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== ज्ञानार्जन प्रक्रिया ==
 
== ज्ञानार्जन प्रक्रिया ==
सभी करण समवेत रूप में ज्ञान ग्रहण करते हैं। कोई एक भी करण यदि ठीक रूप में ज्ञानार्जन के कार्य में संलग्न नहीं हुआ है तो ज्ञानार्जन ठीक से नहीं होता । इसलिए सभी करणों का कार्य एकदूसरे से संलग्न होकर कैसे होता है इसे समझना जरूरी है।
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सभी करण समवेत रूप में ज्ञान ग्रहण करते हैं। कोई एक भी करण यदि ठीक रूप में ज्ञानार्जन के कार्य में संलग्न नहीं हुआ है तो ज्ञानार्जन ठीक से नहीं होता । इसलिए सभी करणों का कार्य एकदूसरे से संलग्न होकर कैसे होता है इसे समझना आवश्यक है।
    
कर्मेन्द्रियाँ क्रिया करती हैं। क्रिया संवेदनों में रूपांतरित होती हैं। थोड़ा विचार करने पर ध्यान में आता है कि हाथ, पैर, वाणी कि क्रिया ज्ञानेन्द्रियों के संवेदनों के बिना व्यवहार में सम्भव नहीं होती हैं। उदाहरण के लिये कान से सुने बिना वाणी से बोला नहीं जाता है । वाणी श्रवणेन्द्रिय का ही अनुसरण करती है । हाथ के साथ स्पर्शेन्द्रिय जुड़ी हुई है । स्पर्श के बिना हाथ का काम होता ही नहीं है । अर्थात संवेदन का क्रिया में और क्रिया का संवेदन में रूपांतर होता है । कर्मेन्द्रियों की क्रिया और ज्ञानेन्द्रियों का संवेदन विचारों में रूपांतरित होकर मन ग्रहण करता है । मन विषय को भौतिक स्वरूप में ग्रहण नहीं कर सकता । अत: क्रिया और संवेदनों का रूपान्तरण विचारों में होना ही होता है। मन पदार्थ को विचार के रूप में ग्रहण कर अपने विभिन्न भावों के रंगों में रंगता है । मन में यदि आसक्ति है तो उसके और द्वेष है तो उसके रंग में रंगता है। आसक्ति है तो वस्तु उसे पसन्द होती है और वह सुख का अनुभव करता है। द्वेष है तो पदार्थ उसे नापसन्द होता है और वह दुःख का अनुभव करता है । इससे विषय या पदार्थ का भौतिक स्वरूप बदल जाता है। वह इन्द्रियों के अनुरूप नहीं अपितु मन के अनुरूप हो जाता है । ऐसे रागद्वेष, सुखदुःख और अच्छे बुरे के रूप में पदार्थ के विचार तरंग बुद्धि के समक्ष प्रस्तुत होते हैं। बुद्धि मन के द्वारा प्रस्तुत हुए विचार तरंगों पर अपने साधनों से अनेक प्रकार की प्रक्रिया करती है । बुद्धि के साधन हैं निरीक्षण, परीक्षण, तर्क, अनुमान, संश्लेषण, विश्लेषण, साम्यभेद और तुलना | इनमें प्रथम दो अर्थात निरीक्षण और परीक्षण के लिये वह ज्ञानेन्द्रियों का सहयोग लेती है । हम आँख से निरीक्षण करते हैं और शेष इन्द्रियों से परीक्षण करते हैं । शेष सब बुद्धि की ही शक्ति पर निर्भर करते हैं । तर्क का अर्थ है किसी भी घटना का कार्यकारण भाव जानना । व्यवहारजगत में सभी घटनायें कार्यकारण संबन्ध से जुड़ी हुई ही रहती हैं । उदाहरण के लिये पानी गिरता है तभी भूमि गीली होती है, उसके बिना नहीं । मनुष्य क्रोध, भय, हर्ष आदि भावों के अनुभव को व्यक्त करने के लिये ही चिल्लाता है । आनंद का अनुभव करता है और नाचता है । भूख लगती है तब खाता है । अर्थात किसी भी कार्य के लिये कारण रहता ही है । कार्य कारण का परिणाम है और कारण कार्य का स्रोत है । इस कार्यकारण संबन्ध को जानना बुद्धि का काम है।
 
कर्मेन्द्रियाँ क्रिया करती हैं। क्रिया संवेदनों में रूपांतरित होती हैं। थोड़ा विचार करने पर ध्यान में आता है कि हाथ, पैर, वाणी कि क्रिया ज्ञानेन्द्रियों के संवेदनों के बिना व्यवहार में सम्भव नहीं होती हैं। उदाहरण के लिये कान से सुने बिना वाणी से बोला नहीं जाता है । वाणी श्रवणेन्द्रिय का ही अनुसरण करती है । हाथ के साथ स्पर्शेन्द्रिय जुड़ी हुई है । स्पर्श के बिना हाथ का काम होता ही नहीं है । अर्थात संवेदन का क्रिया में और क्रिया का संवेदन में रूपांतर होता है । कर्मेन्द्रियों की क्रिया और ज्ञानेन्द्रियों का संवेदन विचारों में रूपांतरित होकर मन ग्रहण करता है । मन विषय को भौतिक स्वरूप में ग्रहण नहीं कर सकता । अत: क्रिया और संवेदनों का रूपान्तरण विचारों में होना ही होता है। मन पदार्थ को विचार के रूप में ग्रहण कर अपने विभिन्न भावों के रंगों में रंगता है । मन में यदि आसक्ति है तो उसके और द्वेष है तो उसके रंग में रंगता है। आसक्ति है तो वस्तु उसे पसन्द होती है और वह सुख का अनुभव करता है। द्वेष है तो पदार्थ उसे नापसन्द होता है और वह दुःख का अनुभव करता है । इससे विषय या पदार्थ का भौतिक स्वरूप बदल जाता है। वह इन्द्रियों के अनुरूप नहीं अपितु मन के अनुरूप हो जाता है । ऐसे रागद्वेष, सुखदुःख और अच्छे बुरे के रूप में पदार्थ के विचार तरंग बुद्धि के समक्ष प्रस्तुत होते हैं। बुद्धि मन के द्वारा प्रस्तुत हुए विचार तरंगों पर अपने साधनों से अनेक प्रकार की प्रक्रिया करती है । बुद्धि के साधन हैं निरीक्षण, परीक्षण, तर्क, अनुमान, संश्लेषण, विश्लेषण, साम्यभेद और तुलना | इनमें प्रथम दो अर्थात निरीक्षण और परीक्षण के लिये वह ज्ञानेन्द्रियों का सहयोग लेती है । हम आँख से निरीक्षण करते हैं और शेष इन्द्रियों से परीक्षण करते हैं । शेष सब बुद्धि की ही शक्ति पर निर्भर करते हैं । तर्क का अर्थ है किसी भी घटना का कार्यकारण भाव जानना । व्यवहारजगत में सभी घटनायें कार्यकारण संबन्ध से जुड़ी हुई ही रहती हैं । उदाहरण के लिये पानी गिरता है तभी भूमि गीली होती है, उसके बिना नहीं । मनुष्य क्रोध, भय, हर्ष आदि भावों के अनुभव को व्यक्त करने के लिये ही चिल्लाता है । आनंद का अनुभव करता है और नाचता है । भूख लगती है तब खाता है । अर्थात किसी भी कार्य के लिये कारण रहता ही है । कार्य कारण का परिणाम है और कारण कार्य का स्रोत है । इस कार्यकारण संबन्ध को जानना बुद्धि का काम है।

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