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'''<u><big>महानदी</big></u>''' '''<big>: -</big>'''
 
'''<u><big>महानदी</big></u>''' '''<big>: -</big>'''
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महानदी यह मध्य प्रदेश तथा उत्कल प्रदेश की सबसे बड़ी नदी है जो मध्य प्रदेश के रायपुर जिले के दक्षिण-पूर्व में स्थित सिंहवा पर्वत-श्रृंखला से निकलती है। कटक के पास अनेक धाराओं में बहती हुई यह पूर्व में गंगासागर में विलीन होती है। उत्कल प्रदेश का बहुत बड़ा क्षेत्र इसके जल से सिंचित होता है।
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महानदी यह मध्य प्रदेश तथा उत्कल प्रदेश की सबसे बड़ी नदी है जो मध्य प्रदेश के रायपुर जिले के दक्षिण-पूर्व में स्थित सिंहवा पर्वत-श्रृंखला से निकलती है। कटक के पास अनेक धाराओं में बहती हुई यह पूर्व में गंगासागर में विलीन होती है। उत्कल प्रदेश का बहुत बड़ा क्षेत्र इसके जल से सिंचित होता है। उत्कल प्रदेश का बहुत बड़ा क्षेत्र इसके जल से सिंचित होता है।
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<blockquote>अयोध्या मथुरा माया काशी काजिच अवन्तिका। </blockquote><blockquote>वैशाली द्वारिका ध्येया पुरी तक्षशिला गया।6 ॥ </blockquote>'''<u><big><sup>अयोध्या</sup></big></u>'''
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<big><sup>मर्यादापुरुषोतम भगवान् श्रीराम की जन्मभूमि अयोध्या प्राचीन कोसल जनपद (अबउत्तर प्रदेश के फैजाबाद जिले) में सरयू नदी के दाहिने तट पर बसी अति प्राचीन नगरी है। यह इक्ष्वाकुवंशी राजाओं की राजधानी थी। मर्यादापुरुषोत्तम भगवान्राम की यहप्रसिद्ध जन्मभूमिहै। श्रीराम के लोकविख्यात रामराज्य केपश्चात्उनकेज्येष्ठपुत्र कुश ने अपनी राजधानी अन्यत्र बना ली और अयोध्या में श्रीराम-जन्मस्थान पर मन्दिर बनवा दिया। कालान्तर में विक्रमादित्य ने वहाँ जीर्णोद्धार कर मन्दिर-निर्माण कराया। अब से लगभग 1000 वर्ष पूर्व किसी राजा ने मन्दिर का पुनर्नवीकरण किया। 1529 ई० में विदेशी बर्बर आक्रमणकारी बाबर ने यहाँ के श्रीराम-जन्मभूमि-मंदिर को तोड़कर मस्जिद बनाने का प्रयास किया,परन्तु रामभक्तों के अनवरत सशस्त्र प्रतिरोध के कारण अपने उद्देश्य में असफल होकर उसनेबिना मीनारों के तीनगुम्बदों वाले ढाँचे का निर्माण वहाँ किसी प्रकार करा दिया था जिसमें गुम्बदों के नीचे ध्वस्त किये गये मंदिर के जो खंभे लगाये गये थे उन पर मूतियाँ और मंगल-कलश उत्कीर्ण हैं। वे स्तम्भ अब वहाँ संग्रहालय में रखे हैं। मुख्य गुम्बद में चन्दन-काष्ठ लगा था औरप्रदक्षिणा भी थी। साधु-संत वहाँ भजन-पूजन करते थे, परन्तु औरंगजेब ने बर्बर सैन्यशक्ति द्वारा उस पर रोक लगायी। श्री राम-जन्मभूमि की मुक्ति के लिए समाज सतत संघर्ष करता रहा है जिसमें वह अनेक बार सफल हुआ और गुम्बद के नीचे भी पूजा होती रही। किन्तुविदेशी अवैध शासकों ने बार-बार व्यवधान डाले। गोस्वामी तुलसीदासजी ने रामचरित मानस की रचना अयोध्या में ही की थी। इसके लिए वे काशी से अयोध्या पहुँचे और संवत् 1631 की रामनवमी का दिन उन्होंने इस पावन कार्य के शुभारम्भ हेतु चुना। स्वाभाविक था कि यह कार्य उन्होंने रामजन्मभूमि पर निवास करते हुए ही किया, जिस पर उस समय मसीत (मस्जिद) की आकृति का परित्यक्त भवन खड़ा था। गोस्वामी जी के शब्दों में उस समय उनकी आजीविका थी – '''“माँगे के खैबो मसीत को सोइबी लैबे को एक न दैबे की दोऊ”'''।</sup></big>
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प्रमुख संत-महात्माओं के सम्मेलन एवं धर्म-संसद में लिए गये निर्णयानुसार विक्रम संवत् 2046 की देवोत्थान एकादशी के दिन नये भव्य श्री राम-जन्मभूमि-मंदिर का शिलान्यास किया गया। संवत् 2047 की देवोत्थान एकादशी के दिन से पुन: श्रीराम-मन्दिर के निर्माण-कार्य को आगे बढ़ाने के लिए गये हुए रामभक्तों के मार्ग में सैकड़ों अवरोध डालने के पश्चात मुश्लिम परस्त क्रूर राज सत्ताधारियों ने उस दिन श्री राम-जन्मभूमि पर और उसके चार दिन पश्चात् हनुमानगढ़ी तथा अयोध्या के मन्दिरों और गलियों में आग्नेयास्त्रों से गोली-वर्षा कर बहुत से बलिदानी वीरों के प्राण ले लिये और सैकड़ों को आहत कर दिया। किन्तु राम-कार्य के लिए सर्वस्वार्पण का संकल्प तोड़ा न जा सका। और नये-पुराने 'धर्मनिरपेक्ष' शासकों के राजनीतिक छल-छद्यों तथा राज्यसत्ता के हठ पूर्ण दुरुपयोग के कारण अन्तत: वह दिन भी आ गया जब 6 दिसम्बर, 1992 के दिन रामभक्तों ने राष्ट्रीय अपमान के प्रतीक उस ढाँचे को हटाकर उस पवित्र स्थल का जीर्णोद्धार कर दिया। वहाँ रामलला का जो लघु मन्दिर अब रह गया है उसको उस स्थान के अनुरूप भव्य रूप देने के मार्ग में अब भी कुटिल बाधाएं खड़ी की जा रही हैं। जैन तीर्थकर आदिनाथ का जन्म भी अयोध्या में हुआ था। बौद्ध साहित्य में इस नगर को साकेत कहा गया। वाल्मीकि-रामायण में भगवान श्री राम ने जननी और जन्मभूमि को स्वर्ग से भी बढ़कर बताया है। रावण-वध के पश्चात् यह भावना व्यक्त कर वे लंका से शीघ्र अयोध्या लौट आये। सीता रसोई तथा हनुमानगढ़ी जैसे कुछ  प्राचीन एवं अन्य अनेक नवीन मन्दिरों की यह नगरी जैन, बौद्ध, सिख, सनातनी आदि सभी धार्मिक पन्थों का पावन तीर्थ है। यहाँ अनेक जैन तथा बौद्ध  मन्दिर हैं।
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'''<u>मथुरा</u>'''
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<sub><big>पश्चिमी उत्तर प्रदेश में यमुना-तट परस्थित प्राचीन नगरी,जो भगवान् कृष्ण की जन्मभूमि रही है। इसका प्राचीन नाम मधुरा था,शायद वही कालान्तर में मथुरा हो गया। बालक ध्रुव ने नारद जी के उपदेशानुसार यहीं मधुवन में कठिन तपस्या करके भगवत दर्प्राशन प्राप्त किया। त्रेतायुग में भगवान् राम के आदेश से अत्याचारी लवणासुर का वध करके शत्रुध्न ने मथुरा का राज्य संभाला।द्वापर युग में भगवान् श्रीकृष्ण ने मथुरा के अत्याचारी राजा कंस को मारकर अपने अवतार-कार्य का श्रीगणेश यहीं से किया था। कलियुग में शकों ने भारत पर आक्रमण करके मथुरा और अवन्तिका पर भी अधिकार कर लिया था। उनको विक्रमादित्य ने पराजित किया। पुन: आक्रामक मुस्लिम शासनकाल मेंऔरंगजेब ने कृष्ण जन्मभूमि-मन्दिर को ध्वस्त कर वहाँ मस्जिद का निर्माण किया। मथुरा-वृन्दावन क्षेत्र कृष्णभक्तों के लिए सदैव अपार आकर्षण और श्रद्धा का केन्द्र रहा है। कृष्ण-जन्मस्थान को मुक्त कराना करोड़ों कृष्णभक्तों की साधना है जिसे पूरा करने के लिए प्रयास किये जा रहे हैं।</big></sub>
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'''<u>मायापुरी (हरिद्वार)</u>'''
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पश्चिमी उत्तर प्रदेश में गंगा-तट का यह प्रसिद्ध तीर्थ है। पहाड़ों से निकलकर गंगा यहीं मैदान में प्रवेश करती है। प्रसिद्ध कुम्भ मेला, जिसमें लाखों श्रद्धालु भाग लेते हैं, हरिद्वार में भी लगता है। जिस वर्ष चन्द्र-सूर्य मेष राशि में और गुरु कुम्भ राशि में एक ही समय में होते हैं, कुम्भ पर्व का योग आता है। हरिद्वारतीर्थ-क्षेत्र में गंगाद्वार,कुशावर्त,विल्वकेश्वर,नीलपर्वत ( नीलकण्ठ महादेव) और कनखल नामक प्रमुख पाँच तीर्थ-स्थान हैं। दक्ष प्रजापति ने अपना प्रसिद्ध यज्ञ कनखल में ही किया था जिसका, सती के यज्ञाग्नि में जल जाने पर, शिवगणों ने विध्वंस कर दिया।
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काशी
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<sub><big>पूर्वी उत्तर प्रदेश में गंगा के तट पर स्थित तथा भगवान् शंकर की महिमा से मण्डित काशी को विश्व के प्राचीनतम नगरों में अनन्यतम स्थान प्राप्त है। वरणा नदी और असी गंगा के मध्य स्थित होने से यह वाराणसी नाम से भी प्रसिद्ध है। बौद्ध जातक कथाओं के अनुसार काशी महाजनपद की यह राजधानी भारत के छ: प्रमुख नगरों से सबसे बड़ी थी। अनेक विद्याओं के महत्वपूर्ण अध्ययन-केन्द्र, विभिन्न पंथ-सम्प्रदायों के तीर्थस्थल और भगवत्प्राप्ति के लिए परम उपयुक्त क्षेत्र के रूप में इसकी प्रतिष्ठा है। यह शैव,शाक्त,बौद्ध और जैन पंथों का प्रमुख तीर्थ-क्षेत्र है। यहाँ के विश्वनाथ— मन्दिर में स्थित शिवलिंग की बारह ज्योतिर्लिगों में गणना होती है। काशी में शक्तिपीठ भी है। सातवें और तेईसवें जैन तीर्थकरों का यहीं आविर्भाव हुआ था। भगवान बुद्ध ने काशी के पास सारनाथ में अपना प्रथम धर्म-प्रवचन सुनाया था। जगदगुरु आद्य शंकराचार्य ने अपनी धार्मिक दिग्विजय-यात्रा यहीं से प्रारम्भ की थी। किसी नये पंथ, विचार अथवा सुधार का श्रीगणेश काशी में करना सफलता के लिए आवश्यक माना जाता था। कबीर, रामानंद, तुलसीदाससदृश भक्तों और संत कवियों ने भी काशी को अपनी कर्मभूमि बनाया था। शास्त्राध्ययन और शास्त्रार्थ की यहाँ अति प्राचीन परम्परा रही है।</big></sub>
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<sub><big>मुगल आक्रामक औरंगजेब ने यहाँ स्थित विश्वनाथ-मंदिरको ध्वस्त कर उसके भग्नावशेषों पर मस्जिद बनवा दी। कालान्तर में रानी अहल्याबाई होलकर ने निकट ही नवीन विश्वनाथ—मंदिर की प्रतिष्ठापना की। इस मन्दिर के शिखर को महाराजा रणजीत सिंह ने स्वर्ण-पत्र से मण्डित किया था। काशी विश्वनाथ के मूल स्थान को मुक्त कराने के प्रयास किये जा रहे हैं।आधुनिक काल में महामना मदनमोहन मालवीय ने विश्व-प्रसिद्ध काशी हिन्दूविश्वविद्यालय की स्थापना कर विद्या—क्षेत्र के रूप में काशी की परम्परा को आगे बढ़ाया। यहाँ गंगा-तट पर दशाश्वमेध घाट प्रसिद्ध है, यहाँ भारशिव राजाओं ने कुषाणों को परास्त कर दस अश्वमेध यज्ञ किये थे।</big></sub>
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कांची<sub>सात मोक्षपुरियों में से एक-कांची दक्षिण भारत का प्रसिद्ध धार्मिक नगर और विद्या-केंद्र</sub> रहा है। इसे दक्षिण की काशी कहते हैं। प्राचीन काल से यह नगर शैव, वैष्णव, जैन तथा बौद्ध सम्प्रदायों का तीर्थ-क्षेत्र रहा है। इस नगरी के शिवकांची और विष्णुकांची नामक दो विभाग माने गये हैं। कांची के कामाक्षी और एकाम्बर नाथ के मंदिर प्रसिद्ध हैं। इस नगरी में 108 शिव-स्थल मानेगये हैं। विष्णुकांची में भगवान् वरदराज का विशाल मन्दिरहै। रामानुजाचार्य के तत्वज्ञान का उदगम-स्थान कांचीपुरी रही है। बौद्ध पण्डितों में नागार्जुन, बुद्धघोष, धर्मपाल, दिडनाग आदि का निवास कांची में ही था। ब्रह्माण्डपुराण में काशी और कांची को भगवान् शिव के नेत्र कहा गया है।
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अवन्तिका
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क्षिप्रा नदी के तट पर बसा मध्य प्रदेश का यह सुप्रसिद्ध नगर अब उज्जयिनी या उज्जैन के नाम से जाना जाता है। इसकी गणना भी सात मोक्षपुरियों में होती है। भगवान् शिव के द्वादश ज्योतिर्लिगों में महाकाल नामक शिवलिंग का यह पीठहै और भगवती सती के बाहुका एक अंश यहाँगिरने के कारण इसे शक्तिपीठ भी माना जाता है। भगवान्शंकर ने इसी स्थान पर त्रिपुरासुर पर विजयपायी थी। आचार्य सांदीपनि का आश्रमउज्जयिनी में ही था, जहाँकृष्ण ने बलराम और सुदामा के साथ उनसे शिक्षा प्राप्त की थी। विद्या-केंद्र के रूप में अवन्तिका का महत्व दीर्घकाल
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24 भारत एकात्मता-स्तोत्र—व्याख्या सचित्र
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तक बना रहा। भारतीय ज्योतिष शास्त्र के अनुसार भूमध्य-रेखा और शून्यरेखांश का केंद्र-बिन्दु इसी नगरी में मिलता है। प्रति बारह वर्षों के बाद अवन्तिका नगरी में कुम्भ पर्व आता है। मौर्य शासनकाल में उज्जयिनी मालव प्रदेश की राजधानी थी। सम्राट अशोक के पुत्र महेन्द्र और पुत्री संघमित्रा ने यहीं प्रव्रज्या धारण की थी। बाद में यहाँ शकों का राज्य स्थापित हुआ, जिन्हें विक्रमादित्य ने पराजित किया। कालिदास, अमरसिंह, वररूचि, भतृहरि, भारवि आदि प्राचीन भारत के श्रेष्ठ साहित्यकारों और भाषाशास्त्रियों तथा प्रख्यात ज्योतिषाचार्य वराहमिहिर का अवन्तिका से संबंध रहा है। यहाँक्षिप्रा नदी के तट पर सिद्ध वटवृक्ष चिरकाल से प्रतिष्ठित है। प्रयाग के अक्षय वट की भाँति इसे नष्ट करने के भी प्रयत्न अनेक मुस्लिम आक्रामकों ने किये, परन्तु जहांगीर सहित उनमें से कोई भी अपने दुष्प्रयत्न में सफल नहीं हुआ।
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