है, हर चीज महत्त्वपूर्ण है। क्योंकि हर वस्तु में परमात्मा की झलक है। हर वस्तु में परमसत्ता विद्यमान है। इसलिए भारत की दृष्टि सेक्रेड और प्रोफेन में चीजों को बाँटने में विश्वास नहीं करती। भगवत् चिन्तन, कर्मकाण्ड ये आवश्यक हैं क्यों कि उससे बुद्धि को एक सम्यकरूप में चीजों को देखने की शक्ति आती है। इसलिए उपासना धर्म का अनिवार्य पक्ष है। लेकिन जिसको हमलोग secular life कहते हैं, ऐसा हमारे यहाँ कुछ नहीं है। कोई भी चीज 'सेकुलर' नहीं है। जबसे यह शब्द वहाँ से हमारे यहाँ आया तब से हमने मानना आरम्भ कर दिया । यह 'रीलिजियस' है और यह 'सेकुलर' है। हमारी दृष्टि उस प्रकार की है नहीं। राजनीति क्या कोई 'सेकुलर' प्रवृत्ति है ? गाँधीजीने एक जगह लिखा कि 'धर्म विहीन राजनीति मोत का फन्दा है (politics bereft of religion is deathtrap) | अगर धर्म से राजनीति स्वतन्त्र हो जायेगी, अर्थशास्त्र स्वतन्त्र हो जायेगा, कला स्वतन्त्र हो जायेगी, साहित्य स्वतन्त्र हो जायेगा तो वे केवल entertainment रह जायेंगे और अन्ततः अनाचार के साधक बनेंगे । इसलिए भी इनको धर्म से स्वतन्त्र नहीं होना है, तो यह धर्म का वैश्विक पक्ष है । एक धर्म का उपासना परक पक्ष है, पारलौकिक पक्ष है, और एक धर्म का लौकिक पक्ष है। एक उतना ही आवश्यक है जितना कि दूसरा । इसीलिए हमारे यहाँ शब्द ही है नारीधर्म, पुरुषधर्म, अतिथिधर्म, साधारणधर्म, असाधारणधर्म, आपदधर्म, कृषकधर्म, पुत्र धर्म, पिता का धर्म । भारत की तो सारी शब्दावली यही है । कलाकार का क्या धर्म है, संगीतकार का क्या धर्म है। धर्म से कोई स्वतन्त्र नहीं है। क्योंकि धर्म ही तो वह दिशा है, मर्यादा है, जो इन योग्यताओं को, इन क्षमताओं को सम्यक् रखती हैं। अगर वह मर्यादा न रहें तो वे सब चीजें बेलगाम हो जायेंगी, अराजक हो जायेगा और कला के नाम पर अश्लीलता की स्थापना हो जायेगी ।
    
== धर्मनिरपेक्ष शब्द हमारा नहीं ==
 
== धर्मनिरपेक्ष शब्द हमारा नहीं ==
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== सामंजस्य समान धर्मियों में, विधर्मियों में नहीं ==
 
== सामंजस्य समान धर्मियों में, विधर्मियों में नहीं ==
और जब धर्म बुद्धि का क्षय हुआ तो उस में से एक तीसरी जो नई प्रवृत्ति आयी उससे बचने के लिए हमने यह कहना शुरु कर दिया कि भाई परम्परागत समाज में कुछ बुराइयाँ थीं, त्रुटियाँ थी या परम्परा प्रस्तुत नहीं रह गई, प्रासंगिक नहीं रह गई। और एक शब्दावली चली 'Modernization of Traditions'| परम्परा का आधुनिकीकरण होना चाहिए। या कुछ लोग कहते हैं कि दोनों में सामंजस्य बिठा लीजिये। यह वैसा ही काम है जैसा कि आग व पानी में सामंजस्य बिठाने का काम करना । पानी की अधिकता से या तो आग बुझ जायेगी या पानी भाप बन जायेगा, उनमें कोई सामंजस्य नहीं हो सकता। अगर दोनों एक ही प्रकार के वृक्ष हैं तो शायद उनका या एक ही प्रकार की चीजें हैं तो शायद उनका समन्वय सम्भव हो। लेकिन जो  विरोधी चीजें हैं, उनका समन्वय कैसे होगा ? उसमें तो क्या होगा, जो चीज प्रबल होगी वह निर्बल चीज को खा जायेगी, उसे समाप्त कर देगी, उसका अस्तित्व नष्ट कर देगी। आधुनिकता के जो मूलाधार हैं जो foundations हैं, शक्ति केन्द्रित राजनीति, लाभ केन्द्रित अर्थव्यवस्था, स्वार्थ केन्द्रित समाज और सामाजिक सम्बन्ध, ये संक्षेप में आधुनिकता के मूल सिद्धान्त हैं। कला एक मनोरंजन है, व्यवसाय है। ये पश्चिमी आधुनिकता के सिद्धान्त है। धार्मिक दृष्टि है, राजनीति धर्म के अधीन हो, राजीनति सेवा के लिए हों, अर्थ आयाम कभी लोभ या लाभ से दूषित नहीं होना चाहिए, समाज में धन की ज्यादा प्रतिष्ठा नहीं होनी चाहिए, समाज में धनिक तो हों लेकिन धनिक हमेशा धर्म की मर्यादा में रहें । कला व साहित्य साधना है, भगवद् उपासना है, केवल मनोरंजन नहीं है, मनोरंजन हो जाय तो हो जाय लेकिन उनका साध्य यह नहीं है। जो कला है वह catharsis यानि शुद्धिकरण का माध्यम है, आत्मा की शुद्धि का साधन है । संगीत आत्मा की शुद्धि का साधन है, आत्मोपलब्धि का साधन है, यह धार्मिक दृष्टि है। अब पूर्व और पश्चिम दोनों का समन्वय कैसे हो सकता है ? जैसे रहीमने कहा -<blockquote>'''<nowiki/>'कहो रहीम कैसे निभे बेर केर को संग ।''' </blockquote><blockquote>'''वे डोलत रस आपने, उनके फाटत अंग ॥''''</blockquote>अब आप केर के पेड़ को और बेर के पेड़ को साथ साथ लगा दो और कहो कि दोनों लोग शान्ति से रहे. सहअस्तित्व से रहे। तो क्या आपकी शिक्षा से सहअस्तित्व कायम हो जायेगा ? जब पश्चिमी सभ्यता powerful साबित हुई तो हम को उसने खाने की पूरी कौशिश की। हम उसके आगे टिक नहीं पाये । यह नहीं कि हम उनसे श्रेष्ठ नहीं थे, शक्ति उनके पास ज्यादा थी। उनकी शक्ति से हम लोग परास्त हो गये । ऐसा नहीं था कि वे हमसे श्रेष्ठ थे।
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और जब धर्म बुद्धि का क्षय हुआ तो उस में से एक तीसरी जो नई प्रवृत्ति आयी उससे बचने के लिए हमने यह कहना आरम्भ कर दिया कि भाई परम्परागत समाज में कुछ बुराइयाँ थीं, त्रुटियाँ थी या परम्परा प्रस्तुत नहीं रह गई, प्रासंगिक नहीं रह गई। और एक शब्दावली चली 'Modernization of Traditions'| परम्परा का आधुनिकीकरण होना चाहिए। या कुछ लोग कहते हैं कि दोनों में सामंजस्य बिठा लीजिये। यह वैसा ही काम है जैसा कि आग व पानी में सामंजस्य बिठाने का काम करना । पानी की अधिकता से या तो आग बुझ जायेगी या पानी भाप बन जायेगा, उनमें कोई सामंजस्य नहीं हो सकता। अगर दोनों एक ही प्रकार के वृक्ष हैं तो शायद उनका या एक ही प्रकार की चीजें हैं तो शायद उनका समन्वय सम्भव हो। लेकिन जो  विरोधी चीजें हैं, उनका समन्वय कैसे होगा ? उसमें तो क्या होगा, जो चीज प्रबल होगी वह निर्बल चीज को खा जायेगी, उसे समाप्त कर देगी, उसका अस्तित्व नष्ट कर देगी। आधुनिकता के जो मूलाधार हैं जो foundations हैं, शक्ति केन्द्रित राजनीति, लाभ केन्द्रित अर्थव्यवस्था, स्वार्थ केन्द्रित समाज और सामाजिक सम्बन्ध, ये संक्षेप में आधुनिकता के मूल सिद्धान्त हैं। कला एक मनोरंजन है, व्यवसाय है। ये पश्चिमी आधुनिकता के सिद्धान्त है। धार्मिक दृष्टि है, राजनीति धर्म के अधीन हो, राजीनति सेवा के लिए हों, अर्थ आयाम कभी लोभ या लाभ से दूषित नहीं होना चाहिए, समाज में धन की ज्यादा प्रतिष्ठा नहीं होनी चाहिए, समाज में धनिक तो हों लेकिन धनिक हमेशा धर्म की मर्यादा में रहें । कला व साहित्य साधना है, भगवद् उपासना है, केवल मनोरंजन नहीं है, मनोरंजन हो जाय तो हो जाय लेकिन उनका साध्य यह नहीं है। जो कला है वह catharsis यानि शुद्धिकरण का माध्यम है, आत्मा की शुद्धि का साधन है । संगीत आत्मा की शुद्धि का साधन है, आत्मोपलब्धि का साधन है, यह धार्मिक दृष्टि है। अब पूर्व और पश्चिम दोनों का समन्वय कैसे हो सकता है ? जैसे रहीमने कहा -<blockquote>'''<nowiki/>'कहो रहीम कैसे निभे बेर केर को संग ।''' </blockquote><blockquote>'''वे डोलत रस आपने, उनके फाटत अंग ॥''''</blockquote>अब आप केर के पेड़ को और बेर के पेड़ को साथ साथ लगा दो और कहो कि दोनों लोग शान्ति से रहे. सहअस्तित्व से रहे। तो क्या आपकी शिक्षा से सहअस्तित्व कायम हो जायेगा ? जब पश्चिमी सभ्यता powerful साबित हुई तो हम को उसने खाने की पूरी कौशिश की। हम उसके आगे टिक नहीं पाये । यह नहीं कि हम उनसे श्रेष्ठ नहीं थे, शक्ति उनके पास ज्यादा थी। उनकी शक्ति से हम लोग परास्त हो गये । ऐसा नहीं था कि वे हमसे श्रेष्ठ थे।
    
== धार्मिक परम्परा का आधुनिकीकरण ==
 
== धार्मिक परम्परा का आधुनिकीकरण ==

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