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* बड़ी भाभी माता समान । छोटे देवर-ननद पुत्र-पुत्री समान ।  
 
* बड़ी भाभी माता समान । छोटे देवर-ननद पुत्र-पुत्री समान ।  
 
* मातृ देवो भव । पितृ देवो भव । माता और पिता के प्रति देवत्व का भाव रखो ।
 
* मातृ देवो भव । पितृ देवो भव । माता और पिता के प्रति देवत्व का भाव रखो ।
इन सब सूत्रों को सीखकर आत्मसात्‌ करना कुटुम्ब में प्राप्त होने वाली शिक्षा का महत्त्वपूर्ण कदाचित सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण आयाम है । व्यक्ति के व्यक्तिगत परिचय से भी इस कौटुम्बिक परिचय का महत्त्व विशेष है । व्यक्ति कैसा भी हो तब भी
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इन सब सूत्रों को सीखकर आत्मसात्‌ करना कुटुम्ब में प्राप्त होने वाली शिक्षा का महत्त्वपूर्ण कदाचित सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण आयाम है । व्यक्ति के व्यक्तिगत परिचय से भी इस कौटुम्बिक परिचय का महत्त्व विशेष है । व्यक्ति कैसा भी हो तब भी कुटुम्ब में उस का स्वीकार होता है । कुटुम्ब में सबका समान रूप से अधिकार है । व्यक्ति को आपत्ति में आधार, दुर्गुणों और दोषों का परिष्कार, दुःखों में आश्वस्ति, संकटों में सहायता कुटुम्ब में सहज प्राप्त होते हैं । न इसका पैसा देना पड़ता है न इसके लिये विज्ञप्ति करनी पड़ती है । लेनदेन का हिसाब नहीं होता ।
 
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भारतीय शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप
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कुटुम्ब में उस का स्वीकार होता है । कुटुम्ब में सबका
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समान रूप से अधिकार है । व्यक्ति को आपत्ति में आधार,
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दुर्गुणों और दोषों का परिष्कार, दुःखों में आश्वस्ति, संकटों
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में सहायता कुटुम्ब में सहज प्राप्त होते हैं । न इसका पैसा
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देना पड़ता है न इसके लिये विज्ञप्ति करनी पड़ती है ।
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लेनदेन का हिसाब नहीं होता ।
      
== एक पीढी की शिक्षा ==
 
== एक पीढी की शिक्षा ==
कुट्म्बजीवन परम्परा निर्माण करने का, उसे बनाये
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कुटुम्ब जीवन परम्परा निर्माण करने का, उसे बनाये रखने का, परम्परा को परिष्कृत और समृद्ध बनाने का एक महत्त्वपूर्ण केन्द्र है । जब ज्ञान, कौशल, संस्कार, दृष्टिकोण, मानस आदि पूर्व पीढ़ी से प्राप्त किये जाते हैं और आगामी पीढ़ी को दिये जाते हैं तब परम्परा बनती है और परिष्कृत तथा समृद्ध भी बनती है । इस दृष्टि से एक पीढ़ी को शिक्षित और दीक्षित किया जाता है । हम सहज ही समझ सकते हैं कि कुटुम्ब का यह कार्य कितना महत्त्वपूर्ण है । संस्कृति रक्षा का यह कार्य कुटुम्ब के अलावा और कहीं नहीं हो सकता । इसके छोटे छोटे हिस्से तो अन्यत्र अन्य लोगों द्वारा हो सकते हैं परन्तु वे सब कुटुम्ब नामक मुख्य केन्द्र के पोषक होते हैं । बिना कुटुम्ब के सब अनाश्रित हो जाते हैं ।
 
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रखने का, परम्परा को परिष्कृत और समृद्ध बनाने का एक
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महत्त्वपूर्ण केन्द्र है । जब ज्ञान, कौशल, संस्कार, दृष्टिकोण,
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मानस आदि पूर्व पीढ़ी से प्राप्त किये जाते हैं और आगामी
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पीढ़ी को दिये जाते हैं तब परम्परा बनती है और परिष्कृत
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तथा समृद्ध भी बनती है । इस दृष्टि से एक पीढ़ी को
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शिक्षित और दीक्षित किया जाता है । हम सहज ही समझ
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सकते हैं कि कुटुम्ब का यह कार्य कितना महत्त्वपूर्ण है ।
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संस्कृति रक्षा का यह कार्य कुटुम्ब के अलावा और कहीं
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नहीं हो सकता । इसके छोटे छोटे हिस्से तो अन्यत्र अन्य
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लोगों द्वारा हो सकते हैं परन्तु वे सब कुटुम्ब नामक मुख्य
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केन्द्र के पोषक होते हैं । बिना कुटुम्ब के सब अनाश्रित हो
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जाते हैं ।
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एक सम्पूर्ण पीढ़ी की शिक्षा का क्रम कुछ इस
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प्रकार बनता है -
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०... गर्भाधान से नई पीढ़ी का प्रारम्भ होता है । आगे नौ
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मास तक व्यक्ति गर्भावस्‍था में होता है । उस समय
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चस्त्रिनिर्माण की नींव डाली जाती है ।
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०. जन्म समय के संस्कारों का भावी जीवन के लिये
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बहुत महत्त्व है । ज्ञानेन्द्रियों की ग्रहणक्षमता की दृष्टि
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से इसका महत्त्व है ।
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०". जन्म से पाँच वर्ष की आयु सर्वाधिक संस्कारक्षम
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होती है । वह चखिनिर्माण की नींव को पक्की करने
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का समय है । भावी जीवन की सारी सम्भावनायें
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गर्भाधान से पाँच वर्ष की आयु तक बीज रूप में
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पोषित होती है ।
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०. पाँच से पन्द्रह वर्ष की आयु चरित्रगठन की आयु
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पर्व ५ : कुटुम्बशिक्षा एवं लोकशिक्षा
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है । बीज अब अंकुरित और पल्लवित होता है । बीज
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की गुणवत्ता और सम्भावनायें अब प्रकट होने लगती
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हैं। अंकुरित और पल्लवित होने में जिन बातों का
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ध्यान रखना चाहिये उन बातों का ध्यान रखने से
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बीज का विकास सम्यक्‌ रूप से होता है ।
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पन्‍्द्रह वर्ष के बाद गृहस्थाश्रम स्वीकार करने तक का
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अगला चरण होता है । औसत रूप में दस वर्षका
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यह चरण बीज के पुष्पित होने का चरण है । विकास
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की सारी सम्भावनायें प्रायोगशील रूप में परिपक्क
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होती है ।
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गृहस्थाश्रमी बनते ही एक पीढ़ी की शिक्षा पूर्ण होकर
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भावी पीढ़ी के निर्माण की दम्पति को दीक्षा मिलती
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है। भावी पीढ़ी के स्वागत हेतु पतिपत्नी अच्छी
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तैयारी करते हैं और शुभ क्षण में गर्भाधान से नई
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पीढ़ी का प्रारम्भ होता है ।
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गर्भाधान से दूसरी पीढ़ी के गर्भाधान तक एक पीढ़ी
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का चक्र चलता रहता है। परन्तु दूसरी पीढ़ी का
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गर्भाधान होकर पीढ़ी की शरुआत होने पर पूर्व पीढ़ी
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के लोग क्या करेंगे ?
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भावी पीढ़ी के निर्माण में ये सर्व प्रकार से संरक्षक
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और मार्गदर्शक होंगे। साथ ही aera a
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सांस्कृतिक चरित्र बनाने की दृष्टि से इन का
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aera, fae, wares, .. मोक्षसाधन,
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समाजसेवा आदि चलता रहेगा । कुट्म्बजीवन में इन
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सभी बातों का बहुत महत्त्व है ।
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इसी बात को ध्यान में लेकर हमारे यहाँ आश्रम-
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संकल्पना बनी है । ब्रह्मचर्याश्रम और गृहस्थाश्रम
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पीढ़ी निर्माण की दृष्टि से अध्ययन और अध्यापन का
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काल है. वानप्रस्थाश्रम सहयोग, संरक्षण, मार्गदर्शन,
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चिन्तन, मनन और अनुसन्धान का काल है । इससे
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ही काल के प्रवाह के अनुरूप परम्पराओं के
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परिष्कार का काम होता रहता है । सन्यास्ताश्रम के
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काल में व्यक्ति चाहे संन्यास ले
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या न ले, चाहे घर में रहे या बाहर, सबसे अलग
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रहकर तपश्चर्या का ही समय है । संन्यासियों की
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तपश्चर्या से संस्कार का भला होता है, Heese at भी
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अपना हिस्सा मिलता 2 |
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इस प्रकार कुटुम्ब शिक्षा का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण
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केन्द्र है । मातापिता शिक्षक हैं और सन्तानें विद्यार्थी,
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सिखाने वाले और सीखने वाले का यह सम्बन्ध
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इतना उत्तम माना गया है कि गुरुकुल में भी गुरु और
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शिष्य को पिता-पुत्र ही कहा जाता है । कुटुम्ब के
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सम्बन्धों का. आदर्श समाजजीवन के पहलू में
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स्वीकृत हुआ है । राजा प्रजा का पालक पिता है,
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ग्राहक व्यापारी के लिये भगावान है, कृषक जगतू्‌
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का तात अर्थात्‌ पिता है, स्वयं भगवान जगत्पिता है,
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सभी देवियाँ माता हैं । इतना ही नहीं तो हम सम्पूर्ण
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ST के साथ कौटूंम्बिक सम्बन्ध बनाकर ही जुड़ते
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हैं। बच्चों के लिये चिड़ियारानी, बन्दरमामा,
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चन्दामामा, बिल्ली मौसी, हाथीदादा के रूप में
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पशुपक्षी स्वजन हैं। बड़ों के लिये नदी, धरती,
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गंगा, तुलसी आदि माता है । प्रत्यक्ष Heras के घेरे
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के बाहर की हर स्त्री माता, बहन, पुत्री है और हर
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पुरुष पिता, भाई, पुत्र है । Hera रक्तसम्बन्ध से
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शुरू होता है और भावात्मक स्वरूप में उसका
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विस्तार होता है तब उसे वसुधैव कुट्म्बकम्‌ कहा
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जाता है ।
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आज इन बातों की उपेक्षा हो रही है, यह तो हम
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देख ही रहे हैं । इससे कितनी सांस्कृतिक हानि होती
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है इसका हमें अनुमान भी नहीं हो रहा है । परन्तु इस
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विमुखता को छोडकर कुटुम्ब में होने वाली पीढ़ी की
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शिक्षा की ओर हमें सक्रिय रूप से ध्यान देना होगा
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इसमें कोई सन्देह नहीं ।
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एक सम्पूर्ण पीढ़ी की शिक्षा का क्रम कुछ इस प्रकार बनता है -
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* गर्भाधान से नई पीढ़ी का प्रारम्भ होता है । आगे नौ मास तक व्यक्ति गर्भावस्‍था में होता है । उस समय चरित्र निर्माण की नींव डाली जाती है ।
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* जन्म समय के संस्कारों का भावी जीवन के लिये बहुत महत्त्व है । ज्ञानेन्द्रियों की ग्रहणक्षमता की दृष्टि से इसका महत्त्व है ।
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* जन्म से पाँच वर्ष की आयु सर्वाधिक संस्कारक्षम होती है । वह चरित्रनिर्माण की नींव को पक्की करने का समय है । भावी जीवन की सारी सम्भावनायें गर्भाधान से पाँच वर्ष की आयु तक बीज रूप में पोषित होती है ।
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* पाँच से पन्द्रह वर्ष की आयु चरित्रगठन की आयु है । बीज अब अंकुरित और पल्लवित होता है । बीज की गुणवत्ता और सम्भावनायें अब प्रकट होने लगती हैं। अंकुरित और पल्लवित होने में जिन बातों का ध्यान रखना चाहिये उन बातों का ध्यान रखने से बीज का विकास सम्यक्‌ रूप से होता है । पंद्रह वर्ष के बाद गृहस्थाश्रम स्वीकार करने तक का अगला चरण होता है । औसत रूप में दस वर्ष का यह चरण बीज के पुष्पित होने का चरण है । विकास की सारी सम्भावनायें प्रायोगशील रूप में परिपक्क होती है ।
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* गृहस्थाश्रमी बनते ही एक पीढ़ी की शिक्षा पूर्ण होकर भावी पीढ़ी के निर्माण की दम्पति को दीक्षा मिलती है। भावी पीढ़ी के स्वागत हेतु पतिपत्नी अच्छी तैयारी करते हैं और शुभ क्षण में गर्भाधान से नई पीढ़ी का प्रारम्भ होता है ।
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* गर्भाधान से दूसरी पीढ़ी के गर्भाधान तक एक पीढ़ी का चक्र चलता रहता है। परन्तु दूसरी पीढ़ी का गर्भाधान होकर पीढ़ी की शरुआत होने पर पूर्व पीढ़ी के लोग क्या करेंगे ?
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* भावी पीढ़ी के निर्माण में ये सर्व प्रकार से संरक्षक और मार्गदर्शक होंगे। साथ ही कुटुम्ब का सांस्कृतिक चरित्र बनाने की दृष्टि से इन का अध्ययन, चिंतन, धर्मसाधन,  मोक्षसाधन, समाजसेवा आदि चलता रहेगा । कुटुम्बजीवन में इन सभी बातों का बहुत महत्त्व है । इसी बात को ध्यान में लेकर हमारे यहाँ आश्रम- संकल्पना बनी है । ब्रह्मचर्याश्रम और गृहस्थाश्रम पीढ़ी निर्माण की दृष्टि से अध्ययन और अध्यापन का काल है। वानप्रस्थाश्रम सहयोग, संरक्षण, मार्गदर्शन, चिन्तन, मनन और अनुसन्धान का काल है । इससे ही काल के प्रवाह के अनुरूप परम्पराओं के परिष्कार का काम होता रहता है । सन्यास्ताश्रम के काल में व्यक्ति चाहे संन्यास ले या न ले, चाहे घर में रहे या बाहर, सबसे अलग रहकर तपश्चर्या का ही समय है । संन्यासियों की तपश्चर्या से संस्कार का भला होता है, कुटुंब को भी अपना हिस्सा मिलता है ।
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* इस प्रकार कुटुम्ब शिक्षा का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण केन्द्र है । मातापिता शिक्षक हैं और सन्तानें विद्यार्थी, सिखाने वाले और सीखने वाले का यह सम्बन्ध इतना उत्तम माना गया है कि गुरुकुल में भी गुरु और शिष्य को पिता-पुत्र ही कहा जाता है । कुटुम्ब के सम्बन्धों का आदर्श, समाजजीवन के पहलू में स्वीकृत हुआ है । राजा प्रजा का पालक पिता है, ग्राहक व्यापारी के लिये भगवान है, कृषक जगत‌ का तात अर्थात्‌ पिता है, स्वयं भगवान जगत्पिता है, सभी देवियाँ माता हैं । इतना ही नहीं तो हम सम्पूर्ण जगत के साथ कौटूंम्बिक सम्बन्ध बनाकर ही जुड़ते हैं। बच्चों के लिये चिड़ियारानी, बन्दरमामा, चन्दामामा, बिल्ली मौसी, हाथीदादा के रूप में पशुपक्षी स्वजन हैं। बड़ों के लिये नदी, धरती, गंगा, तुलसी आदि माता है । प्रत्यक्ष कुटुम्ब के घेरे के बाहर की हर स्त्री माता, बहन, पुत्री है और हर पुरुष पिता, भाई, पुत्र है । कुटुंब  रक्तसम्बन्ध से शुरू होता है और भावात्मक स्वरूप में उसका विस्तार होता है तब उसे वसुधैव कुट्म्बकम्‌ कहा जाता है ।
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आज इन बातों की उपेक्षा हो रही है, यह तो हम देख ही रहे हैं । इससे कितनी सांस्कृतिक हानि होती है इसका हमें अनुमान भी नहीं हो रहा है । परन्तु इस विमुखता को छोडकर कुटुम्ब में होने वाली पीढ़ी की शिक्षा की ओर हमें सक्रिय रूप से ध्यान देना होगा इसमें कोई सन्देह नहीं ।
    
==References==
 
==References==

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