बलवान होते ही आक्रमण करने वालों की संस्कृति, उस संस्कृति से, जिसने बलवान होकर भी कभी आक्रमण नहीं किये, अच्छी नहीं हो सकती। हम केवल समाज के अवरोधों की ही बात बच्चों के दिमाग में ठूंसते है । स्वामी विवेकानंदजी कहते थे कि हमें अंग्रेजों द्वारा पढ़ाया जाने वाला इतिहास: हमारे पूर्वज कैसे हीन थे, कैसे जंगली थे, उन्हें गालियाँ देने वाला ही है। स्वाधीन भारत में भी हमारे गौरवपूर्ण इतिहास को नकारा गया है। 'गुप्तकाल एक स्वर्णयुग' के जिस गौरवशाली इतिहास को पढाने के लिये अंग्रेज भी बाध्य थे उसे हमने हमारे स्वाधीन भारत के इतिहास से निष्कासित कर दिया है। अपने पूर्वजों के प्रति गौरव करने योग्य सैंकड़ों बातें हैं जिन से हमारे बच्चों को वंचित किया जाता है। महात्मा गांधीजी के अनुयायी धर्मपालजी ने अंग्रेजों द्वारा ही संग्रहित की हुई जानकारी के प्रकाश में सिद्ध किया है कि १८ वीं सदी तक भारत अनेकों क्षेत्रों में विश्व में सर्वश्रेष्ठ था। किंतु उस की जानकारी का स्पर्श भी हम अपने बच्चों को या युवकों को नहीं होने देते। ऐसे बच्चे यदि पढ़ लिख कर देश को लात मारकर विदेशों में चले जाते है तो इस का जिम्मेदार हमारा पढ़ाया जाने वाला आत्मनिंदा सिखाने वाला इतिहास ही है। हम अब भी अंग्रेजों की मानसिक गुलामी से बाहर नहीं निकल रहे हैं, यही इस से सिद्ध होता है। | बलवान होते ही आक्रमण करने वालों की संस्कृति, उस संस्कृति से, जिसने बलवान होकर भी कभी आक्रमण नहीं किये, अच्छी नहीं हो सकती। हम केवल समाज के अवरोधों की ही बात बच्चों के दिमाग में ठूंसते है । स्वामी विवेकानंदजी कहते थे कि हमें अंग्रेजों द्वारा पढ़ाया जाने वाला इतिहास: हमारे पूर्वज कैसे हीन थे, कैसे जंगली थे, उन्हें गालियाँ देने वाला ही है। स्वाधीन भारत में भी हमारे गौरवपूर्ण इतिहास को नकारा गया है। 'गुप्तकाल एक स्वर्णयुग' के जिस गौरवशाली इतिहास को पढाने के लिये अंग्रेज भी बाध्य थे उसे हमने हमारे स्वाधीन भारत के इतिहास से निष्कासित कर दिया है। अपने पूर्वजों के प्रति गौरव करने योग्य सैंकड़ों बातें हैं जिन से हमारे बच्चों को वंचित किया जाता है। महात्मा गांधीजी के अनुयायी धर्मपालजी ने अंग्रेजों द्वारा ही संग्रहित की हुई जानकारी के प्रकाश में सिद्ध किया है कि १८ वीं सदी तक भारत अनेकों क्षेत्रों में विश्व में सर्वश्रेष्ठ था। किंतु उस की जानकारी का स्पर्श भी हम अपने बच्चों को या युवकों को नहीं होने देते। ऐसे बच्चे यदि पढ़ लिख कर देश को लात मारकर विदेशों में चले जाते है तो इस का जिम्मेदार हमारा पढ़ाया जाने वाला आत्मनिंदा सिखाने वाला इतिहास ही है। हम अब भी अंग्रेजों की मानसिक गुलामी से बाहर नहीं निकल रहे हैं, यही इस से सिद्ध होता है। |