− | देशानुकूल का अर्थ है, देश के अनुकूल । इसे समझना तो सरल है । विश्व में अनेक देश हैं, अनेक प्रजाएँ हैं । इन सब का खानपान, वेशभूषा, दिनचर्या आदि सब अलग अलग ही होते हैं । यह सारी तो बाहरी बातें हैं । एक दूसरे के साथ के संबंध, उनकी घटनाओं के प्रति देखने की दृष्टि, जीवन को समझने की पद्धति, सुविधाओं की आवश्यकता आदि सभी भिन्न-भिन्न होते हैं । जब यह प्रजा एक दूसरे के साथ संपर्क में आती है तब वह एक दूसरे को प्रभावित करती है और एक दूसरे से प्रभावित होती है । इससे अनेक बातों का. आदान-प्रदान होता है। यह आदान-प्रदान भी स्वाभाविक है । जब तक यह स्वाभाविक है, वह उचित है परंतु जब वह अस्वाभाविक होता है, तब विचित्रता निर्माण करता है । उदाहरण के लिए विश्व के सभी देशों में लोग वस्त्र पहनते हैं । अफ्रीका के जंगलों में रहने वाले लोग वृक्षों के छाल के वस्त्र पहनते हैं । पशुओं की हड्डियों के अलंकार बनाकर पहनते हैं । यूरोप-अमेरिका के लोग सूट-बूट का वेश पहनते हैं । भारत में धोती कुर्ता, साड़ी व पगड़ी आदि पहनते हैं । जापान के लोग किमोनो पहनते हैं । यह सब अपने-अपने देश की जलवायु के अनुकूल और प्राप्त सामग्री के अनुकूल होते हैं, इसलिए वह उन-उन देशों में स्वाभाविक है । यूरोप के या भारत के नगरवासी लोग वृक्षों के छाल के वस्त्र पहनने लगे तो अस्वाभाविक लगेगा । भारत की गृहिणियाँ किमोनो पहनने लगेंगी तो वह अस्वाभाविक लगेगा । इसी प्रकार बड़ी आयु के लोग बच्चों जैसे कपड़े पहनेंगे तो अस्वाभाविक लगेगा । आज हम देखते हैं कि भारत में लोग यूरोपीय वेशभूषा पहनते हैं । ख्ियों ने पुरुषों जैसे कपड़े पहनना शुरु किया है । भारत के लोगों का यह अनुकरण स्वाभाविक नहीं है, क्योंकि वह देशानुकूल नहीं है । इसी प्रकार भारत के लोग जब यूरोपीय जीवन दृष्टि अपनाते हैं तो वह भी देशानुकूल नहीं है क्योंकि वह भारत की संस्कृति और परंपरा से मेल नहीं खाता । इसलिए विवेकशील लोग कहते हैं कि विश्वभर में जहाँ कहीं जो कुछ भी अच्छा है, लाभकारी है, शुभ है उसे खुले मन से अपनाना चाहिए, जो इससे विपरीत है उसे नहीं अपनाना चाहिए । | + | देशानुकूल का अर्थ है, देश के अनुकूल । इसे समझना तो सरल है । विश्व में अनेक देश हैं, अनेक प्रजाएँ हैं । इन सब का खानपान, वेशभूषा, दिनचर्या आदि सब अलग अलग ही होते हैं । यह सारी तो बाहरी बातें हैं । एक दूसरे के साथ के संबंध, उनकी घटनाओं के प्रति देखने की दृष्टि, जीवन को समझने की पद्धति, सुविधाओं की आवश्यकता आदि सभी भिन्न-भिन्न होते हैं । जब यह प्रजा एक दूसरे के साथ संपर्क में आती है तब वह एक दूसरे को प्रभावित करती है और एक दूसरे से प्रभावित होती है । इससे अनेक बातों का. आदान-प्रदान होता है। यह आदान-प्रदान भी स्वाभाविक है । जब तक यह स्वाभाविक है, वह उचित है परंतु जब वह अस्वाभाविक होता है, तब विचित्रता निर्माण करता है । उदाहरण के लिए विश्व के सभी देशों में लोग वस्त्र पहनते हैं । अफ्रीका के जंगलों में रहने वाले लोग वृक्षों के छाल के वस्त्र पहनते हैं । पशुओं की हड्डियों के अलंकार बनाकर पहनते हैं । यूरोप-अमेरिका के लोग सूट-बूट का वेश पहनते हैं । भारत में धोती कुर्ता, साड़ी व पगड़ी आदि पहनते हैं । जापान के लोग किमोनो पहनते हैं । यह सब अपने-अपने देश की जलवायु के अनुकूल और प्राप्त सामग्री के अनुकूल होते हैं, इसलिए वह उन-उन देशों में स्वाभाविक है । यूरोप के या भारत के नगरवासी लोग वृक्षों के छाल के वस्त्र पहनने लगे तो अस्वाभाविक लगेगा । भारत की गृहिणियाँ किमोनो पहनने लगेंगी तो वह अस्वाभाविक लगेगा । इसी प्रकार बड़ी आयु के लोग बच्चों जैसे कपड़े पहनेंगे तो अस्वाभाविक लगेगा । आज हम देखते हैं कि भारत में लोग यूरोपीय वेशभूषा पहनते हैं । ख्ियों ने पुरुषों जैसे कपड़े पहनना आरम्भ किया है । भारत के लोगों का यह अनुकरण स्वाभाविक नहीं है, क्योंकि वह देशानुकूल नहीं है । इसी प्रकार भारत के लोग जब यूरोपीय जीवन दृष्टि अपनाते हैं तो वह भी देशानुकूल नहीं है क्योंकि वह भारत की संस्कृति और परंपरा से मेल नहीं खाता । इसलिए विवेकशील लोग कहते हैं कि विश्वभर में जहाँ कहीं जो कुछ भी अच्छा है, लाभकारी है, शुभ है उसे खुले मन से अपनाना चाहिए, जो इससे विपरीत है उसे नहीं अपनाना चाहिए । |