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| अभारतीय प्रतिमान को हम '''यूरो-अमरिकी प्रतिमान''' भी कह सकते हैं । इस प्रतिमान ने विश्व के अन्य सभी समाजों को गहराई से प्रभावित किया है। भारतीय समाज छोड कर अन्य सभी समाजों ने इसे सर्वार्थ से या तो अपना लिया है या तेजी से अपना रहे हैं। इस यूरो-अमरिकी प्रतिमान को मानने वाले दो तबके हैं। | | अभारतीय प्रतिमान को हम '''यूरो-अमरिकी प्रतिमान''' भी कह सकते हैं । इस प्रतिमान ने विश्व के अन्य सभी समाजों को गहराई से प्रभावित किया है। भारतीय समाज छोड कर अन्य सभी समाजों ने इसे सर्वार्थ से या तो अपना लिया है या तेजी से अपना रहे हैं। इस यूरो-अमरिकी प्रतिमान को मानने वाले दो तबके हैं। |
| * एक तबका यूरो अमरिकी फिलॉसॉफरों का है। इस तत्वज्ञान के अनुसार किसी सर्वशक्तिमान ने पाँच दिन में इस सृष्टि का निर्माण किया और छठे दिन मानव का निर्माण कर मानव से कहा कि 'यह चर-अचर सृष्टि तुम्हारे उपभोग के लिये है'। यूरो अमरिकी समाज पर फ्रांसिस बेकन और रेने देकार्ते इन दो फिलॉसॉफरों की फिलोसोफी का गहरा प्रभाव है। इन का तत्वज्ञान कहता है कि प्रकृति मानव की दासी है। इसे कस कर अपनी जकड में रखना चाहिये। मानव जम कर इस का शोषण कर सके इसी लिये इस का निर्माण हुआ है। इस लिये प्रकृति का मानव को जम कर (टू द हिल्ट) शोषण करना चाहिये। | | * एक तबका यूरो अमरिकी फिलॉसॉफरों का है। इस तत्वज्ञान के अनुसार किसी सर्वशक्तिमान ने पाँच दिन में इस सृष्टि का निर्माण किया और छठे दिन मानव का निर्माण कर मानव से कहा कि 'यह चर-अचर सृष्टि तुम्हारे उपभोग के लिये है'। यूरो अमरिकी समाज पर फ्रांसिस बेकन और रेने देकार्ते इन दो फिलॉसॉफरों की फिलोसोफी का गहरा प्रभाव है। इन का तत्वज्ञान कहता है कि प्रकृति मानव की दासी है। इसे कस कर अपनी जकड में रखना चाहिये। मानव जम कर इस का शोषण कर सके इसी लिये इस का निर्माण हुआ है। इस लिये प्रकृति का मानव को जम कर (टू द हिल्ट) शोषण करना चाहिये। |
− | * दूसरा तबका है यूरो-अमरिकी साईंटिस्टों का। यूरो-अमरिकी साईंटिस्टों और उन का अनुसरण करने वाले भारत समेत विश्व के सभी साईंटिस्टों की विश्वदृष्टि का आधार '''डार्विन की 'विकास वाद' और मिलर की 'जड से रासायनिक प्रक्रिया से जीव निर्माण'''' की परिकल्पनाएं ही हैं। मानव इन रासायनिक प्रक्रियाओं के पुलिंदों में सर्वश्रेष्ठ है। इस लिये इसे अपने स्वार्थ के लिये अन्य रासायनिक प्रक्रियाएं नष्ट करने का पूरा अधिकार है। | + | * दूसरा तबका है यूरो-अमरिकी साईंटिस्टों का। यूरो-अमरिकी साईंटिस्टों और उन का अनुसरण करने वाले भारत समेत विश्व के सभी साईंटिस्टों की विश्वदृष्टि का आधार '''डार्विन की 'विकास वाद' और मिलर की 'जड़ से रासायनिक प्रक्रिया से जीव निर्माण'''' की परिकल्पनाएं ही हैं। मानव इन रासायनिक प्रक्रियाओं के पुलिंदों में सर्वश्रेष्ठ है। इस लिये इसे अपने स्वार्थ के लिये अन्य रासायनिक प्रक्रियाएं नष्ट करने का पूरा अधिकार है। |
− | यद्दपि आधुनिक साईंस ईसाईयत के कई गंभीर सिद्धांतों के विरोध में है, लेकिन फिर भी मोटा-मोटी दोनों तबकों का तत्वज्ञान एक ही है। इस लिये जीवन का प्रतिमान भी एक ही है। मजहब या रिलीजन, फिलॉसॉफरों की फिलोसोफी और साईंटिस्टों, तीनों के प्रभाव के कारण जो अभारतीय जीवन दृष्टि बनीं है उस के तीन मुख्य पहलू हैं: | + | यद्दपि आधुनिक साईंस ईसाईयत के कई गंभीर सिद्धांतों के विरोध में है, लेकिन तथापि मोटा-मोटी दोनों तबकों का तत्वज्ञान एक ही है। इस लिये जीवन का प्रतिमान भी एक ही है। मजहब या रिलीजन, फिलॉसॉफरों की फिलोसोफी और साईंटिस्टों, तीनों के प्रभाव के कारण जो अभारतीय जीवन दृष्टि बनीं है उस के तीन मुख्य पहलू हैं: |
| #व्यक्तिवादिता : सारी सृष्टि केवल मेरे उपभोग के लिये बनीं है। | | #व्यक्तिवादिता : सारी सृष्टि केवल मेरे उपभोग के लिये बनीं है। |
− | # जडवादिता : सृष्टि में सब जड ही है। चेतनावान कुछ भी नहीं है। | + | # जड़वादिता : सृष्टि में सब जड़ ही है। चेतनावान कुछ भी नहीं है। |
| # इहवादिता : जो कुछ है यही जन्म है। इस से नहीं तो पहले कुछ था और ना ही आगे कुछ है। | | # इहवादिता : जो कुछ है यही जन्म है। इस से नहीं तो पहले कुछ था और ना ही आगे कुछ है। |
| इस जीवनदृष्टि के अनुसार जो व्यवहार सूत्र बने वे निम्न हैं: | | इस जीवनदृष्टि के अनुसार जो व्यवहार सूत्र बने वे निम्न हैं: |
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| # वस्तुनिष्ठता : जो प्रत्येक सामान्य मनुष्य द्वारा समान रूप से जाना जा सकता है वही वस्तुनिष्ठ है। एक साडी की लम्बाई और चौडाई तो सभी महिलाओं के लिये एक जितनी ही होगी। किन्तु उसका स्पर्श का अनुभव हर स्त्री का भिन्न होगा। एक किलो लड्डू का वजन कोई भी करे वह एक किलो ही होगा। किन्तु उस लड्डू का स्वाद हर मनुष्य के लिये भिन्न हो सकता है। इस लिये जिसका मापन किया जा सकता है वह साईंस के दायरे में आता है। लेकिन स्पर्श, स्वाद आदि जो हर व्यक्ति के अनुसार भिन्न भिन्न होंगे वे साईंस के विषय नहीं बन सकते। | | # वस्तुनिष्ठता : जो प्रत्येक सामान्य मनुष्य द्वारा समान रूप से जाना जा सकता है वही वस्तुनिष्ठ है। एक साडी की लम्बाई और चौडाई तो सभी महिलाओं के लिये एक जितनी ही होगी। किन्तु उसका स्पर्श का अनुभव हर स्त्री का भिन्न होगा। एक किलो लड्डू का वजन कोई भी करे वह एक किलो ही होगा। किन्तु उस लड्डू का स्वाद हर मनुष्य के लिये भिन्न हो सकता है। इस लिये जिसका मापन किया जा सकता है वह साईंस के दायरे में आता है। लेकिन स्पर्श, स्वाद आदि जो हर व्यक्ति के अनुसार भिन्न भिन्न होंगे वे साईंस के विषय नहीं बन सकते। |
| # विखंडित विश्लेषण पद्दति : साईंटिफिक टेम्परामेंट की विचारधारा को देकार्ते की यह सब से बडी देन है। उस ने पेंचिदा बातों को समझने के लिये सामान्य मनुष्य के लिये विखंडित विश्लेषण पद्दति के रूप में एक प्रणाली बताई। इस पद्दति के अनुसार पूर्ण वस्तू का ज्ञान उसके छोटे छोटे टुकडों के प्राप्त किये ज्ञान का जोड होगा। | | # विखंडित विश्लेषण पद्दति : साईंटिफिक टेम्परामेंट की विचारधारा को देकार्ते की यह सब से बडी देन है। उस ने पेंचिदा बातों को समझने के लिये सामान्य मनुष्य के लिये विखंडित विश्लेषण पद्दति के रूप में एक प्रणाली बताई। इस पद्दति के अनुसार पूर्ण वस्तू का ज्ञान उसके छोटे छोटे टुकडों के प्राप्त किये ज्ञान का जोड होगा। |
− | # जडवाद : जड का अर्थ है अजीव। पूरी सृष्टि अजीव पदार्थों की बनीं है। साईंस के अनुसार सारी सृष्टि में चेतन कुछ भी नहीं है। स्वयंप्रेरणा, स्वत: कुछ करने की शक्ति सृष्टि में कहीं नहीं है। साईंस भावना, प्रेम, सहानुभूति आदि नहीं मानता। मिलर की परिकल्पना के अनुसार जिन्हे हम जीव समझते है वे वास्तव में रासायनिक प्रक्रियाओं के पुलिंदे होते है। | + | # जड़वाद : जड़ का अर्थ है अजीव। पूरी सृष्टि अजीव पदार्थों की बनीं है। साईंस के अनुसार सारी सृष्टि में चेतन कुछ भी नहीं है। स्वयंप्रेरणा, स्वत: कुछ करने की शक्ति सृष्टि में कहीं नहीं है। साईंस भावना, प्रेम, सहानुभूति आदि नहीं मानता। मिलर की परिकल्पना के अनुसार जिन्हे हम जीव समझते है वे वास्तव में रासायनिक प्रक्रियाओं के पुलिंदे होते है। |
− | # यांत्रिक दृष्टिकोण : टुकडों के ज्ञान को जोडकर संपूर्ण को जानना तब ही संभव होगा जब उस पूर्ण की बनावट यांत्रिक होगी। यंत्र में एक एक पुर्जा कृत्रिम रूप से एक दूसरे के साथ जोडा जाता है। उसे अलग अलग कर उसके कार्य को समझना सरल होता है। ऐसे प्रत्येक पुर्जे का कार्य समझ कर पूरे यंत्र के कार्य को समझा जा सकता है। व्होल इस सैम ऑफ़ इट्स पार्ट्स (Whole is sum of its parts) | + | # यांत्रिक दृष्टिकोण : टुकडों के ज्ञान को जोडकर संपूर्ण को जानना तब ही संभव होगा जब उस पूर्ण की बनावट यांत्रिक होगी। यंत्र में एक एक पुर्जा कृत्रिम रूप से एक दूसरे के साथ जोड़ा जाता है। उसे अलग अलग कर उसके कार्य को समझना सरल होता है। ऐसे प्रत्येक पुर्जे का कार्य समझ कर पूरे यंत्र के कार्य को समझा जा सकता है। व्होल इस सैम ऑफ़ इट्स पार्ट्स (Whole is sum of its parts) |
| == वर्तमान तन्त्रज्ञान दृष्टि की सीमाएं - आरंभिक चिंतन == | | == वर्तमान तन्त्रज्ञान दृष्टि की सीमाएं - आरंभिक चिंतन == |
| हम भारतीय दृष्टि का अध्ययन करने के उपरान्त, वर्तमान तंत्रज्ञान दृष्टि एवं भारतीय दृष्टिकोण के मध्य में गहराई से विश्लेषण करेंगे । यहाँ हम केवल कुछ बिन्दुओं पर विचार रख रहे हैं। | | हम भारतीय दृष्टि का अध्ययन करने के उपरान्त, वर्तमान तंत्रज्ञान दृष्टि एवं भारतीय दृष्टिकोण के मध्य में गहराई से विश्लेषण करेंगे । यहाँ हम केवल कुछ बिन्दुओं पर विचार रख रहे हैं। |
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− | पश्चिमी विचार में जड को समझने की, यंत्रों को समझने की सटीकता तो है। किन्तु चेतन को नकारने के कारण चेतन के क्षेत्र में इस का उपयोग मर्यादित (लिमिटेड) रह जाता है। परिवर्तन तो जड में ही होता है। लेकिन वह चेतन की उपस्थिति के बिना नहीं हो सकता। इस लिये चेतन का जितना भौतिक हिस्सा है उस हिस्से के लिये साईंस को प्रमाण मानना उचित ही है। इस भौतिक हिस्से के मापन की भी मर्यादा है। जड भौतिक शरीर के साथ जब मन की या आत्म शक्ति जुड जाति है तब वह केवल जड की भौतिक शक्ति नहीं रह जाती। और प्रत्येक जीव यह जड और चेतन का योग ही होता है। इस लिये चेतन के मन, बुद्धि, अहंकार आदि विषयों में फिझिकल साईंस की कसौटीयों को प्रमाण नहीं माना जा सकता। अनिश्चितता का प्रमेय (थियरी ऑफ अनसर्टेंटी), क्वॉटम मेकॅनिक्स, अंतराल भौतिकी (एस्ट्रो फिजीक्स), कण भौतिकी (पार्टिकल फिजीक्स) आदि साईंस की आधुनिक शाखाओं ने देकार्ते के प्रतिमान की मर्यादाएं स्पष्ट कर दीं है। | + | पश्चिमी विचार में जड़ को समझने की, यंत्रों को समझने की सटीकता तो है। किन्तु चेतन को नकारने के कारण चेतन के क्षेत्र में इस का उपयोग मर्यादित (लिमिटेड) रह जाता है। परिवर्तन तो जड़ में ही होता है। लेकिन वह चेतन की उपस्थिति के बिना नहीं हो सकता। इस लिये चेतन का जितना भौतिक हिस्सा है उस हिस्से के लिये साईंस को प्रमाण मानना उचित ही है। इस भौतिक हिस्से के मापन की भी मर्यादा है। जड़ भौतिक शरीर के साथ जब मन की या आत्म शक्ति जुड जाति है तब वह केवल जड़ की भौतिक शक्ति नहीं रह जाती। और प्रत्येक जीव यह जड़ और चेतन का योग ही होता है। इस लिये चेतन के मन, बुद्धि, अहंकार आदि विषयों में फिझिकल साईंस की कसौटीयों को प्रमाण नहीं माना जा सकता। अनिश्चितता का प्रमेय (थियरी ऑफ अनसर्टेंटी), क्वॉटम मेकॅनिक्स, अंतराल भौतिकी (एस्ट्रो फिजीक्स), कण भौतिकी (पार्टिकल फिजीक्स) आदि साईंस की आधुनिक शाखाओं ने देकार्ते के प्रतिमान की मर्यादाएं स्पष्ट कर दीं है। |
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| एक और बात यह है, कि किसी भी क्षेत्र में हम मात्र पश्चिम की नाकन करके आगे नहीं बढ़ सकते। हर व्यक्ति एक स्वतंत्र शरीर, प्राण मन, बुद्धि और चित्त का स्वामी रहता है। मेरे लिये जो अच्छा है वही मुझे करना चाहिये। अन्यों की नकल कर मै बडा नही बन सकता। गुरूदेव रवींद्रनाथ ठाकूर कहते थे {{Citation needed}}'हर देश को परमात्मा ने भिन्न प्रश्नपत्रिका दी हुई है। अन्य देशों की नकल कर हम अपने प्रश्नों के उत्तर नहीं पा सकते। अपने प्रश्नों के उत्तर हमें ही खोजने होंगे। जैसे हर देश दूसरे देश से भिन्न होता है उसी तरह हर व्यक्ति भी दूसरे व्यक्ति से भिन्न होता है। प्रत्येक व्यक्ति की प्रकृति भिन्न होती है। यह स्वाभाविक भी है। आयुर्वेद में कहा है जहां का रोग वहीं की औषधि। औषधि को अन्य किसी परिसर में ढ़ूंढने की आवश्यकता नहीं है। | | एक और बात यह है, कि किसी भी क्षेत्र में हम मात्र पश्चिम की नाकन करके आगे नहीं बढ़ सकते। हर व्यक्ति एक स्वतंत्र शरीर, प्राण मन, बुद्धि और चित्त का स्वामी रहता है। मेरे लिये जो अच्छा है वही मुझे करना चाहिये। अन्यों की नकल कर मै बडा नही बन सकता। गुरूदेव रवींद्रनाथ ठाकूर कहते थे {{Citation needed}}'हर देश को परमात्मा ने भिन्न प्रश्नपत्रिका दी हुई है। अन्य देशों की नकल कर हम अपने प्रश्नों के उत्तर नहीं पा सकते। अपने प्रश्नों के उत्तर हमें ही खोजने होंगे। जैसे हर देश दूसरे देश से भिन्न होता है उसी तरह हर व्यक्ति भी दूसरे व्यक्ति से भिन्न होता है। प्रत्येक व्यक्ति की प्रकृति भिन्न होती है। यह स्वाभाविक भी है। आयुर्वेद में कहा है जहां का रोग वहीं की औषधि। औषधि को अन्य किसी परिसर में ढ़ूंढने की आवश्यकता नहीं है। |
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| यहाँ भद्र का अर्थ भी ठीक से समझना होगा। भद्र का अर्थ केवल हमारे हित का है ऐसा नहीं वरन सब के हित का जो है वही भद्र ज्ञान है। और यह सब का हित भी केवल वर्तमान से संबंधित या अल्पावधि के लिये नहीं होकर चिरकाल तक सब के हित का होना आवश्यक है। ऐसे ज्ञान को ही भद्र या शुभ ज्ञान कहा जा सकता है। ऐसा भी हो सकता है की बाहर से आनेवाला ज्ञान सब के हित का ना हो या सब के हित का होनेपर भी चिरंतन हित का ना हो। ऐसी स्थिति में ऐसे ज्ञान को सुधारकर जब तक हम उसे चिरकाल तक सब के हित का नही बना देते उस ज्ञान का उपयोग वर्जित रखें। वह ज्ञान भले ही हमारे हित का हो लेकिन कम से कम उस ज्ञानसे अन्यों का अहित नही होगा यह सुनिश्चित करनेपर ही वह ज्ञान भद्र कहा जा सकेगा। | | यहाँ भद्र का अर्थ भी ठीक से समझना होगा। भद्र का अर्थ केवल हमारे हित का है ऐसा नहीं वरन सब के हित का जो है वही भद्र ज्ञान है। और यह सब का हित भी केवल वर्तमान से संबंधित या अल्पावधि के लिये नहीं होकर चिरकाल तक सब के हित का होना आवश्यक है। ऐसे ज्ञान को ही भद्र या शुभ ज्ञान कहा जा सकता है। ऐसा भी हो सकता है की बाहर से आनेवाला ज्ञान सब के हित का ना हो या सब के हित का होनेपर भी चिरंतन हित का ना हो। ऐसी स्थिति में ऐसे ज्ञान को सुधारकर जब तक हम उसे चिरकाल तक सब के हित का नही बना देते उस ज्ञान का उपयोग वर्जित रखें। वह ज्ञान भले ही हमारे हित का हो लेकिन कम से कम उस ज्ञानसे अन्यों का अहित नही होगा यह सुनिश्चित करनेपर ही वह ज्ञान भद्र कहा जा सकेगा। |
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− | भद्र ज्ञान के विषय में एक और पहलू भी विचार करने योग्य है। कोई तंत्रज्ञान कुछ मात्रा में तो लाभदायी है और कुछ मात्रा में हानि करनेवाला है। ऐसे तंत्रज्ञान को वह जब तक सब के हित में काम करनेवाला है उस सीमा तक ही उपयोग में लाना होगा। उस से आगे उस का उपयोग वर्जित करना होगा। उदाहरण: संगणक को लें। एक सीमा तक तो संगणक बहुत ही लाभदायक तंत्रज्ञान है। किंतु वह जब मानव के अहित के लिये उपयोग में लाया जाएगा तब उस का उपयोग वर्जित होगा। जिस व्यक्ति या संस्था के पास यह शुभ ज्ञान का विवेक नहीं है ऐसे लोगों को संगणक के ज्ञान से वंचित रखने में ही सब की भलाई होगी। | + | भद्र ज्ञान के विषय में एक और पहलू भी विचार करने योग्य है। कोई तंत्रज्ञान कुछ मात्रा में तो लाभदायी है और कुछ मात्रा में हानि करनेवाला है। ऐसे तंत्रज्ञान को वह जब तक सब के हित में काम करनेवाला है उस सीमा तक ही उपयोग में लाना होगा। उस से आगे उस का उपयोग वर्जित करना होगा। उदाहरण: संगणक को लें। एक सीमा तक तो संगणक बहुत ही लाभदायक तंत्रज्ञान है। किंतु वह जब मानव के अहित के लिये उपयोग में लाया जाएगा तब उस का उपयोग वर्जित होगा। जिस व्यक्ति या संस्था के पास यह शुभ ज्ञान का विवेक नहीं है ऐसे लोगोंं को संगणक के ज्ञान से वंचित रखने में ही सब की भलाई होगी। |
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| === आत्मनो मोक्षार्थं जगद् हिताय च<ref>Swami Vivekananda Volume 6 page 473.</ref> === | | === आत्मनो मोक्षार्थं जगद् हिताय च<ref>Swami Vivekananda Volume 6 page 473.</ref> === |
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| सत्य एक ही है। किन्तु हर व्यक्ति को मिले ज्ञानेंद्रियों की, मन, बुद्धि और चित्त की क्षमताएं भिन्न है। इन साधनों के आधार पर ही कोई मनुष्य सत्य जानने का प्रयास करता है। ये सब बातें हरेक व्यक्ति की भिन्न होने के कारण उस के सत्य का आकलन भिन्न होना स्वाभाविक है | | सत्य एक ही है। किन्तु हर व्यक्ति को मिले ज्ञानेंद्रियों की, मन, बुद्धि और चित्त की क्षमताएं भिन्न है। इन साधनों के आधार पर ही कोई मनुष्य सत्य जानने का प्रयास करता है। ये सब बातें हरेक व्यक्ति की भिन्न होने के कारण उस के सत्य का आकलन भिन्न होना स्वाभाविक है |
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− | भारतीय विचार कहता है, मैं जो कह रहा हूं केवल वही सत्य है ऐसा समझना ठीक नही है। अन्य लोगों को जो अनुभव हो रहा है वह भी सत्य ही है। भारत मे कभी भी अपने से अलग मत का प्रतिपादन करनेवालों के साथ हिंसा नहीं हुई। किसी वैज्ञानिक को प्रताडित नही किया गया किसी को जीना दुस्सह नहीं किया गया। प्रचलित सर्वमान्य विचारों के विपरीत विचार रखनेवाले चार्वाक को भी महर्षि चार्वाक कहा गया। | + | भारतीय विचार कहता है, मैं जो कह रहा हूं केवल वही सत्य है ऐसा समझना ठीक नही है। अन्य लोगोंं को जो अनुभव हो रहा है वह भी सत्य ही है। भारत मे कभी भी अपने से अलग मत का प्रतिपादन करनेवालों के साथ हिंसा नहीं हुई। किसी वैज्ञानिक को प्रताडित नही किया गया किसी को जीना दुस्सह नहीं किया गया। प्रचलित सर्वमान्य विचारों के विपरीत विचार रखनेवाले चार्वाक को भी महर्षि चार्वाक कहा गया। |
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| भारतीय विचार में अपनी बुद्धि का उपयोग करने को कहा है। आद्य जगद्गुरू शंकराचार्य कहते हैं{{Citation needed}} कि वेद उपनिषद भी चिल्ला चिल्लाकर कहें की अंगारे से हाथ नही जलेंगे तो भी मै नही मानूंगा, क्योंकि मेरा प्रत्यक्ष अनुभव भिन्न है। | | भारतीय विचार में अपनी बुद्धि का उपयोग करने को कहा है। आद्य जगद्गुरू शंकराचार्य कहते हैं{{Citation needed}} कि वेद उपनिषद भी चिल्ला चिल्लाकर कहें की अंगारे से हाथ नही जलेंगे तो भी मै नही मानूंगा, क्योंकि मेरा प्रत्यक्ष अनुभव भिन्न है। |
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− | पूरा उपदेश देने के बाद श्रीमद्भगवद्गीता में १८ वें अध्याय के ६३ वें श्लोक में श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते है<ref>श्रीमद्भगवद्गीता 18.63 </ref> <blockquote>‘यथेच्छि्स तत: कुरू’। 18.63। </blockquote><blockquote>अर्थात् अब जो तुम्हें ठीक लगे वही करो।</blockquote>स्वामी विवेकानंदजी के शिकागो सर्वधर्मपरिषद में हुए संक्षिप्त और फिर भी विश्वविजयी भाषण में यही कहा गया है। उन्होंने बचपन से जो श्लोक वह कहते आये थे वही उद्धृत किया था। वह था<ref>शिवमहिम्न: स्तोत्र</ref>: <blockquote>रुचीनां वैचित्र्याद् ऋजुकुटिलनाबापथजुषां। </blockquote><blockquote>नृणामेको गम्य: त्वमसि पयसामर्णव इव।।</blockquote>भावार्थ : समाज में प्रत्येक व्यक्ति को परमात्मा ने बुद्धि का वरदान दिया हुआ है। प्रत्येक की बुद्धि भिन्न होती ही है। किसी की बुद्धि में ॠजुता होगी किसी की बुद्धि में कुटिलता होगी। ऐसी विविधता से सत्य की ओर देखने से हर व्यक्ति की सत्य की समझ अलग अलग होगी। हर व्यक्ति का सत्य की ओर आगे बढने का मार्ग भी भिन्न होगा। कोई सीधे मार्ग से तो कोई टेढेमेढे मार्ग से लेकिन सत्य की ओर ही बढ रहा है। | + | पूरा उपदेश देने के बाद श्रीमद्भगवद्गीता में १८ वें अध्याय के ६३ वें श्लोक में श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते है<ref>श्रीमद्भगवद्गीता 18.63 </ref> <blockquote>‘यथेच्छि्स तत: कुरू’। 18.63। </blockquote><blockquote>अर्थात् अब जो तुम्हें ठीक लगे वही करो।</blockquote>स्वामी विवेकानंदजी के शिकागो सर्वधर्मपरिषद में हुए संक्षिप्त और तथापि विश्वविजयी भाषण में यही कहा गया है। उन्होंने बचपन से जो श्लोक वह कहते आये थे वही उद्धृत किया था। वह था<ref>शिवमहिम्न: स्तोत्र</ref>: <blockquote>रुचीनां वैचित्र्याद् ऋजुकुटिलनाबापथजुषां। </blockquote><blockquote>नृणामेको गम्य: त्वमसि पयसामर्णव इव।।</blockquote>भावार्थ : समाज में प्रत्येक व्यक्ति को परमात्मा ने बुद्धि का वरदान दिया हुआ है। प्रत्येक की बुद्धि भिन्न होती ही है। किसी की बुद्धि में ॠजुता होगी किसी की बुद्धि में कुटिलता होगी। ऐसी विविधता से सत्य की ओर देखने से हर व्यक्ति की सत्य की समझ अलग अलग होगी। हर व्यक्ति का सत्य की ओर आगे बढने का मार्ग भी भिन्न होगा। कोई सीधे मार्ग से तो कोई टेढेमेढे मार्ग से लेकिन सत्य की ओर ही बढ रहा है। |
| ऐसी हमारी केवल मान्यता नही है वरन् ऐसी हमारी श्रद्धा है {{Citation needed}}। <blockquote>आकाशात् पतितंतोयं यथा गच्छति सागरं।</blockquote><blockquote>सर्वदेव नमस्कारं केशवं प्रतिगच्छति।</blockquote>जिस प्रकार बारिश का पानी धरती पर गिरता है। लेकिन भिन्न भिन्न मार्गों से वह समुद्र की ओर ही जाता है उसी प्रकार से शुद्ध भावना से आप किसी भी दैवी शक्ति को नमस्कार करें वह परमात्मा को प्राप्त होगा। | | ऐसी हमारी केवल मान्यता नही है वरन् ऐसी हमारी श्रद्धा है {{Citation needed}}। <blockquote>आकाशात् पतितंतोयं यथा गच्छति सागरं।</blockquote><blockquote>सर्वदेव नमस्कारं केशवं प्रतिगच्छति।</blockquote>जिस प्रकार बारिश का पानी धरती पर गिरता है। लेकिन भिन्न भिन्न मार्गों से वह समुद्र की ओर ही जाता है उसी प्रकार से शुद्ध भावना से आप किसी भी दैवी शक्ति को नमस्कार करें वह परमात्मा को प्राप्त होगा। |
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− | “विविधता या अनेकता में एकता” यह भारत की विशेषता है। इसका अर्थ यह है कि ऊपर से कितनी भी विविधता दिखाई दे सभी अस्तित्वों का मूल परमात्मा है इस एकमात्र सत्य को जानना। इसलिए भाषा, प्रांत, वेष, जाति, वर्ण आदि कितने भी भेद हममें हैं। भेद होना यह प्राकृतिक ही है। इसी तरह से सभी अस्तित्वों में परमात्मा (का अंश याने जीवात्मा) होने से सभी अस्तित्वों में एकात्मता की अनुभूति होने का ही अर्थ “विविधता या अनेकता में एकता” है। यही भारतीय संस्कृति का आधारभूत सिद्धांत है। | + | “विविधता या अनेकता में एकता” यह भारत की विशेषता है। इसका अर्थ यह है कि ऊपर से कितनी भी विविधता दिखाई दे सभी अस्तित्वों का मूल परमात्मा है इस एकमात्र सत्य को जानना। अतः भाषा, प्रांत, वेष, जाति, वर्ण आदि कितने भी भेद हममें हैं। भेद होना यह प्राकृतिक ही है। इसी तरह से सभी अस्तित्वों में परमात्मा (का अंश याने जीवात्मा) होने से सभी अस्तित्वों में एकात्मता की अनुभूति होने का ही अर्थ “विविधता या अनेकता में एकता” है। यही भारतीय संस्कृति का आधारभूत सिद्धांत है। |
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| === पंच ॠण === | | === पंच ॠण === |
− | ॠण कल्पना भी मानव मात्र को सन्मार्गपर रखने के लिये हमारे पूर्वजोंद्वारा प्रस्तुत किया गया एक जीवनदर्शन है। ॠण का अर्थ है कर्जा। किसी द्वारा मेरे ऊपर किये उपकार का बोझ। पशु, पक्षी, प्राणी, कीटक आदि जीवों की स्मृति, संवेदनशीलता, बुद्धि का विकास अत्यंत अल्प होता है। इस कारण से इन में ना ही किसी पर उपकार करने की भावना रहती है और ना ही किसी के उपकार से उॠण होने की। इसलिये पशु, पक्षी, प्राणी, कीटक इन सभी के लिये कृतज्ञता या उपकार से उॠण होना आदि बातें लागू नहीं है। मानव की यह सभी क्षमताएं अति विकसित होती है। इसलिये मानव के लिये उपकारों से उॠण होना आवश्यक माना गया है। मनुष्य जन्म लेता है एक अर्भक के रूप में। अर्भकावस्था में वह पूर्णत: परावलंबी होता है। अन्यों की मदद के बिना वह जी भी नहीं सकता। उस के माता-पिता, पंचमहाभूतों से बने हवा-पानी, बिस्तर आदि, पडोसी, वप्रद्य, औषधि बनानेवाले उत्पादक, दुकानदार, विक्रेता, आदि अनंत प्रकार के लोगों के प्रत्यक्षा या अप्रत्यक्ष सहयोग के अभाव में भी बच्चे का जीना संभव नहीं है। जन्म से पूर्व भी माता-पिता के माता-पिता और उन के माता-पिता ऐसे पितरों के कारण ही उसे मानव जन्म का सौभाग्य मिला है। गर्भसंभव से लेकर बच्चा माता की कोख में लेटे हुए लोगों से कई बातें सीखता है। जन्म के बाद भी सीखता ही रहता है। माता-पिता के माध्यम से कई तरह क मार्गदर्शन गर्भकाल में और जन्म के उपरांत भी लेता रहता है इस कारण कई घटकों के किये उपकारों के कारण ही वह मानव बन पाता है। हर मनुष्य जन्म में उपकार बढते जाते है। उपकारों का बोझ बढता जाता है। बोझ कम ना करने की स्थिति में मनुष्य हीन योनि या मनुष्य योनि में हीन स्तर को प्राप्त होता है। इन उपकारों को धार्मिक (भारतीय) मनीषियों ने पांच प्रमुख हिस्सों में बाँटा है। वे निम्न हैं: | + | ॠण कल्पना भी मानव मात्र को सन्मार्गपर रखने के लिये हमारे पूर्वजोंद्वारा प्रस्तुत किया गया एक जीवनदर्शन है। ॠण का अर्थ है कर्जा। किसी द्वारा मेरे ऊपर किये उपकार का बोझ। पशु, पक्षी, प्राणी, कीटक आदि जीवों की स्मृति, संवेदनशीलता, बुद्धि का विकास अत्यंत अल्प होता है। इस कारण से इन में ना ही किसी पर उपकार करने की भावना रहती है और ना ही किसी के उपकार से उॠण होने की। इसलिये पशु, पक्षी, प्राणी, कीटक इन सभी के लिये कृतज्ञता या उपकार से उॠण होना आदि बातें लागू नहीं है। मानव की यह सभी क्षमताएं अति विकसित होती है। इसलिये मानव के लिये उपकारों से उॠण होना आवश्यक माना गया है। मनुष्य जन्म लेता है एक अर्भक के रूप में। अर्भकावस्था में वह पूर्णत: परावलंबी होता है। अन्यों की सहायता के बिना वह जी भी नहीं सकता। उस के माता-पिता, पंचमहाभूतों से बने हवा-पानी, बिस्तर आदि, पडोसी, वप्रद्य, औषधि बनानेवाले उत्पादक, दुकानदार, विक्रेता, आदि अनंत प्रकार के लोगोंं के प्रत्यक्षा या अप्रत्यक्ष सहयोग के अभाव में भी बच्चे का जीना संभव नहीं है। जन्म से पूर्व भी माता-पिता के माता-पिता और उन के माता-पिता ऐसे पितरों के कारण ही उसे मानव जन्म का सौभाग्य मिला है। गर्भसंभव से लेकर बच्चा माता की कोख में लेटे हुए लोगोंं से कई बातें सीखता है। जन्म के बाद भी सीखता ही रहता है। माता-पिता के माध्यम से कई तरह क मार्गदर्शन गर्भकाल में और जन्म के उपरांत भी लेता रहता है इस कारण कई घटकों के किये उपकारों के कारण ही वह मानव बन पाता है। हर मनुष्य जन्म में उपकार बढते जाते है। उपकारों का बोझ बढता जाता है। बोझ कम ना करने की स्थिति में मनुष्य हीन योनि या मनुष्य योनि में हीन स्तर को प्राप्त होता है। इन उपकारों को धार्मिक (भारतीय) मनीषियों ने पांच प्रमुख हिस्सों में बाँटा है। वे निम्न हैं: |
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− | हम जब जन्म लेते है और आगे जीवन जीते है तो कई घटकों से हम मदद पाते है। इन घटकों का वर्गीकरण हमारे पूर्वजों ने पाँच प्रमुख हिस्सों में किया है। '''वे हैं भूतॠण, पितृॠण, ॠषिॠण, समाजॠण या नृॠण और देवॠण'''। | + | हम जब जन्म लेते है और आगे जीवन जीते है तो कई घटकों से हम सहायता पाते है। इन घटकों का वर्गीकरण हमारे पूर्वजों ने पाँच प्रमुख हिस्सों में किया है। '''वे हैं भूतॠण, पितृॠण, ॠषिॠण, समाजॠण या नृॠण और देवॠण'''। |
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| ==== पितृ ॠण ==== | | ==== पितृ ॠण ==== |
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| ==== गुरूॠण / ॠषिॠण ==== | | ==== गुरूॠण / ॠषिॠण ==== |
− | गुरू या ॠषि का अर्थ है जिन जिन लोगों से हम कुछ भी सीखे है या जिन से हमने ज्ञान प्राप्त किया है वे सब। गर्भ में हमारी जीवात्मा प्रवेश करती है तब से लेकर हमारी मृत्यू तक अन्यों से हम कुछ ना कुछ सीखते ही रहते है। इस अर्थ से ये सब, जिनसे हमने कुछ सीखा होगा हमारे गुरू है। इन के हमारे उपर महति उपकार है। गुरूॠण से उॠण होने का अर्थ है औरों से प्राप्त ज्ञान को परिष्कृत कर अपने तप-स्वाधाय से उसे बढ़ाकर, अधिक श्रेष्ठ बनाकर अगली पीढ़ी तक पहुँचाना । | + | गुरू या ॠषि का अर्थ है जिन जिन लोगोंं से हम कुछ भी सीखे है या जिन से हमने ज्ञान प्राप्त किया है वे सब। गर्भ में हमारी जीवात्मा प्रवेश करती है तब से लेकर हमारी मृत्यू तक अन्यों से हम कुछ ना कुछ सीखते ही रहते है। इस अर्थ से ये सब, जिनसे हमने कुछ सीखा होगा हमारे गुरू है। इन के हमारे उपर महति उपकार है। गुरूॠण से उॠण होने का अर्थ है औरों से प्राप्त ज्ञान को परिष्कृत कर अपने तप-स्वाधाय से उसे बढ़ाकर, अधिक श्रेष्ठ बनाकर अगली पीढ़ी तक पहुँचाना । |
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| ==== समाजॠण / नृॠण ==== | | ==== समाजॠण / नृॠण ==== |
− | मनुष्य और पशु में बहुत अंतर होता है। पशु सामान्य तौर पर व्यक्तिगत जीवन ही जीते है। समुदाय में रहनेवाले हाथी जैसे पशु भी सुविधा के लिये समूह में रहते है। किन्तु उन का व्यवहार व्यक्तिगत ही होता है। मानव की बात भिन्न है। मानव बिना समाज के जी नही सकता। इसीलिये मानव को सामाजिक जीव कहा जाता है। मनुष्य की इच्छाएं अमर्याद होतीं है। इन इच्छाओं के अनुरूप मानव की आवश्यकताएं भी अनगिनत होतीं हैं। इन सब आवश्यकताओं की पूर्ति अकेले मानव के बस की बात नही है। उसे समाज की मदद लेनी ही पडती है। इस मदद के कारण मनुष्य समाज का ॠणी बन जाता है। और जब ॠणी बन जाता है तो उॠण होना भी उस की एक आवश्यकता है। | + | मनुष्य और पशु में बहुत अंतर होता है। पशु सामान्य तौर पर व्यक्तिगत जीवन ही जीते है। समुदाय में रहनेवाले हाथी जैसे पशु भी सुविधा के लिये समूह में रहते है। किन्तु उन का व्यवहार व्यक्तिगत ही होता है। मानव की बात भिन्न है। मानव बिना समाज के जी नही सकता। इसीलिये मानव को सामाजिक जीव कहा जाता है। मनुष्य की इच्छाएं अमर्याद होतीं है। इन इच्छाओं के अनुरूप मानव की आवश्यकताएं भी अनगिनत होतीं हैं। इन सब आवश्यकताओं की पूर्ति अकेले मानव के बस की बात नही है। उसे समाज की सहायता लेनी ही पडती है। इस सहायता के कारण मनुष्य समाज का ॠणी बन जाता है। और जब ॠणी बन जाता है तो उॠण होना भी उस की एक आवश्यकता है। |
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| समाज के ॠण से मुक्ति केवल अपना काम ठीक ढंग से करने से नही होती। वह तो करना ही चाहिये। किन्तु साथ में ही समाज के उन्नयन के लिये ज्ञानदान, समयदान और धनदान करना भी आवश्यक बात है। इन के बिना मनुष्य की अधोगति सुनिश्चित ही माननी चाहिये। जनहित के काम करने से, उन में योगदान देने से ही इस ॠण से उॠण हो सकते है। | | समाज के ॠण से मुक्ति केवल अपना काम ठीक ढंग से करने से नही होती। वह तो करना ही चाहिये। किन्तु साथ में ही समाज के उन्नयन के लिये ज्ञानदान, समयदान और धनदान करना भी आवश्यक बात है। इन के बिना मनुष्य की अधोगति सुनिश्चित ही माननी चाहिये। जनहित के काम करने से, उन में योगदान देने से ही इस ॠण से उॠण हो सकते है। |
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| कर्तव्य और अधिकार यह दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू है। सिक्के का एक पक्ष है मेरे कर्तव्य लेकिन दूसरा पक्ष मेरे अधिकार नहीं है। वह है अन्यों के अधिकार। इसीलिये धार्मिक (भारतीय) विचारों में बल कर्तव्यों की पूर्ति के प्रयासों पर है जबकि अधार्मिक (अभारतीय) यूरो अमरीकी विचार में अधिकारों के लिये प्रयास या संघर्ष पर बल दिया गया है। केवल इतने मात्र से प्रत्यक्ष परिणामों में आकाश-पाताल का अंतर आ जाता है। | | कर्तव्य और अधिकार यह दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू है। सिक्के का एक पक्ष है मेरे कर्तव्य लेकिन दूसरा पक्ष मेरे अधिकार नहीं है। वह है अन्यों के अधिकार। इसीलिये धार्मिक (भारतीय) विचारों में बल कर्तव्यों की पूर्ति के प्रयासों पर है जबकि अधार्मिक (अभारतीय) यूरो अमरीकी विचार में अधिकारों के लिये प्रयास या संघर्ष पर बल दिया गया है। केवल इतने मात्र से प्रत्यक्ष परिणामों में आकाश-पाताल का अंतर आ जाता है। |
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− | वास्तव में मानव का समाज में शोषण हो रहा हो तो मानव के कर्तव्यों पर बल देना चाहिये था। स्त्री को समाज में उचित स्थान नहीं मिलता हो तो पुरुषों के स्त्री के प्रति कर्तव्यों पर बल देने की आवश्यकता थी। और बच्चों को यथोचित शिक्षा और सम्हाल नहीं मिलती हो, तो माता-पिता का प्रशिक्षण, आर्थिक दृष्टि से सबलीकरण, समाज में सामाजिक कर्तव्यबोध को जगाने के प्रयास होने चाहिये। जब कोई व्यक्ति अपने हर प्रकार के कर्तव्यों को पूरा करता है तो अन्य लोगों के अधिकारों की रक्षा तो अपने आप ही होती है। माता-पिता अपने बच्चों के प्रति अपने कर्तव्यों को पूरा कर दें तो बच्चों के अधिकारों के लिये हो-हल्ला करने की कोई आवश्यकता नहीं रह जाती। | + | वास्तव में मानव का समाज में शोषण हो रहा हो तो मानव के कर्तव्यों पर बल देना चाहिये था। स्त्री को समाज में उचित स्थान नहीं मिलता हो तो पुरुषों के स्त्री के प्रति कर्तव्यों पर बल देने की आवश्यकता थी। और बच्चोंं को यथोचित शिक्षा और सम्हाल नहीं मिलती हो, तो माता-पिता का प्रशिक्षण, आर्थिक दृष्टि से सबलीकरण, समाज में सामाजिक कर्तव्यबोध को जगाने के प्रयास होने चाहिये। जब कोई व्यक्ति अपने हर प्रकार के कर्तव्यों को पूरा करता है तो अन्य लोगोंं के अधिकारों की रक्षा तो अपने आप ही होती है। माता-पिता अपने बच्चोंं के प्रति अपने कर्तव्यों को पूरा कर दें तो बच्चोंं के अधिकारों के लिये हो-हल्ला करने की कोई आवश्यकता नहीं रह जाती। |
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| === वसुधैव कुटुंबकम् === | | === वसुधैव कुटुंबकम् === |
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| ==== कुटुंब ==== | | ==== कुटुंब ==== |
− | कुटुंब व्यवस्था के कुछ महत्वपूर्ण विशेष निम्न हैं: | + | [[Family_Structure_(कुटुंब_व्यवस्था)|कुटुंब व्यवस्था]] के कुछ महत्वपूर्ण विशेष निम्न हैं: |
| * सुसंस्कृत, सुखी, समाधानी और सामाजिक सहनिवास के संस्कारों की व्यवस्था | | * सुसंस्कृत, सुखी, समाधानी और सामाजिक सहनिवास के संस्कारों की व्यवस्था |
| * सामान्य ज्ञान एक पीढ़ी से अगली पीढ़ी तक संक्रमित करने की व्यवस्था | | * सामान्य ज्ञान एक पीढ़ी से अगली पीढ़ी तक संक्रमित करने की व्यवस्था |
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| * अपनी क्षमता के अनुसार पारिवारिक जिम्मेदारी उठाना परिवार की समृद्धि बढाने में योगदान देना और परिवार के साझे संचय में से न्यूनतम का उपयोग करना। इसी व्यवहार के कारण देश समृद्ध था। | | * अपनी क्षमता के अनुसार पारिवारिक जिम्मेदारी उठाना परिवार की समृद्धि बढाने में योगदान देना और परिवार के साझे संचय में से न्यूनतम का उपयोग करना। इसी व्यवहार के कारण देश समृद्ध था। |
| * बडों का आदर करना, छोटों को प्यार देना, अतिथि का सत्कार करना, स्त्री का सम्मान करना, परिवार के हित में ही अपना हित देखना, अपनों के लिये किये त्याग के आनंद की अनूभूति, घर के नौकर-चाकर, भिखारी, मधुकरी माँगनेवाले, पशु, पक्षी, पौधे आदि परिवार के घटक ही हैं, इस प्रकार उन सब से व्यवहार करना आदि बातें बच्चे परिवार में बढते बढते अपने आप सीख जाते थे। | | * बडों का आदर करना, छोटों को प्यार देना, अतिथि का सत्कार करना, स्त्री का सम्मान करना, परिवार के हित में ही अपना हित देखना, अपनों के लिये किये त्याग के आनंद की अनूभूति, घर के नौकर-चाकर, भिखारी, मधुकरी माँगनेवाले, पशु, पक्षी, पौधे आदि परिवार के घटक ही हैं, इस प्रकार उन सब से व्यवहार करना आदि बातें बच्चे परिवार में बढते बढते अपने आप सीख जाते थे। |
− | * अनाथालय, विधवाश्रम, वृध्दाश्रम आदि की आवश्यकता वास्तव में समाज जीवन में आई विकृतियों के कारण है। इन सब समस्याओं की जड़ तो अधार्मिक (अभारतीय) जीवनशैली में है। टूटते घरों में है। टूटती ग्रामव्यवस्था और ग्रामभावना में है। | + | * अनाथालय, विधवाश्रम, वृध्दाश्रम आदि की आवश्यकता वास्तव में समाज जीवन में आई विकृतियों के कारण है। इन सब समस्याओं की जड़़ तो अधार्मिक (अभारतीय) जीवनशैली में है। टूटते घरों में है। टूटती ग्रामव्यवस्था और ग्रामभावना में है। |
| * आर्थिक दृष्टि से देखें तो विभक्त परिवार को उत्पादक अधिक आसानी से लुट सकते है। विज्ञापनबाजी का प्रभाव जितना विभक्त परिवार पर होता है एकत्रित परिवार पर नहीं होता है। | | * आर्थिक दृष्टि से देखें तो विभक्त परिवार को उत्पादक अधिक आसानी से लुट सकते है। विज्ञापनबाजी का प्रभाव जितना विभक्त परिवार पर होता है एकत्रित परिवार पर नहीं होता है। |
| * एकत्रित परिवार एक शक्ति केंद्र होता है। अपने हर सदस्य को शक्ति और आत्मविश्वास देता है। विभक्त परिवार से एकत्रित परिवार के सदस्य का आत्मविश्वास बहुत अधिक होता है। पूरे परिवार की शक्ति मेरे पीछे खडी है ऐसी भावना के कारण एकत्रित परिवार के सदस्य को यह आत्मविश्वास प्राप्त होता है। | | * एकत्रित परिवार एक शक्ति केंद्र होता है। अपने हर सदस्य को शक्ति और आत्मविश्वास देता है। विभक्त परिवार से एकत्रित परिवार के सदस्य का आत्मविश्वास बहुत अधिक होता है। पूरे परिवार की शक्ति मेरे पीछे खडी है ऐसी भावना के कारण एकत्रित परिवार के सदस्य को यह आत्मविश्वास प्राप्त होता है। |
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| ==== ग्रामकुल ==== | | ==== ग्रामकुल ==== |
− | अपने पूर्वजों ने समाज व्यवस्था की दृष्टि से केवल परिवार व्यवस्था का ही निर्माण किया था ऐसा नहीं। श्रेष्ठ ग्रामकुल की रचना भी की थी। महात्मा गांधीजी के अनुयायी धर्मपालजी द्वारा लिखे १८ वीं सदी के भारत के गाँवों की जानकारी से यह पता चलता है की धार्मिक (भारतीय) गाँव भी पारिवारिक भावना से बंधे हुए थे। परिवार की ही तरह गाँवों की भी व्यवस्थाएं बनीं हुई थीं। जैसे परिवार के लोग एक दूसरे से आत्मीयता के धागे से बंधे होते है उसी प्रकार से गाँव के लोग भी आत्मीयता के धागे से बंधे हुए थे। इस गाँव में हमारे गाँव की बिटिया ब्याही है। मै यहाँ पानी नहीं पी सकता ऐसा कहनेवाले कुछ लोग तो आज भी हिंदीभाषी गाँवों मे मिल जाते है। परिवार में जैसे पैसे के लेनदेन से व्यवहार नहीं होते उसी प्रकार गाँव में भी नहीं होते थे। गाँव के प्रत्येक मानव, जीव, जन्तु के निर्वाह की व्यवस्था बिठाई हुई थी। और निर्वाह भी सम्मान के साथ। परिवार का कोई घटक परिवार को छोड अन्यत्र जाता है तो जैसे परिवार के सभी लोगों को दुख होता है। उसी तरह कोई गाँव छोडकर जाता था तो गाँव दुखी होता था। मिन्नतें करता था। उस के कष्ट दूर करने की व्यवस्थाएं करता था। | + | अपने पूर्वजों ने समाज व्यवस्था की दृष्टि से केवल परिवार व्यवस्था का ही निर्माण किया था ऐसा नहीं। श्रेष्ठ ग्रामकुल की रचना भी की थी। महात्मा गांधीजी के अनुयायी धर्मपालजी द्वारा लिखे १८ वीं सदी के भारत के गाँवों की जानकारी से यह पता चलता है की धार्मिक (भारतीय) गाँव भी पारिवारिक भावना से बंधे हुए थे। परिवार की ही तरह गाँवों की भी व्यवस्थाएं बनीं हुई थीं। जैसे परिवार के लोग एक दूसरे से आत्मीयता के धागे से बंधे होते है उसी प्रकार से गाँव के लोग भी आत्मीयता के धागे से बंधे हुए थे। इस गाँव में हमारे गाँव की बिटिया ब्याही है। मै यहाँ पानी नहीं पी सकता ऐसा कहनेवाले कुछ लोग तो आज भी हिंदीभाषी गाँवों मे मिल जाते है। परिवार में जैसे पैसे के लेनदेन से व्यवहार नहीं होते उसी प्रकार गाँव में भी नहीं होते थे। गाँव के प्रत्येक मानव, जीव, जन्तु के निर्वाह की व्यवस्था बिठाई हुई थी। और निर्वाह भी सम्मान के साथ। परिवार का कोई घटक परिवार को छोड अन्यत्र जाता है तो जैसे परिवार के सभी लोगोंं को दुख होता है। उसी तरह कोई गाँव छोडकर जाता था तो गाँव दुखी होता था। मिन्नतें करता था। उस के कष्ट दूर करने की व्यवस्थाएं करता था। |
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| ==== वसुधैव कुटुंबकम् ==== | | ==== वसुधैव कुटुंबकम् ==== |
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| === आत्मवत् सर्वभूतेषू === | | === आत्मवत् सर्वभूतेषू === |
− | पूरी सृष्टि एक ही आत्मतत्व का विस्तार है। इसी धार्मिक (भारतीय) मान्यता के आधारपर यह वर्तन सूत्र बना है। मै जैसे परमात्मतत्व हूं इसी तरह अन्य जड़ चेतन सभी परमात्मतत्व ही है। इसलिये मै अन्यों के साथ ऐसा व्यवहार करूं जैसी मेरी अन्यों से अपेक्षा है। और ऐसा व्यवहार नहीं करूं जैसे व्यवहार की मै अपने लिये औरों से अपेक्षा नहीं करता। | + | पूरी सृष्टि एक ही आत्मतत्व का विस्तार है। इसी धार्मिक (भारतीय) मान्यता के आधारपर यह वर्तन सूत्र बना है। मै जैसे परमात्मतत्व हूं इसी तरह अन्य जड़़ चेतन सभी परमात्मतत्व ही है। इसलिये मै अन्यों के साथ ऐसा व्यवहार करूं जैसी मेरी अन्यों से अपेक्षा है। और ऐसा व्यवहार नहीं करूं जैसे व्यवहार की मै अपने लिये औरों से अपेक्षा नहीं करता। |
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| यह एक ऐसा वर्तनसूत्र है जिस के बारे में कहा जा सकता है {{Citation needed}}- ' येन एकेन विज्ञातेन सर्वं विज्ञातं भवति '। इस एक वर्तनसूत्र के व्यवहार से सारा समाज सदाचारी बन सकता है। इस वर्तनसूत्र से लगभग सारी समस्याओं का समाधान मिल जाता है। एक दृष्टि से देखें तो यह मानवता की कसौटी भी है। मानवता का व्यवहार और मानवताविरोधी व्यवहार जानने का यह साधन भी है। | | यह एक ऐसा वर्तनसूत्र है जिस के बारे में कहा जा सकता है {{Citation needed}}- ' येन एकेन विज्ञातेन सर्वं विज्ञातं भवति '। इस एक वर्तनसूत्र के व्यवहार से सारा समाज सदाचारी बन सकता है। इस वर्तनसूत्र से लगभग सारी समस्याओं का समाधान मिल जाता है। एक दृष्टि से देखें तो यह मानवता की कसौटी भी है। मानवता का व्यवहार और मानवताविरोधी व्यवहार जानने का यह साधन भी है। |
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| === पूर्णत्व की आस === | | === पूर्णत्व की आस === |
− | ईशावास्योपनिषद मे कहा है<ref>ईशावास्योपनिषद</ref> <blockquote>ॐ पूर्णमद: पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते। पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ॥</blockquote><blockquote>भावार्थ : वह ( ब्रह्म ) स्वत:ही पूर्ण है। उस में से कुछ अलग निकाला तो भी वह पूर्ण ही रहता है। और जो निकाला है वह भी पूर्ण ही रहता है। उस में बाहर से कुछ जोडने से भी उस का पूर्णत्व नष्ट नहीं होता।</blockquote>शून्य और अनंत यह दोनों ही संकल्पनाएँ इस पूर्णत्व की शोध प्रक्रिया का ही प्रतिफल है। ० से ९ तक के आंकडें भी पूर्णत्व के प्रतीक ही है। वेदों से भी अत्यंत प्राचीन काल से चले आ रहे इन धार्मिक (भारतीय) आंकड़ों में और एक आंकड़ा जोडने की आज तक किसी को आवश्यकता नहीं लगी। यही इस अंक प्रणाली के पूर्णत्व का लक्षण है। हमारे पूर्वजों द्वारा विकसित की हुई अंकगणित की जोड, घट, गुणाकार, भागाकार, वर्गमूल, घनमूल, कलन और अवकलन की आठ क्रियाएं भी पूर्णता का ही लक्षण है। इसी तरह गो-आधारित कृषि का तंत्र भी ऐसा पूर्ण है की जब तक सृष्टि में मानव है यह कृषि प्रणाली मानव की अन्न की आवश्यकताएं हमेशा पूर्ण करती रहेगी। | + | ईशावास्योपनिषद मे कहा है<ref>ईशावास्योपनिषद</ref> <blockquote>ॐ पूर्णमद: पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते। पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ॥</blockquote><blockquote>भावार्थ : वह ( ब्रह्म ) स्वत:ही पूर्ण है। उस में से कुछ अलग निकाला तो भी वह पूर्ण ही रहता है। और जो निकाला है वह भी पूर्ण ही रहता है। उस में बाहर से कुछ जोडने से भी उस का पूर्णत्व नष्ट नहीं होता।</blockquote>शून्य और अनंत यह दोनों ही संकल्पनाएँ इस पूर्णत्व की शोध प्रक्रिया का ही प्रतिफल है। ० से ९ तक के आंकडें भी पूर्णत्व के प्रतीक ही है। वेदों से भी अत्यंत प्राचीन काल से चले आ रहे इन धार्मिक (भारतीय) आंकड़ों में और एक आंकड़ा जोडने की आज तक किसी को आवश्यकता नहीं लगी। यही इस अंक प्रणाली के पूर्णत्व का लक्षण है। हमारे पूर्वजों द्वारा विकसित की हुई अंकगणित की जोड, घट, गुणाकार, भागाकार, वर्गमूल, घनमूल, कलन और अवकलन की आठ क्रियाएं भी पूर्णता का ही लक्षण है। इसी तरह गो-आधारित कृषि का तंत्र भी ऐसा पूर्ण है की जब तक सृष्टि में मानव है यह कृषि प्रणाली मानव की अन्न की आवश्यकताएं सदा पूर्ण करती रहेगी। |
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| वास्तव में मोक्ष या परमात्मपद प्राप्ति या पूर्णत्व की प्राप्ति ही तो मानव जीवन का लक्ष्य है। कारण यह है कि केवल परमात्मा ही पूर्ण है। उसी तरह हर जीव भी अपने आप में पूर्ण है। पूर्ण है का अर्थ है पूर्णत्व के लिए आवश्यक सभी बातें उसमें हैं। मनुष्य जीवन का लक्ष्य ही इस तरह से सबसे पहले अपने आप को विकसित कर पूर्णत्व (लघु) प्राप्त करना और आगे इस लघु पूर्ण को विकसित कर उसको एक पूर्ण (परमात्मा) में विलीन कर देना है। | | वास्तव में मोक्ष या परमात्मपद प्राप्ति या पूर्णत्व की प्राप्ति ही तो मानव जीवन का लक्ष्य है। कारण यह है कि केवल परमात्मा ही पूर्ण है। उसी तरह हर जीव भी अपने आप में पूर्ण है। पूर्ण है का अर्थ है पूर्णत्व के लिए आवश्यक सभी बातें उसमें हैं। मनुष्य जीवन का लक्ष्य ही इस तरह से सबसे पहले अपने आप को विकसित कर पूर्णत्व (लघु) प्राप्त करना और आगे इस लघु पूर्ण को विकसित कर उसको एक पूर्ण (परमात्मा) में विलीन कर देना है। |
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| विज्ञान की व्याख्या जो श्रीमद्भगवद्गीता में मिलती है उसके अनुसार<ref>श्रीमद भगवद गीता 7.4</ref> - <blockquote>भूमिरापोऽनलो वायुः खं मनो बुद्धिरेव च।</blockquote><blockquote>अहङ्कार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा।।7.4।।</blockquote><blockquote>अर्थ: तेज, वायु पृथ्वी, जल, आकाश यह पाँच महाभूत तथा मन बुद्धि और अहंकार मिलकर 8 तत्वों से प्रकृति बनी है। याने प्रकृति का हर अस्तित्व बना है।</blockquote> इस अष्टधा प्रकृति के माध्यम से परमात्मा या ब्रह्म को जानने की प्रक्रिया ही विज्ञान है। अर्थात् ब्रह्म को जानने की प्रक्रिया ही विज्ञान है। ब्रह्म को जानने के लिये पहले अष्टधा प्रकृति को जानना होगा। वर्तमान साईंस केवल उपर्युक्त आठ तत्वों में से पाँच याने पंचमहाभौतिक तत्वों के अस्तित्त्व को स्वीकार करता है। इस दृष्टि से वर्तमान सायंस भारतीय विज्ञान का एक हिस्सा है। गणित की भाषा में वह एक सबसेट है। | | विज्ञान की व्याख्या जो श्रीमद्भगवद्गीता में मिलती है उसके अनुसार<ref>श्रीमद भगवद गीता 7.4</ref> - <blockquote>भूमिरापोऽनलो वायुः खं मनो बुद्धिरेव च।</blockquote><blockquote>अहङ्कार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा।।7.4।।</blockquote><blockquote>अर्थ: तेज, वायु पृथ्वी, जल, आकाश यह पाँच महाभूत तथा मन बुद्धि और अहंकार मिलकर 8 तत्वों से प्रकृति बनी है। याने प्रकृति का हर अस्तित्व बना है।</blockquote> इस अष्टधा प्रकृति के माध्यम से परमात्मा या ब्रह्म को जानने की प्रक्रिया ही विज्ञान है। अर्थात् ब्रह्म को जानने की प्रक्रिया ही विज्ञान है। ब्रह्म को जानने के लिये पहले अष्टधा प्रकृति को जानना होगा। वर्तमान साईंस केवल उपर्युक्त आठ तत्वों में से पाँच याने पंचमहाभौतिक तत्वों के अस्तित्त्व को स्वीकार करता है। इस दृष्टि से वर्तमान सायंस भारतीय विज्ञान का एक हिस्सा है। गणित की भाषा में वह एक सबसेट है। |
| इसी प्रकार से अध्याय ३, श्लोक ४२ में बताया गया है<ref name=":0" />: <blockquote>इन्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्य: परं मन।</blockquote><blockquote>मनसस्तु परा बुद्धिर्यो बुध्दे: परतस्तु स: ॥ 3-42 ॥ </blockquote><blockquote>अर्थात् इंद्रियों से मन सूक्ष्म है। मन से बुद्धि सूक्ष्म है। और आत्म तत्व तो बुद्धि से भी कहीं अधिक सूक्ष्म है। </blockquote>जिस प्रकार से अत्यंत सूक्ष्म भौतिक कणों याने नैनो कणों का मापन हमारी सामान्य मापन पट्टी से नहीं हो सकता उसी प्रकार से मन जो पंचमहाभूतों से याने पंचमहाभूतों के सूक्ष्म कणों से भी अत्यंत सूक्ष्म है उसका मापन भौतिक सूक्ष्मतादर्शक से भी नहीं किया जा सकता। इसलिये मन और बुद्धि के व्यापार जानने के लिये मन और बुद्धि का ही सहारा लिया जा सकता है। इस का श्रेष्ठ साधन 'अष्टांग योग' है। आगे हम विज्ञान शब्द का वर्तमान साईंस के अर्थ से ही प्रयोग करेंगे। | | इसी प्रकार से अध्याय ३, श्लोक ४२ में बताया गया है<ref name=":0" />: <blockquote>इन्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्य: परं मन।</blockquote><blockquote>मनसस्तु परा बुद्धिर्यो बुध्दे: परतस्तु स: ॥ 3-42 ॥ </blockquote><blockquote>अर्थात् इंद्रियों से मन सूक्ष्म है। मन से बुद्धि सूक्ष्म है। और आत्म तत्व तो बुद्धि से भी कहीं अधिक सूक्ष्म है। </blockquote>जिस प्रकार से अत्यंत सूक्ष्म भौतिक कणों याने नैनो कणों का मापन हमारी सामान्य मापन पट्टी से नहीं हो सकता उसी प्रकार से मन जो पंचमहाभूतों से याने पंचमहाभूतों के सूक्ष्म कणों से भी अत्यंत सूक्ष्म है उसका मापन भौतिक सूक्ष्मतादर्शक से भी नहीं किया जा सकता। इसलिये मन और बुद्धि के व्यापार जानने के लिये मन और बुद्धि का ही सहारा लिया जा सकता है। इस का श्रेष्ठ साधन 'अष्टांग योग' है। आगे हम विज्ञान शब्द का वर्तमान साईंस के अर्थ से ही प्रयोग करेंगे। |
− | # मानव जीवन का लक्ष्य यदि परमात्मपद प्राप्ति है तो विज्ञान और तन्त्रज्ञान के विकास और उपयोग का लक्ष्य भी परमात्मपद प्राप्ति ही रहेगा। अन्य नहीं। और मोक्षप्राप्ति का या परमात्मपदप्राप्ति का मार्ग तो ‘सर्वे भवन्तु सुखिन:’ ही है। कुछ लोग कहेंगे कि मोक्ष मानव जीवन का लक्ष्य नहीं है। मानव जीवन का लक्ष्य सुख है। फिर भी व्यक्ति समाज का और सृष्टि का अविभाज्य हिस्सा होने से जब तक सुख समाजव्याप्त और सृष्टिव्याप्त नहीं होता व्यक्ति भी सुख से नहीं जी सकता। विज्ञान और तन्त्रज्ञान का उपयोग ‘सर्वे भवन्तु सुखिन:’ के लिये करने से ही व्यक्तिगत सुख की आश्वस्ति मिल सकेगी। | + | # मानव जीवन का लक्ष्य यदि परमात्मपद प्राप्ति है तो विज्ञान और तन्त्रज्ञान के विकास और उपयोग का लक्ष्य भी परमात्मपद प्राप्ति ही रहेगा। अन्य नहीं। और मोक्षप्राप्ति का या परमात्मपदप्राप्ति का मार्ग तो ‘सर्वे भवन्तु सुखिन:’ ही है। कुछ लोग कहेंगे कि मोक्ष मानव जीवन का लक्ष्य नहीं है। मानव जीवन का लक्ष्य सुख है। तथापि व्यक्ति समाज का और सृष्टि का अविभाज्य हिस्सा होने से जब तक सुख समाजव्याप्त और सृष्टिव्याप्त नहीं होता व्यक्ति भी सुख से नहीं जी सकता। विज्ञान और तन्त्रज्ञान का उपयोग ‘सर्वे भवन्तु सुखिन:’ के लिये करने से ही व्यक्तिगत सुख की आश्वस्ति मिल सकेगी। |
| # ‘प्रकृति के नियम’ ही विज्ञान है। विज्ञान के व्यवहार में उपयोग को ही तन्त्रज्ञान कहते हैं। विज्ञान वैश्विक होता है। तन्त्रज्ञान नहीं। तन्त्रज्ञान स्थानिक प्राकृतिक संसाधनों के आधारपर चयन करने या विकास करने की बात है। | | # ‘प्रकृति के नियम’ ही विज्ञान है। विज्ञान के व्यवहार में उपयोग को ही तन्त्रज्ञान कहते हैं। विज्ञान वैश्विक होता है। तन्त्रज्ञान नहीं। तन्त्रज्ञान स्थानिक प्राकृतिक संसाधनों के आधारपर चयन करने या विकास करने की बात है। |
− | # विज्ञान या तन्त्रज्ञान यह अपने आप में न तो उपकारी होते है और ना ही विनाशकारी। इनका उपयोग करनेवाले मनुष्य की सुर या दुष्ट प्रवृत्ति उसे उपकारक या विनाशकारी बनाती है। इसलिये सृष्टि के अस्तित्वों याने जीव और जड जगत के लिये हानिकारक कोई तन्त्रज्ञान दुष्ट स्वभाव के मनुष्य को मिलना दुनिया के लिये घातक होता है। | + | # विज्ञान या तन्त्रज्ञान यह अपने आप में न तो उपकारी होते है और ना ही विनाशकारी। इनका उपयोग करनेवाले मनुष्य की सुर या दुष्ट प्रवृत्ति उसे उपकारक या विनाशकारी बनाती है। इसलिये सृष्टि के अस्तित्वों याने जीव और जड़ जगत के लिये हानिकारक कोई तन्त्रज्ञान दुष्ट स्वभाव के मनुष्य को मिलना दुनिया के लिये घातक होता है। |
| # प्रकृति चक्रीयता से चलती है। इसलिये वर्तमान की एक (सीधी) रेखीय विकास की अवधारणा प्रकृति विरोधी है। सीधी रेखा में जितना कम हो उतना वह अधिक प्रकृति सुसंगत होगा। सामान्यत: सृष्टि में सीधी रेखा में कोई रचना नहीं होती। | | # प्रकृति चक्रीयता से चलती है। इसलिये वर्तमान की एक (सीधी) रेखीय विकास की अवधारणा प्रकृति विरोधी है। सीधी रेखा में जितना कम हो उतना वह अधिक प्रकृति सुसंगत होगा। सामान्यत: सृष्टि में सीधी रेखा में कोई रचना नहीं होती। |
| # मोक्षप्राप्ति या सुख दोनों ही मन के विषय हैं। सुख की प्राप्ति या मोक्ष ये मन की अवस्थापर निर्भर होते हैं। तन्त्रज्ञान या सुविधाओं पर नहीं। | | # मोक्षप्राप्ति या सुख दोनों ही मन के विषय हैं। सुख की प्राप्ति या मोक्ष ये मन की अवस्थापर निर्भर होते हैं। तन्त्रज्ञान या सुविधाओं पर नहीं। |
| # परिवर्तन ही दुनिया का स्वभाव है। प्रकृति में भी परिवर्तन होते रहते हैं। प्रकृति के परिवर्तनों के साथ समायोजन कर ही तन्त्रज्ञान का विकास और उपयोग होना चाहिये। | | # परिवर्तन ही दुनिया का स्वभाव है। प्रकृति में भी परिवर्तन होते रहते हैं। प्रकृति के परिवर्तनों के साथ समायोजन कर ही तन्त्रज्ञान का विकास और उपयोग होना चाहिये। |
− | # सृष्टि में केवल मनुष्य को प्रकृति को बिगाडने की, प्रकृति सुसंगत फिर भी अधिक श्रेष्ठ जीने की और सृष्टि के बिगडे सन्तुलन को ठीक करने की याने मन, बुद्धि और स्मृति की शक्तियाँ मिली हैं। इसी कारण प्रकृति का सन्तुलन बनाए रखने की जिम्मेदारी भी मनुष्य की ही बनती है। | + | # सृष्टि में केवल मनुष्य को प्रकृति को बिगाड़ने की, प्रकृति सुसंगत तथापि अधिक श्रेष्ठ जीने की और सृष्टि के बिगडे सन्तुलन को ठीक करने की याने मन, बुद्धि और स्मृति की शक्तियाँ मिली हैं। इसी कारण प्रकृति का सन्तुलन बनाए रखने की जिम्मेदारी भी मनुष्य की ही बनती है। |
| # आहार, निद्रा, भय और मैथुन ये चार प्राणिक आवेग मनुष्यों और पशुओं में दोनों में एक जैसे ही होते हैं। मनुष्य की आवश्यकताओं का निर्धारण प्राणिक आवेग करते हैं। लेकिन मनुष्य का मन इच्छाएँ भी करता हैं। प्राणिक आवेगों की तृप्ति की सीमा होती है। लेकिन इच्छाओं की और इस कारण से तृप्ति की कोई सीमा नहीं होती। लेकिन प्रकृति के संसाधन मर्यादित होते हैं। इस विसंगति को दूर करने का एकमात्र उपाय ‘उपभोग संयम’ ही है। उपभोग संयम की शिक्षा के अभाव में हर नया तन्त्रज्ञान प्राकृतिक संसाधनों का उपभोग बढाकर पर्यावरणीय समस्याओं में वृद्धि करता है। | | # आहार, निद्रा, भय और मैथुन ये चार प्राणिक आवेग मनुष्यों और पशुओं में दोनों में एक जैसे ही होते हैं। मनुष्य की आवश्यकताओं का निर्धारण प्राणिक आवेग करते हैं। लेकिन मनुष्य का मन इच्छाएँ भी करता हैं। प्राणिक आवेगों की तृप्ति की सीमा होती है। लेकिन इच्छाओं की और इस कारण से तृप्ति की कोई सीमा नहीं होती। लेकिन प्रकृति के संसाधन मर्यादित होते हैं। इस विसंगति को दूर करने का एकमात्र उपाय ‘उपभोग संयम’ ही है। उपभोग संयम की शिक्षा के अभाव में हर नया तन्त्रज्ञान प्राकृतिक संसाधनों का उपभोग बढाकर पर्यावरणीय समस्याओं में वृद्धि करता है। |
− | # किसी भी समाज में ९०-९५ प्रतिशत लोग सामान्य प्रतिभा के होते हैं। केवल ५ -१० प्रतिशत लोग ही विशेष प्रतिभा के धनी होते हैं। इन्हें श्रीमद्भगवद्गीता में ‘श्रेष्ठ’ कहा गया है। शेष ९०-९५ प्रतिशत सामान्य लोग इन श्रेष्ठ जनों का अनुसरण करते हैं। सामान्य लोगों को वैज्ञानिक दृष्टिकोण से कोई लेना देना नहीं होता। वे तो सामान्य ज्ञान के आधारपर अपने हित या अहित का विचार करते हैं। जब उन्हें ऐसा समझने में कठिनाई होती है वे श्रेष्ठ मनुष्यों की ओर मार्गदर्शन के लिये देखते हैं। इसीलिये वैज्ञानिक दृष्टि इन ५ -१० प्रतिशत श्रेष्ठ जनों के लिये आवश्यक होती है। ऐसे लोगों की वैज्ञानिक दृष्टि की गलत समझ ही तन्त्रज्ञान के दुरूपयोग से उपजी समस्याओं के मूल में है। | + | # किसी भी समाज में ९०-९५ प्रतिशत लोग सामान्य प्रतिभा के होते हैं। केवल ५ -१० प्रतिशत लोग ही विशेष प्रतिभा के धनी होते हैं। इन्हें श्रीमद्भगवद्गीता में ‘श्रेष्ठ’ कहा गया है। शेष ९०-९५ प्रतिशत सामान्य लोग इन श्रेष्ठ जनों का अनुसरण करते हैं। सामान्य लोगोंं को वैज्ञानिक दृष्टिकोण से कोई लेना देना नहीं होता। वे तो सामान्य ज्ञान के आधारपर अपने हित या अहित का विचार करते हैं। जब उन्हें ऐसा समझने में कठिनाई होती है वे श्रेष्ठ मनुष्यों की ओर मार्गदर्शन के लिये देखते हैं। इसीलिये वैज्ञानिक दृष्टि इन ५ -१० प्रतिशत श्रेष्ठ जनों के लिये आवश्यक होती है। ऐसे लोगोंं की वैज्ञानिक दृष्टि की गलत समझ ही तन्त्रज्ञान के दुरूपयोग से उपजी समस्याओं के मूल में है। |
| # वर्तमान में उच्च तन्त्रज्ञान की व्याख्या क्या है? उच्च तन्त्रज्ञान वह है जो पुराने तंत्रज्ञान द्वारा निर्माण हुई किसी समस्या को तो दूर करता है और साथ ही में और नई समस्याएँ निर्माण कर और अधिक महंगे तन्त्रज्ञान की आवश्यकता निर्माण करता है। धार्मिक (भारतीय) दृष्टि से ऐसे उच्च तन्त्रज्ञान का विकास जो समस्याओं का निर्माण करता है या ‘सर्वे भवन्तु सुखिन:’ का विरोधी है, अमान्य है। जैसे एलोपॅथी की प्रतिजैविक दवाईयाँ पुराने रोगों के जन्तुओं को और साथ ही में मनुष्य के लिये स्वास्थ्योपयोगी जन्तुओं को भी मारकर रोग के जन्तुओं की नई प्रजातियों के निर्माण की संभावनाएँ बढाते हैं। यह ठीक नहीं है। | | # वर्तमान में उच्च तन्त्रज्ञान की व्याख्या क्या है? उच्च तन्त्रज्ञान वह है जो पुराने तंत्रज्ञान द्वारा निर्माण हुई किसी समस्या को तो दूर करता है और साथ ही में और नई समस्याएँ निर्माण कर और अधिक महंगे तन्त्रज्ञान की आवश्यकता निर्माण करता है। धार्मिक (भारतीय) दृष्टि से ऐसे उच्च तन्त्रज्ञान का विकास जो समस्याओं का निर्माण करता है या ‘सर्वे भवन्तु सुखिन:’ का विरोधी है, अमान्य है। जैसे एलोपॅथी की प्रतिजैविक दवाईयाँ पुराने रोगों के जन्तुओं को और साथ ही में मनुष्य के लिये स्वास्थ्योपयोगी जन्तुओं को भी मारकर रोग के जन्तुओं की नई प्रजातियों के निर्माण की संभावनाएँ बढाते हैं। यह ठीक नहीं है। |
| # कौटुम्बिक उद्योगों की अर्थव्यवस्था में सभी मालिक होते हैं। जब की बड़े उद्योगों के लिये बननेवाले तन्त्रज्ञान सब को नौकर बना देते हैं। स्वयंचलितीकरण और विशाल उत्पादन करनेवाले वर्तमान तन्त्रज्ञान विश्वभर में नौकरों की मानसिकतावाले लोग निर्माण कर रहे हैं। इसलिये बड़े उद्योगों के लिये बनाया जानेवाले तन्त्रज्ञान का केवल चराचर के हित की दृष्टि से अनिवार्यता से सुपात्र व्यक्ति को ही अंतरण होना चाहिये। साथ ही में तेजी से कौटुम्बिक उद्योगों के लिये तन्त्रज्ञान का विकास करने की आवश्यकता है। | | # कौटुम्बिक उद्योगों की अर्थव्यवस्था में सभी मालिक होते हैं। जब की बड़े उद्योगों के लिये बननेवाले तन्त्रज्ञान सब को नौकर बना देते हैं। स्वयंचलितीकरण और विशाल उत्पादन करनेवाले वर्तमान तन्त्रज्ञान विश्वभर में नौकरों की मानसिकतावाले लोग निर्माण कर रहे हैं। इसलिये बड़े उद्योगों के लिये बनाया जानेवाले तन्त्रज्ञान का केवल चराचर के हित की दृष्टि से अनिवार्यता से सुपात्र व्यक्ति को ही अंतरण होना चाहिये। साथ ही में तेजी से कौटुम्बिक उद्योगों के लिये तन्त्रज्ञान का विकास करने की आवश्यकता है। |
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| # भिन्नता प्रकृति का स्वभाव ही है। लेकिन तन्त्रज्ञान से उत्पादित विशाल मात्राओं के कारण इस विविधता का नष्ट होते जाना। | | # भिन्नता प्रकृति का स्वभाव ही है। लेकिन तन्त्रज्ञान से उत्पादित विशाल मात्राओं के कारण इस विविधता का नष्ट होते जाना। |
| # मनुष्य की मूलभूत क्षमताओं में वृद्धि या विकास के स्थान पर ह्रास हो रहा है। यंत्रावलंबन बढ रहा है। कौशल नष्ट हो गए हैं या कमजोर हो गए हैं। | | # मनुष्य की मूलभूत क्षमताओं में वृद्धि या विकास के स्थान पर ह्रास हो रहा है। यंत्रावलंबन बढ रहा है। कौशल नष्ट हो गए हैं या कमजोर हो गए हैं। |
− | # पहले स्वचालित यंत्रों से विशाल मात्रा में उत्पादन करना और बाद में उसे अनैतिक, आक्रामक विज्ञापनबाजी की मदद से लोगों को लेने के लिये उकसाने के कारण अनावश्यक उपभोग बढता जाता है। इससे एक ओर तो आदतें बिगडतीं हैं तो दूसरी ओर प्राकृतिक संसाधनों का दुरूपयोग होता है। और तीसरा महंगाई भी बढती है। | + | # पहले स्वचालित यंत्रों से विशाल मात्रा में उत्पादन करना और बाद में उसे अनैतिक, आक्रामक विज्ञापनबाजी की सहायता से लोगोंं को लेने के लिये उकसाने के कारण अनावश्यक उपभोग बढता जाता है। इससे एक ओर तो आदतें बिगडतीं हैं तो दूसरी ओर प्राकृतिक संसाधनों का दुरूपयोग होता है। और तीसरा महंगाई भी बढती है। |
| # सामाजिकता को हानि पहुँचानेवाला तन्त्रज्ञान अमान्य है। परस्पर मिलने से, साथ में समय बिताने से, एक दूसरे के सुख दु:ख में सहभागी होने से सामाजिकता में वृद्धि होती है। इनकी संभावनाएँ कम करनेवाले तन्त्रज्ञान अस्वीकार्य हैं। जीवन को अनावश्यक गति देनेवाले, समाज को पगढीला बनाकर संस्कृति को नष्ट करनेवाले तंत्रज्ञानों का सार्वत्रिकीकरण वर्ज्य है। | | # सामाजिकता को हानि पहुँचानेवाला तन्त्रज्ञान अमान्य है। परस्पर मिलने से, साथ में समय बिताने से, एक दूसरे के सुख दु:ख में सहभागी होने से सामाजिकता में वृद्धि होती है। इनकी संभावनाएँ कम करनेवाले तन्त्रज्ञान अस्वीकार्य हैं। जीवन को अनावश्यक गति देनेवाले, समाज को पगढीला बनाकर संस्कृति को नष्ट करनेवाले तंत्रज्ञानों का सार्वत्रिकीकरण वर्ज्य है। |
| # गति और मति का संबंध व्यस्त होता है। जब मनुष्य का शरीर गतिमान होता है तो उसकी मति मंदगति से चलती है। और जब मनुष्य शांत या मंद गति से जा रहा होता है तब उसकी मति तेज चलती है। यह सामान्य ज्ञान की बात है। वर्तमान तंत्रज्ञान ने जीवन को बेशुमार गति देकर उसे सामान्य मनुष्य के लिये असहनीय बना दिया है। वह आधुनिक तन्त्रज्ञान के साथ समायोजन करने में असमर्थ होने के कारण तन्त्रज्ञान के पीछे छातीफाड़ गति से भी भाग नहीं पा रहा। वह मजबूर है घसीटे जाने के लिये। | | # गति और मति का संबंध व्यस्त होता है। जब मनुष्य का शरीर गतिमान होता है तो उसकी मति मंदगति से चलती है। और जब मनुष्य शांत या मंद गति से जा रहा होता है तब उसकी मति तेज चलती है। यह सामान्य ज्ञान की बात है। वर्तमान तंत्रज्ञान ने जीवन को बेशुमार गति देकर उसे सामान्य मनुष्य के लिये असहनीय बना दिया है। वह आधुनिक तन्त्रज्ञान के साथ समायोजन करने में असमर्थ होने के कारण तन्त्रज्ञान के पीछे छातीफाड़ गति से भी भाग नहीं पा रहा। वह मजबूर है घसीटे जाने के लिये। |
− | # जैविक तंत्रज्ञान अनैतिक है। जैविक तन्त्रज्ञान सूक्ष्म तन्त्रज्ञान है। सूक्ष्म का अर्थ है अधिक बलवान। अधिक व्यापक। इन का चार या दस पीढियों के बाद की पीढियों पर क्या परिणाम होगा यह समझना इनका विकास करनेवालों के लिये संभव ही नहीं है। फिर भी कुछ प्रयोगों के आधार पर प्रतिजैविकों को मनुष्य के लिये योग्य होने की घोषणा अनैतिक ही है। एक ही पीढी में तेजी से परिवर्तन करनेवाले जैविक तन्त्रज्ञान प्रकृति में जो सहज परस्परावलंबन है उस की किसी कडी को हानि पहुँचाते हैं। लाखों की संख्या में जो जीवजातियाँ हैं उन के इस परस्परावलंबन को पूरी तरह से समझना असंभव है। फिर भी इस का झूठा दावा कर जैविक परिवर्तन करने के तन्त्रज्ञान वर्तमान में बाजार व्याप रहे हैं। ऐसे तन्त्रज्ञान सर्वथा अमान्य हैं। | + | # जैविक तंत्रज्ञान अनैतिक है। जैविक तन्त्रज्ञान सूक्ष्म तन्त्रज्ञान है। सूक्ष्म का अर्थ है अधिक बलवान। अधिक व्यापक। इन का चार या दस पीढियों के बाद की पीढियों पर क्या परिणाम होगा यह समझना इनका विकास करनेवालों के लिये संभव ही नहीं है। तथापि कुछ प्रयोगों के आधार पर प्रतिजैविकों को मनुष्य के लिये योग्य होने की घोषणा अनैतिक ही है। एक ही पीढी में तेजी से परिवर्तन करनेवाले जैविक तन्त्रज्ञान प्रकृति में जो सहज परस्परावलंबन है उस की किसी कडी को हानि पहुँचाते हैं। लाखों की संख्या में जो जीवजातियाँ हैं उन के इस परस्परावलंबन को पूरी तरह से समझना असंभव है। तथापि इस का झूठा दावा कर जैविक परिवर्तन करने के तन्त्रज्ञान वर्तमान में बाजार व्याप रहे हैं। ऐसे तन्त्रज्ञान सर्वथा अमान्य हैं। |
| # इसी तरह से नैनो तन्त्रज्ञान भी सूक्ष्म तन्त्रज्ञान है। इनका भी चराचर के ऊपर क्या और कैसा सूक्ष्म प्रभाव होगा इसकी जानकारी नहीं होती। लाखों जीवजातियों के ऊपर इनका होनेवाला सूक्ष्म प्रभाव जानना असंभव है। | | # इसी तरह से नैनो तन्त्रज्ञान भी सूक्ष्म तन्त्रज्ञान है। इनका भी चराचर के ऊपर क्या और कैसा सूक्ष्म प्रभाव होगा इसकी जानकारी नहीं होती। लाखों जीवजातियों के ऊपर इनका होनेवाला सूक्ष्म प्रभाव जानना असंभव है। |
| == अध्ययन और अनुसंधान के क्षेत्र में प्रमाण का अधिष्ठान == | | == अध्ययन और अनुसंधान के क्षेत्र में प्रमाण का अधिष्ठान == |
− | आजकल वर्तमान शिक्षा के परिणाम स्वरूप और लिखने पढने का ज्ञान हो जाने से लोगों को लगने लगा है कि लिखा है और उससे भी अधिक जो छपा है वह सत्य ही होगा। भारतीय जीवन दृष्टि के अनुसार कहा गया है 'ना मूलं लिख्यते किंचित'{{Citation needed}}। इस का अर्थ है बगैर प्रमाण के कुछ नहीं लिखना। केवल कहीं किसी के कुछ लिख देने से या किसी वर्तमान पत्र में या पुस्तक में लिखे जाने से उसे सत्य नहीं माना जा सकता। | + | आजकल वर्तमान शिक्षा के परिणाम स्वरूप और लिखने पढने का ज्ञान हो जाने से लोगोंं को लगने लगा है कि लिखा है और उससे भी अधिक जो छपा है वह सत्य ही होगा। भारतीय जीवन दृष्टि के अनुसार कहा गया है 'ना मूलं लिख्यते किंचित'{{Citation needed}}। इस का अर्थ है बगैर प्रमाण के कुछ नहीं लिखना। केवल कहीं किसी के कुछ लिख देने से या किसी वर्तमान पत्र में या पुस्तक में लिखे जाने से उसे सत्य नहीं माना जा सकता। |
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| सत्य की व्याख्या की गई है{{Citation needed}} <blockquote>'यदभूत हितं अत्यंत' </blockquote><blockquote>याने जिस में चराचर का हित हो या किसी का भी अहित नहीं हो वही सत्य है। </blockquote>इसी का अर्थ है जिसे चराचर का हित किस या किन बातों में है, यह नहीं समझ में आता वह सत्य को स्वत: नहीं समझ सकता। | | सत्य की व्याख्या की गई है{{Citation needed}} <blockquote>'यदभूत हितं अत्यंत' </blockquote><blockquote>याने जिस में चराचर का हित हो या किसी का भी अहित नहीं हो वही सत्य है। </blockquote>इसी का अर्थ है जिसे चराचर का हित किस या किन बातों में है, यह नहीं समझ में आता वह सत्य को स्वत: नहीं समझ सकता। |
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− | ऐसे लोगों के लिये कहा गया है{{Citation needed}}: <blockquote>'महाजनो येन गत: स पंथ:'। </blockquote><blockquote>ऐसे लोगों को श्रेष्ठ लोगों का अनुकरण करना चाहिये।</blockquote>श्रीमद्भगवद्गीता में भी कहा गया है<ref>श्रीमद्भगवद्गीता , 3.21</ref> <blockquote>यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः।</blockquote><blockquote>स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते।।3.21।।</blockquote><blockquote>अर्थ: केवल लिखना पढना आ जाने से वर्तमान पत्र या पुस्तक पढना तो आ जाएगा। किन्तु केवल उतने मात्र से सामान्य मनुष्य सत्य नहीं जान सकता।</blockquote>किन्तु अध्ययन और अनुसंधान के क्षेत्र में काम करनेवालों के लिये श्रेष्ठ जनों का जीवन या व्यवहार एक अध्ययन का विषय बन सकता है किन्तु प्रमाण का विषय नहीं। फिर प्रमाण का क्षेत्र कौन सा है? | + | ऐसे लोगोंं के लिये कहा गया है{{Citation needed}}: <blockquote>'महाजनो येन गत: स पंथ:'। </blockquote><blockquote>ऐसे लोगोंं को श्रेष्ठ लोगोंं का अनुकरण करना चाहिये।</blockquote>श्रीमद्भगवद्गीता में भी कहा गया है<ref>श्रीमद्भगवद्गीता , 3.21</ref> <blockquote>यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः।</blockquote><blockquote>स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते।।3.21।।</blockquote><blockquote>अर्थ: केवल लिखना पढना आ जाने से वर्तमान पत्र या पुस्तक पढना तो आ जाएगा। किन्तु केवल उतने मात्र से सामान्य मनुष्य सत्य नहीं जान सकता।</blockquote>किन्तु अध्ययन और अनुसंधान के क्षेत्र में काम करनेवालों के लिये श्रेष्ठ जनों का जीवन या व्यवहार एक अध्ययन का विषय बन सकता है किन्तु प्रमाण का विषय नहीं। फिर प्रमाण का क्षेत्र कौन सा है? |
| === प्रमाण का अभारतीय अधिष्ठान === | | === प्रमाण का अभारतीय अधिष्ठान === |
| सामान्यत: सत्य जानने के तरीके निम्न माने जाते है: | | सामान्यत: सत्य जानने के तरीके निम्न माने जाते है: |
| # प्रत्यक्ष प्रमाण : जिस का ऑंख, कान, नाक,जीभ और त्वचा के द्वारा याने ज्ञानेन्द्रियों द्वारा जो प्रत्यक्ष अनुभव किया जा सकता है उसे प्रत्यक्ष प्रमाण कहते है। | | # प्रत्यक्ष प्रमाण : जिस का ऑंख, कान, नाक,जीभ और त्वचा के द्वारा याने ज्ञानेन्द्रियों द्वारा जो प्रत्यक्ष अनुभव किया जा सकता है उसे प्रत्यक्ष प्रमाण कहते है। |
| # अनुमान प्रमाण : इस में पूर्व में प्राप्त प्रत्यक्ष अनुभव के आधार पर अनुमान से पूर्व अनुभव के साथ तुलना कर उसे सत्य माना जाता है। इस संबंध में यह समझना योग्य होगा की अनुमान कितना सटीक है इस पर सत्य निर्भर हो जाता है। मिथ्या अनुमान जैसे अंधेरे में साँप को रस्सी समझना आदि से सत्य नहीं जाना जा सकता। | | # अनुमान प्रमाण : इस में पूर्व में प्राप्त प्रत्यक्ष अनुभव के आधार पर अनुमान से पूर्व अनुभव के साथ तुलना कर उसे सत्य माना जाता है। इस संबंध में यह समझना योग्य होगा की अनुमान कितना सटीक है इस पर सत्य निर्भर हो जाता है। मिथ्या अनुमान जैसे अंधेरे में साँप को रस्सी समझना आदि से सत्य नहीं जाना जा सकता। |
− | # शास्त्र या शब्द या आप्त वचन प्रमाण : प्रत्येक बात का अनुभव प्रत्येक व्यक्ति बार बार नहीं कर सकता। कुछ अनुभव तो केवल एक बार ही ले सकता है। जैसे साईनाईड जैसे जहरीले पदार्थ का स्वाद। साईनाईड का सेवन करने वाले की तत्काल मृत्यू हो जाती है। वह दूसरी बार उस का स्वाद लेने के लिये जीवित नहीं रहता। ऐसे अनुभव छोड भी दें तो भी अनंत ऐसी परिस्थितियाँ होतीं है कि हर परिस्थिति का अनुभव लेना केवल प्रत्येक व्यक्ति के लिये ही नहीं तो किसी भी व्यक्ति के लिये संभव नहीं होता। इस लिये ऐसी स्थिति में शास्त्र वचन को ही प्रमाण माना जाता है। शास्त्रों के जानकारों के लिये शास्त्र वचन प्रमाण होता है। और शास्त्रों के जो जानकार नहीं है ऐसे लोगों के लिये शास्त्र जानने वाले और नि:स्वार्थ भावना से सलाह देने वाले लोगों का वचन भी प्रमाण माना जाता है। ऐसे लोगों को ही आप्त कहा गया है। | + | # शास्त्र या शब्द या आप्त वचन प्रमाण : प्रत्येक बात का अनुभव प्रत्येक व्यक्ति बार बार नहीं कर सकता। कुछ अनुभव तो केवल एक बार ही ले सकता है। जैसे साईनाईड जैसे जहरीले पदार्थ का स्वाद। साईनाईड का सेवन करने वाले की तत्काल मृत्यू हो जाती है। वह दूसरी बार उस का स्वाद लेने के लिये जीवित नहीं रहता। ऐसे अनुभव छोड भी दें तो भी अनंत ऐसी परिस्थितियाँ होतीं है कि हर परिस्थिति का अनुभव लेना केवल प्रत्येक व्यक्ति के लिये ही नहीं तो किसी भी व्यक्ति के लिये संभव नहीं होता। इस लिये ऐसी स्थिति में शास्त्र वचन को ही प्रमाण माना जाता है। शास्त्रों के जानकारों के लिये शास्त्र वचन प्रमाण होता है। और शास्त्रों के जो जानकार नहीं है ऐसे लोगोंं के लिये शास्त्र जानने वाले और नि:स्वार्थ भावना से सलाह देने वाले लोगोंं का वचन भी प्रमाण माना जाता है। ऐसे लोगोंं को ही आप्त कहा गया है। |
| === प्रमाण का भारतीय अधिष्ठान === | | === प्रमाण का भारतीय अधिष्ठान === |
| सामान्यत: अभारतीय समाजों में तो सत्य जानने के यही तीन तरीके माने जाते है। किन्तु भारतीय परंपरा में एक और प्रमाण को स्वीकृति दी गई है। वह है अंतर्ज्ञान या अभिप्रेरणा। यह सभी के लिये लागू नहीं है। केवल कुछ विशेष सिद्धि प्राप्त लोग ही इस प्रमाण का उपयोग कर सकते है। | | सामान्यत: अभारतीय समाजों में तो सत्य जानने के यही तीन तरीके माने जाते है। किन्तु भारतीय परंपरा में एक और प्रमाण को स्वीकृति दी गई है। वह है अंतर्ज्ञान या अभिप्रेरणा। यह सभी के लिये लागू नहीं है। केवल कुछ विशेष सिद्धि प्राप्त लोग ही इस प्रमाण का उपयोग कर सकते है। |
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| ==== प्रस्थान त्रयी ==== | | ==== प्रस्थान त्रयी ==== |
− | भारत में यह मान्यता है कि वेद स्वत: प्रमाण है। वेद की ऋचाएं तो ऋषियों ने प्रस्तुत की हैं, ऐसी मान्यता है। लेकिन वे उन ऋषियों की बौध्दिक क्षमता या प्रगल्भता के कारण उन से नहीं जुडीं है। वे उन ऋचाओं के दृष्टा माने जाते है। ध्यानावस्था में प्राप्त अनुभूति की उन ऋषियों की अभिव्यक्ति को ही ऋचा कहते है। वेद इन ऋचाओं का संग्रह है। यह मानव की बुद्धि के स्तर की रचनाएं नहीं है। इसी लिये वेदों को अपौरुषेय माना जाता है। और स्वत: प्रमाण भी माना जाता है। महर्षि व्यास ने इन ऋचाओं को चार वेदों में सूत्रबद्ध किया। वेदों के सार की सूत्र रूप में प्रस्तुति ही वेदान्त दर्शन याने ब्रह्मसूत्र है। वेदों की विषय वस्तू के मोटे मोटे तीन हिस्से किये जा सकते है। पहला है इस का उपासना पक्ष। दूसरा है कर्मकांड पक्ष। और तीसरा है इन का ज्ञान का पक्ष। यह ज्ञान पक्ष उपनिषदों में अधिक विस्तार से वर्णित है। और उपनिषदों का सार है श्रीमद्भगवद्गीता। | + | भारत में यह मान्यता है कि वेद स्वत: प्रमाण है। वेद की ऋचाएं तो ऋषियों ने प्रस्तुत की हैं, ऐसी मान्यता है। लेकिन वे उन ऋषियों की बौध्दिक क्षमता या प्रगल्भता के कारण उन से नहीं जुडीं है। वे उन ऋचाओं के दृष्टा माने जाते है। ध्यानावस्था में प्राप्त अनुभूति की उन ऋषियों की अभिव्यक्ति को ही ऋचा कहते है। वेद इन ऋचाओं का संग्रह है। यह मानव की बुद्धि के स्तर की रचनाएं नहीं है। इसी लिये वेदों को अपौरुषेय माना जाता है। और स्वत: प्रमाण भी माना जाता है। महर्षि व्यास ने इन ऋचाओं को चार वेदों में सूत्रबद्ध किया। वेदों के सार की सूत्र रूप में प्रस्तुति ही [[Vedanta_([[Vedanta_(वेदान्तः)|वेदांत]]ः)|वेदांत]] दर्शन याने ब्रह्मसूत्र है। वेदों की विषय वस्तू के मोटे मोटे तीन हिस्से किये जा सकते है। पहला है इस का उपासना पक्ष। दूसरा है कर्मकांड पक्ष। और तीसरा है इन का ज्ञान का पक्ष। यह ज्ञान पक्ष उपनिषदों में अधिक विस्तार से वर्णित है। और उपनिषदों का सार है श्रीमद्भगवद्गीता। |
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| '''वेदों के सार के रूप में ब्रह्मसूत्र, वेद ज्ञान के विषदीकरण की दृष्टि से उपनिषद और उपनिषदों के सार के रूप में श्रीमद्भगवद्गीता ऐसे तीन को मिला कर 'प्रस्थान त्रयी' कहा जाता है।''' | | '''वेदों के सार के रूप में ब्रह्मसूत्र, वेद ज्ञान के विषदीकरण की दृष्टि से उपनिषद और उपनिषदों के सार के रूप में श्रीमद्भगवद्गीता ऐसे तीन को मिला कर 'प्रस्थान त्रयी' कहा जाता है।''' |
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| उपर्युक्त दोनों ही क्षेत्र वास्तव में प्रस्थान त्रयी के बाहर के नहीं है। सूक्ष्मता के क्षेत्र में, अंतरिक्ष ज्ञान के क्षेत्र में और स्वयंचलित यंत्रों के ऐसे तीनों क्षेत्रों में प्रस्थान त्रयी का प्रमाण उपयुक्त ही है। अध्यात्म विज्ञान तो नैनो से कहीं सूक्ष्म, वर्तमान साईंस की कल्पना से अधिक व्यापक, विशाल और पूरी सृष्टि के निर्माण, रचना और विनाश का ज्ञान रखता है। | | उपर्युक्त दोनों ही क्षेत्र वास्तव में प्रस्थान त्रयी के बाहर के नहीं है। सूक्ष्मता के क्षेत्र में, अंतरिक्ष ज्ञान के क्षेत्र में और स्वयंचलित यंत्रों के ऐसे तीनों क्षेत्रों में प्रस्थान त्रयी का प्रमाण उपयुक्त ही है। अध्यात्म विज्ञान तो नैनो से कहीं सूक्ष्म, वर्तमान साईंस की कल्पना से अधिक व्यापक, विशाल और पूरी सृष्टि के निर्माण, रचना और विनाश का ज्ञान रखता है। |
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− | ऐसे साईंटिस्ट प्रस्थान त्रयी के बारे में जानते ही नहीं है। किन्तु उन्हें समझाने का काम धार्मिक (भारतीय) शास्त्रों के जानकारों का है। वर्तमान साईंटिस्टों को यह समझाना होगा कि पंचमहाभूतों के साथ मन, बुद्धि और अहंकार के साथ अष्टधा प्रकृति तक सीमा रखने वाला विज्ञान यह अंगी है। और केवल पंचमहाभूतों तक सीमित रहने वाला साईंस उसका अंग है। अष्ट्धा प्रकृति से भी अत्यंत सूक्ष्म जो आत्म तत्व है उसका क्षेत्र याने अध्यात्म शास्त्र यह तो और भी व्यापक है। अध्यात्म शास्त्र यह अंगी है और अष्टधा प्रकृति की सीमाओं वाला विज्ञान उसका अंग है। इस लिये साईंस, भारतीय विज्ञान और अध्यात्म विज्ञान इन में कोई विरोधाभास नहीं है। यह तो एक दूसरे से अंगांगी भाव से जुडे विषय है। | + | ऐसे साईंटिस्ट प्रस्थान त्रयी के बारे में जानते ही नहीं है। किन्तु उन्हें समझाने का काम धार्मिक (भारतीय) शास्त्रों के जानकारों का है। वर्तमान साईंटिस्टों को यह समझाना होगा कि पंचमहाभूतों के साथ मन, बुद्धि और अहंकार के साथ अष्टधा प्रकृति तक सीमा रखने वाला विज्ञान यह अंगी है। और केवल पंचमहाभूतों तक सीमित रहने वाला साईंस उसका अंग है। अष्ट्धा प्रकृति से भी अत्यंत सूक्ष्म जो आत्म तत्व है उसका क्षेत्र याने अध्यात्म शास्त्र यह तो और भी व्यापक है। अध्यात्म शास्त्र यह अंगी है और अष्टधा प्रकृति की सीमाओं वाला विज्ञान उसका अंग है। इस लिये साईंस, भारतीय विज्ञान और अध्यात्म विज्ञान इन में कोई विरोधाभास नहीं है। यह तो एक दूसरे से अंगांगी भाव से जुड़े विषय है। |
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| पर्यावरण प्रदूषण की समस्या के निराकरण की साईंस की दृष्टि, भारतीय विज्ञान की दृष्टि, इन दोनों को समझने से इन का परस्पर संबंध और इनमे अंगी और अंग सम्बन्ध समझ में आ जाएंगे। वर्तमान में पर्यावरण के प्रदूषण को दूर करने के लिए बहुत गंभीरता से विचार हो रहा है। प्रमुखता से जल, हवा और पृथ्वी के प्रदूषण का विचार इसमें है। यह साईंटिफिक ही है। लेकिन यह अधूरा है। भारतीय विज्ञान की दृष्टि से पर्यावरण याने प्रकृति के आठ घटक हैं। जल, हवा और पृथ्वी इन तीन महाभूतों का जिनका आज विचार हो रहा है, उनके अलावा आकाश और तेज ये दो महाभूत और मन, बुद्धि और अहंकार ये त्रिगुण मिलाकर अष्टधा प्रकृति बनती है। इनमें प्रदूषण के लिए जब तक मन और बुद्धि के प्रदूषण का विचार और इस प्रदूषण का निराकरण नहीं होगा पर्यावरण प्रदूषण के निराकरण की कोई योजना सफल नहीं होनेवाली। इस का तात्पर्य है कि वर्तमान साईंस अंग है और भारतीय विज्ञान अंगी है। इस अंगांगी भाव को स्थापित करने से ही प्रस्थान त्रयी की पुन: सार्वकालिक और सार्वत्रिक प्रमाण के रूप से स्थापना हो सकेगी तथा प्रमाण से संबंधित विवाद का शमन होगा। | | पर्यावरण प्रदूषण की समस्या के निराकरण की साईंस की दृष्टि, भारतीय विज्ञान की दृष्टि, इन दोनों को समझने से इन का परस्पर संबंध और इनमे अंगी और अंग सम्बन्ध समझ में आ जाएंगे। वर्तमान में पर्यावरण के प्रदूषण को दूर करने के लिए बहुत गंभीरता से विचार हो रहा है। प्रमुखता से जल, हवा और पृथ्वी के प्रदूषण का विचार इसमें है। यह साईंटिफिक ही है। लेकिन यह अधूरा है। भारतीय विज्ञान की दृष्टि से पर्यावरण याने प्रकृति के आठ घटक हैं। जल, हवा और पृथ्वी इन तीन महाभूतों का जिनका आज विचार हो रहा है, उनके अलावा आकाश और तेज ये दो महाभूत और मन, बुद्धि और अहंकार ये त्रिगुण मिलाकर अष्टधा प्रकृति बनती है। इनमें प्रदूषण के लिए जब तक मन और बुद्धि के प्रदूषण का विचार और इस प्रदूषण का निराकरण नहीं होगा पर्यावरण प्रदूषण के निराकरण की कोई योजना सफल नहीं होनेवाली। इस का तात्पर्य है कि वर्तमान साईंस अंग है और भारतीय विज्ञान अंगी है। इस अंगांगी भाव को स्थापित करने से ही प्रस्थान त्रयी की पुन: सार्वकालिक और सार्वत्रिक प्रमाण के रूप से स्थापना हो सकेगी तथा प्रमाण से संबंधित विवाद का शमन होगा। |
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| समृद्धि व्यवस्था में स्वतन्त्रता और सहानुभूति का सन्तुलन होता है। | | समृद्धि व्यवस्था में स्वतन्त्रता और सहानुभूति का सन्तुलन होता है। |
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− | जीवन का धार्मिक (भारतीय) प्रतिमान धर्माधिष्ठित है। इसलिए समृद्धि व्यवस्था की पुनर्प्रतिष्ठा के लिए धर्म के और शिक्षा क्षेत्र के जानकार लोगों को ही पहल करनी होगी। शासन व्यवस्था का भी इसमें सहयोग अनिवार्य है। लेकिन परिवर्तन का वातावरण निर्माण करना विद्वानों का काम होगा। यथावश्यक शासन की मदद लेनी होगी। | + | जीवन का धार्मिक (भारतीय) प्रतिमान धर्माधिष्ठित है। अतः समृद्धि व्यवस्था की पुनर्प्रतिष्ठा के लिए धर्म के और शिक्षा क्षेत्र के जानकार लोगोंं को ही पहल करनी होगी। शासन व्यवस्था का भी इसमें सहयोग अनिवार्य है। लेकिन परिवर्तन का वातावरण निर्माण करना विद्वानों का काम होगा। यथावश्यक शासन की सहायता लेनी होगी। |
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| == वर्तमान स्थिति से भारतीय तन्त्रज्ञान नीति तक जाने की प्रक्रिया == | | == वर्तमान स्थिति से भारतीय तन्त्रज्ञान नीति तक जाने की प्रक्रिया == |
| वर्तमान तन्त्रज्ञान नीति से सर्वे भवन्तु सुखिन: के लिये उपयुक्त तन्त्रज्ञान नीति तक समाज को ले जाना अत्यंत कठिन बात है। लेकिन करणीय तो यही है। इसलिये हर प्रकार के प्रयत्नों से करना तो ऐसा ही होगा। कई प्रकार के बिंदू इसमें ध्यान में लेने की आवश्यकता है। इस दृष्टि से कुछ बिन्दू नीचे दे रहे हैं। अपनी मति और अनुभवों के आधार पर स्थल, काल और परिस्थिति का ध्यान रखकर इस परिवर्तन की प्रक्रिया को सुदृढ और तेज किया जा सकता है। | | वर्तमान तन्त्रज्ञान नीति से सर्वे भवन्तु सुखिन: के लिये उपयुक्त तन्त्रज्ञान नीति तक समाज को ले जाना अत्यंत कठिन बात है। लेकिन करणीय तो यही है। इसलिये हर प्रकार के प्रयत्नों से करना तो ऐसा ही होगा। कई प्रकार के बिंदू इसमें ध्यान में लेने की आवश्यकता है। इस दृष्टि से कुछ बिन्दू नीचे दे रहे हैं। अपनी मति और अनुभवों के आधार पर स्थल, काल और परिस्थिति का ध्यान रखकर इस परिवर्तन की प्रक्रिया को सुदृढ और तेज किया जा सकता है। |
− | # सर्वे भवन्तु सुखिन: के लिये तंत्रज्ञानों के व्यावहारिक उपयोजन आदि के बारे में शिक्षा के माध्यम से बच्चों के मन को आकार देना । | + | # सर्वे भवन्तु सुखिन: के लिये तंत्रज्ञानों के व्यावहारिक उपयोजन आदि के बारे में शिक्षा के माध्यम से बच्चोंं के मन को आकार देना । |
− | # माध्यमिक स्तर पर सर्वे भवन्तु सुखिन: के लिये तन्त्रज्ञान के निर्माण की संकल्पना को बच्चों के मनों में स्थापित करना। | + | # माध्यमिक स्तर पर सर्वे भवन्तु सुखिन: के लिये तन्त्रज्ञान के निर्माण की संकल्पना को बच्चोंं के मनों में स्थापित करना। |
− | # दुष्ट वृत्ति के लोगों को कैसे पहचानना, दुष्ट प्रवृत्तियों के हाथों में घातक तन्त्रज्ञान जाने से होने वाले सामाजिक दुष्परिणामों के विषय में जानकारी देना। दुष्टों के हाथ में ऐसा कोई भी घातक तन्त्रज्ञान नहीं जाने देंगे इस बिंदूपर उन्हें संकल्पबद्ध करना। | + | # दुष्ट वृत्ति के लोगोंं को कैसे पहचानना, दुष्ट प्रवृत्तियों के हाथों में घातक तन्त्रज्ञान जाने से होने वाले सामाजिक दुष्परिणामों के विषय में जानकारी देना। दुष्टों के हाथ में ऐसा कोई भी घातक तन्त्रज्ञान नहीं जाने देंगे इस बिंदूपर उन्हें संकल्पबद्ध करना। |
| # [[Family Run Businesses (कौटुम्बिक उद्योग)|कुटुम्ब और कौटुम्बिक उद्योग]] यह विषय शिक्षा के हर स्तरपर शक्ति के साथ समाविष्ट करना। | | # [[Family Run Businesses (कौटुम्बिक उद्योग)|कुटुम्ब और कौटुम्बिक उद्योग]] यह विषय शिक्षा के हर स्तरपर शक्ति के साथ समाविष्ट करना। |
| ## पहल करना, प्रोत्साहन देना, प्रायोजित करना ऐसे भिन्न भिन्न मार्गों से ‘संयुक्त कुटुम्बों का सुसंस्कृत, समृध्द और शक्तिशाली समाज बनाने में योगदान’ के ऊपर शोध कार्य करवाना। ऐसा सभी ज्ञान, शिक्षा में और समाज में लाना। | | ## पहल करना, प्रोत्साहन देना, प्रायोजित करना ऐसे भिन्न भिन्न मार्गों से ‘संयुक्त कुटुम्बों का सुसंस्कृत, समृध्द और शक्तिशाली समाज बनाने में योगदान’ के ऊपर शोध कार्य करवाना। ऐसा सभी ज्ञान, शिक्षा में और समाज में लाना। |
| ## वर्तमान में जो कौटुम्बिक उद्योग चल रहे हैं उन्हें हर तरह से बढावा देना। | | ## वर्तमान में जो कौटुम्बिक उद्योग चल रहे हैं उन्हें हर तरह से बढावा देना। |
− | ## जो भी कौटुम्बिक उद्योग शुरू करना चाहता है उसे भी हर तरह से बढावा देना। | + | ## जो भी कौटुम्बिक उद्योग आरम्भ करना चाहता है उसे भी हर तरह से बढावा देना। |
− | ## तन्त्रज्ञान महाविद्यालयों में कौटुम्बिक उद्योगों के लिये तन्त्रज्ञान विषय उसकी भिन्न भिन्न विधाओं के साथ शुरू करना। जैसे जैसे कौटुम्बिक उद्योग बढते जाएँगे बाजारू तन्त्रज्ञान विद्यालय/महाविद्यालय, उनकी आवश्यकताही नहीं होने से अपने आप बंद हो जाएँगे। | + | ## तन्त्रज्ञान महाविद्यालयों में कौटुम्बिक उद्योगों के लिये तन्त्रज्ञान विषय उसकी भिन्न भिन्न विधाओं के साथ आरम्भ करना। जैसे जैसे कौटुम्बिक उद्योग बढते जाएँगे बाजारू तन्त्रज्ञान विद्यालय/महाविद्यालय, उनकी आवश्यकताही नहीं होने से अपने आप बंद हो जाएँगे। |
− | ## इस दृष्टि से उद्योग मंत्रालय में ‘कौटुम्बिक उद्योग प्रोत्साहन विभाग’ शुरू करना। इस विभाग को हर प्रकार की प्राथमिकता देना। | + | ## इस दृष्टि से उद्योग मंत्रालय में ‘कौटुम्बिक उद्योग प्रोत्साहन विभाग’ आरम्भ करना। इस विभाग को हर प्रकार की प्राथमिकता देना। |
− | ## कौटुम्बिक उद्योगों में काम करनेवाले छोटे बच्चों को बाल मजदूरी के कानून से छुटकारा देना। | + | ## कौटुम्बिक उद्योगों में काम करनेवाले छोटे बच्चोंं को बाल मजदूरी के कानून से छुटकारा देना। |
| ## तन्त्रज्ञान विषय के वर्तमान प्राध्यापकों को कौटुम्बिक उद्योगों के लिये तन्त्रज्ञान के अध्ययन और अनुसंधान में लगाना। न्यूनतम एक नये कौटुम्बिक तन्त्रज्ञान के विकास की शर्त पदोन्नति की अनिवार्य शर्त बनाना। इसके अभाव में वेतन में वृद्धि रोकने जैसे उपायों का भी उचित ढँग से उपयोग करना। | | ## तन्त्रज्ञान विषय के वर्तमान प्राध्यापकों को कौटुम्बिक उद्योगों के लिये तन्त्रज्ञान के अध्ययन और अनुसंधान में लगाना। न्यूनतम एक नये कौटुम्बिक तन्त्रज्ञान के विकास की शर्त पदोन्नति की अनिवार्य शर्त बनाना। इसके अभाव में वेतन में वृद्धि रोकने जैसे उपायों का भी उचित ढँग से उपयोग करना। |
| ## जिनकी कौटुम्बिक उद्योगों में निष्ठा नहीं है उन्हें शासकीय तन्त्रज्ञान विद्यालयों में नौकरी नहीं देना। वर्तमान नौकरों को हतोत्साहित करना। | | ## जिनकी कौटुम्बिक उद्योगों में निष्ठा नहीं है उन्हें शासकीय तन्त्रज्ञान विद्यालयों में नौकरी नहीं देना। वर्तमान नौकरों को हतोत्साहित करना। |
| # तंत्रशास्त्र के प्राध्यापकों के विकास के लिये बारबार ‘कौटुम्बिक उद्योग-आमुखीकरण’ की कार्यशालाएँ, पाठयक्रमों का आयोजन करना। इन में उपस्थिति की अनिवार्यता रखना। हर ५ वर्ष में एक बार प्राध्यापकों ने और शिक्षकों ने कौटुम्बिक उद्योगों का विषय कितना आत्मसात किया है इस का परिक्षण करना। परीक्षण के आधार पर योग्य बदलाव के लिये सकारात्मक और नकारात्मक कार्यवाही करना। | | # तंत्रशास्त्र के प्राध्यापकों के विकास के लिये बारबार ‘कौटुम्बिक उद्योग-आमुखीकरण’ की कार्यशालाएँ, पाठयक्रमों का आयोजन करना। इन में उपस्थिति की अनिवार्यता रखना। हर ५ वर्ष में एक बार प्राध्यापकों ने और शिक्षकों ने कौटुम्बिक उद्योगों का विषय कितना आत्मसात किया है इस का परिक्षण करना। परीक्षण के आधार पर योग्य बदलाव के लिये सकारात्मक और नकारात्मक कार्यवाही करना। |
| # पात्रता और कुपात्रता की परीक्षा प्रणाली को कौटुम्बिक पार्श्वभूमि, सामान्य व्यवहार, स्वभाव की विशेषताएँ आदि के आधार पर मूल्यांकन करने की पक्की प्रक्रिया का विकास करना। वैसे कोई सुसंस्कृत है, धर्माचरणी है इसे जानना बहुत कठिन नहीं होता। इस दृष्टि से परीक्षक की निष्पक्षता, सर्वभूतहितेरत: वृत्ति या स्वभाव और परीक्षा की विधा का ज्ञान इन तीन कसौटियों को लगाकर परीक्षक का चयन किया जा सकता है। | | # पात्रता और कुपात्रता की परीक्षा प्रणाली को कौटुम्बिक पार्श्वभूमि, सामान्य व्यवहार, स्वभाव की विशेषताएँ आदि के आधार पर मूल्यांकन करने की पक्की प्रक्रिया का विकास करना। वैसे कोई सुसंस्कृत है, धर्माचरणी है इसे जानना बहुत कठिन नहीं होता। इस दृष्टि से परीक्षक की निष्पक्षता, सर्वभूतहितेरत: वृत्ति या स्वभाव और परीक्षा की विधा का ज्ञान इन तीन कसौटियों को लगाकर परीक्षक का चयन किया जा सकता है। |
− | # दुष्ट समाजों से संरक्षण हेतु कुछ काल तक तो संहारक शस्त्रों के तन्त्रज्ञान का विकास और उपयोग करना हमारे लिये आपद्धर्म ही है। यह कालखण्ड शायद ३ -४ पीढीयों तक का भी हो सकता है। इसलिये कुछ काल तक तो एक ओर कौटुम्बिक उद्योग आधारित तन्त्रज्ञान युग और दूसरी ओर कुछ अनिवार्य प्रमाण में बडे उद्योगों का युग ऐसे दोनों युग साथ में चलेंगे। क्रमश: दूसरा युग विश्वभर में क्षीण होता जाए ऐसे प्रयास करने होंगे। इसके लिये हमें दुनिया की क्रमांक एक की भौतिक शक्ति तो बनना ही होगा। | + | # दुष्ट समाजों से संरक्षण हेतु कुछ काल तक तो संहारक शस्त्रों के तन्त्रज्ञान का विकास और उपयोग करना हमारे लिये आपद्धर्म ही है। यह कालखण्ड संभवतः ३ -४ पीढीयों तक का भी हो सकता है। इसलिये कुछ काल तक तो एक ओर कौटुम्बिक उद्योग आधारित तन्त्रज्ञान युग और दूसरी ओर कुछ अनिवार्य प्रमाण में बडे उद्योगों का युग ऐसे दोनों युग साथ में चलेंगे। क्रमश: दूसरा युग विश्वभर में क्षीण होता जाए ऐसे प्रयास करने होंगे। इसके लिये हमें दुनिया की क्रमांक एक की भौतिक शक्ति तो बनना ही होगा। |
| # बडे उद्योग इसे सहजता से नहीं लेंगे। इसलिये एक ओर तो समाज में कौटुम्बिक उद्योगों के संबंध में जागरूकता निर्माण करना और साथ में बडे उद्योगों को दी जानेवाली सुविधाएँ कम करते जाना और दूसरी ओर बडे उद्योग कौटुम्बिक उद्योगों को हानि न पहुँचा पाए इसकी आश्वस्ति जागरूक और सक्षम कानून और सुरक्षा व्यवस्था के माध्यम से करना। | | # बडे उद्योग इसे सहजता से नहीं लेंगे। इसलिये एक ओर तो समाज में कौटुम्बिक उद्योगों के संबंध में जागरूकता निर्माण करना और साथ में बडे उद्योगों को दी जानेवाली सुविधाएँ कम करते जाना और दूसरी ओर बडे उद्योग कौटुम्बिक उद्योगों को हानि न पहुँचा पाए इसकी आश्वस्ति जागरूक और सक्षम कानून और सुरक्षा व्यवस्था के माध्यम से करना। |
| # पुराने और नये तंत्रज्ञानों के सार्वत्रिकीकरण के लिये नियामक व्यवस्था निर्माण करना। जो वर्तमान तन्त्रज्ञान इन नियमों के विपरीत समझ में आएँ उन्हें न्यूनतम हानि हो इस ढँग से कालबद्ध तरीके से बंद करना। नियामक व्यवस्था के दो स्तर होंगे। पहले स्तरपर तन्त्रज्ञान को ‘पर्यावरण सुरक्षा’ की कसौटि पर परखा जाएगा। इस में अनुत्तीर्ण तन्त्रज्ञान को सार्वत्रिकीकरण की अनुमति नहीं मिलेगी। पर्यावरण सुरक्षा की कसौटी में उत्तीर्ण हुए तन्त्रज्ञान को दूसरे स्तर पर ‘सामाजिकता की सुरक्षा’ की कसौटी लगाई जाएगी। जो तन्त्रज्ञान सामाजिकता को हानि पहुँचाने वाले होंगे, वे अनुत्तीर्ण होंगे। उन के सार्वत्रिकीकरण की अनुमति नहीं मिलेगी। जो तन्त्रज्ञान दोनों ही कसौटियो में उत्तीर्ण होंगे उन्हीं के सार्वत्रिकीकरण की अनुमति दी जाएगी। | | # पुराने और नये तंत्रज्ञानों के सार्वत्रिकीकरण के लिये नियामक व्यवस्था निर्माण करना। जो वर्तमान तन्त्रज्ञान इन नियमों के विपरीत समझ में आएँ उन्हें न्यूनतम हानि हो इस ढँग से कालबद्ध तरीके से बंद करना। नियामक व्यवस्था के दो स्तर होंगे। पहले स्तरपर तन्त्रज्ञान को ‘पर्यावरण सुरक्षा’ की कसौटि पर परखा जाएगा। इस में अनुत्तीर्ण तन्त्रज्ञान को सार्वत्रिकीकरण की अनुमति नहीं मिलेगी। पर्यावरण सुरक्षा की कसौटी में उत्तीर्ण हुए तन्त्रज्ञान को दूसरे स्तर पर ‘सामाजिकता की सुरक्षा’ की कसौटी लगाई जाएगी। जो तन्त्रज्ञान सामाजिकता को हानि पहुँचाने वाले होंगे, वे अनुत्तीर्ण होंगे। उन के सार्वत्रिकीकरण की अनुमति नहीं मिलेगी। जो तन्त्रज्ञान दोनों ही कसौटियो में उत्तीर्ण होंगे उन्हीं के सार्वत्रिकीकरण की अनुमति दी जाएगी। |
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| ## जिन तंत्रज्ञानों से किसी को लाभ तो होता है लेकिन हानि किसी की नहीं होती - स्वीकार्य हैं। | | ## जिन तंत्रज्ञानों से किसी को लाभ तो होता है लेकिन हानि किसी की नहीं होती - स्वीकार्य हैं। |
| ## जिन तंत्रज्ञानों से चराचर सभी की हानि होती है - अस्वीकार्य हैं। | | ## जिन तंत्रज्ञानों से चराचर सभी की हानि होती है - अस्वीकार्य हैं। |
− | ## जिन के प्रयोग से कुछ लोगों का लाभ होता है और कुछ लोगों की हानि होती है - अस्वीकार्य हैं। | + | ## जिन के प्रयोग से कुछ लोगोंं का लाभ होता है और कुछ लोगोंं की हानि होती है - अस्वीकार्य हैं। |
| # उपर्युक्त में से तीसरे और चौथे प्रकार के तन्त्रज्ञान ही दुनिया भर की तंत्रज्ञानों से निर्मित समस्याओं के मूल कारण हैं। वर्तमान में ऐसे तंत्रज्ञानों का ही बोलबाला है। इसलिये धीरे धीरे लेकिन कठोरता से ऐसे तंत्रज्ञानों का उपयोग और विकास रोकना होगा। | | # उपर्युक्त में से तीसरे और चौथे प्रकार के तन्त्रज्ञान ही दुनिया भर की तंत्रज्ञानों से निर्मित समस्याओं के मूल कारण हैं। वर्तमान में ऐसे तंत्रज्ञानों का ही बोलबाला है। इसलिये धीरे धीरे लेकिन कठोरता से ऐसे तंत्रज्ञानों का उपयोग और विकास रोकना होगा। |
| # कौटुम्बिक उद्योगों के लिये उपयुक्त तंत्रज्ञानों के विकास को प्रोत्साहन देना और बड़े उद्योगों के लिये उपयुक्त तंत्रज्ञानों को हतोत्साहित करना। कौटुम्बिक उद्योग समाज की आवश्यकताओं के साथ अपने को समायोजित करते हैं। जब की बड़े उद्योग अपने हित के लिये समाज को विज्ञापनबाजी, भ्रष्टाचार आदि के माध्यम से समायोजित करते हैं। कौटुम्बिक उद्योगों की अर्थव्यवस्था में धन विकेंद्रित हो जाता है। सम्पत्ति का वितरण लगभग समान होता है। बड़े उद्योगों की अर्थव्यवस्था में अमीर, और अमीर बनते हैं। गरीबी और अमीरी की खाई बढती जाती है। अर्थ का प्रभाव और अभाव ऐसी दोनों बीमारियों से समाज ग्रस्त हो जाता है। अर्थ का अभाव और प्रभाव निर्माण होकर समाज को अशांत और दु:खी बना देता है। | | # कौटुम्बिक उद्योगों के लिये उपयुक्त तंत्रज्ञानों के विकास को प्रोत्साहन देना और बड़े उद्योगों के लिये उपयुक्त तंत्रज्ञानों को हतोत्साहित करना। कौटुम्बिक उद्योग समाज की आवश्यकताओं के साथ अपने को समायोजित करते हैं। जब की बड़े उद्योग अपने हित के लिये समाज को विज्ञापनबाजी, भ्रष्टाचार आदि के माध्यम से समायोजित करते हैं। कौटुम्बिक उद्योगों की अर्थव्यवस्था में धन विकेंद्रित हो जाता है। सम्पत्ति का वितरण लगभग समान होता है। बड़े उद्योगों की अर्थव्यवस्था में अमीर, और अमीर बनते हैं। गरीबी और अमीरी की खाई बढती जाती है। अर्थ का प्रभाव और अभाव ऐसी दोनों बीमारियों से समाज ग्रस्त हो जाता है। अर्थ का अभाव और प्रभाव निर्माण होकर समाज को अशांत और दु:खी बना देता है। |
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| * लालयेत पंचवर्षाणि | | * लालयेत पंचवर्षाणि |
| * दश वर्षाणि ताडयेत् | | * दश वर्षाणि ताडयेत् |
− | * वर्ण व्यवस्था | + | * [[Varna_System_(वर्ण_व्यवस्था)|वर्ण व्यवस्था]] |
− | * जाति व्यवस्था | + | * [[Jaati_System_(जाति_व्यवस्था)|जाति व्यवस्था]] |
| * आश्रम व्यवस्था | | * आश्रम व्यवस्था |
| * समान जीवनदृष्टिवाले समाज का सहजीवन - राष्ट्र | | * समान जीवनदृष्टिवाले समाज का सहजीवन - राष्ट्र |
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| * अंत:करण चतुष्टय की अध्ययन प्रक्रिया में भूमिका | | * अंत:करण चतुष्टय की अध्ययन प्रक्रिया में भूमिका |
| * कुटुम्ब शिक्षा से मानव निर्माण | | * कुटुम्ब शिक्षा से मानव निर्माण |
− | * धर्मनियंत्रित समाज रचनाकी प्रतिष्ठापना | + | * धर्मनियंत्रित समाज रचना की प्रतिष्ठापना |
| * अनध्ययन के दिन - व्यावहारिक सर्वेक्षण | | * अनध्ययन के दिन - व्यावहारिक सर्वेक्षण |
| * वनस्पति पूजन/प्रार्थना- औषधि के गुण में योगदान | | * वनस्पति पूजन/प्रार्थना- औषधि के गुण में योगदान |
− | * जीवन का भारतीय प्रतिमान की प्रतिष्ठापना | + | * जीवन के भारतीय प्रतिमान की प्रतिष्ठापना |
| * कौटुम्बिक उद्योगों की पुनर्प्रतिष्ठा | | * कौटुम्बिक उद्योगों की पुनर्प्रतिष्ठा |
− | * संस्कार - एक मनोवैज्ञानिक विश्लेषण | + | * संस्कार-एक मनोवैज्ञानिक विश्लेषण |
| * स्वावलंबी ग्राम की अर्थव्यवस्था | | * स्वावलंबी ग्राम की अर्थव्यवस्था |
− | * भारतीय कुटुम्ब - प्रत्यक्ष में प्रतिष्ठापना | + | * भारतीय कुटुम्ब-प्रत्यक्ष में प्रतिष्ठापना |
| * भारतीय इतिहास दृष्टि | | * भारतीय इतिहास दृष्टि |
| * भारतीय जीवशास्त्रीय दृष्टि | | * भारतीय जीवशास्त्रीय दृष्टि |
| * भौगोलिक परिस्थिति और आहार का समायोजन | | * भौगोलिक परिस्थिति और आहार का समायोजन |
| * आध्यात्मिक मनोविज्ञान | | * आध्यात्मिक मनोविज्ञान |
− | * शिक्षा के अ-सरकारीकरणकी प्रक्रिया | + | * शिक्षा के अ-सरकारीकरण की प्रक्रिया |
| * आयु की अवस्थाके अनुसार शिक्षा | | * आयु की अवस्थाके अनुसार शिक्षा |
| * भारतीय वैज्ञानिक दृष्टि | | * भारतीय वैज्ञानिक दृष्टि |
− | * माध्यम - भाषा दृष्टि | + | * माध्यम-भाषा दृष्टि |
− | * भारतीय समाज कीचिरंजीविताका विश्लेषण | + | * भारतीय समाज की चिरंजीविता का विश्लेषण |
− | * समाज जीवन में वैश्विकता/स्थानीयता, चिरंजीविता/तात्कालिकता | + | * समाज जीवन में वैश्विकता/स्थानीयता, चिरंजीविता / तात्कालिकता |
| * समाजिक सबंधोंका आधार स्वार्थ या कौटुम्बिक भावना अर्थात् कौटुम्बिक भावना आधारित समाज | | * समाजिक सबंधोंका आधार स्वार्थ या कौटुम्बिक भावना अर्थात् कौटुम्बिक भावना आधारित समाज |
| * वर्णानुक्रम - मनुष्य के व्यक्तित्व में सबसे प्रभावी वर्ण और दूसरे क्रमांक का वर्ण | | * वर्णानुक्रम - मनुष्य के व्यक्तित्व में सबसे प्रभावी वर्ण और दूसरे क्रमांक का वर्ण |
| * अंग्रेजी में अनुवाद नहीं करना चाहिए ऐसे भारतीय संकल्पनात्मक शब्दोंकी सूची | | * अंग्रेजी में अनुवाद नहीं करना चाहिए ऐसे भारतीय संकल्पनात्मक शब्दोंकी सूची |
| * मम हिताय मम सुखाय से सर्वे भवन्तु सुखिन: की ओर - परिवर्तनकी प्रक्रिया | | * मम हिताय मम सुखाय से सर्वे भवन्तु सुखिन: की ओर - परिवर्तनकी प्रक्रिया |
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