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अन्य अनेक बातों की तरह अध्ययन-अध्यापन के समय में भी अव्यवस्था निर्माण हुई है । इसके कारण और परिणाम क्या हैं, यह तो हम बाद में देखेंगे परंतु प्रारंभ में उचित समय कौन सा है ? इसका ही विचार करेंगे । प्रथम हम विचार करेंगे कि दिन के २४ घंटे के समय में कौन सा समय अध्ययन करने के लिए अनुकूल है । हमारे सारे शास्त्र, महात्मा और लोक परंपरा तीनों कहते हैं कि ब्राह्ममुहूर्त का समय चिंतन और मनन के लिए उपयुक्त है । सूर्योदय के पूर्व ४ घटिका ब्राह्ममुहूर्त का समय दर्शाती है । आज की काल गणना के अनुसार एक घटिका २४ मिनट की होती है । अर्थात्‌ सूर्योदय से पूर्व ९६ मिनट ब्राह्ममुहुरत  का काल है । इसके पूर्वार्ध में कंठस्थीकरण की शक्ति अधिक होती है । इसके उत्तराद्ध में चिंतन और मनन की शक्ति अधिक होती है । इसलिए जो भी बातें हमें कंठस्थ करनी है, वह ब्रह्ममुहूर्त के पूर्वार्ध में करनी चाहिए । जिस विषय को हम अच्छे से समझना चाहते हैं और जिसे हम कठिन मानते हैं उसके ऊपर ब्रह्ममुहूर्त के उत्तरार्ध में मनन और चिंतन करना चाहिए । ऐसा करने से कम समय में और कम परिश्रम से अधिक अच्छी तरह से ज्ञानार्जन होता है । यह तो हुई ब्रह्मुहूर्त की बात । परंतु सामान्य रूप से दिन में प्रात: काल ६:०० से १०:०० बजे तक और सायंकाल भी ६:०० से १०:०० बजे तक का समय अध्ययन के लिए उत्तम होता है। मध्यान्ह भोजन के बाद के दो प्रहर अध्ययन के लिए उपयुक्त नहीं हैं । इसका कारण बहुत सरल है, भोजन के बाद पाचन के लिए ऊर्जा की आवश्यकता होती है । उस समय यदि हम अध्ययन करेंगे तो उर्जा विभाजित हो जाएगी और न अध्ययन ठीक से होगा, न पाचन ठीक से होगा, यह तो दोनों ओर से नुकसान है, इसलिए दोनों समय भोजन के बाद अध्ययन नहीं करना चाहिए । भोजन के बाद तो शारीरिक श्रम भी नहीं करना चाहिए, क्योंकि ऐसा करने से पाचन और विश्राम में उर्जा विभाजित होती है और शरीर का स्वास्थ्य खराब होता है ।
 
अन्य अनेक बातों की तरह अध्ययन-अध्यापन के समय में भी अव्यवस्था निर्माण हुई है । इसके कारण और परिणाम क्या हैं, यह तो हम बाद में देखेंगे परंतु प्रारंभ में उचित समय कौन सा है ? इसका ही विचार करेंगे । प्रथम हम विचार करेंगे कि दिन के २४ घंटे के समय में कौन सा समय अध्ययन करने के लिए अनुकूल है । हमारे सारे शास्त्र, महात्मा और लोक परंपरा तीनों कहते हैं कि ब्राह्ममुहूर्त का समय चिंतन और मनन के लिए उपयुक्त है । सूर्योदय के पूर्व ४ घटिका ब्राह्ममुहूर्त का समय दर्शाती है । आज की काल गणना के अनुसार एक घटिका २४ मिनट की होती है । अर्थात्‌ सूर्योदय से पूर्व ९६ मिनट ब्राह्ममुहुरत  का काल है । इसके पूर्वार्ध में कंठस्थीकरण की शक्ति अधिक होती है । इसके उत्तराद्ध में चिंतन और मनन की शक्ति अधिक होती है । इसलिए जो भी बातें हमें कंठस्थ करनी है, वह ब्रह्ममुहूर्त के पूर्वार्ध में करनी चाहिए । जिस विषय को हम अच्छे से समझना चाहते हैं और जिसे हम कठिन मानते हैं उसके ऊपर ब्रह्ममुहूर्त के उत्तरार्ध में मनन और चिंतन करना चाहिए । ऐसा करने से कम समय में और कम परिश्रम से अधिक अच्छी तरह से ज्ञानार्जन होता है । यह तो हुई ब्रह्मुहूर्त की बात । परंतु सामान्य रूप से दिन में प्रात: काल ६:०० से १०:०० बजे तक और सायंकाल भी ६:०० से १०:०० बजे तक का समय अध्ययन के लिए उत्तम होता है। मध्यान्ह भोजन के बाद के दो प्रहर अध्ययन के लिए उपयुक्त नहीं हैं । इसका कारण बहुत सरल है, भोजन के बाद पाचन के लिए ऊर्जा की आवश्यकता होती है । उस समय यदि हम अध्ययन करेंगे तो उर्जा विभाजित हो जाएगी और न अध्ययन ठीक से होगा, न पाचन ठीक से होगा, यह तो दोनों ओर से नुकसान है, इसलिए दोनों समय भोजन के बाद अध्ययन नहीं करना चाहिए । भोजन के बाद तो शारीरिक श्रम भी नहीं करना चाहिए, क्योंकि ऐसा करने से पाचन और विश्राम में उर्जा विभाजित होती है और शरीर का स्वास्थ्य खराब होता है ।
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इसी प्रकार मास की अवधि के ३० दिन, तीन प्रकार से विभाजित किए जाते हैं । एक प्रकार है उत्तम अध्ययन के दिन, दूसरा है मध्यम अध्ययन के दिन और तीसरा है अनध्ययन के दिन । दोनों पक्षों की प्रतिपदा, अष्टमी और चतुर्दशी तथा पूर्णिमा और अमावस्या अन ध्ययन के दिन हैं । इन दिनों में अध्ययन करने से अध्ययन तो नहीं ही होता उल्टा नुकसान होता है । शेष २२ दिनों में आधे मध्यम अध्ययन के हैं और आधे उत्तम अध्ययन के । शुक्ल पक्ष की नवमी से त्रयोद्शी तक और कृष्ण पक्ष की द्वितीया से सप्तमी तक के दिन उत्तम अध्ययन के दिन हैं । कृष्ण पक्ष की नवमी से त्रयोदशी तक, शुक्ल पक्ष की द्वितीया से सप्तमी तक के दिन मध्यम अध्ययन के हैं । उत्तम अध्ययन के दिनों में नया विषय शुरू करना चाहिए, गंभीर विषय का अध्ययन करना चाहिए और अधिक कठिन और अटपटे विषय अध्ययन के लिए चुनना चाहिए । मध्यम अध्ययन के दिनों में पुनरावर्तन कर सकते हैं, सरल विषयों का चयन कर सकते हैं और क्रियात्मक अध्ययन भी कर सकते हैं । अध्ययन-अनध्ययन और उत्तम अध्ययन का यह विभाजन परंपरा से चला आ रहा है, यह तो हम जानते हैं । गावों में भी लोग इसे जानते हैं परंतु इस विभाजन का आधार क्या है प्रमाण क्या है ?  
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इसी प्रकार मास की अवधि के ३० दिन, तीन प्रकार से विभाजित किए जाते हैं । एक प्रकार है उत्तम अध्ययन के दिन, दूसरा है मध्यम अध्ययन के दिन और तीसरा है अनध्ययन के दिन । दोनों पक्षों की प्रतिपदा, अष्टमी और चतुर्दशी तथा पूर्णिमा और अमावस्या अन ध्ययन के दिन हैं । इन दिनों में अध्ययन करने से अध्ययन तो नहीं ही होता उल्टा नुकसान होता है । शेष २२ दिनों में आधे मध्यम अध्ययन के हैं और आधे उत्तम अध्ययन के । शुक्ल पक्ष की नवमी से त्रयोद्शी तक और कृष्ण पक्ष की द्वितीया से सप्तमी तक के दिन उत्तम अध्ययन के दिन हैं । कृष्ण पक्ष की नवमी से त्रयोदशी तक, शुक्ल पक्ष की द्वितीया से सप्तमी तक के दिन मध्यम अध्ययन के हैं । उत्तम अध्ययन के दिनों में नया विषय आरम्भ करना चाहिए, गंभीर विषय का अध्ययन करना चाहिए और अधिक कठिन और अटपटे विषय अध्ययन के लिए चुनना चाहिए । मध्यम अध्ययन के दिनों में पुनरावर्तन कर सकते हैं, सरल विषयों का चयन कर सकते हैं और क्रियात्मक अध्ययन भी कर सकते हैं । अध्ययन-अनध्ययन और उत्तम अध्ययन का यह विभाजन परंपरा से चला आ रहा है, यह तो हम जानते हैं । गावों में भी लोग इसे जानते हैं परंतु इस विभाजन का आधार क्या है प्रमाण क्या है ?  
    
हम अध्ययन के दिन के विषय में कुछ अनुमान कर सकते हैं । अमावस्या को वैसे भी अपवित्र माना जाता है । उस समय अध्ययन जैसा पवित्र कार्य नहीं करना चाहिए, चतुर्दशी भी अमावस्या के समान अपवित्र मानी जाती है इसलिए उसे भी अनध्ययन के दिन में गिना जा सकता है । इतना ही ध्यान में आता है शेष दिनों के लिए अनुमान नहीं हो सकता है । एक बहुत सीधा-साधा अनुमान है कि १ मास के चार भाग बनाकर नियमित अंतराल में अनध्ययन की व्यवस्था करने से व्यवहारिक सुविधा रहती हैं, इसलिए अनध्ययन की व्यवस्था की होगी । अनध्ययन के दिनों में व्यवहार के अन्य अनेक उपयोगी कार्य हो सकते हैं । एक व्यवस्था बनाने से सबके लिए सुविधा रहती है ।
 
हम अध्ययन के दिन के विषय में कुछ अनुमान कर सकते हैं । अमावस्या को वैसे भी अपवित्र माना जाता है । उस समय अध्ययन जैसा पवित्र कार्य नहीं करना चाहिए, चतुर्दशी भी अमावस्या के समान अपवित्र मानी जाती है इसलिए उसे भी अनध्ययन के दिन में गिना जा सकता है । इतना ही ध्यान में आता है शेष दिनों के लिए अनुमान नहीं हो सकता है । एक बहुत सीधा-साधा अनुमान है कि १ मास के चार भाग बनाकर नियमित अंतराल में अनध्ययन की व्यवस्था करने से व्यवहारिक सुविधा रहती हैं, इसलिए अनध्ययन की व्यवस्था की होगी । अनध्ययन के दिनों में व्यवहार के अन्य अनेक उपयोगी कार्य हो सकते हैं । एक व्यवस्था बनाने से सबके लिए सुविधा रहती है ।
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===== गणवेश की छुट्टी =====
 
===== गणवेश की छुट्टी =====
लगभग सर्वत्र सप्ताह में एक दिन गणवेश की छुट्टी होती है । इसका कारण समझना कठिन है । मूलतः इसका कारण, जब एक दिन छुट्टी रखना शुरू हुआ तब का बहुत योग्य है । उस समय लोग वस्त्रों के लिये आज की तरह बहुत पैसे खर्च नहीं करते थे । इसलिये गाँवों और नगरों में प्रायः एक जोड़ी गणवेश ही होता था । तब सोमवार और मंगलवार को गणवेश पहनो, बुधवार को धोओ, फिर गुरुवार और शुक्रवार को पहनो, फिर शनिवार को आधा ही दिन होता था इसलिये तीसरे दिन पहनो, रविवार को फिर धोओ । इस प्रकार एक ही गणवेश वर्षभर चलाया जाता था । धुला हुआ भी पहना जा सकता था, एक ही कपड़ा दूसरे दिन पहनना है इसलिये मैला नहीं होने का अनुशासन भी सीखा जाता था, वर्षभर एक ही वस्त्र पहनने की मितव्ययिता भी सीखी जाती थी । उस समय बुधवार को गणवेश की छुट्टी आवश्यक थी । आज स्थिति ऐसी नहीं है । दो जोड़ी गणवेश कम से कम होता है । शनिवार को अलग गणवेश भी कहीं कहीं पर होता है । ऐसी स्थिति में एक दिन गणवेश की छुट्टी की आवश्यकता ही नहीं है। परन्तु आज की मानसिकता बदल गई है । अब एक ही एक प्रकार का कपड़ा पहनकर मजा नहीं आता है अतः वैविध्य के लिये, मन को अच्छा लगे इसलिये एक दिन गणवेश की छुट्टी माँगी जाती है ।
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लगभग सर्वत्र सप्ताह में एक दिन गणवेश की छुट्टी होती है । इसका कारण समझना कठिन है । मूलतः इसका कारण, जब एक दिन छुट्टी रखना आरम्भ हुआ तब का बहुत योग्य है । उस समय लोग वस्त्रों के लिये आज की तरह बहुत पैसे खर्च नहीं करते थे । इसलिये गाँवों और नगरों में प्रायः एक जोड़ी गणवेश ही होता था । तब सोमवार और मंगलवार को गणवेश पहनो, बुधवार को धोओ, फिर गुरुवार और शुक्रवार को पहनो, फिर शनिवार को आधा ही दिन होता था इसलिये तीसरे दिन पहनो, रविवार को फिर धोओ । इस प्रकार एक ही गणवेश वर्षभर चलाया जाता था । धुला हुआ भी पहना जा सकता था, एक ही कपड़ा दूसरे दिन पहनना है इसलिये मैला नहीं होने का अनुशासन भी सीखा जाता था, वर्षभर एक ही वस्त्र पहनने की मितव्ययिता भी सीखी जाती थी । उस समय बुधवार को गणवेश की छुट्टी आवश्यक थी । आज स्थिति ऐसी नहीं है । दो जोड़ी गणवेश कम से कम होता है । शनिवार को अलग गणवेश भी कहीं कहीं पर होता है । ऐसी स्थिति में एक दिन गणवेश की छुट्टी की आवश्यकता ही नहीं है। परन्तु आज की मानसिकता बदल गई है । अब एक ही एक प्रकार का कपड़ा पहनकर मजा नहीं आता है अतः वैविध्य के लिये, मन को अच्छा लगे इसलिये एक दिन गणवेश की छुट्टी माँगी जाती है ।
    
जिस दिन गणवेश की छुट्टी होती है, उस दिन जिस प्रकार के कपड़े पहनकर विद्यार्थी आते हैं उसे देखकर संस्कार और सुरुचि की कितनी दुर्गति हुई है इसका पता चलता है ।  
 
जिस दिन गणवेश की छुट्टी होती है, उस दिन जिस प्रकार के कपड़े पहनकर विद्यार्थी आते हैं उसे देखकर संस्कार और सुरुचि की कितनी दुर्गति हुई है इसका पता चलता है ।  
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==== विमर्श ====
 
==== विमर्श ====
में ही किया जाता है । जब से यन्त्र आधारित कारखाने शुरू हुए और रसायनों का बहुलता से प्रयोग शुरु हुआ तबसे पर्यावरण के प्रदूषण की समस्या शुरू हुई । तबसे विद्यालयों में पर्यावरण का विषय अध्ययन के क्रम में प्रविष्ट हुआ।  
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में ही किया जाता है । जब से यन्त्र आधारित कारखाने आरम्भ हुए और रसायनों का बहुलता से प्रयोग शुरु हुआ तबसे पर्यावरण के प्रदूषण की समस्या आरम्भ हुई । तबसे विद्यालयों में पर्यावरण का विषय अध्ययन के क्रम में प्रविष्ट हुआ।  
    
===== पर्यावरण विचार के कुछ मुद्दे =====
 
===== पर्यावरण विचार के कुछ मुद्दे =====

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