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# मानव का व्यक्तित्व पाँच पहलुओं से बना है। तैत्तिरीय उपनिषद् में इन्हें पञ्चविध पुरूष कहा है। आदि जगदगुरु शंकराचार्य इन पहलुओं को पंचकोश कहते हैं। अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय और आनंदमय - ऐसे उन पञ्चविध पुरूषों के या पाँच कोशों के नाम हैं। सामान्य लोगों की भाषा में इन्हें शरीर (इंद्रियाँ), प्राण, मन, बुद्धि और चित्त कहा जा सकता है। जन्म के समय इन सभी का स्वरूप अविकसित होता है। ये सब बातें वैसे तो हर प्राणि के पास भी होतीं ही हैं। किंतु मानवेतर प्राणियों में मन, बुद्धि और चित्त या तो अक्रिय होते हैं या अत्यंत निम्न स्तर के होते हैं।
 
# मानव का व्यक्तित्व पाँच पहलुओं से बना है। तैत्तिरीय उपनिषद् में इन्हें पञ्चविध पुरूष कहा है। आदि जगदगुरु शंकराचार्य इन पहलुओं को पंचकोश कहते हैं। अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय और आनंदमय - ऐसे उन पञ्चविध पुरूषों के या पाँच कोशों के नाम हैं। सामान्य लोगों की भाषा में इन्हें शरीर (इंद्रियाँ), प्राण, मन, बुद्धि और चित्त कहा जा सकता है। जन्म के समय इन सभी का स्वरूप अविकसित होता है। ये सब बातें वैसे तो हर प्राणि के पास भी होतीं ही हैं। किंतु मानवेतर प्राणियों में मन, बुद्धि और चित्त या तो अक्रिय होते हैं या अत्यंत निम्न स्तर के होते हैं।
 
#* हर मानव के पंचकोशीय स्वरूप में से स्वयं परमात्मा अभिव्यक्त होता है इसीलिये मानव को व्यक्ति कहते हैं। इन कोशों के साथ तादात्म्य हो जाने से उस व्यक्ति में उपस्थित आत्म तत्व अपने को व्यक्ति मानने लग जाता है। जब मानव इन पंचकोशों के परे जाता है तब ही उस का साक्षात्कार परमात्मा से होता है। हर मानव का व्यक्तित्व अन्य मानवों से भिन्न होता है। इसलिये उसके विकास का रास्ता भी अन्यों से भिन्न होता है।  
 
#* हर मानव के पंचकोशीय स्वरूप में से स्वयं परमात्मा अभिव्यक्त होता है इसीलिये मानव को व्यक्ति कहते हैं। इन कोशों के साथ तादात्म्य हो जाने से उस व्यक्ति में उपस्थित आत्म तत्व अपने को व्यक्ति मानने लग जाता है। जब मानव इन पंचकोशों के परे जाता है तब ही उस का साक्षात्कार परमात्मा से होता है। हर मानव का व्यक्तित्व अन्य मानवों से भिन्न होता है। इसलिये उसके विकास का रास्ता भी अन्यों से भिन्न होता है।  
# मानव व्यक्तित्व के पहलुओं का विकास भी एकसाथ नहीं होता। गर्भधारणा के बाद सर्वप्रथम चित्त सक्रिय होता है। इस काल में गर्भ अपनी माँ से भी कहीं अधिक संवेदनशील होता है। अब तक इंद्रियों का विकास नहीं होने से शब्द, स्पर्श, रूप रस और गंध के सूक्ष्म से सूक्ष्म संस्कार वह ग्रहण कर लेता है। जब इंद्रियों का निर्माण शुरू होता है तब फिर संस्कार क्षमता उस इंद्रिय की क्षमता जितनी कम हो जाती है।
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# मानव व्यक्तित्व के पहलुओं का विकास भी एकसाथ नहीं होता। गर्भधारणा के बाद सर्वप्रथम चित्त सक्रिय होता है। इस काल में गर्भ अपनी माँ से भी कहीं अधिक संवेदनशील होता है। अब तक इंद्रियों का विकास नहीं होने से शब्द, स्पर्श, रूप रस और गंध के सूक्ष्म से सूक्ष्म संस्कार वह ग्रहण कर लेता है। जब इंद्रियों का निर्माण आरम्भ होता है तब फिर संस्कार क्षमता उस इंद्रिय की क्षमता जितनी कम हो जाती है।
 
#* शिशू अवस्था में बालक के इंद्रियों के विकास का काल होता है। पूर्वबाल्यावस्था में मन का या विचार शक्ति का, उत्तर बाल्यावस्था और पूर्व किशोरावस्था में बुद्धि, तर्क आदि का और उत्तर किशोरवस्था में तथा यौवन में अहंकार का यानी 'मै' का यानी कर्ता भाव (मैं करता हूँ), ज्ञाता भाव (मैं जानता हूँ) और भोक्ता भाव (मैं उपभोग करता हूँ) का विकास होता है। इसलिये व्यक्तित्व विकास के लिये संस्कारों का और शिक्षा का स्वरूप आयु की अवस्था के अनुसार बदलता है।  
 
#* शिशू अवस्था में बालक के इंद्रियों के विकास का काल होता है। पूर्वबाल्यावस्था में मन का या विचार शक्ति का, उत्तर बाल्यावस्था और पूर्व किशोरावस्था में बुद्धि, तर्क आदि का और उत्तर किशोरवस्था में तथा यौवन में अहंकार का यानी 'मै' का यानी कर्ता भाव (मैं करता हूँ), ज्ञाता भाव (मैं जानता हूँ) और भोक्ता भाव (मैं उपभोग करता हूँ) का विकास होता है। इसलिये व्यक्तित्व विकास के लिये संस्कारों का और शिक्षा का स्वरूप आयु की अवस्था के अनुसार बदलता है।  
 
# हर मानव जन्म लेते समय अपने पूर्व जन्मों के कर्मों के अनुसार विकास की कुछ संभाव्य सीमाएँ लेकर जन्म लेता है। अच्छा संगोपन मिलने से वह पूरी संभावनाओं तक विकास कर सकता है। कुछ विशेष इच्छाशक्ति रखने वाले बच्चे अपनी संभावनाओं से भी अधिक विकास कर लेते हैं। लेकिन ऐसे बच्चे अल्प संख्या में ही होते हैं। अपवाद स्वरूप ही होते हैं। अपवाद स्वरूप बच्चों के विकास के लिये सामान्य बच्चों के नियम और पद्धतियाँ पर्याप्त नहीं होतीं। सामान्य बच्चों के साथ भी विशेष प्रतिभा रखनेवाले बच्चों जैसा व्यवहार करने से सामान्य बच्चों की हानि होती है। समाज के सभी लोग प्रतिभावान या जिन्हें श्रीमद्भगवद्गीता ‘श्रेष्ठ’ कहती है या जिन्हें ‘महाजनो येन गत: स: पंथ:’ में ‘महाजन’ कहा गया है ऐसे नहीं होते हैं। इनका समाज में प्रमाण ५-१० प्रतिशत से अधिक नहीं होता है।  इसीलिये धार्मिक (धार्मिक) समाज के पतन के कालखण्ड छोड दें तो सामान्यत: धार्मिक (धार्मिक) न्याय व्यवस्था में एक ही प्रकार के अपराध के लिये ब्राह्मण को क्षत्रिय से अधिक, क्षत्रिय को वैश्य से अधिक और वैश्य को शूद्र से अधिक दण्ड का विधान था। इस विषय में चीनी प्रवासी द्वारा लिखी विक्रमादित्य की कथा ध्यान देने योग्य है। कुछ स्मृतियों में ब्राह्मण को अवध्य कहा गया है। अवध्यता से तात्पर्य है शारीरिक अवध्यता। ब्राह्मण का अपराधी सिध्द होना उसके सम्मान की समाप्ति होती है। और  ब्राह्मण का सम्मान छिन जाना मृत्यू से अधिक बडा दंड माना जाता था। ब्राह्मणों में क्षत्रियों में और वैश्यों में भी महाजन होते हैं। इनका प्रमाण ५-१० % से कम ही होता है।  
 
# हर मानव जन्म लेते समय अपने पूर्व जन्मों के कर्मों के अनुसार विकास की कुछ संभाव्य सीमाएँ लेकर जन्म लेता है। अच्छा संगोपन मिलने से वह पूरी संभावनाओं तक विकास कर सकता है। कुछ विशेष इच्छाशक्ति रखने वाले बच्चे अपनी संभावनाओं से भी अधिक विकास कर लेते हैं। लेकिन ऐसे बच्चे अल्प संख्या में ही होते हैं। अपवाद स्वरूप ही होते हैं। अपवाद स्वरूप बच्चों के विकास के लिये सामान्य बच्चों के नियम और पद्धतियाँ पर्याप्त नहीं होतीं। सामान्य बच्चों के साथ भी विशेष प्रतिभा रखनेवाले बच्चों जैसा व्यवहार करने से सामान्य बच्चों की हानि होती है। समाज के सभी लोग प्रतिभावान या जिन्हें श्रीमद्भगवद्गीता ‘श्रेष्ठ’ कहती है या जिन्हें ‘महाजनो येन गत: स: पंथ:’ में ‘महाजन’ कहा गया है ऐसे नहीं होते हैं। इनका समाज में प्रमाण ५-१० प्रतिशत से अधिक नहीं होता है।  इसीलिये धार्मिक (धार्मिक) समाज के पतन के कालखण्ड छोड दें तो सामान्यत: धार्मिक (धार्मिक) न्याय व्यवस्था में एक ही प्रकार के अपराध के लिये ब्राह्मण को क्षत्रिय से अधिक, क्षत्रिय को वैश्य से अधिक और वैश्य को शूद्र से अधिक दण्ड का विधान था। इस विषय में चीनी प्रवासी द्वारा लिखी विक्रमादित्य की कथा ध्यान देने योग्य है। कुछ स्मृतियों में ब्राह्मण को अवध्य कहा गया है। अवध्यता से तात्पर्य है शारीरिक अवध्यता। ब्राह्मण का अपराधी सिध्द होना उसके सम्मान की समाप्ति होती है। और  ब्राह्मण का सम्मान छिन जाना मृत्यू से अधिक बडा दंड माना जाता था। ब्राह्मणों में क्षत्रियों में और वैश्यों में भी महाजन होते हैं। इनका प्रमाण ५-१० % से कम ही होता है।  
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स्त्री का स्वभाव भावना प्रधान होता है तो पुरूष का स्वभाव वस्तुनिष्ठ और तर्कनिष्ठ होता है। दिशा, गणित, विज्ञान, समय आदि विश्लेषण और संश्लेषण के विषय पुरूष के लिये अधिक सरल होते है। स्त्री के लिये कला, कौशल, कोमलता से करने के विषय सरल होते है। स्त्री की त्वचा भी पुरूष की त्वचा से महीन और इसलिये अधिक संवेदनशील होती है। स्पर्श ही नही तो स्पर्श के पीछे छुपी इच्छाओं को भी समझने की सामर्थ्य स्त्री में होती है। स्त्री में संवाद कुशलता अधिक अच्छी होती है। अन्यों के भाव स्त्री आसानी से समझ जाती है। पुरूष को उस के लिये प्रयास करने पडते है। पुरूष मेहनत के काम दीर्घ काल तक कर सकता है। स्त्री, उस के स्नायू कोमल होने के कारण शारीरिक दृष्टि से अधिक सहनशील होती है जब की पुरूष मानसिक आघातों को अधिक अच्छी तरह सहन कर लेता है।
 
स्त्री का स्वभाव भावना प्रधान होता है तो पुरूष का स्वभाव वस्तुनिष्ठ और तर्कनिष्ठ होता है। दिशा, गणित, विज्ञान, समय आदि विश्लेषण और संश्लेषण के विषय पुरूष के लिये अधिक सरल होते है। स्त्री के लिये कला, कौशल, कोमलता से करने के विषय सरल होते है। स्त्री की त्वचा भी पुरूष की त्वचा से महीन और इसलिये अधिक संवेदनशील होती है। स्पर्श ही नही तो स्पर्श के पीछे छुपी इच्छाओं को भी समझने की सामर्थ्य स्त्री में होती है। स्त्री में संवाद कुशलता अधिक अच्छी होती है। अन्यों के भाव स्त्री आसानी से समझ जाती है। पुरूष को उस के लिये प्रयास करने पडते है। पुरूष मेहनत के काम दीर्घ काल तक कर सकता है। स्त्री, उस के स्नायू कोमल होने के कारण शारीरिक दृष्टि से अधिक सहनशील होती है जब की पुरूष मानसिक आघातों को अधिक अच्छी तरह सहन कर लेता है।
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१२-१३ वर्ष की अर्थात् माहवारी शुरू होने की आयु में स्त्री के शरीर में इस्ट्रोजन का प्रमाण और इस कारण प्रभाव बढ जाता है। यह स्त्री में लैंगिक आकर्षण निर्माण करता है। माहवारी के काल में स्त्री के अंत:स्त्रावों के असंतुलन के कारण स्त्री का स्वभाव चिडचिडा बन जाता है। पुरूषों में यह आयु १५-१६ वर्ष की होती है। इस आयु में पुरूषों में टेस्टोस्टेरॉन का प्रमाण बढता है। उस के स्नायू कठोर बनने लगते है। वह मदमस्त बन किसी को टकराने की इच्छा करने लगता है। आजकल लैंगिक  स्वैराचार और खुलापन बढ़ने से यह आयु कम हो रही है।
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१२-१३ वर्ष की अर्थात् माहवारी आरम्भ होने की आयु में स्त्री के शरीर में इस्ट्रोजन का प्रमाण और इस कारण प्रभाव बढ जाता है। यह स्त्री में लैंगिक आकर्षण निर्माण करता है। माहवारी के काल में स्त्री के अंत:स्त्रावों के असंतुलन के कारण स्त्री का स्वभाव चिडचिडा बन जाता है। पुरूषों में यह आयु १५-१६ वर्ष की होती है। इस आयु में पुरूषों में टेस्टोस्टेरॉन का प्रमाण बढता है। उस के स्नायू कठोर बनने लगते है। वह मदमस्त बन किसी को टकराने की इच्छा करने लगता है। आजकल लैंगिक  स्वैराचार और खुलापन बढ़ने से यह आयु कम हो रही है।
    
गर्भ धारणा से लेकर संतान के पाँच वर्ष का होने तक के लिये स्त्री को किसी अन्य की मदद की आवश्यकता होती है। स्त्री में काम वासना से वात्सल्य की भावना अधिक प्रबल होती है। इसीलिये कहा गया है कि स्त्री क्षण काल की पत्नि और अनंत काल की माता होती है।
 
गर्भ धारणा से लेकर संतान के पाँच वर्ष का होने तक के लिये स्त्री को किसी अन्य की मदद की आवश्यकता होती है। स्त्री में काम वासना से वात्सल्य की भावना अधिक प्रबल होती है। इसीलिये कहा गया है कि स्त्री क्षण काल की पत्नि और अनंत काल की माता होती है।

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