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१५. किसी भी प्रकार का दायित्वबोध नहीं होने के कारण सारे भौतिक संसाधनों का भारी अपव्यय होता है, लोगों की क्षमताओं का विकास नहीं होता, क्षमताओं का उपयोग नहीं होता, नियम और कानून का पालन नहीं होता, अन्याय, शोषण, अत्याचार, अपराध आदि का नियन्त्रण नहीं होता, देश की बदनामी होती है, समाज की भारी हानि होती है ।
 
१५. किसी भी प्रकार का दायित्वबोध नहीं होने के कारण सारे भौतिक संसाधनों का भारी अपव्यय होता है, लोगों की क्षमताओं का विकास नहीं होता, क्षमताओं का उपयोग नहीं होता, नियम और कानून का पालन नहीं होता, अन्याय, शोषण, अत्याचार, अपराध आदि का नियन्त्रण नहीं होता, देश की बदनामी होती है, समाज की भारी हानि होती है ।
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१६, केवल धर्म ही दायित्व बोध  सिखा सकता है । केवल धर्म ही प्रत्येक व्यक्ति के मन में जो अच्छाई है उसे प्रकट होने हेतु आवाहन कर सकता है और उसे सक्रिय होने की प्रेरणा दे सकता है । परन्तु पश्चिमी शिक्षा के प्रभाव में हमने धर्म को विवाद का विषय बना दिया, अच्छाई को यान्त्रिक मानकों पर तौलना शुरू किया और कर्तव्य को अपने सुख के गणित पर नापना सिखा दिया । इससे समाज पूर्ण रूप से शिथिलबन्ध हो गया और बिखराव शुरू हुआ |
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१६, केवल धर्म ही दायित्व बोध  सिखा सकता है । केवल धर्म ही प्रत्येक व्यक्ति के मन में जो अच्छाई है उसे प्रकट होने हेतु आवाहन कर सकता है और उसे सक्रिय होने की प्रेरणा दे सकता है । परन्तु पश्चिमी शिक्षा के प्रभाव में हमने धर्म को विवाद का विषय बना दिया, अच्छाई को यान्त्रिक मानकों पर तौलना आरम्भ किया और कर्तव्य को अपने सुख के गणित पर नापना सिखा दिया । इससे समाज पूर्ण रूप से शिथिलबन्ध हो गया और बिखराव आरम्भ हुआ |
    
१७. युवक युवतियों को अच्छे मातापिता बनना सिखाया नहीं, शिक्षकों को ज्ञाननिष्ठा और विद्यार्थीनिष्ठ बनाया नहीं, डॉक्टरों को रुग्णों के प्रति जिम्मेदार बनाया नहीं, निष्पक्षपाती बनने हेतु न्याय की देवी को हमने अन्धी बनाया । उद्देश्य यह था कि वह दोनों पक्षों में अपना पराया न देखे, परन्तु वास्तव में वह विवेक के चक्षु न होने से अन्धी हो गई । यह भारत की न्यायसंकल्पना नहीं है । सत्यशोधन, निरपराध की मुक्ति और अपराधी को दण्ड केवल निर्जीव कानून की धाराओं से नहीं होता । वे तो केवल साधन है। इन साधनों का चाहे जैसा उपयोग करनेवाले वकील पक्षपाती हैं । वे सत्य का पक्ष नहीं लेते, अपने पक्ष को सही सत्य सिद्ध करने हेतु कानून की धाराओं का युक्तिपूर्वक उपयोग करते हैं। परन्तु न्यायदान के लिये विवेक चाहिये, बुद्धि भी चाहिये । कानून और वकील के अधीन नहीं अपितु उनसे अधिक सक्षम होना होता है । जडवादी पश्चिम और उससे प्रभावित हम इसे कैसे समझ सकते हैं ? इसलिये न्याय के लिये न्यायालयों की ख्याति ही नहीं रह गई है । परिणाम पश्चिमीकरण का और हम अपने ही न्यायतन्त्र को कोसते हुए कहते हैं कि अन्य देशों में न्याय मिलने में विलम्ब नहीं होता जबकि भारत में न्याय मिलता ही नहीं है, न्यायक्षेत्र में भी भ्रष्टाचार है ।
 
१७. युवक युवतियों को अच्छे मातापिता बनना सिखाया नहीं, शिक्षकों को ज्ञाननिष्ठा और विद्यार्थीनिष्ठ बनाया नहीं, डॉक्टरों को रुग्णों के प्रति जिम्मेदार बनाया नहीं, निष्पक्षपाती बनने हेतु न्याय की देवी को हमने अन्धी बनाया । उद्देश्य यह था कि वह दोनों पक्षों में अपना पराया न देखे, परन्तु वास्तव में वह विवेक के चक्षु न होने से अन्धी हो गई । यह भारत की न्यायसंकल्पना नहीं है । सत्यशोधन, निरपराध की मुक्ति और अपराधी को दण्ड केवल निर्जीव कानून की धाराओं से नहीं होता । वे तो केवल साधन है। इन साधनों का चाहे जैसा उपयोग करनेवाले वकील पक्षपाती हैं । वे सत्य का पक्ष नहीं लेते, अपने पक्ष को सही सत्य सिद्ध करने हेतु कानून की धाराओं का युक्तिपूर्वक उपयोग करते हैं। परन्तु न्यायदान के लिये विवेक चाहिये, बुद्धि भी चाहिये । कानून और वकील के अधीन नहीं अपितु उनसे अधिक सक्षम होना होता है । जडवादी पश्चिम और उससे प्रभावित हम इसे कैसे समझ सकते हैं ? इसलिये न्याय के लिये न्यायालयों की ख्याति ही नहीं रह गई है । परिणाम पश्चिमीकरण का और हम अपने ही न्यायतन्त्र को कोसते हुए कहते हैं कि अन्य देशों में न्याय मिलने में विलम्ब नहीं होता जबकि भारत में न्याय मिलता ही नहीं है, न्यायक्षेत्र में भी भ्रष्टाचार है ।
    
[[Category:धार्मिक शिक्षा ग्रंथमाला 4: पश्चिमीकरण से धार्मिक शिक्षा की मुक्ति]]
 
[[Category:धार्मिक शिक्षा ग्रंथमाला 4: पश्चिमीकरण से धार्मिक शिक्षा की मुक्ति]]

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