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| पंजाब का धार्मिक-ऐतिहासिक नगर, जो सिख पंथ का प्रमुख तीर्थ स्थान है।इसकी नींव सिख पंथ के चौथे गुरु रामदास ने युगाब्द 4678 (1577 ई०) मेंडाली। मन्दिर का निर्माण-कार्य आरम्भ होने से पूर्व उसके चारों ओर उन्होंने एक ताल खुदवाना आरम्भ किया। मन्दिर के निर्माण का कार्य उनके पुत्र तथा पाँचवे गुरु अर्जुनदेव ने हरिमन्दिर बनवाकर पूरा किया। सरोवर एवं हरिमंदिर के चारों ओरद्वार रखे गये जिससे सब ओर से श्रद्धालु उसमें आ सकें। महाराजा रणजीत सिंह ने मंदिर की शोभा बढ़ाने के लिए बहुत धन व्यय किया। तब से वह स्वर्णमन्दिर कहलाने लगा। अंग्रेजी दासता के काल में 13 अप्रैल 1919 को स्वर्णमंदिर से लगभग दो फलांग की दूरी पर जलियाँवाला बाग में स्वतंत्रता की माँग कर रहीएक शान्तिपूर्ण सार्वजनिक सभा पर जनरल डायर ने गोली चलवाकर भीषण नरसंहार किया था। डेढ़हजार व्यक्ति घायल हुएअथवा मारेगये थे। वहाँउन आत्म-बलिदानियों की स्मृति में एक स्मारक बनाया गया है। | | पंजाब का धार्मिक-ऐतिहासिक नगर, जो सिख पंथ का प्रमुख तीर्थ स्थान है।इसकी नींव सिख पंथ के चौथे गुरु रामदास ने युगाब्द 4678 (1577 ई०) मेंडाली। मन्दिर का निर्माण-कार्य आरम्भ होने से पूर्व उसके चारों ओर उन्होंने एक ताल खुदवाना आरम्भ किया। मन्दिर के निर्माण का कार्य उनके पुत्र तथा पाँचवे गुरु अर्जुनदेव ने हरिमन्दिर बनवाकर पूरा किया। सरोवर एवं हरिमंदिर के चारों ओरद्वार रखे गये जिससे सब ओर से श्रद्धालु उसमें आ सकें। महाराजा रणजीत सिंह ने मंदिर की शोभा बढ़ाने के लिए बहुत धन व्यय किया। तब से वह स्वर्णमन्दिर कहलाने लगा। अंग्रेजी दासता के काल में 13 अप्रैल 1919 को स्वर्णमंदिर से लगभग दो फलांग की दूरी पर जलियाँवाला बाग में स्वतंत्रता की माँग कर रहीएक शान्तिपूर्ण सार्वजनिक सभा पर जनरल डायर ने गोली चलवाकर भीषण नरसंहार किया था। डेढ़हजार व्यक्ति घायल हुएअथवा मारेगये थे। वहाँउन आत्म-बलिदानियों की स्मृति में एक स्मारक बनाया गया है। |
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− | ये समस्त नदी-पर्वत-नगर—तीर्थ हमारे लिए ध्यातव्य हैं। | + | ये समस्त नदी-पर्वत-नगर—तीर्थ हमारे लिए ध्यातव्य हैं। <blockquote>'''चतुर्वेदाः पुराणानि सर्वोपनिषदस्तथा। रामायणं भारतं च गीता सद्दर्शनानि च ।। ८ ।।'''</blockquote>'''<big><u>वेद</u></big>''' |
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− | चतुर्वेदा: पुराणानि सर्वोपनिषदस्तथा। रामायण भारतं च गीता सद्दर्शनानि च।8 ।
| + | संसार का प्राचीनतम साहित्य वेदों के रूप में उपलब्ध है, जो भारतीय आर्यों के सर्वप्रधान तथा सर्वमान्य ग्रंथ तो हैं ही, समस्त धर्म, दर्शन, संस्कृति, ज्ञान, विज्ञान के मूल स्रोत भी हैं। वेद चार हैं – ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद तथा अथर्ववेद। गुरु द्वारा शिष्य को कठस्थ कराये जाने की परम्परा के कारण इन्हें श्रुति भी कहते हैं। वेदों का चतुर्विध विभाजन यज्ञ के चार ऋत्विजों द्वारा प्रयुक्त मंत्रों के आधार पर किया गया है: (1) होता द्वारा देवों के आह्वान या स्तुति के लिए प्रयुक्त मंत्रों का संकलन – ऋग्वेद (2) अध्वर्यु द्वारा यज्ञ-कर्म सम्पादन में उपयोगी मंत्रों का संकलन – यजुर्वेद (3) उद्गाता द्वारा सामगान में प्रयुक्त मंत्रों का संकलन – सामवेद तथा (4) सम्पूर्ण यज्ञ के अध्यक्ष या कार्यनिरीक्षक ब्रह्मा के जानने योग्य उपर्युक्त तीनों वेदों के अतिरिक्त मंत्रों का संग्रह – अथर्ववेद है। वेदों के मंत्रों में प्राय: विभिन्न देवताओं की स्तुतियाँ हैं। स्तुति वाला मंत्रभाग संहिता कहलाता है। ऋग्वेद में छंदों में पद्यबद्ध ऋचाएँ हैं, यजुर्वेद में गद्य-पद्य दोनों प्रकार के यज्ञसम्बंधी मंत्र (यजुष्) हैं, सामदेव में सस्वर गाये जाने (सामगान) वाले मंत्र हैं तथा अथर्ववेद में विविध प्रकार की विद्याओं के मंत्र हैं। मंत्र के साथ उसके ऋषि,देवता तथा छन्द का नामजुड़ा रहता है। जिस तपस्वी महापुरुष को समाधि प्रज्ञा में उस मंत्र का साक्षात्कार हुआ,उसे उसका ऋषि तथा जिस शक्ति या तत्व की स्तुति और आहवान उसमें हो उसे उस मंत्र का देवता कहते हैं। वेदों का प्रमुख प्रयोजन यज्ञों को सम्पन्न कराने में है। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए यज्ञविधि का सविस्तार वर्णन करने वाले ग्रंथों को ब्राह्मण ग्रंथ कहा जाता है। यह वेद का कर्मकांड वाला भाग है। इसके अतिरिक्त आरण्यक और उपनिषद्ग्रंथों का उपासना एवं ज्ञानकांड भी है, जिसे वेदांत कहते हैं। वेदों के अध्ययन में छ: शास्त्रों-शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छंद और ज्योतिष – की सहायता ली जाती है जिन्हें वेदांग कहते हैं। |
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− | वेद
| + | '''<u><big>पुराण</big></u>''' |
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− | संसार का प्राचीनतम साहित्य वेदों के रूप में उपलब्ध है, जो भारतीय आर्यों के सर्वप्रधान तथा सर्वमान्य ग्रंथ तो हैं ही, समस्त धर्म, दर्शन, संस्कृति, ज्ञान, विज्ञान के मूल स्रोत भी हैं। वेद चार हैं – ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद तथा अथर्ववेद। गुरु द्वारा शिष्य को कठस्थ कराये जाने की परम्परा के कारण इन्हें श्रुति भी कहते हैं। वेदों का चतुर्विध विभाजन यज्ञ के चार ऋत्विजों द्वारा प्रयुक्त मंत्रों के आधार पर किया गया है: (1) होता द्वारा देवों के आह्वान या स्तुति के लिए प्रयुक्त मंत्रों का संकलन – ऋग्वेद (2) अध्वर्यु द्वारा यज्ञ-कर्म सम्पादन में उपयोगी मंत्रों का संकलन – यजुर्वेद (3) उद्गाता द्वारा सामगान में प्रयुक्त मंत्रों का संकलन – सामवेद तथा (4) सम्पूर्ण यज्ञ
| + | वैदिक परम्परा के वे ग्रंथ जिनमें सृष्टि,मनुष्य,देवों,दानवों,राजाओं, महात्माओं,ऋषियों तथा मुनियों आदि के प्राचीन वृत्तांत लिपिबद्ध हैं, पुराण कहलाते हैं। पुराणों के पाँच लक्षण या विषय कहे गये हैं : सर्ग (सृष्टि), प्रतिसर्ग (विस्तार एवं प्रलय), वंश (सूर्य वंश, चंद्र वंश), मन्वन्तर तथा वंशानुचरित। पुराणों में ब्रह्मा,विष्णु, शिव सूर्य, गणेश और शक्ति की उपासना पर बल दिया गया है। 18 पुराण प्रसिद्ध हैं : ब्रह्मपुराण, पद्मपुराण, विष्णुपुराण, वायुपुराण या |
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− | भारत एकात्मता-स्तोत्र—व्याख्या सचित्र 29
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− | के अध्यक्ष या कार्यनिरीक्षक ब्रह्मा के जानने योग्य उपर्युक्त तीनों वेदों के अतिरिक्त मंत्रों का संग्रह – अथर्ववेद है। वेदों के मंत्रों में प्राय: विभिन्न देवताओं की स्तुतियाँ हैं। स्तुति वाला मंत्रभाग संहिता कहलाता है। ऋग्वेद में छंदों में पद्यबद्ध ऋचाएँ हैं, यजुर्वेद में गद्य-पद्य दोनों प्रकार के यज्ञसम्बंधी मंत्र (यजुष्) हैं, सामदेव में सस्वर गाये जाने (सामगान) वाले मंत्र हैंतथा अथर्ववेद में विविध प्रकार की विद्याओं के मंत्र हैं। मंत्र के साथ उसके ऋषि,देवता तथा छन्द का नामजुड़ा रहता है। जिस तपस्वी महापुरुषको समाधि प्रज्ञा में उस मंत्रका साक्षात्कारहुआ,उसे उसका ऋषि तथा जिस शक्ति या तत्व की स्तुति और आहवान उसमें हो उसे उस मंत्र का देवता कहते हैं। वेदों का प्रमुख प्रयोजन यज्ञों को सम्पन्न कराने में है। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए यज्ञविधि का सविस्तार वर्णन करने वाले ग्रंथों को ब्राह्मण ग्रंथ कहा जाता है। यह वेद का कर्मकांड वाला भाग है। इसके अतिरिक्त आरण्यक और उपनिषद्ग्रंथों का उपासना एवं ज्ञानकांड भी है, जिसे वेदांत कहते हैं। वेदों के अध्ययन में छ: शास्त्रों-शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छंद और ज्योतिष – की सहायता ली जाती है जिन्हें वेदांग कहते हैं।
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− | पुराण<sub>वैदिक परम्परा के वे ग्रंथ जिनमें सृष्टि,मनुष्य,देवों,दानवों,राजाओं, महात्माओं,ऋषियों</sub> तथा मुनियों आदि के प्राचीन वृत्तांत लिपिबद्ध हैं, पुराण कहलाते हैं। पुराणों के पाँच लक्षण या विषय कहे गये हैं : सर्ग (सृष्टि), प्रतिसर्ग (विस्तार एवं प्रलय), वंश (सूर्य वंश, चंद्र वंश), मन्वन्तर तथा वंशानुचरित। पुराणों में ब्रह्मा,विष्णु, शिव सूर्य, गणेश और शक्ति की उपासना पर बल दिया गया है। 18 पुराण प्रसिद्ध हैं : ब्रह्मपुराण, पद्मपुराण, विष्णुपुराण, वायुपुराण या
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| लिंगपुराण, वराहपुराण, स्कन्दपुराण, वामनपुराण, कुर्मपुराण, मत्स्यपुराण, गरुड़पुराण तथा ब्रह्माण्डपुराण। पुराणों के रचनाकार पराशर-पुत्र व्यास हैं,जिन्होंने अपने सूत शिष्य रोमहर्षण या लोमहर्षण (सूत जी) को पुराण विद्या में निपुण बनाया। रोमहर्षण से यह विद्या उनके पुत्र उग्रश्रवा को प्राप्त हुई। इन्हीं पिता-पुत्र ने शौनकादि सहस्त्रों ऋषियों को एक बहुत बड़े यज्ञ के समय नैमिषारण्य में अठारहपुराण सुनाये। लोमहर्षण के छ: शिष्यों और पुन: उनके शिष्यों ने भी पुराण परम्परा को आगे बढ़ाया। वर्तमान रूप में उपलब्धपुराण परवर्ती काल मेंपुन: सम्पादित या पुनलिखित हो सकते हैं, जिन पर शैव, वैष्णव व शाक्त सम्प्रदायों का प्रभाव दृष्टिगोचर होता है। | | लिंगपुराण, वराहपुराण, स्कन्दपुराण, वामनपुराण, कुर्मपुराण, मत्स्यपुराण, गरुड़पुराण तथा ब्रह्माण्डपुराण। पुराणों के रचनाकार पराशर-पुत्र व्यास हैं,जिन्होंने अपने सूत शिष्य रोमहर्षण या लोमहर्षण (सूत जी) को पुराण विद्या में निपुण बनाया। रोमहर्षण से यह विद्या उनके पुत्र उग्रश्रवा को प्राप्त हुई। इन्हीं पिता-पुत्र ने शौनकादि सहस्त्रों ऋषियों को एक बहुत बड़े यज्ञ के समय नैमिषारण्य में अठारहपुराण सुनाये। लोमहर्षण के छ: शिष्यों और पुन: उनके शिष्यों ने भी पुराण परम्परा को आगे बढ़ाया। वर्तमान रूप में उपलब्धपुराण परवर्ती काल मेंपुन: सम्पादित या पुनलिखित हो सकते हैं, जिन पर शैव, वैष्णव व शाक्त सम्प्रदायों का प्रभाव दृष्टिगोचर होता है। |
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− | 30 भारत एकात्मता-स्तोत्र—व्याख्या सचित्र
| + | '''<u><big>उपनिषद्</big></u>''' |
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− | उपनिषद्<sub>उपनिषद् (उप+नि+सत्) का अर्थ है सत् तत्व के निकट जाना अर्थात् उसका ज्ञान प्राप्त</sub> करना। वेद, ब्राह्मण ग्रंथ या आरण्यकों के वे प्राय: अन्तिम— भाग जिनमें आत्मा, परमात्मा, मोक्ष आदि अध्यात्म विद्या का निरूपण है,उपनिषद् कहलाये। प्रामाणिक प्रधान उपनिषदों के नाम हैं | |
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− | और कौषीतकी। इनमें ईशोपनिषद् यजुर्वेद का चालीसवाँ अध्याय है, शेष का संबंध भी ब्राह्मण ग्रंथों या आरण्यकों के माध्यम से किसी नकिसी वेदसेहै। केन और छान्दोग्य सामवेदीयउपनिषद् हैं, कठ,तैत्तिरीय,बृहदारण्यक और श्वेताश्वतर यजुर्वेदीय उपनिषद, प्रश्न,मुण्डक और माण्डूक्य अथर्ववेदीय उपनिषद् तथा ऐतरेय और कौषीतकी ऋग्वेदीय उपनिषद्हैं। उपनिषदों में दो प्रकार की विद्याओं का उल्लेख है – परा विद्या और अपरा विद्या। स्वयं उपनिषदों काप्रतिपाद्य मुख्यत: पराविद्या है। | + | उपनिषद् (उप+नि+सत्) का अर्थ है सत् तत्व के निकट जाना अर्थात् उसका ज्ञान प्राप्त करना। वेद, ब्राह्मण ग्रंथ या आरण्यकों के वे प्राय: अन्तिम— भाग जिनमें आत्मा, परमात्मा, मोक्ष आदि अध्यात्म विद्या का निरूपण है,उपनिषद् कहलाये। प्रामाणिक प्रधान उपनिषदों के नाम हैं और कौषीतकी। इनमें ईशोपनिषद् यजुर्वेद का चालीसवाँ अध्याय है, शेष का संबंध भी ब्राह्मण ग्रंथों या आरण्यकों के माध्यम से किसी नकिसी वेदसेहै। केन और छान्दोग्य सामवेदीयउपनिषद् हैं, कठ,तैत्तिरीय,बृहदारण्यक और श्वेताश्वतर यजुर्वेदीय उपनिषद, प्रश्न,मुण्डक और माण्डूक्य अथर्ववेदीय उपनिषद् तथा ऐतरेय और कौषीतकी ऋग्वेदीय उपनिषद्हैं। उपनिषदों में दो प्रकार की विद्याओं का उल्लेख है – परा विद्या और अपरा विद्या। स्वयं उपनिषदों काप्रतिपाद्य मुख्यत: पराविद्या है। |