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लेख सम्पादित किया
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शिक्षा विषयक गलत धारणाओं के हम कुछ इतने आदी हो गये हैं कि उससे कितना नुकसान होता है इसकी कोई कल्पना ही हम नहीं कर सकते<ref>धार्मिक शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप (धार्मिक शिक्षा ग्रन्थमाला १): पर्व ५, प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे</ref> । ऐसी ही एक गलत धारणा यह बन गई है कि शिक्षा विद्यालय में जाकर ही होती है। धीरे धीरे हम यह कहने लगते हैं कि जो विद्यालय में नहीं होती वह शिक्षा ही नहीं है । इसका ही परिणाम है कि हम लोग घर का महत्त्व मानकर उसके सन्दर्भ में जब बात होती है तब यह नहीं कहते हैं कि घर में शिक्षा होती है ।हम कहते हैं कि घर में संस्कार होते हैं। इसके साथ ही दूसरी गलत धारणा यह बनी है कि शिक्षा और संस्कार अलग बातें हैं । फिर हम कहते हैं कि शिक्षा संस्कारहीन नहीं होनी चाहिए । हम आज की स्थिति को ध्यान में रखकर ही ऐसा कहते हैं यह सत्य है परन्तु इससे सिद्ध यह होता है कि शिक्षा और संस्कार अलग हैं ।
 
शिक्षा विषयक गलत धारणाओं के हम कुछ इतने आदी हो गये हैं कि उससे कितना नुकसान होता है इसकी कोई कल्पना ही हम नहीं कर सकते<ref>धार्मिक शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप (धार्मिक शिक्षा ग्रन्थमाला १): पर्व ५, प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे</ref> । ऐसी ही एक गलत धारणा यह बन गई है कि शिक्षा विद्यालय में जाकर ही होती है। धीरे धीरे हम यह कहने लगते हैं कि जो विद्यालय में नहीं होती वह शिक्षा ही नहीं है । इसका ही परिणाम है कि हम लोग घर का महत्त्व मानकर उसके सन्दर्भ में जब बात होती है तब यह नहीं कहते हैं कि घर में शिक्षा होती है ।हम कहते हैं कि घर में संस्कार होते हैं। इसके साथ ही दूसरी गलत धारणा यह बनी है कि शिक्षा और संस्कार अलग बातें हैं । फिर हम कहते हैं कि शिक्षा संस्कारहीन नहीं होनी चाहिए । हम आज की स्थिति को ध्यान में रखकर ही ऐसा कहते हैं यह सत्य है परन्तु इससे सिद्ध यह होता है कि शिक्षा और संस्कार अलग हैं ।
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अतः पहला तो गृहीत यह है कि शिक्षा और संस्कार अलग नहीं हैं । संस्कार को हम सदुण और सदाचार के रूप में समझते हैं । सदुण और सदाचार वास्तव में धर्म शिक्षा है । भारत में शिक्षा वही है जो धर्म सिखाती है । अर्थकरी शिक्षा को वास्तव में शिक्षा नहीं अपितु कौशल कहते हैं । धर्मकरी शिक्षा को ही शिक्षा कहते हैं ।
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अतः पहला तो गृहीत यह है कि शिक्षा और संस्कार अलग नहीं हैं । संस्कार को हम सदुण और सदाचार के रूप में समझते हैं । सदुण और सदाचार वास्तव में धर्म शिक्षा है। भारत में शिक्षा वही है जो धर्म सिखाती है। अर्थकरी शिक्षा को वास्तव में शिक्षा नहीं अपितु कौशल कहते हैं । धर्मकरी शिक्षा को ही शिक्षा कहते हैं ।
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इस दृष्टि से देखें तो शिक्षा विद्यालय में तो बहुत ही कम होती है । शिक्षा की शुरुआत घर में होती है, जन्म के भी पूर्व से होती है और विद्यालयीन शिक्षा समाप्त हो जाने के बाद भी चलती है । हम यह भी कह सकते हैं कि प्राचीन समय में, अथवा तो यह कहें कि भारत में गुरुकुल में जाकर शास्त्रों के अध्ययन को ही शिक्षा कहा जाता था, चिकित्सा, इंजीनियरिंग, व्यापार आदि सीखने को शिक्षा नहीं कहा जाता था । यह सब सीखने के लिए गुरुकुल में जाने की आवश्यकता नहीं थी । वह घर में और घर के आसपास मिलने वाले मार्गदर्शन से ही मिल जाती थी । उसके लिए न तो कोई तंत्र आवश्यक था न पैसा । अर्थार्जन अथवा अन्य भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति तो घर में और आसपास से ही हो जाती थी ।
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इस दृष्टि से देखें तो शिक्षा विद्यालय में तो बहुत ही कम होती है। शिक्षा की शुरुआत घर में होती है, जन्म के भी पूर्व से होती है और विद्यालयीन शिक्षा समाप्त हो जाने के बाद भी चलती है । हम यह भी कह सकते हैं कि प्राचीन समय में, अथवा तो यह कहें कि भारत में गुरुकुल में जाकर शास्त्रों के अध्ययन को ही शिक्षा कहा जाता था, चिकित्सा, इंजीनियरिंग, व्यापार आदि सीखने को शिक्षा नहीं कहा जाता था । यह सब सीखने के लिए गुरुकुल में जाने की आवश्यकता नहीं थी । वह घर में और घर के आसपास मिलने वाले मार्गदर्शन से ही मिल जाती थी । उसके लिए न तो कोई तंत्र आवश्यक था न पैसा । अर्थार्जन अथवा अन्य भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति तो घर में और आसपास से ही हो जाती थी ।
    
== घर भी शिक्षा केन्द्र है ==
 
== घर भी शिक्षा केन्द्र है ==
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* कुटुम्ब में शिक्षा होती है इससे एक लाभ यह होता है कि शिक्षा जीवन का एक स्वाभाविक अंग बन जाती है। सीखने का सबसे अच्छा तरीका साथ रहना, साथ काम करना और साथ जीना है । इसी तथ्य के आधार पर ही गुरुकुल संकल्पना का विकास हुआ है जिसमें गुरुगृहवास अनिवार्य और स्वाभाविक माना गया है । यह तथ्य न समझकर हम कहते हैं कि यातायात के साधन नहीं थे इसलिए गुरुकुल में शिक्षा के साथ आवास और भोजन की भी व्यवस्था करनी पड़ती थी । आज भी छात्रावास सहित के अथवा आवासी विद्यालय इसी तथ्य को स्वीकार कर ही चलते हैं कि पढ़ाई के स्थान पर आवास और भोजन की व्यवस्था नहीं होती है इसलिए वह कर देने से विद्यार्थियों को सुविधा रहेगी । जब शिक्षा जीवन का अंग बनकर चलती है तब उसका अलग से कोई शास्त्र बनाने की आवश्यकता नहीं होती । इस कारण से ही कदाचित आज के जैसा भारत में अध्यापनशास्त्र नहीं रचा गया, हाँ, संगोपनशास्त्र अवश्य रचा गया ।
 
* कुटुम्ब में शिक्षा होती है इससे एक लाभ यह होता है कि शिक्षा जीवन का एक स्वाभाविक अंग बन जाती है। सीखने का सबसे अच्छा तरीका साथ रहना, साथ काम करना और साथ जीना है । इसी तथ्य के आधार पर ही गुरुकुल संकल्पना का विकास हुआ है जिसमें गुरुगृहवास अनिवार्य और स्वाभाविक माना गया है । यह तथ्य न समझकर हम कहते हैं कि यातायात के साधन नहीं थे इसलिए गुरुकुल में शिक्षा के साथ आवास और भोजन की भी व्यवस्था करनी पड़ती थी । आज भी छात्रावास सहित के अथवा आवासी विद्यालय इसी तथ्य को स्वीकार कर ही चलते हैं कि पढ़ाई के स्थान पर आवास और भोजन की व्यवस्था नहीं होती है इसलिए वह कर देने से विद्यार्थियों को सुविधा रहेगी । जब शिक्षा जीवन का अंग बनकर चलती है तब उसका अलग से कोई शास्त्र बनाने की आवश्यकता नहीं होती । इस कारण से ही कदाचित आज के जैसा भारत में अध्यापनशास्त्र नहीं रचा गया, हाँ, संगोपनशास्त्र अवश्य रचा गया ।
 
* कुटुम्ब में शिक्षा संभव होने के लिये घर में संस्कारक्षम वातावरण होना चाहिए, बड़ों का चरित्र प्रेरणादायी होना चाहिए । बालक का चरित्र ठीक नहीं है तो मातापिता को दोष दिया जाता है और बालक के यश का श्रेय मातापिता को दिया जाता है । ऐसा करके मातापिता की ज़िम्मेदारी का भी स्वीकार किया गया है । इसी प्रकार गुरु अपने शिष्य की और शिष्य अपने गुरु की कीर्ति से जाना जाता है ।  
 
* कुटुम्ब में शिक्षा संभव होने के लिये घर में संस्कारक्षम वातावरण होना चाहिए, बड़ों का चरित्र प्रेरणादायी होना चाहिए । बालक का चरित्र ठीक नहीं है तो मातापिता को दोष दिया जाता है और बालक के यश का श्रेय मातापिता को दिया जाता है । ऐसा करके मातापिता की ज़िम्मेदारी का भी स्वीकार किया गया है । इसी प्रकार गुरु अपने शिष्य की और शिष्य अपने गुरु की कीर्ति से जाना जाता है ।  
* भारतीय व्यवस्था में अधथार्जिन कुटुंबजीवन का ही हिस्सा था, अत: अधथर्जिन के लिये विद्यालय में पढ़ने के लिये जाने का कोई प्रयोजन नहीं था । जिस प्रकार सब मिलकर घर के और सारे काम करते थे उसी प्रकार सब मिलकर अधथार्जिन भी कर लेते थे । कुटुम्ब का व्यवसाय भी निश्चित होता था । अत: व्यवसाय सीखना अपने आप हो जाता था । अन्य कोई व्यवसाय सीखना है तो सिखाने वाले के पास जाना होता था और उसके घर रहकर सीखा जाता था । घर से बाहर जाकर सीखना भी व्यक्तिगत विषय ही था।
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* भारतीय व्यवस्था में अर्थार्जन कुटुंबजीवन का ही हिस्सा था, अत: अधथर्जिन के लिये विद्यालय में पढ़ने के लिये जाने का कोई प्रयोजन नहीं था । जिस प्रकार सब मिलकर घर के और सारे काम करते थे उसी प्रकार सब मिलकर अर्थार्जन भी कर लेते थे । कुटुम्ब का व्यवसाय भी निश्चित होता था । अत: व्यवसाय सीखना अपने आप हो जाता था । अन्य कोई व्यवसाय सीखना है तो सिखाने वाले के पास जाना होता था और उसके घर रहकर सीखा जाता था । घर से बाहर जाकर सीखना भी व्यक्तिगत विषय ही था।
* अर्थार्जन को लेकर नहीं तो घर में रहने को केन्द्र बनाकर जीवन की रचना होती थी और अर्थार्जन साथ रहने के भाग स्वरूप ही विचार में लिया जाता
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* अर्थार्जन को लेकर नहीं तो घर में रहने को केन्द्र बनाकर जीवन की रचना होती थी और अर्थार्जन साथ रहने के भाग स्वरूप ही विचार में लिया जाता था । व्यक्तिगत करियर या व्यक्तिगत अर्थार्जन यह विषय ही नहीं था । अर्थार्जन अपने आपमें सबसे प्रमुख विषय नहीं था । जीवन जीना प्रमुख विषय था और निर्वाह के लिये सामग्री चाहिए इसलिए अर्थार्जन
था । व्यक्तिगत करियर या व्यक्तिगत अर्थार्जन यह
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विषय ही नहीं था । अधथर्जिन अपने आपमें सबसे
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प्रमुख विषय नहीं था । जीवन जीना प्रमुख विषय था
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और निर्वाह के लिये सामग्री चाहिए इसलिए अधथार्जिन
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