Changes

Jump to navigation Jump to search
m
Text replacement - "शुरू" to "आरम्भ"
Line 105: Line 105:     
==== शिक्षक पर भरोसा नहीं है ====
 
==== शिक्षक पर भरोसा नहीं है ====
दूसरी कक्षा में पढ़ने वाला सात वर्ष का एक विद्यार्थी गणित की लिखित परीक्षा देकर घर आया। परीक्षा में कितने अंक मिलेंगे यह जानने की उत्सुकता विद्यार्थी से अधिक उसकी माता को थी । अतः माता ने पूछताछ शुरू की। प्रश्नपत्र के प्रश्न एक के बाद एक पूछती गई और बालक उत्तर देता गया। सारे प्रश्नों की समाप्ति पर माता ने निदान किया कि उसे पचास में से अडतालीस अंक प्राप्त होंगे । वह सन्तुष्ट हुई। परन्तु परीक्षा का परिणाम आया तब माता ने देखा कि बालक को गणित में दो अंक मिले थे। माता आघात से पागल हो गई। बार बार बालक से पूछने लगी कि ऐसा कैसे हुआ । बालक बताने में असमर्थ था । घुमा फिराकर पूछते पूछते माता ने पूछा कि तुमने उत्तर पुस्तिका में उत्तर लिखे थे कि नहीं। बालक ने निर्विकार भाव से कहा कि नहीं लिखा था । माता ने झल्ला कर पूछा कि क्यों नहीं लिखा । बालक ने सहजता से कहा कि सब उत्तर आते थे तब क्यों लिखू।
+
दूसरी कक्षा में पढ़ने वाला सात वर्ष का एक विद्यार्थी गणित की लिखित परीक्षा देकर घर आया। परीक्षा में कितने अंक मिलेंगे यह जानने की उत्सुकता विद्यार्थी से अधिक उसकी माता को थी । अतः माता ने पूछताछ आरम्भ की। प्रश्नपत्र के प्रश्न एक के बाद एक पूछती गई और बालक उत्तर देता गया। सारे प्रश्नों की समाप्ति पर माता ने निदान किया कि उसे पचास में से अडतालीस अंक प्राप्त होंगे । वह सन्तुष्ट हुई। परन्तु परीक्षा का परिणाम आया तब माता ने देखा कि बालक को गणित में दो अंक मिले थे। माता आघात से पागल हो गई। बार बार बालक से पूछने लगी कि ऐसा कैसे हुआ । बालक बताने में असमर्थ था । घुमा फिराकर पूछते पूछते माता ने पूछा कि तुमने उत्तर पुस्तिका में उत्तर लिखे थे कि नहीं। बालक ने निर्विकार भाव से कहा कि नहीं लिखा था । माता ने झल्ला कर पूछा कि क्यों नहीं लिखा । बालक ने सहजता से कहा कि सब उत्तर आते थे तब क्यों लिखू।
    
अब इस प्रश्न का क्या उत्तर है ? उसने उत्तर पुस्तिका में क्यों लिखना चाहिये ? शिक्षिका का उत्तर है परीक्षा है तो लिखना ही चाहिये । परन्तु बालक को परीक्षा क्या होती है इसका ज्ञान नहीं है और परीक्षा में उत्तीर्ण होना चाहिये इसकी परवाह नहीं है। फिर लिखित परीक्षा क्यों होती है ?
 
अब इस प्रश्न का क्या उत्तर है ? उसने उत्तर पुस्तिका में क्यों लिखना चाहिये ? शिक्षिका का उत्तर है परीक्षा है तो लिखना ही चाहिये । परन्तु बालक को परीक्षा क्या होती है इसका ज्ञान नहीं है और परीक्षा में उत्तीर्ण होना चाहिये इसकी परवाह नहीं है। फिर लिखित परीक्षा क्यों होती है ?
Line 291: Line 291:  
ऐसे वातावरण में समाज में तनाव बढता है, उत्तेजना बढती है। आज मधुप्रमेह, रक्तचाप, हृदयरोग आदि जैसी बिमारियाँ बढी हैं उनका मूल भी श्रद्धाहीनता है। सरदर्द अम्लपित्त जैसी बिमारियाँ भी इसी में से पनपती हैं। इनका उपचार शारीरिक रोग समझकर करने से ये ठीक नहीं होती। हम देखते हैं कि इनकी दवाई आजन्म खानी पडती है । ये असाध्य बिमारियाँ हैं क्योंकि हम उनका मानसिक मूल पकड नहीं । पाते । यदि श्रद्धा और विश्वास मनवाने का इलाज करेंगे तो वातावरण से इन बिमारियों के तरंग कम होते जायेंगे ।
 
ऐसे वातावरण में समाज में तनाव बढता है, उत्तेजना बढती है। आज मधुप्रमेह, रक्तचाप, हृदयरोग आदि जैसी बिमारियाँ बढी हैं उनका मूल भी श्रद्धाहीनता है। सरदर्द अम्लपित्त जैसी बिमारियाँ भी इसी में से पनपती हैं। इनका उपचार शारीरिक रोग समझकर करने से ये ठीक नहीं होती। हम देखते हैं कि इनकी दवाई आजन्म खानी पडती है । ये असाध्य बिमारियाँ हैं क्योंकि हम उनका मानसिक मूल पकड नहीं । पाते । यदि श्रद्धा और विश्वास मनवाने का इलाज करेंगे तो वातावरण से इन बिमारियों के तरंग कम होते जायेंगे ।
   −
यह तो ऐसा है कि समझो कोकाकोला पीने से अम्लपित्त होता है। हम अम्लपित्त की दवाई लेते हैं । उससे दूसरी बिमारी होती है। उससे दूसरी, उससे दूसरी ऐसा दुष्टचक्र शुरू होता है। हम परेशान होते हैं परन्तु कोकाकोला पीना बन्द नहीं करते । वास्तव में कोकाकोला पीना बन्द करने से अम्लपित्त होगा ही नहीं
+
यह तो ऐसा है कि समझो कोकाकोला पीने से अम्लपित्त होता है। हम अम्लपित्त की दवाई लेते हैं । उससे दूसरी बिमारी होती है। उससे दूसरी, उससे दूसरी ऐसा दुष्टचक्र आरम्भ होता है। हम परेशान होते हैं परन्तु कोकाकोला पीना बन्द नहीं करते । वास्तव में कोकाकोला पीना बन्द करने से अम्लपित्त होगा ही नहीं
    
और एक भी दवाई की आवश्यकता नहीं रहेगी। उसी प्रकार श्रद्धा और विश्वास के अभाव में संशय, असुरक्षा, एकलता, तनाव, उत्तेजना, भय, चिन्ता पैदा होते हैं उसका परिणाम हृदय और मस्तिष्क पर होता है। हम दवाई खाना शुरु करते हैं, परेशान होते हैं, पैसा खर्च करते हैं, कानून और नियम बनाते हैं, सुरक्षा का प्रबन्ध करते हैं, न्यायालय का आश्रय लेते हैं, आरोप प्रत्यारोप चलते हैं, दण्ड का प्रावधान होता है, दोनों पक्षों का नकसान होता है परन्त न समाज अच्छा बनता है न व्यक्ति आश्वस्त होता है, न किसी को सुख और शक्ति मिलते हैं। मूल में अश्रद्धा और अविश्वास हैं। इनके स्थान पर श्रद्धा और विश्वास की प्रतिष्ठा करेंगे तो बाकी सब तो जड उखाडने से पूरा वृक्ष गिरकर सूख जाता है  वैसे ही नष्ट हो जायेंगे।  
 
और एक भी दवाई की आवश्यकता नहीं रहेगी। उसी प्रकार श्रद्धा और विश्वास के अभाव में संशय, असुरक्षा, एकलता, तनाव, उत्तेजना, भय, चिन्ता पैदा होते हैं उसका परिणाम हृदय और मस्तिष्क पर होता है। हम दवाई खाना शुरु करते हैं, परेशान होते हैं, पैसा खर्च करते हैं, कानून और नियम बनाते हैं, सुरक्षा का प्रबन्ध करते हैं, न्यायालय का आश्रय लेते हैं, आरोप प्रत्यारोप चलते हैं, दण्ड का प्रावधान होता है, दोनों पक्षों का नकसान होता है परन्त न समाज अच्छा बनता है न व्यक्ति आश्वस्त होता है, न किसी को सुख और शक्ति मिलते हैं। मूल में अश्रद्धा और अविश्वास हैं। इनके स्थान पर श्रद्धा और विश्वास की प्रतिष्ठा करेंगे तो बाकी सब तो जड उखाडने से पूरा वृक्ष गिरकर सूख जाता है  वैसे ही नष्ट हो जायेंगे।  
Line 382: Line 382:  
मनोवैज्ञानिक पद्धतियाँ क्या होती हैं इसका विस्तृत निरूपण करने का यहाँ औचित्य नहीं है क्योंकि वे असंख्य होती हैं । सामान्य लोगों को भी ये सूझ सकती हैं और सामान्य लोग इसका प्रभाव भी जानते हैं ।  
 
मनोवैज्ञानिक पद्धतियाँ क्या होती हैं इसका विस्तृत निरूपण करने का यहाँ औचित्य नहीं है क्योंकि वे असंख्य होती हैं । सामान्य लोगों को भी ये सूझ सकती हैं और सामान्य लोग इसका प्रभाव भी जानते हैं ।  
   −
विद्यालय यदि ऐसी पद्धतियाँ अपनाना शुरू कर दें, इन्हें चालना दें तो हम इन समस्याओं से निजात पा सकते हैं । साहस करने की आवश्यकता है।
+
विद्यालय यदि ऐसी पद्धतियाँ अपनाना आरम्भ कर दें, इन्हें चालना दें तो हम इन समस्याओं से निजात पा सकते हैं । साहस करने की आवश्यकता है।
    
==== शिक्षा का माध्यम और भाषा का प्रश्न ====
 
==== शिक्षा का माध्यम और भाषा का प्रश्न ====
Line 438: Line 438:  
भूत को भगाने का सबसे कारगर उपाय उसकी उपेक्षा करना है । उपेक्षा के यहाँ बनाये हैं उससे अधिक अशिष्ट अनेक मार्ग हो सकते हैं । जिसे जो उचित लगे वह अपनाना चाहिये । मुद्दा यह है कि स्वाभिमान मनोवैज्ञानिक तरीके से व्यक्त होना चाहिये, बौद्धिक से काम नहीं चलेगा ।
 
भूत को भगाने का सबसे कारगर उपाय उसकी उपेक्षा करना है । उपेक्षा के यहाँ बनाये हैं उससे अधिक अशिष्ट अनेक मार्ग हो सकते हैं । जिसे जो उचित लगे वह अपनाना चाहिये । मुद्दा यह है कि स्वाभिमान मनोवैज्ञानिक तरीके से व्यक्त होना चाहिये, बौद्धिक से काम नहीं चलेगा ।
   −
वस्तुस्थिति यह है कि जिस दिन अमेरिका को पता चल जायेगा कि भारत के लोग अंग्रेजी बोलना नहीं चाहते, अपनी ही भाषा बोलने का आग्रह रखते हैं उसी दिन से अमेरिका के विश्वविद्यालयों में हिन्दी विभाग शुरू हो जायेंगे । धार्मिक भाषा के शत्रु और अंग्रेजी से मोहित धार्मिक ही हैं, और कोई नहीं यह समझ लेने की आवश्यकता है ।
+
वस्तुस्थिति यह है कि जिस दिन अमेरिका को पता चल जायेगा कि भारत के लोग अंग्रेजी बोलना नहीं चाहते, अपनी ही भाषा बोलने का आग्रह रखते हैं उसी दिन से अमेरिका के विश्वविद्यालयों में हिन्दी विभाग आरम्भ हो जायेंगे । धार्मिक भाषा के शत्रु और अंग्रेजी से मोहित धार्मिक ही हैं, और कोई नहीं यह समझ लेने की आवश्यकता है ।
    
सज्जन, बुद्धिमान, समाजाभिमुख लोगों को इतना कठोर होना अच्छा नहीं लगता । वे इस प्रकार के उपायों को अपनाने को सिद्ध भी नहीं होते और उन्हें मान्यता भी नहीं देते । इसलिये भूत अधिक प्रभावी बनता है । ऐसे सज्जनों के समक्ष कठोर उपाय करने वाले हार जाते हैं और भूत मुस्कुराता है परन्तु सज्जन अपनी सज्जनता छोड़ते ही नहीं । यह अंग्रेजी को परास्त करने के रास्ते में बडा अवरोध है |
 
सज्जन, बुद्धिमान, समाजाभिमुख लोगों को इतना कठोर होना अच्छा नहीं लगता । वे इस प्रकार के उपायों को अपनाने को सिद्ध भी नहीं होते और उन्हें मान्यता भी नहीं देते । इसलिये भूत अधिक प्रभावी बनता है । ऐसे सज्जनों के समक्ष कठोर उपाय करने वाले हार जाते हैं और भूत मुस्कुराता है परन्तु सज्जन अपनी सज्जनता छोड़ते ही नहीं । यह अंग्रेजी को परास्त करने के रास्ते में बडा अवरोध है |
Line 452: Line 452:  
क्योंकि वे अपने हैं, परन्तु उन्हें जीतने का मार्ग
 
क्योंकि वे अपने हैं, परन्तु उन्हें जीतने का मार्ग
 
ठीक नहीं है यह इतने वर्षों के अनुभव ने सिद्ध कर
 
ठीक नहीं है यह इतने वर्षों के अनुभव ने सिद्ध कर
दिया है। हम ही परास्त होते रहे हैं यह क्या वास्तविकता नहीं है ? हम कभी तो आठवीं कक्षा से अंग्रेजी पढ़ाना शुरू करते थे । फिर पाँचवीं से शुरू किया, फिर तीसरी से, फिर पहली से । अब पूर्व प्राथमिक कक्षाओं में पढाते हैं । अब अंग्रेजी माध्यम का आग्रह बढ़ा है । यश तो हमें आठवीं से अंग्रेजी माध्यम नहीं, अंग्रेजी भाषा प्रारम्भ करते थे तब अधिक मिल रहा था । फिर क्या हुआ ? हम किसे जीतने के लिये चले हैं? जिन्हें जीतने की बात कर रहे हैं वह दुनिया तो हमें मूर्ख और पिछडे मानती है क्योंकि हमें अंग्रेजी नहीं आती । कदाचित सज्जनता और अन्य गुर्णों के कारण से हमारा सम्मान भी करती है तब भी अंग्रेजी की बात आते ही चुप हो जाती है । हमारे साथ चर्चा करना नहीं चाहती । क्या हम यह सब जानते नहीं ? अनुभव नहीं करते ? परिस्थिति अधिकाधिक खराब होती जा रही है यह तो हम देख ही रहे हैं। अब हमें अंग्रेजी को नकारने के
+
दिया है। हम ही परास्त होते रहे हैं यह क्या वास्तविकता नहीं है ? हम कभी तो आठवीं कक्षा से अंग्रेजी पढ़ाना आरम्भ करते थे । फिर पाँचवीं से आरम्भ किया, फिर तीसरी से, फिर पहली से । अब पूर्व प्राथमिक कक्षाओं में पढाते हैं । अब अंग्रेजी माध्यम का आग्रह बढ़ा है । यश तो हमें आठवीं से अंग्रेजी माध्यम नहीं, अंग्रेजी भाषा प्रारम्भ करते थे तब अधिक मिल रहा था । फिर क्या हुआ ? हम किसे जीतने के लिये चले हैं? जिन्हें जीतने की बात कर रहे हैं वह दुनिया तो हमें मूर्ख और पिछडे मानती है क्योंकि हमें अंग्रेजी नहीं आती । कदाचित सज्जनता और अन्य गुर्णों के कारण से हमारा सम्मान भी करती है तब भी अंग्रेजी की बात आते ही चुप हो जाती है । हमारे साथ चर्चा करना नहीं चाहती । क्या हम यह सब जानते नहीं ? अनुभव नहीं करते ? परिस्थिति अधिकाधिक खराब होती जा रही है यह तो हम देख ही रहे हैं। अब हमें अंग्रेजी को नकारने के
 
नये अधिक प्रभावी, अधिक सही मार्ग अपनाने की आवश्यकता है । इनमें से एक यहाँ बताया गया है यह मनोवैज्ञानिक उपाय है ।
 
नये अधिक प्रभावी, अधिक सही मार्ग अपनाने की आवश्यकता है । इनमें से एक यहाँ बताया गया है यह मनोवैज्ञानिक उपाय है ।
  

Navigation menu