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ब्रिटिश एवं यूरोपीयों के मतानुसार सत्रहवीं एवं अठारहवीं शताब्दी में भारत की आन्तरिक स्थिति कुछ ऐसी थी। उस समय प्रजा राज्यकर्ता के दबाव में नहीं थी। उल्टे राज्यकर्ता प्रजा के दबाव में रहता था।<ref>ब्रिटिशों के भारत में आने से पूर्व के शासक शासित सम्बन्धों के विषय में भारत सरकार के, बंगाल, मुंबई और मद्रास प्रेसीडेन्सी के अभिलेखागारों में ब्रिटिशों द्वारा निर्मित विपुल सामग्री उपलब्ध है। यही सामग्री अठारहवीं एवं उन्नीसवीं शताब्दी की है। इस काल के इंग्लैण्ड के भारत विषयक सरकारी कागजों में भी ऐसी सामग्री मिलती है। ब्रिटिश हाउस ऑव् कॉमन्स की सिलेक्ट कमिटी के समक्ष की हुई प्रस्तुति में इतिहासकार जेम्स मिल ने भी इस प्रकार की जानकारी दी है।
 
ब्रिटिश एवं यूरोपीयों के मतानुसार सत्रहवीं एवं अठारहवीं शताब्दी में भारत की आन्तरिक स्थिति कुछ ऐसी थी। उस समय प्रजा राज्यकर्ता के दबाव में नहीं थी। उल्टे राज्यकर्ता प्रजा के दबाव में रहता था।<ref>ब्रिटिशों के भारत में आने से पूर्व के शासक शासित सम्बन्धों के विषय में भारत सरकार के, बंगाल, मुंबई और मद्रास प्रेसीडेन्सी के अभिलेखागारों में ब्रिटिशों द्वारा निर्मित विपुल सामग्री उपलब्ध है। यही सामग्री अठारहवीं एवं उन्नीसवीं शताब्दी की है। इस काल के इंग्लैण्ड के भारत विषयक सरकारी कागजों में भी ऐसी सामग्री मिलती है। ब्रिटिश हाउस ऑव् कॉमन्स की सिलेक्ट कमिटी के समक्ष की हुई प्रस्तुति में इतिहासकार जेम्स मिल ने भी इस प्रकार की जानकारी दी है।
</ref> राज्यकर्ता के अन्यायपूर्ण व्यवहार करने पर उस समय के नियम के अनुसार उसे बदल दिया जाता था। यही कानून राजा एवं प्रजा के सम्बन्धों में आन्तरिक सभ्यता बनाए रखने में सहायक था। प्रथा ऐसी थी कि जब कोई मुलाकाती आए तो अतिथि तथा यजमान दोनों एकदूसरे को भेंट देते थे।उसमें मेहमान द्वारा लाई गई भेट सामान्य रूप से कम महंगी व छोटी होती थी परन्तु यजमान द्वारा उसे कीमती भेंटसौगातें दी जाती थीं। ऐसी ही सभ्यता न्यायालयों में भी कायम थी। वहाँ आनेवाला प्रत्येक व्यक्ति जाते समय पान सुपारी की अपेक्षा करता था जो उसे अवश्य दिया जाता था।<ref>राजा और प्रजा के आपसी सम्बन्ध और भेंट के आदानप्रदान के विषय में सामग्री १८वीं एवं १९वीं शताब्दी के अभिलेखागारों में उपलब्ध है।
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</ref> राज्यकर्ता के अन्यायपूर्ण व्यवहार करने पर उस समय के नियम के अनुसार उसे बदल दिया जाता था। यही कानून राजा एवं प्रजा के सम्बन्धों में आन्तरिक सभ्यता बनाए रखने में सहायक था। प्रथा ऐसी थी कि जब कोई मुलाकाती आए तो अतिथि तथा यजमान दोनों एकदूसरे को भेंट देते थे।उसमें मेहमान द्वारा लाई गई भेंट सामान्य रूप से कम महंगी व छोटी होती थी परन्तु यजमान द्वारा उसे कीमती भेंटसौगातें दी जाती थीं। ऐसी ही सभ्यता न्यायालयों में भी कायम थी। वहाँ आनेवाला प्रत्येक व्यक्ति जाते समय पान सुपारी की अपेक्षा करता था जो उसे अवश्य दिया जाता था।<ref>राजा और प्रजा के आपसी सम्बन्ध और भेंट के आदानप्रदान के विषय में सामग्री १८वीं एवं १९वीं शताब्दी के अभिलेखागारों में उपलब्ध है।
 
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