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जैसा कि पूर्व में कहा है भारत ने इस स्थिति का सामना पूर्व इतिहास में अनेक बार किया है । भूभाग के साथ साथ संस्कृति पर होने वाले आक्रमणों को अनेक बार परास्त किया है । धर्म और अधर्म, दैवी और आसुरी सम्पद् के मध्य अनेक बार संघर्ष हुए हैं, और भारत ने सिद्ध किया है कि विजय तो धर्म की और सत्य की ही होती है।
 
जैसा कि पूर्व में कहा है भारत ने इस स्थिति का सामना पूर्व इतिहास में अनेक बार किया है । भूभाग के साथ साथ संस्कृति पर होने वाले आक्रमणों को अनेक बार परास्त किया है । धर्म और अधर्म, दैवी और आसुरी सम्पद् के मध्य अनेक बार संघर्ष हुए हैं, और भारत ने सिद्ध किया है कि विजय तो धर्म की और सत्य की ही होती है।
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आज का पश्चिम आसुरी सम्पद् का साक्षात् उदाहरण है। अहंकार, बल, आत्मस्तुति, स्वयं की श्रेष्ठता का भाव, औरों के प्रति तुच्छता का भाव, अपरिमित सत्ता और वैभव प्राप्त करने की आकांक्षा, अविचार, सबके ऊपर विजय प्राप्त करने की और श्रेष्ठत्व प्रस्थापित करने की प्रवृत्ति आसुरी सम्पद् के लक्षण हैं। ऐसी मनोवृत्ति लेकर ही पश्चिम ने पाँचसौ वर्ष पूर्व विश्व की यात्रा शुरू की थी। समस्त पृथ्वी को पादाक्रान्त करते हुए उसने अनेक राष्ट्रों के मूल निवासियों को नष्ट किया उन पर अपना आधिपत्य जमाया, अनेक प्रजाओं को गुलाम बनाया, शोषण और अत्याचार का अपरिमित दौर, चलाया, अनेक राष्ट्रों को यूरोपीय बनाया, अनेक राष्ट्रों को इसाई बनाया और 'साम्राज्य में सूर्य कभी अस्त नहीं होता' ऐसी गर्वोक्ति को सार्थक भी बनाया।
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आज का पश्चिम आसुरी सम्पद् का साक्षात् उदाहरण है। अहंकार, बल, आत्मस्तुति, स्वयं की श्रेष्ठता का भाव, औरों के प्रति तुच्छता का भाव, अपरिमित सत्ता और वैभव प्राप्त करने की आकांक्षा, अविचार, सबके ऊपर विजय प्राप्त करने की और श्रेष्ठत्व प्रस्थापित करने की प्रवृत्ति आसुरी सम्पद् के लक्षण हैं। ऐसी मनोवृत्ति लेकर ही पश्चिम ने पाँचसौ वर्ष पूर्व विश्व की यात्रा आरम्भ की थी। समस्त पृथ्वी को पादाक्रान्त करते हुए उसने अनेक राष्ट्रों के मूल निवासियों को नष्ट किया उन पर अपना आधिपत्य जमाया, अनेक प्रजाओं को गुलाम बनाया, शोषण और अत्याचार का अपरिमित दौर, चलाया, अनेक राष्ट्रों को यूरोपीय बनाया, अनेक राष्ट्रों को इसाई बनाया और 'साम्राज्य में सूर्य कभी अस्त नहीं होता' ऐसी गर्वोक्ति को सार्थक भी बनाया।
    
परन्तु आसुरी सम्पद् सर्वभक्षी होती है। सर्व का भक्षण होने के बाद वह स्वयं भी अपनी ही आसुरी वृत्ति का भक्ष्य बन जाती है यह इतिहास का सत्य है।
 
परन्तु आसुरी सम्पद् सर्वभक्षी होती है। सर्व का भक्षण होने के बाद वह स्वयं भी अपनी ही आसुरी वृत्ति का भक्ष्य बन जाती है यह इतिहास का सत्य है।
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# प्रेम, समर्पण, त्याग और सेवा के आधार पर कुटुम्ब बनता है। इन भावों को एक पीढी से दूसरी पीढी तक आचरण के माध्यम से संक्रान्त किया जाता है। इनकी शिक्षा का इससे अधिक प्रभावी कोई उपाय नहीं हो सकता । कुटुम्ब से इन भावों की शिक्षा प्राप्त कर व्यक्ति अपने सामाजिक व्यवहार में भी इन्हें प्रकट करता है। समाज के चरित्रनिर्माण में कुटुम्ब का बडा योगदान रहता है।  
 
# प्रेम, समर्पण, त्याग और सेवा के आधार पर कुटुम्ब बनता है। इन भावों को एक पीढी से दूसरी पीढी तक आचरण के माध्यम से संक्रान्त किया जाता है। इनकी शिक्षा का इससे अधिक प्रभावी कोई उपाय नहीं हो सकता । कुटुम्ब से इन भावों की शिक्षा प्राप्त कर व्यक्ति अपने सामाजिक व्यवहार में भी इन्हें प्रकट करता है। समाज के चरित्रनिर्माण में कुटुम्ब का बडा योगदान रहता है।  
 
# अर्थार्जन हेतु व्यवसाय की निश्चिति भी कुटुम्ब के आधार पर ही होती है। यह स्थिति भारत की आर्थिक और सामाजिक व्यवस्था बिखर जाने से पूर्व की है। व्यवसाय कुटुम्बगत होने से कुटुम्ब की एकता और एकात्मता साध्य करना सुगम होता है। निश्चिन्तता और सुरक्षा भी सुनिश्चित होती है। इस प्रकार कुटुम्ब केवल भावात्मक ही नहीं तो व्यावहारिक आवश्यकता है।  
 
# अर्थार्जन हेतु व्यवसाय की निश्चिति भी कुटुम्ब के आधार पर ही होती है। यह स्थिति भारत की आर्थिक और सामाजिक व्यवस्था बिखर जाने से पूर्व की है। व्यवसाय कुटुम्बगत होने से कुटुम्ब की एकता और एकात्मता साध्य करना सुगम होता है। निश्चिन्तता और सुरक्षा भी सुनिश्चित होती है। इस प्रकार कुटुम्ब केवल भावात्मक ही नहीं तो व्यावहारिक आवश्यकता है।  
# कुटुम्ब बहुत बडा विद्याकेन्द्र है। व्यक्ति को जीवनविकास के लिये आवश्यक बातों की साठ से सत्तर प्रतिशत शिक्षा कुटुम्ब में ही प्राप्त होती है। शिक्षा गर्भाधान से ही शुरू होती है । माता बालक की प्रथम शिक्षक होती है। पिता सहित घर के सभी सदस्य बालक को शिक्षा देने वाले होते हैं। आज शिक्षा की दृष्टि से कुटुम्ब में कोई विचार नहीं किया जाता है। शिक्षा का विचार कर कुटुम्ब को एक प्रभावी शिक्षाकेन्द्र बनाने की आवश्यकता है।  
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# कुटुम्ब बहुत बडा विद्याकेन्द्र है। व्यक्ति को जीवनविकास के लिये आवश्यक बातों की साठ से सत्तर प्रतिशत शिक्षा कुटुम्ब में ही प्राप्त होती है। शिक्षा गर्भाधान से ही आरम्भ होती है । माता बालक की प्रथम शिक्षक होती है। पिता सहित घर के सभी सदस्य बालक को शिक्षा देने वाले होते हैं। आज शिक्षा की दृष्टि से कुटुम्ब में कोई विचार नहीं किया जाता है। शिक्षा का विचार कर कुटुम्ब को एक प्रभावी शिक्षाकेन्द्र बनाने की आवश्यकता है।  
 
# घर में संस्कारों की शिक्षा होती है, संस्कृति की शिक्षा होती है, घर चलाने की शिक्षा होती है, आचरण की शिक्षा होती है, सामाजिक दायित्वबोध की शिक्षा होती है, अर्थार्जन की शिक्षा होती है । यह शिक्षा संस्कार, अनुकरण, प्रेरणा, क्रिया, अनुभव, प्रयोग आदि के माध्यम से होती है। इतना सब कुछ होने के कारण कुटुम्ब प्रभावी शिक्षाकेन्द्र है। उसे पुनः ऐसा शिक्षाकेन्द्र बनाने की आवश्यकता है।  
 
# घर में संस्कारों की शिक्षा होती है, संस्कृति की शिक्षा होती है, घर चलाने की शिक्षा होती है, आचरण की शिक्षा होती है, सामाजिक दायित्वबोध की शिक्षा होती है, अर्थार्जन की शिक्षा होती है । यह शिक्षा संस्कार, अनुकरण, प्रेरणा, क्रिया, अनुभव, प्रयोग आदि के माध्यम से होती है। इतना सब कुछ होने के कारण कुटुम्ब प्रभावी शिक्षाकेन्द्र है। उसे पुनः ऐसा शिक्षाकेन्द्र बनाने की आवश्यकता है।  
 
# पश्चिम को भौतिक जीवन और सांस्कृतिक जीवन का अन्तर समझने की आवश्यकता है। मनुष्य के लिये सांस्कृतिक जीवन होता है, भौतिक नहीं । भौतिक जीवन केवल पशुओं के लिये होता है । सांस्कृतिक जीवन का केन्द्र कुटुम्ब है। इसलिये पश्चिम के लिये भी कुटुम्बसंस्था को अपनाना लाभकारी है। विश्व को यह बात समझाने हेतु भारत को भी अपनी कुटुम्ब व्यवस्था को सुदृढ बनाना होगा।  
 
# पश्चिम को भौतिक जीवन और सांस्कृतिक जीवन का अन्तर समझने की आवश्यकता है। मनुष्य के लिये सांस्कृतिक जीवन होता है, भौतिक नहीं । भौतिक जीवन केवल पशुओं के लिये होता है । सांस्कृतिक जीवन का केन्द्र कुटुम्ब है। इसलिये पश्चिम के लिये भी कुटुम्बसंस्था को अपनाना लाभकारी है। विश्व को यह बात समझाने हेतु भारत को भी अपनी कुटुम्ब व्यवस्था को सुदृढ बनाना होगा।  
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वर्ण और जाति व्यवस्था का हम त्याग भी कर दें तो तत्त्वतः तो कोई आपत्ति नहीं हो सकती। परन्तु इनका पर्याय खोजना और स्थापित करना तो अत्यन्त आवश्यक है । इस दृष्टि से हमें वर्ण और जाति की उपयोगिता क्या थी और उनके दूषण क्या थे इसका विचार करना होगा । दूषण का विचार करें तो दो बातें ध्यान में आती हैं । एक है ऊँच नीच का भेद और दूसरी है अस्पृश्यता । उपयोगिता का विचार करें तो सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण बात यह है कि वर्ण और जाति से आचार और व्यवसाय की व्यवस्था और निश्चिति होती थी। तत्वतः वर्ण जन्म से नहीं अपितु गुण और कर्म से माने जाते थे परन्तु व्यवहार में जन्म से ही माने जाने लगे थे। वर्ण और जाति विवाह के लिये भी आवश्यक मानी जाती थी । वर्णान्तर और जात्यन्तर यद्यपि सम्भव था परन्तु नगण्य मात्रा में किया जाता था । स्थिर समाज के लिये, अर्थार्जन की निश्चितता और निश्चिंतता और संस्कृति और समृद्धि की सुरक्षा के लिये इनका उपयोग था । इन व्यवस्थाओं के दूषणों को दूर कर, इनका परिष्कार कर इन्हें पुनः उपयोगी बनाने का विचार किया जाय तो लाभ हो सकता है। परन्तु राजकीय हस्तक्षेप के कारण और
 
वर्ण और जाति व्यवस्था का हम त्याग भी कर दें तो तत्त्वतः तो कोई आपत्ति नहीं हो सकती। परन्तु इनका पर्याय खोजना और स्थापित करना तो अत्यन्त आवश्यक है । इस दृष्टि से हमें वर्ण और जाति की उपयोगिता क्या थी और उनके दूषण क्या थे इसका विचार करना होगा । दूषण का विचार करें तो दो बातें ध्यान में आती हैं । एक है ऊँच नीच का भेद और दूसरी है अस्पृश्यता । उपयोगिता का विचार करें तो सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण बात यह है कि वर्ण और जाति से आचार और व्यवसाय की व्यवस्था और निश्चिति होती थी। तत्वतः वर्ण जन्म से नहीं अपितु गुण और कर्म से माने जाते थे परन्तु व्यवहार में जन्म से ही माने जाने लगे थे। वर्ण और जाति विवाह के लिये भी आवश्यक मानी जाती थी । वर्णान्तर और जात्यन्तर यद्यपि सम्भव था परन्तु नगण्य मात्रा में किया जाता था । स्थिर समाज के लिये, अर्थार्जन की निश्चितता और निश्चिंतता और संस्कृति और समृद्धि की सुरक्षा के लिये इनका उपयोग था । इन व्यवस्थाओं के दूषणों को दूर कर, इनका परिष्कार कर इन्हें पुनः उपयोगी बनाने का विचार किया जाय तो लाभ हो सकता है। परन्तु राजकीय हस्तक्षेप के कारण और
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मानसिक पूर्वाग्रहों के कारण वर्ण और जाति का मामला बहुत उलझ गया है। अब हमारे पास दो उपाय हैं । एक तो जनसमाज का प्रबोधन कर पूर्वाग्रह दूर करना और दूसरा पूर्ण रूप से नई शब्दावली के साथ विकल्प देना । विद्वजनों ने और समाजहितचिन्तकों ने दो में से एक की निश्चिति कर व्यवस्था बनाने की अनिवार्य आवश्यकता है। कदाचित पूर्ण रूप से नई वैकल्पिक व्यवस्था देना कम कठिन हो सकता है । सम्भव है कि सौ वर्ष बाद धार्मिक समाज पुनः पुरानी शब्दावली और संकल्पनाओं पर लौट आये । जो भी हम तय करें व्यवस्था शीघ्रातिशीघ्र बनानी चाहिये । यह व्यवस्था मुख्य रूप से अर्थार्जन हेतु व्यवसाय निश्चिति की होनी चाहिये । इस रूप में समाजव्यवस्था अर्थव्यवस्था के साथ जुडी हुई है । आज व्यवसाय के क्षेत्र में भी स्वैराचार ही है। स्वतन्त्रता मूल्यवान है परन्तु स्वतन्त्रता के अपने ही कुछ बन्धन होते हैं। उदाहरण के लिये स्वतन्त्रता के साथ स्वदायित्व भी अनिवार्य रूप से जुड़ा हुआ है। बिना दायित्व के स्वतन्त्रता सम्भव नहीं। स्वैराचार कोई बन्धन नहीं मानता । अर्थक्षेत्र में स्वतन्त्रता होनी चाहिये, स्वैराचार नहीं । समाज के लिये व्यक्ति का व्यवसाय निश्चित करने हेतु स्वतनत्रता और मर्यादा दोनों निश्चित करने की व्यवस्था होनी चाहिये । जैसे कि व्यक्ति अपने व्यवसाय का चयन करने के लिये तो स्वतन्त्र है परन्तु मनमर्जी से कभी भी बदलने के लिये नहीं । दूसरों का व्यवसाय छिन जाय या राष्ट्रीय सम्पत्ति की हानि हो इस प्रकार का आर्थिक व्यवहार व्यक्ति नहीं कर सकता । उदाहरण के लिये एक बहुत बडा कारखाना शुरू किया और सैंकड़ों लोगों के व्यवसाय छिन गये और उन्हें गाँव छोडकर नगर में जाकर झोपडी में रहना पडा और नौकरी करनी पड़ी यह आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक अपराध है। स्वतन्त्रता के नामपर इसकी अनुमति नहीं मिल सकती । कभी भी व्यवसाय बदलने से भी अर्थक्षेत्र में हलचल हो ही जाती है।
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मानसिक पूर्वाग्रहों के कारण वर्ण और जाति का मामला बहुत उलझ गया है। अब हमारे पास दो उपाय हैं । एक तो जनसमाज का प्रबोधन कर पूर्वाग्रह दूर करना और दूसरा पूर्ण रूप से नई शब्दावली के साथ विकल्प देना । विद्वजनों ने और समाजहितचिन्तकों ने दो में से एक की निश्चिति कर व्यवस्था बनाने की अनिवार्य आवश्यकता है। कदाचित पूर्ण रूप से नई वैकल्पिक व्यवस्था देना कम कठिन हो सकता है । सम्भव है कि सौ वर्ष बाद धार्मिक समाज पुनः पुरानी शब्दावली और संकल्पनाओं पर लौट आये । जो भी हम तय करें व्यवस्था शीघ्रातिशीघ्र बनानी चाहिये । यह व्यवस्था मुख्य रूप से अर्थार्जन हेतु व्यवसाय निश्चिति की होनी चाहिये । इस रूप में समाजव्यवस्था अर्थव्यवस्था के साथ जुडी हुई है । आज व्यवसाय के क्षेत्र में भी स्वैराचार ही है। स्वतन्त्रता मूल्यवान है परन्तु स्वतन्त्रता के अपने ही कुछ बन्धन होते हैं। उदाहरण के लिये स्वतन्त्रता के साथ स्वदायित्व भी अनिवार्य रूप से जुड़ा हुआ है। बिना दायित्व के स्वतन्त्रता सम्भव नहीं। स्वैराचार कोई बन्धन नहीं मानता । अर्थक्षेत्र में स्वतन्त्रता होनी चाहिये, स्वैराचार नहीं । समाज के लिये व्यक्ति का व्यवसाय निश्चित करने हेतु स्वतनत्रता और मर्यादा दोनों निश्चित करने की व्यवस्था होनी चाहिये । जैसे कि व्यक्ति अपने व्यवसाय का चयन करने के लिये तो स्वतन्त्र है परन्तु मनमर्जी से कभी भी बदलने के लिये नहीं । दूसरों का व्यवसाय छिन जाय या राष्ट्रीय सम्पत्ति की हानि हो इस प्रकार का आर्थिक व्यवहार व्यक्ति नहीं कर सकता । उदाहरण के लिये एक बहुत बडा कारखाना आरम्भ किया और सैंकड़ों लोगों के व्यवसाय छिन गये और उन्हें गाँव छोडकर नगर में जाकर झोपडी में रहना पडा और नौकरी करनी पड़ी यह आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक अपराध है। स्वतन्त्रता के नामपर इसकी अनुमति नहीं मिल सकती । कभी भी व्यवसाय बदलने से भी अर्थक्षेत्र में हलचल हो ही जाती है।
    
अध्ययन और व्यवसाय का भी परस्पर दायित्वपूर्ण सम्बन्ध होना चाहिये जो आज नहीं है। उदाहरण के लिये व्यक्ति इन्जिनीयरींग का अध्ययन करता है परन्तु व्यवसाय नहीं करता, डॉक्टर बनता है परन्तु व्यवसाय छापखाने का करता है। बाबूगीरी करता है परन्तु उसकी पढाई नहीं करता । ऐसा होने से विद्यार्थियों की पढाई के लिये परिवार का और समाज का जो पैसा खर्च होता है और विद्यार्थी की आयु के जो वर्ष व्यतीत होते हैं वे व्यर्थ जाते हैं। यह भी सही नहीं है। इसलिये सामाजिक स्तर पर अर्थनियोजन होना चाहिये । इसकी व्यवस्था बनानी होगी । उसके अनुसार शिक्षा की व्यवस्था करनी होगी।
 
अध्ययन और व्यवसाय का भी परस्पर दायित्वपूर्ण सम्बन्ध होना चाहिये जो आज नहीं है। उदाहरण के लिये व्यक्ति इन्जिनीयरींग का अध्ययन करता है परन्तु व्यवसाय नहीं करता, डॉक्टर बनता है परन्तु व्यवसाय छापखाने का करता है। बाबूगीरी करता है परन्तु उसकी पढाई नहीं करता । ऐसा होने से विद्यार्थियों की पढाई के लिये परिवार का और समाज का जो पैसा खर्च होता है और विद्यार्थी की आयु के जो वर्ष व्यतीत होते हैं वे व्यर्थ जाते हैं। यह भी सही नहीं है। इसलिये सामाजिक स्तर पर अर्थनियोजन होना चाहिये । इसकी व्यवस्था बनानी होगी । उसके अनुसार शिक्षा की व्यवस्था करनी होगी।

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