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| इस प्रकार जीवन की अनेक बातें ऐसी हैं जो घर में सीखी जाती हैं । आज भी ऐसा हो सकता है । परन्तु आज स्थिति बहुत बदल गई है । विगत दो सौ वर्षों में हमारी समाजव्यवस्था छिन्नभिन्न हो गई है । अपनी व्यवस्था को छोड़कर हम उल्टी दिशा में आगे बढ़ रहे हैं । यह दिशा यदि अधिक सुख और अधिक संस्कारिता की ओर हमें ले जाती तो दिशा बदलने में भी कोई आपत्ति नहीं होती । परन्तु हमारे भौतिक और सांस्कृतिक संकट तो बढ़ रहे हैं । सामाजिक सुरक्षा नहीं है, आर्थिक निश्चिन्तता नहीं है, पारिवारिक सम्बन्ध क्षीण हो रहे हैं । समाजव्यवस्था व्यक्तिकेन्द्रित बन गई है। हमने पूर्ण रूप से पाश्चात्य सामाजिक प्रतिमान अपना लिया है । कानून उसके अनुकूल बना लिये हैं । इसके चलते कुटुम्ब शिक्षा का केन्द्र नहीं रह गया है । कुटुम्ब में शिक्षा नहीं होने के कारण से शिक्षा की कुटुम्बबाह्य व्यवस्था बनाना हमारे लिये अनिवार्य बन गया है । अथवा यह भी कहना सही नहीं है । स्वतन्त्रता से पूर्व ही विद्यालय शुरू हो गये थे, शिक्षा को बाजार में लाया गया था, क्रयविक्रय की स्थिति बन गई थी, सरकार ने शिक्षा की व्यवस्था का नियंत्रण अपने हाथ में ले लिया था जिसके परिणामस्वरूप घर की शिक्षा में व्यवधान आने लगा । लोग अपना घर का व्यवसाय छोड़ छोड़कर नौकरी करने लगे । कहीं यह प्रतिष्ठा के कारण से था, कहीं यह मजबूरी के कारण, परन्तु अर्थव्यवस्था के छिन्नभिन्न हो जाने के कारण नौकरी करने वालों की संख्या बढ़ती गई, नौकरी हेतु घर छोड़कर बाहर जाकर बसने वालों की संख्या भी बढ़ती गई । | | इस प्रकार जीवन की अनेक बातें ऐसी हैं जो घर में सीखी जाती हैं । आज भी ऐसा हो सकता है । परन्तु आज स्थिति बहुत बदल गई है । विगत दो सौ वर्षों में हमारी समाजव्यवस्था छिन्नभिन्न हो गई है । अपनी व्यवस्था को छोड़कर हम उल्टी दिशा में आगे बढ़ रहे हैं । यह दिशा यदि अधिक सुख और अधिक संस्कारिता की ओर हमें ले जाती तो दिशा बदलने में भी कोई आपत्ति नहीं होती । परन्तु हमारे भौतिक और सांस्कृतिक संकट तो बढ़ रहे हैं । सामाजिक सुरक्षा नहीं है, आर्थिक निश्चिन्तता नहीं है, पारिवारिक सम्बन्ध क्षीण हो रहे हैं । समाजव्यवस्था व्यक्तिकेन्द्रित बन गई है। हमने पूर्ण रूप से पाश्चात्य सामाजिक प्रतिमान अपना लिया है । कानून उसके अनुकूल बना लिये हैं । इसके चलते कुटुम्ब शिक्षा का केन्द्र नहीं रह गया है । कुटुम्ब में शिक्षा नहीं होने के कारण से शिक्षा की कुटुम्बबाह्य व्यवस्था बनाना हमारे लिये अनिवार्य बन गया है । अथवा यह भी कहना सही नहीं है । स्वतन्त्रता से पूर्व ही विद्यालय शुरू हो गये थे, शिक्षा को बाजार में लाया गया था, क्रयविक्रय की स्थिति बन गई थी, सरकार ने शिक्षा की व्यवस्था का नियंत्रण अपने हाथ में ले लिया था जिसके परिणामस्वरूप घर की शिक्षा में व्यवधान आने लगा । लोग अपना घर का व्यवसाय छोड़ छोड़कर नौकरी करने लगे । कहीं यह प्रतिष्ठा के कारण से था, कहीं यह मजबूरी के कारण, परन्तु अर्थव्यवस्था के छिन्नभिन्न हो जाने के कारण नौकरी करने वालों की संख्या बढ़ती गई, नौकरी हेतु घर छोड़कर बाहर जाकर बसने वालों की संख्या भी बढ़ती गई । |
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− | पीढ़ीयाँ बदलती गईं वैसे वैसे यह सब हमारे लिये स्वाभाविक होता गया क्योंकि शिक्षाव्यवस्था में भी यह सब आ गया । नई पद्धति पाठ्यक्रमों के माध्यम से प्रतिष्ठित होती गई | कानून उसके अनुकूल बनने लगे । सरकारी | + | पीढ़ीयाँ बदलती गईं वैसे वैसे यह सब हमारे लिये स्वाभाविक होता गया क्योंकि शिक्षाव्यवस्था में भी यह सब आ गया । नई पद्धति पाठ्यक्रमों के माध्यम से प्रतिष्ठित होती गई । कानून उसके अनुकूल बनने लगे । सरकारी नीतियाँ उसीके आधार पर बनने लगीं । हमने इस व्यवस्था को अपना लिया । अब हम उसे पाश्चात्य या अमारतीय |
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− | ''. अधिक मात्रा में ठीक करना होगा | नीतियाँ उसी के आधार पर बनने लगीं । हमने इस व्यवस्था... पर्यावरण के संकट को ठीक से पहचान कर उसे भारतीय को अपना लिया । अब हम उसे पाश्चात्य या अभारतीय दृष्टि से दूर करने की योजना बनानी होगी । पर्यावरण के''
| + | नहीं कहते हैं, आधुनिक कहते हैं । हमें लगता है कि इसका कोई विकल्प नहीं है , न हो सकता है क्योंकि हमने हमारी अपनी व्यवस्थाओं का परिचय भी प्राप्त किया नहीं है। उल्टे कभी उल्लेख होता है तो उसे पिछड़े का लेबल लगा देते हैं। अब चारों ओर सामाजिक, आर्थिक, पारिवारिक क्षेत्र में समस्या ही समस्या है। |
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− | ''नहीं कहते हैं, आधुनिक कहते हैं । हमें लगता है कि इसका... संकट के साथ हमारे शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य का''
| + | == नई रचना बनानी होगी == |
| + | इस कारण से कितना भी अपरिचित या असंभव लगता हो तो भी हमें पुनर्विचार तो करना ही होगा | पुनर्विचार का प्रारंभ अध्ययन से करना चाहिए। हमारी व्यवस्थायें कैसी थीं इसका परिचय प्राप्त करना प्रथम चरण होगा | अध्ययन प्रारंभ करने से पूर्व ही कुछ आस्था तो रखनी ही पड़ेगी। अध्ययन करते करते आस्था बढ़ेगी। हमें उस व्यवस्था की परिणामकारकता भी दिखाई देने लगेगी | अध्ययन के आधार पर वर्तमान समय के अनुकूल नई व्यवस्थाओं का विचार करना होगा। आर्थिक क्षेत्र बहुत अधिक मात्रा में ठीक करना होगा। |
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− | ''कोई विकल्प नहीं है , न हो सकता है क्योंकि हमने हमारी. संकट कितना गहरा जुड़ा है यह भी समझना होगा । इन''
| + | पर्यावरण के संकट को ठीक से पहचान कर उसे भारतीय दृष्टि से दूर करने की योजना जनानी होगी | पर्यावरण के संकट के साथ हमारे शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य का संकट कितना गहरा जुड़ा है यह भी समझना होगा। इन दोनों संकटों के कारण चिकित्सा उद्योग, औषध उद्योग, वकीलों का उद्योग और न्यायालयों की संख्या कितनी अधिक बढ़ गई है इसका गंभीरतापूर्वक विचार करना होगा । शिक्षा का बाजार कितना घातक हो गया है यह भी समझना होगा | इन सारी बातों को ध्यान में लेकर नई रचना बनानी होगी। थोड़ी दीर्घकालीन योजना बनानी होगी । दीर्घकालीन हो या त्वरित, कुटुम्बजीवन को केन्द्र में रखकर यह पुनर्विचार होने की आवश्यकता है | इस कार्य में दो संस्थायें पहल कर सकती हैं | एक है विश्वविद्यालय और दूसरी है मन्दिर संस्था या धर्मसंस्था । भारतीय समाज और भारतीय शिक्षा हमेशा धर्मानुसारी रही हैं। धर्म ही सुरक्षा और विकास की गारण्टी दे सकता है । यदि हम ऐसा करते हैं तो हमारी स्थिति भी ठीक होगी और विश्व को भी एक अच्छा प्रारूप मिल सकता है। |
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− | ''अपनी व्यवस्थाओं का परिचय भी प्राप्त किया नहीं है।. दोनों संकटों के कारण चिकित्सा उद्योग, औषध उद्योग,''
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− | ''अध्याय २६''
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− | ''कुटुम्ब में शिक्षा''
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− | ''सीखा कैसे जाता है इसकी चर्चा जब होती है तब. में होती है । इस दृष्टि से कुटुम्ब में शिक्षा यह Pama''
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− | ''आपग्रहपूर्वक कहा जाता है कि साथ रहकर सीखना अथवा... का एक महत्त्वपूर्ण विषय है । इसलिए यह देखना महत्त्वपूर्ण''
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| ==References== | | ==References== |
| <references /> | | <references /> |
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| [[Category:पर्व 5: कुटुम्ब शिक्षा एवं लोकशिक्षा]] | | [[Category:पर्व 5: कुटुम्ब शिक्षा एवं लोकशिक्षा]] |