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भूगु कुल में उत्पन्न व्यक्तियों में जमदग्नि ऋषि औररेणुका देवी के पुत्र परशुराम का नाम सर्वप्रमुख है। इनकी गणना भगवान् विष्णु के दश अवतारों में हुई है। ये छठे अवतार थे। इन्होंने कश्यप ऋषि से मंत्र-विद्या और भगवान्शिव से धनुर्वेद प्राप्त किया था। ये महापराक्रमी हुए हैं। इनकी माता सूर्यवंश की राजकुमारी और इनकी पितामही (जमदग्नि की माता) कान्यकुब्ज के चंद्रवंश की राजकुमारी तथा विश्वामित्र की बड़ी बहिन थीं। इस प्रकार इनका निकट संबंध अपने समय के दोनों प्रसिद्ध क्षत्रिय राजवंशों से था। जब कार्तवीर्य सहस्त्रार्जुन नेइनकी अनुपस्थिति में इनके तपस्यारत पिता जमदग्नि का वध कर दिया तो इन्होंने क्रोधावेश में सहस्त्रार्जुन सहित विश्वभर के सारे अत्याचारी राजाओं और उनके जन-उत्पीड़नकारी सहायकों का संहार किया तथा समस्त पृथ्वी जीतकर अपने मंत्रविद्या-गुरु कश्यप ऋषि कोदानमेंदे दी और स्वयं पश्चिम-सागर के तट पर समुद्र में से नयी भूमि का निर्माण कर वहाँ तप करने लगे। इन्होंने कामरूप (असम) में भी तपस्या की और पर्वतों से घिरकर विशाल सागर सा बनाये ब्रह्मपुत्र महानद को, अपने परशु से पर्वत काटकर, भारत की ओर बहने का मार्ग दिया। उस तप:स्थान पर आज भी परशुरामकुंड प्रसिद्ध है। महाभारत के तीन दुर्धर्ष महावीर – भीष्म, द्रोण और कर्ण – इनके शिष्य और चौथे अर्जुन इनके शिष्य के शिष्य थे। शिव के परम भक्त परशुराम तेजस्विता, अत्याचार के प्रचंड प्रतिशोध एवं अनीतिविरोधी विकट प्रतिकार के प्रतीक हैं।
 
भूगु कुल में उत्पन्न व्यक्तियों में जमदग्नि ऋषि औररेणुका देवी के पुत्र परशुराम का नाम सर्वप्रमुख है। इनकी गणना भगवान् विष्णु के दश अवतारों में हुई है। ये छठे अवतार थे। इन्होंने कश्यप ऋषि से मंत्र-विद्या और भगवान्शिव से धनुर्वेद प्राप्त किया था। ये महापराक्रमी हुए हैं। इनकी माता सूर्यवंश की राजकुमारी और इनकी पितामही (जमदग्नि की माता) कान्यकुब्ज के चंद्रवंश की राजकुमारी तथा विश्वामित्र की बड़ी बहिन थीं। इस प्रकार इनका निकट संबंध अपने समय के दोनों प्रसिद्ध क्षत्रिय राजवंशों से था। जब कार्तवीर्य सहस्त्रार्जुन नेइनकी अनुपस्थिति में इनके तपस्यारत पिता जमदग्नि का वध कर दिया तो इन्होंने क्रोधावेश में सहस्त्रार्जुन सहित विश्वभर के सारे अत्याचारी राजाओं और उनके जन-उत्पीड़नकारी सहायकों का संहार किया तथा समस्त पृथ्वी जीतकर अपने मंत्रविद्या-गुरु कश्यप ऋषि कोदानमेंदे दी और स्वयं पश्चिम-सागर के तट पर समुद्र में से नयी भूमि का निर्माण कर वहाँ तप करने लगे। इन्होंने कामरूप (असम) में भी तपस्या की और पर्वतों से घिरकर विशाल सागर सा बनाये ब्रह्मपुत्र महानद को, अपने परशु से पर्वत काटकर, भारत की ओर बहने का मार्ग दिया। उस तप:स्थान पर आज भी परशुरामकुंड प्रसिद्ध है। महाभारत के तीन दुर्धर्ष महावीर – भीष्म, द्रोण और कर्ण – इनके शिष्य और चौथे अर्जुन इनके शिष्य के शिष्य थे। शिव के परम भक्त परशुराम तेजस्विता, अत्याचार के प्रचंड प्रतिशोध एवं अनीतिविरोधी विकट प्रतिकार के प्रतीक हैं।
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<blockquote>'''भगीरथश्चैकलव्यो मनुर्धन्वन्तरिस्तथा । शिबिश्च रन्तिदेवश्च पुराणोद्गीतकीर्तयः ॥ १४ ॥'''</blockquote>'''<big>भगीरथ</big>'''
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राजा सगर के वंशज और इक्ष्वाकुवंशी राजा दिलीप के पुत्र भगीरथ की कीर्ति गंगा को भूलोक पर लाकरअपने उन पूर्वजों (राजा सगर के पुत्रों) का उद्धार करने के कारण हैजो कपिल मुनि के कोप से दग्ध हुए थे। गंगा को पृथ्वी पर लाने के लिए राजा भगीरथ के पिता और पितामह ने भी प्रयास किये थे,पर वे सफल नहीं हो पाये थे। भगीरथ अपने कठोर तप से इस कार्य में सफल हुए, इसलिए गंगा को भागीरथी नाम से अभिहित किया जाता है। गंगा की धारा को भूतल पर लाकर राजा भगीरथ ने भारत को श्रीवृद्धि प्रदान की और पितृ-ऋण से भी मुक्त हुए। कठोर साधना के लिए भगीरथ—प्रयत्न एक मुहावरा बन गया है।
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'''<big>एकलव्य</big>'''
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आदर्श गुरुभक्त, श्रेष्ठ धनुर्धर, वचनधनी एकलव्य व्याधों के राजा हिरण्यधनु का पुत्र था। महाभारत काल के धनुर्विद्या के सर्वश्रेष्ठ आचार्य द्रोण से विद्या पाने की अभिलाषा लेकर एकलव्य उनके पास गया। किन्तु द्रोणाचार्य ने राज्य के उत्तराधिकारियों को दी जा रही शस्त्र-विद्या इस वनवासी बालक को देना राज्य के लिए अहितकर मानकर उसे सिखाने से इन्कार कर दिया। तब एकलव्य नेद्रोणाचार्य की मिट्टी की प्रतिमा बनायी,उसे गुरु मान्य किया अनुकरण करते हुए और मानो उनके आदेश-निर्देश से धनुर्विद्या का अभ्यास कर श्रेष्ठ धनुर्धारी बन गया। बाद में गुरुदक्षिणा में गुरु द्रोण द्वारा अंगूठा माँगे जाने पर बिना हिचक अपना अंगूठा देकर गुरुभक्ति का आदर्श प्रस्थापित किया। उसकी स्मृति में आज भी भील जनजाति के अनेक लोग धनुष-वाण चलाते समय अपने अंगूठे का प्रयोग नहीं करते।
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'''<big>मनु</big>'''
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मानव जाति के आदि-पुरुष और धर्मशास्त्र के प्रणेता मनुने जलप्लावन के समय पृथ्वी के डूब जाने पर अपनी नौका में सृष्टि के सब बीज सुरक्षित रख लिये थे, जिनके आधार पर जलप्लावन उतर जाने के बाद उन्होंने धरती को सर्व सम्पन्नता प्रदान की और नूतन मानव संस्कृति का निर्माण किया। ईसाइयों और मुसलमानों में भी नोअह और हजरत नूह के नाम से यही कथा प्रचलित है। मनु अनेक हुए हैं। पुराणों के अनुसार प्रत्येक कल्प के चौदह मन्वन्तरों में अलग-अलग चौदह मनुओं का शासन होता है। वर्तमान मनुवैवस्वत अर्थात् सूर्यपुत्र कहलाते हैं और इसलिए यह मन्वन्तर भी वैवस्वत मन्वन्तर कहलाता है।
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'''<big>धन्वन्तरि</big>'''
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देवताओं के वैद्य एवं आयुर्वेद शास्त्र' के प्रवर्तक। समुद्र-मंथन से आविभूत चौदह रत्नों में से एक धन्वन्तरि थे जो हाथ में अमृत-कलश धारण कर समुद्र में से प्रादुभूत हुए। भगवान्विष्णु के आशीर्वचनानुसार धन्वन्तरि ने द्वापर युग में काशिराज धन्व के पुत्र के रूप में पुनर्जन्म लिया, आयुर्वेद को आठ विभागों में विभक्त किया और प्रजा को रोग-मुक्त किया। वैद्यक और शल्यशास्त्र में पारंगत व्यक्तियों को धन्वन्तरि कहने का प्रचलन है। धन्वन्तरि के नाम पर आयुर्वेद के अनेक ग्रंथ प्रसिद्ध हैं।
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'''<big>शिबि</big>'''
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शरणागत-रक्षण का आदर्श प्रस्तुत करने वाले राजा शिबि उशीनर के राजा थे। एक बार इन्द्र ने उनकी शरणागत-रक्षणशीलता की परीक्षा लेने की ठानी। इसके लिए अग्नि भयभीत कबूतर का रूप धारण कर उड़ते हुए आयें और राजा शिबि की गोद में छिपने का प्रयास करने लगे। पीछे से बाज बनकर झपटते हुए इन्द्र आये और कबूतर को अपना भोज्य बताकर शिबि से उसकी माँग करने लगे। कबूतर के बदले और कुछ न लेने के हठ पर अड़ा हुआ बाज अन्त में इस बात पर माना कि शिबि कबूतर के ही भार के बराबर अपना मांस काटकर देंगे। जब राजा शिबि के एक-एक अंग का मांस कट जाने पर भी कबूतर के भार के समतुल्य नहीं हुआ तो उन्होंने अपने को सम्पूर्णत:बाज के सामने प्रस्तुत कर दिया। राजा शिबि को शरणागत-रक्षण की परीक्षा में खरा उतरा देखकर देवों ने साक्षात् प्रकट होकर उन्हें आशीर्वाद दिया और उनके शरीर को अक्षत कर दिया।
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'''<big>रन्तिदेव</big>'''
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महाराज संकुति के पुत्र, महाराज रन्तिदेव आतिथ्य-धर्म और परदु:खकातरता के मूर्तिमान प्रतीक थे। उन्होंने आगत की इच्छा जानते ही इच्छित वस्तु देने का व्रत धारण किया था। उदार आतिथ्य-सत्कार और दानशीलता के कारण राजकोष रिक्त हो गया। एक बार राज्य में भयंकर दुर्भिक्ष पड़ा। दीन-दु:खी और आर्तजनों को सब कुछ बाँटकर पूर्णतया अकिचन बनकर राजा रन्तिदेव अपनी पत्नी और संतान को लेकर वन में चले गये। वन में अड़तालीस दिन भूखे रहने के पश्चात् जब थोड़ा सा भोजन मिला तो वहाँ भी देवता अतिथि रूप धारण कर इनकी परीक्षा लेने आ पहुँचे। अपने सामने प्रस्तुत भोजन आगन्तुकों को देकर वे स्वयं भूख-प्यास से मूच्छित होकर गिर पड़े, किन्तु अतिथि-सेवा की कड़ी परीक्षा में खरे उतरे। इनकी एकमात्र अभिलाषा थी-“न त्वहं कामये राज्यं न स्वर्ग नापुनर्भवम्। कामये दु:खतप्तानां प्राणिनामार्तिनाशनम्।"
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(मुझे न तो राज्य चाहिए, न स्वर्गचाहिएऔरन ही मोक्ष चाहिए। मेरी एकमात्र कामना यह है कि दु:खों से पीड़ित प्राणियों के कष्ट समाप्त हो जायें।)
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बुद्धा जिनेन्द्रा गोरक्ष: पाणिनिश्च पतज्जलि: । शडश्करो मध्वनिम्बाकी श्रीरामानुजवल्लभौ।15 ॥
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