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* कुटुम्ब में वंशपस्म्परा चलती है। रीतिरिवाज, गुणदोष, कौशल, मूल्य, पद्धतियाँ, खूबियाँ आदि एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्तान्तरित होते हैं। इन सभी बातों की रक्षा करने का यही एक मार्ग है। ये सारे संस्कृति के आयाम हैं । पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तान्तरित होते हुए संस्कृति न केवल जीवित रहती है अपितु वह समय के अनुरूप परिवर्तित होकर परिष्कृत भी होती रहती है । संस्कृति की धारा जब इस प्रकार प्रवाहित रहती है तब उसकी शुद्धता बनी रहती है। संस्कृति की ऐसी नित्य प्रवाहमान धारा के लिए ही चिरपुरातन नित्यनूतन कहा जाता है। ये दोनों मिलकर संस्कृति का सनातनत्व होता है ।
 
* कुटुम्ब में वंशपस्म्परा चलती है। रीतिरिवाज, गुणदोष, कौशल, मूल्य, पद्धतियाँ, खूबियाँ आदि एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्तान्तरित होते हैं। इन सभी बातों की रक्षा करने का यही एक मार्ग है। ये सारे संस्कृति के आयाम हैं । पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तान्तरित होते हुए संस्कृति न केवल जीवित रहती है अपितु वह समय के अनुरूप परिवर्तित होकर परिष्कृत भी होती रहती है । संस्कृति की धारा जब इस प्रकार प्रवाहित रहती है तब उसकी शुद्धता बनी रहती है। संस्कृति की ऐसी नित्य प्रवाहमान धारा के लिए ही चिरपुरातन नित्यनूतन कहा जाता है। ये दोनों मिलकर संस्कृति का सनातनत्व होता है ।
 
* वंशपरम्परा खंडित नहीं होने देना कुटुम्ब का कर्तव्य है। इस दृष्टि से पीढ़ी दर पीढ़ी समर्थ संतानों को जन्म देना भी पतिपत्नी का कर्तव्य है, साथ ही अपनी संतानों को भी समर्थ बालक को जन्म देने वाले मातापिता बनाना उनका कर्तव्य है । अर्थात्‌ अच्छे कुटुंब के लिए अपने पुत्रों को अच्छे पुरुष, अच्छे पति, अच्छे गृहस्थ और अच्छे पिता बनाने की तथा पुत्रियों को अच्छी स्त्री, अच्छी पत्नी, अच्छी गृहिणी और अच्छी माता बनाने की शिक्षा देना कुटुम्ब का कर्तव्य है।
 
* वंशपरम्परा खंडित नहीं होने देना कुटुम्ब का कर्तव्य है। इस दृष्टि से पीढ़ी दर पीढ़ी समर्थ संतानों को जन्म देना भी पतिपत्नी का कर्तव्य है, साथ ही अपनी संतानों को भी समर्थ बालक को जन्म देने वाले मातापिता बनाना उनका कर्तव्य है । अर्थात्‌ अच्छे कुटुंब के लिए अपने पुत्रों को अच्छे पुरुष, अच्छे पति, अच्छे गृहस्थ और अच्छे पिता बनाने की तथा पुत्रियों को अच्छी स्त्री, अच्छी पत्नी, अच्छी गृहिणी और अच्छी माता बनाने की शिक्षा देना कुटुम्ब का कर्तव्य है।
* कुटुम्ब का एक अन्य महत्त्वपूर्ण काम होता है सबकी सब प्रकार की आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु अथर्जिन करना । इस दृष्टि से कोई न कोई हुनर सीखना, उत्पादन और वितरण, क्रय और विक्रय की कला सीखना बहुत आवश्यक होता है । अथर्जिन जिस प्रकार कुटुम्ब का विषय है उसी प्रकार वह कुटुम्ब को समाज के साथ भी जोड़ता है । व्यवसाय की ही तरह विवाह भी कुटुम्ब को अन्य कुटुंब के साथ जोड़ने का माध्यम है। यह भी समाज के साथ सम्बन्ध बनाता है। इन दो बातों से एक कुटुम्ब समाज का अंग बनता है । अत: समाज के साथ समरस कैसे होना यह भी कुटुम्ब में सीखने का विषय है।
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* कुटुम्ब का एक अन्य महत्त्वपूर्ण काम होता है सबकी सब प्रकार की आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु अर्थार्जन करना । इस दृष्टि से कोई न कोई हुनर सीखना, उत्पादन और वितरण, क्रय और विक्रय की कला सीखना बहुत आवश्यक होता है । अर्थार्जन जिस प्रकार कुटुम्ब का विषय है उसी प्रकार वह कुटुम्ब को समाज के साथ भी जोड़ता है । व्यवसाय की ही तरह विवाह भी कुटुम्ब को अन्य कुटुंब के साथ जोड़ने का माध्यम है। यह भी समाज के साथ सम्बन्ध बनाता है। इन दो बातों से एक कुटुम्ब समाज का अंग बनता है । अत: समाज के साथ समरस कैसे होना यह भी कुटुम्ब में सीखने का विषय है।
 
* खानपान, वेशभूषा, भाषा, कुलधर्म, नाकनक्शा, इष्टदेवता, कुलदेवता, सम्प्रदाय, व्यवसाय, कौशल, आचार विचार, सद्गुण, दुर्गुण आदि मिलकर कुटुंब की एक विशिष्ट पहचान बनती है । कुटुम्ब की इस विशिष्ट पहचान को बनाए रखना, बढ़ाना, उत्तरोत्तर उससे प्राप्त होने वाली सामाजिक प्रतिष्ठा में वृद्धि करना कुटुम्ब के हर सदस्य का कर्तव्य है और पूर्व पीढ़ी ने नई पीढ़ी को इसके लायक बनने हेतु शिक्षित और दीक्षित करना उसका दायित्व है । शिक्षा का यह बहुत बड़ा क्षेत्र है जिसकी आज अत्यधिक उपेक्षा हो रही है। अनौपचारिक शिक्षा का यह एक बहुत बड़ा क्षेत्र है।
 
* खानपान, वेशभूषा, भाषा, कुलधर्म, नाकनक्शा, इष्टदेवता, कुलदेवता, सम्प्रदाय, व्यवसाय, कौशल, आचार विचार, सद्गुण, दुर्गुण आदि मिलकर कुटुंब की एक विशिष्ट पहचान बनती है । कुटुम्ब की इस विशिष्ट पहचान को बनाए रखना, बढ़ाना, उत्तरोत्तर उससे प्राप्त होने वाली सामाजिक प्रतिष्ठा में वृद्धि करना कुटुम्ब के हर सदस्य का कर्तव्य है और पूर्व पीढ़ी ने नई पीढ़ी को इसके लायक बनने हेतु शिक्षित और दीक्षित करना उसका दायित्व है । शिक्षा का यह बहुत बड़ा क्षेत्र है जिसकी आज अत्यधिक उपेक्षा हो रही है। अनौपचारिक शिक्षा का यह एक बहुत बड़ा क्षेत्र है।
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सम्पूर्ण समाज व्यवस्था में कुटुम्ब एक इकाई होता है। ऐसे अनेक कुटुम्ब मिलकर समुदाय बनाता है । समुदाय राष्ट्रजीवन का महत्त्वपूर्ण अंग है। मुख्य रूप से समुदाय समाज की आर्थिक इकाई है, समान आचार, समान सम्प्रदाय, अर्थार्जन हेतु समान व्यवसाय, समान शिक्षा आदि समानताओं के आधार पर समुदाय बनाते हैं । उदाहरण के लिए वर्णव्यवस्था जब अपने श्रेष्ठ स्वरूप में भारत में प्रतिष्ठित थी तब ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि वर्णों के समाज बनते थे, सुथार, कृषक, धोबी, वैद्य आदि व्यवसायों के समुदाय बनते थे । इन समुदायों में विवाह सम्बन्ध होते थे। समुदाय के बाहर कोई विवाह सम्बन्ध नहीं जोड़ता था । आज वर्णव्यवस्था छिन्नविच्छिन्न हो गई है, जाति व्यवस्था की उससे भी अधिक दुर्गति हुई है तब भी समुदाय तो बनेंगे ही । उदाहरण के लिए चिकित्सकों का एक समुदाय, उद्योजकों का एक समुदाय, संप्रदायों का एक समुदाय आदि । इन समुदायों में भी उपसमुदाय बनेंगे। उदाहरण के लिए शिक्षकों का एक समुदाय जिसमें विश्वविद्यालयीन शिक्षकों का एक, माध्यमिक विद्यालय के शिक्षकों का दूसरा, प्राथमिक शिक्षकों का तीसरा ऐसे उपसमुदाय बनेंगे। पूर्व में वर्ण और जाति के विवाह और व्यवसाय के नियम और कानून जितने आग्रहपूर्वक पालन किये जाते थे उतने इन व्यवसायों के नहीं हैं यह ठीक है परंतु समुदाय बनते अवश्य हैं। इन समुदायों में विचारपद्धति, व्यावसायिक कौशल, व्यवसाय के अनुरूप वेषभूषा आदि का अन्तर थोड़ी बहुत मात्रा में आज भी देखने को मिलता है, जैसे कि राजकीय क्षेत्र का, उद्योग क्षेत्र का या शिक्षा क्षेत्र का व्यक्ति उसकी बोलचाल से और कभी कभी तो अंगविन्यास से भी पहचाना जाता है।
 
सम्पूर्ण समाज व्यवस्था में कुटुम्ब एक इकाई होता है। ऐसे अनेक कुटुम्ब मिलकर समुदाय बनाता है । समुदाय राष्ट्रजीवन का महत्त्वपूर्ण अंग है। मुख्य रूप से समुदाय समाज की आर्थिक इकाई है, समान आचार, समान सम्प्रदाय, अर्थार्जन हेतु समान व्यवसाय, समान शिक्षा आदि समानताओं के आधार पर समुदाय बनाते हैं । उदाहरण के लिए वर्णव्यवस्था जब अपने श्रेष्ठ स्वरूप में भारत में प्रतिष्ठित थी तब ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि वर्णों के समाज बनते थे, सुथार, कृषक, धोबी, वैद्य आदि व्यवसायों के समुदाय बनते थे । इन समुदायों में विवाह सम्बन्ध होते थे। समुदाय के बाहर कोई विवाह सम्बन्ध नहीं जोड़ता था । आज वर्णव्यवस्था छिन्नविच्छिन्न हो गई है, जाति व्यवस्था की उससे भी अधिक दुर्गति हुई है तब भी समुदाय तो बनेंगे ही । उदाहरण के लिए चिकित्सकों का एक समुदाय, उद्योजकों का एक समुदाय, संप्रदायों का एक समुदाय आदि । इन समुदायों में भी उपसमुदाय बनेंगे। उदाहरण के लिए शिक्षकों का एक समुदाय जिसमें विश्वविद्यालयीन शिक्षकों का एक, माध्यमिक विद्यालय के शिक्षकों का दूसरा, प्राथमिक शिक्षकों का तीसरा ऐसे उपसमुदाय बनेंगे। पूर्व में वर्ण और जाति के विवाह और व्यवसाय के नियम और कानून जितने आग्रहपूर्वक पालन किये जाते थे उतने इन व्यवसायों के नहीं हैं यह ठीक है परंतु समुदाय बनते अवश्य हैं। इन समुदायों में विचारपद्धति, व्यावसायिक कौशल, व्यवसाय के अनुरूप वेषभूषा आदि का अन्तर थोड़ी बहुत मात्रा में आज भी देखने को मिलता है, जैसे कि राजकीय क्षेत्र का, उद्योग क्षेत्र का या शिक्षा क्षेत्र का व्यक्ति उसकी बोलचाल से और कभी कभी तो अंगविन्यास से भी पहचाना जाता है।
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समुदाय की व्यवस्था उत्तम होने के लिए अर्थव्यवस्था ठीक करनी होती है। धार्मिक समुदाय व्यवस्था के प्रमुख लक्षणों में एक महत्त्वपूर्ण बात यह थी कि व्यवसाय भी सम्पूर्ण परिवार मिलकर करता था। इससे अथर्जिन हेतु शिक्षा का केन्द्र घर ही होता था और शिक्षा हेतु पैसे खर्च नहीं करने पड़ते थे । साथ ही राज्य को अथर्जिन की शिक्षा देने हेतु आज की तरह बड़ा जंजाल नहीं खड़ा करना पड़ता था ।
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समुदाय की व्यवस्था उत्तम होने के लिए अर्थव्यवस्था ठीक करनी होती है। धार्मिक समुदाय व्यवस्था के प्रमुख लक्षणों में एक महत्त्वपूर्ण बात यह थी कि व्यवसाय भी सम्पूर्ण परिवार मिलकर करता था। इससे अर्थार्जन हेतु शिक्षा का केन्द्र घर ही होता था और शिक्षा हेतु पैसे खर्च नहीं करने पड़ते थे । साथ ही राज्य को अर्थार्जन की शिक्षा देने हेतु आज की तरह बड़ा जंजाल नहीं खड़ा करना पड़ता था ।
    
आर्थिक स्वतन्त्रता, व्यवसाय में स्वामित्वभाव, आर्थिक सुरक्षा जैसे अति मूल्यवान तत्वों की रक्षा समुदायगत समाज व्यवस्था करने में होती है । आज कुटुम्ब को नहीं अपितु व्यक्ति को इकाई मानने के कारण मनुष्य के लिए आर्थिक क्षेत्र का व्यावहारिक तथा मानसिक संकट निर्माण हो गया है । समुदायगत व्यवस्था ठीक से बैठाने हेतु शिक्षा की विशेष व्यवस्था हमें करनी होगी।
 
आर्थिक स्वतन्त्रता, व्यवसाय में स्वामित्वभाव, आर्थिक सुरक्षा जैसे अति मूल्यवान तत्वों की रक्षा समुदायगत समाज व्यवस्था करने में होती है । आज कुटुम्ब को नहीं अपितु व्यक्ति को इकाई मानने के कारण मनुष्य के लिए आर्थिक क्षेत्र का व्यावहारिक तथा मानसिक संकट निर्माण हो गया है । समुदायगत व्यवस्था ठीक से बैठाने हेतु शिक्षा की विशेष व्यवस्था हमें करनी होगी।
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श्रेष्ठ समाज अथवा समुदाय के दो लक्षण होते हैं। एक होता है समृद्धि और दूसरा होता है संस्कृति। अर्थात्‌ जिस प्रकार समृद्धि हेतु अर्थकरी शिक्षा की उत्तम व्यवस्था चाहिए तथा उसकी उत्तम शिक्षा चाहिए उसी प्रकार व्यक्तियों को सुसंस्कृत बनाने की शिक्षा भी चाहिए। इस दृष्टि से व्यवसाय का दृष्टिकोण बदलना चाहिए । व्यवसाय केवल अथर्जिन के लिए ही नहीं होता। व्यवसाय के परिणामस्वरूप उपभोक्ता को आवश्यक वस्तु प्राप्त होती है। अत: उपभोक्ता का विचार करना, उसकी सेवा हेतु व्यवसाय करना यह भी महत्त्वपूर्ण पक्ष है। जब उपभोक्ता का विचार करके व्यवसाय किया जाता है तब उपभोक्ता की आवश्यकता, उसके लाभ और हानि, उत्पादन की गुणवत्ता आदि का भी ध्यान रखा जाता है। एक ही बात का विचार करने से दृष्टिकोण का मुद्दा समझ में आएगा। किसी भी उत्पादन का विज्ञापन किया जाता है तब उत्पादक अपने उत्पादन की भरपूर प्रशंसा करता है। ऐसा करने का एकमात्र कारण उपभोक्ता को उत्पादन की ओर आकर्षित कर उसे खरीदने के लिए बाध्य करना है। ऐसा करने की आवश्यकता क्यों होती है? केवल इसलिए कि हमने उत्पादित किया वह पदार्थ बिकना चाहिए । इस उद्देश्य से प्रेरित होकर जो नहीं हैं ऐसे गुण बढ़ाचढ़ाकर बताए जाते हैं और उपभोक्ता को चाहिए या नहीं इसका ध्यान कम रखा जाता है, अपना माल बिकना चाहिए इसका अधिक विचार किया जाता है । यह नीतिमत्ता नहीं है । तो भी यह आज भारी मात्रा में किया जाता है क्योंकि उत्पादन केवल अथर्जिन हेतु ही किया जाता है, उपभोक्ता की सेवा के लिए नहीं । विकसित और शिक्षित समाज में यह दृष्टिकोण बदलने की आवश्यकता होती है। समुदाय को सुसंस्कृत बनाने के लिए यह आवश्यक है।
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श्रेष्ठ समाज अथवा समुदाय के दो लक्षण होते हैं। एक होता है समृद्धि और दूसरा होता है संस्कृति। अर्थात्‌ जिस प्रकार समृद्धि हेतु अर्थकरी शिक्षा की उत्तम व्यवस्था चाहिए तथा उसकी उत्तम शिक्षा चाहिए उसी प्रकार व्यक्तियों को सुसंस्कृत बनाने की शिक्षा भी चाहिए। इस दृष्टि से व्यवसाय का दृष्टिकोण बदलना चाहिए । व्यवसाय केवल अर्थार्जन के लिए ही नहीं होता। व्यवसाय के परिणामस्वरूप उपभोक्ता को आवश्यक वस्तु प्राप्त होती है। अत: उपभोक्ता का विचार करना, उसकी सेवा हेतु व्यवसाय करना यह भी महत्त्वपूर्ण पक्ष है। जब उपभोक्ता का विचार करके व्यवसाय किया जाता है तब उपभोक्ता की आवश्यकता, उसके लाभ और हानि, उत्पादन की गुणवत्ता आदि का भी ध्यान रखा जाता है। एक ही बात का विचार करने से दृष्टिकोण का मुद्दा समझ में आएगा। किसी भी उत्पादन का विज्ञापन किया जाता है तब उत्पादक अपने उत्पादन की भरपूर प्रशंसा करता है। ऐसा करने का एकमात्र कारण उपभोक्ता को उत्पादन की ओर आकर्षित कर उसे खरीदने के लिए बाध्य करना है। ऐसा करने की आवश्यकता क्यों होती है? केवल इसलिए कि हमने उत्पादित किया वह पदार्थ बिकना चाहिए । इस उद्देश्य से प्रेरित होकर जो नहीं हैं ऐसे गुण बढ़ाचढ़ाकर बताए जाते हैं और उपभोक्ता को चाहिए या नहीं इसका ध्यान कम रखा जाता है, अपना माल बिकना चाहिए इसका अधिक विचार किया जाता है । यह नीतिमत्ता नहीं है । तो भी यह आज भारी मात्रा में किया जाता है क्योंकि उत्पादन केवल अर्थार्जन हेतु ही किया जाता है, उपभोक्ता की सेवा के लिए नहीं । विकसित और शिक्षित समाज में यह दृष्टिकोण बदलने की आवश्यकता होती है। समुदाय को सुसंस्कृत बनाने के लिए यह आवश्यक है।
    
समुदायगत व्यवस्था में विवाह की व्यवस्था भी विचारपूर्वक करनी होती है। उदाहरण के लिए जननशास्त्र का एक सिद्धांत कहता है कि सगोत्र विवाह करने से कुछ ही पीढ़ियों में सम्पूर्ण जाति का नाश होता है। वर्तमान पारसियों का उदाहरण इस दृष्टि से विचारणीय है । वे सगोत्र विवाह करते हैं। इसके परिणामस्वरूप आज उनकी जनसंख्या में भारी गिरावट आई है और एक बुद्धिमान जाति के अस्तित्व पर संकट उतर आया है । सगोत्र विवाह नहीं करना यह वैज्ञानिक नियम है । परन्तु आज किसी को गोत्र मालूम नहीं होता है। यदि मालूम भी होता है तो उसकी चिन्ता नहीं है क्योंकि सिद्धांत का ज्ञान भी नहीं है और उसका पालन करने की आवश्यकता भी नहीं लगती। ऐसे विवाह करने से सम्पूर्ण समाज का सामर्थ्य कम होता जाता है। सामर्थ्यहीन समाज अपना विकास नहीं कर सकता । गोत्र का सिद्धांत तो एक है । ऐसे तो विवाह विषयक कई सिद्धांत हैं। हमारे समाज चिंतकों ने बहुत विचारपूर्वक विवाहशास्त्र की रचना हुई है। आज उसके विषय में घोर अज्ञान और उपेक्षा का व्यवहार होने के कारण समाज पर सांस्कृतिक संकट छाया है। यह विषय स्वतंत्र चर्चा का विषय है, यहाँ केवल इतना ही बताना प्रासंगिक है कि व्यवसाय की तरह विवाह भी सामाजिक संगठन के लिए अत्यंत आवश्यक विषय है। कुल मिलाकर शिक्षा का यह एक महत्त्वपूर्ण अंग है।
 
समुदायगत व्यवस्था में विवाह की व्यवस्था भी विचारपूर्वक करनी होती है। उदाहरण के लिए जननशास्त्र का एक सिद्धांत कहता है कि सगोत्र विवाह करने से कुछ ही पीढ़ियों में सम्पूर्ण जाति का नाश होता है। वर्तमान पारसियों का उदाहरण इस दृष्टि से विचारणीय है । वे सगोत्र विवाह करते हैं। इसके परिणामस्वरूप आज उनकी जनसंख्या में भारी गिरावट आई है और एक बुद्धिमान जाति के अस्तित्व पर संकट उतर आया है । सगोत्र विवाह नहीं करना यह वैज्ञानिक नियम है । परन्तु आज किसी को गोत्र मालूम नहीं होता है। यदि मालूम भी होता है तो उसकी चिन्ता नहीं है क्योंकि सिद्धांत का ज्ञान भी नहीं है और उसका पालन करने की आवश्यकता भी नहीं लगती। ऐसे विवाह करने से सम्पूर्ण समाज का सामर्थ्य कम होता जाता है। सामर्थ्यहीन समाज अपना विकास नहीं कर सकता । गोत्र का सिद्धांत तो एक है । ऐसे तो विवाह विषयक कई सिद्धांत हैं। हमारे समाज चिंतकों ने बहुत विचारपूर्वक विवाहशास्त्र की रचना हुई है। आज उसके विषय में घोर अज्ञान और उपेक्षा का व्यवहार होने के कारण समाज पर सांस्कृतिक संकट छाया है। यह विषय स्वतंत्र चर्चा का विषय है, यहाँ केवल इतना ही बताना प्रासंगिक है कि व्यवसाय की तरह विवाह भी सामाजिक संगठन के लिए अत्यंत आवश्यक विषय है। कुल मिलाकर शिक्षा का यह एक महत्त्वपूर्ण अंग है।

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