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लेख सम्पादित किया
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{{One source|date=August 2020}}
 
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शिक्षा विषयक गलत धारणाओं के हम कुछ इतने आदी हो गये हैं कि उससे कितना नुकसान होता है इसकी कोई कल्पना ही हम नहीं कर सकते<ref>धार्मिक शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप (धार्मिक शिक्षा ग्रन्थमाला १): पर्व ५, प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे</ref> । ऐसी ही एक गलत
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== शिक्षा व संस्कार अलग नहीं है ==
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शिक्षा विषयक गलत धारणाओं के हम कुछ इतने आदी हो गये हैं कि उससे कितना नुकसान होता है इसकी कोई कल्पना ही हम नहीं कर सकते<ref>धार्मिक शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप (धार्मिक शिक्षा ग्रन्थमाला १): पर्व ५, प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे</ref> । ऐसी ही एक गलत धारणा यह बन गई है कि शिक्षा विद्यालय में जाकर ही होती है। धीरे धीरे हम यह कहने लगते हैं कि जो विद्यालय में नहीं होती वह शिक्षा ही नहीं है । इसका ही परिणाम है कि हम लोग घर का महत्त्व मानकर उसके सन्दर्भ में जब बात होती है तब यह नहीं कहते हैं कि घर में शिक्षा होती है ।हम कहते हैं कि घर में संस्कार होते हैं। इसके साथ ही दूसरी गलत धारणा यह बनी है कि शिक्षा और संस्कार अलग बातें हैं । फिर हम कहते हैं कि शिक्षा संस्कारहीन नहीं होनी चाहिए । हम आज की स्थिति को ध्यान में रखकर ही ऐसा कहते हैं यह सत्य है परन्तु इससे सिद्ध यह होता है कि शिक्षा और संस्कार अलग हैं ।
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धारणा यह बन गई है कि शिक्षा विद्यालय में जाकर ही
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अतः पहला तो गृहीत यह है कि शिक्षा और संस्कार अलग नहीं हैं । संस्कार को हम सदुण और सदाचार के रूप में समझते हैं । सदुण और सदाचार वास्तव में धर्म शिक्षा है । भारत में शिक्षा वही है जो धर्म सिखाती है । अर्थकरी शिक्षा को वास्तव में शिक्षा नहीं अपितु कौशल कहते हैं । धर्मकरी शिक्षा को ही शिक्षा कहते हैं ।
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होती है। धीरे धीरे हम यह कहने लगते हैं कि जो
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इस दृष्टि से देखें तो शिक्षा विद्यालय में तो बहुत ही कम होती है । शिक्षा की शुरुआत घर में होती है, जन्म के भी पूर्व से होती है और विद्यालयीन शिक्षा समाप्त हो जाने के बाद भी चलती है । हम यह भी कह सकते हैं कि प्राचीन समय में, अथवा तो यह कहें कि भारत में गुरुकुल में जाकर शास्त्रों के अध्ययन को ही शिक्षा कहा जाता था, चिकित्सा, इंजीनियरिंग, व्यापार आदि सीखने को शिक्षा नहीं कहा जाता था । यह सब सीखने के लिए गुरुकुल में जाने की आवश्यकता नहीं थी । वह घर में और घर के आसपास मिलने वाले मार्गदर्शन से ही मिल जाती थी । उसके लिए न तो कोई तंत्र आवश्यक था न पैसा । अर्थार्जन अथवा अन्य भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति तो घर में और आसपास से ही हो जाती थी ।
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विद्यालय में नहीं होती वह शिक्षा ही नहीं है इसका ही
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== घर भी शिक्षा केन्द्र है ==
 
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कुछ भी हो जीवनविकास के लिए यदि शिक्षा है तो वह केवल विद्यालय में नहीं अपितु घर में प्राप्त होती थी । घर में शिक्षा के पहलू इस प्रकार कहे जा सकते हैं
परिणाम है कि हम लोग घर का महत्त्व मानकर उसके
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* बालक को जन्म देना पतिपत्नी का परम कर्तव्य है । वास्तव में विवाह किया ही इसलिए जाता है कि हम पितृकऋण से उऋण हो सकें पितृकऋण से उऋण होना सांस्कृतिक कर्तव्य है क्योंकि बालक को जन्म देने से ही नई पीढ़ी निर्माण होती है और नई पीढ़ी को पूर्व पीढ़ी द्वारा परिवारगत जो भी सांस्कृतिक विरासत होती है वह नई पीढ़ी को हस्तान्तरित की जा सकती है । यदि नई पीढ़ी जनमी ही नहीं तो परम्परा खंडित होती है । परम्परा खंडित होने का निमित्त बनना बहुत बड़ा सामाजिक सांस्कृतिक अपराध है इसे ही भारत में पाप माना जाता था आज हम व्यक्तिकेन्द्री जीवनदृष्टि से प्रभावित हो गये हैं इसलिए सामाजिक सांस्कृतिक दायित्व को महत्त्वपूर्ण मानते नहीं हैं । परन्तु हमें स्मरण में रखना चाहिए कि भारत परम्परा निर्वहण के कारण ही चिरंजीवी बना है ।
 
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* घर सांस्कृतिक परम्परा निभाने का एक महत्त्वपूर्ण केन्द्र है और बालक परम्परा निर्वहण का महत्त्वपूर्ण माध्यम । इस दृष्टि से बालक की शिक्षा की व्यवस्था की जाती थी। भारत के मनीषियों ने जाना कि कोई भी व्यक्ति अकेले में जीवन व्यतीत नहीं कर सकता वह अपने साथ अपने पूर्वजन्म के संस्कार लेकर आता है । वे उसके चरित्र में बहुत बड़ी भूमिका निभाते हैं । साथ ही उसे माता की पाँच और पिता की चौदह पीढ़ियों के संस्कार मिलते हैं । तीसरे, वह जिस संस्कृति में जनमा है उस संस्कृति के संस्कार भी उसके चरित्र का हिस्सा होते हैं । वह जिस वातावरण में जन्मता है उस वातावरण के संस्कार भी उस पर होते हैं ये सब उसकी शिक्षा के अंग हैं बालक का पूर्व जन्म और अपनी पाँच और चौदह पीढ़ीयाँ तो हमारे हाथ में नहीं हैं परन्तु मातापिता स्वयं को तो अच्छे बालक को जन्म देने के लिये समर्थ बना सकते हैं अत: मातापिता को इस लायक बनाने का हर प्रकार से प्रयास किया जाता था । भारत में अधिजननशास्त्र का. बहुत विकास हुआ है । यह शास्त्र घर में जन्म पूर्व से ही बालक के चरित्रनिर्माण के लिये क्या करना और क्या नहीं करना इसका ही शास्त्र है
सन्दर्भ में जब बात होती है तब यह नहीं कहते हैं कि घर में
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* मनुष्य के जीवन को सांस्कृतिक दृष्टि से नियमित और व्यवस्थित करने हेतु भारतीय समाजचिंतकों ने सोलह संस्कारों की व्यवस्था दी है । इन सोलह संस्कारों में से नौ संस्कार व्यक्ति की आयु के प्रथम पाँच वर्षों में ही हो जाते हैं ये संस्कार शारीरिक और मानसिक विकास की दृष्टि से ही होते हैं खूबी की बात यह है कि गर्भाधान संस्कार तो बालक का आगमन अभी माता के गर्भाशय में हुआ भी नहीं है तब होते हैं गर्भावस्‍था में माता के माध्यम से बालक का चरित्रनिर्माण बहुत सावधानी पूर्वक किया जाता है बालक का जन्म, जन्म के बाद की उसकी सुरक्षा, उसका संगोपन, उसके संस्कार आदि का भी विस्तृत विधान हमारे शास्त्रों में निरूपित है और हमारी परम्परा में जीवित है । केवल उसे व्यवस्थित करने की आवश्यकता है ।  
 
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* घर में जो शिक्षा मिलती है वह घर की जीवनशैली की और कुलपरम्परा कि होती है वह बहुत छोटी अवस्था से इन सबके संस्कार प्राप्त करता है। बालक भाषा सीखता है और अभिव्यक्ति की क्षमता भी सीखता है। वह आदतें भी सीखता है और अनेक प्रकार के कौशल भी । वह जीवनमूल्य भी सीखता है और शैली भी ग्रहण करता है। वह अनुकरण से भी सीखता है और प्रेरणा से भी सीखता है वह घर के सारे कामों को साथ साथ करके भी सीखता है और अपनी बुद्धि से भी सीखता है । वह निरीक्षण से भी सीखता है और परीक्षण से भी सीखता है । वह स्वयं प्रेरणा से और स्वयं पुरुषार्थ से सीखता है वह मातापिता और बड़ों के संरक्षण में अनेक प्रकार से लाड़ प्यार पाकर सीखता है । वह आनन्द से सीखता है, उत्साह से सीखता है। सीखना उसके लिये बोज नहीं है, न घर के अन्य लोगों के लिये । आज हम शिक्षक विद्यार्थी अनुपात को लेकर परेशान हैं । हम कहते हैं कि एक शिक्षक तीस, चालीस बच्चों को एक साथ पढ़ा नहीं सकता परन्तु व्यावहारिक कारणों से हम यह अनुपात कम नहीं कर सकते । परन्तु घर में तो एक विद्यार्थी और दो, तीन, चार या उससे भी अधिक शिक्षक होते हैं । वे सब बिना वेतन के होते हैं । सीखने के लिये न तो गणवेश चाहिए न बस्ता, न वाहन चाहिए न शुल्क, न समयसारिणी है न गृहकार्य । साहाजिक ढंग से, आनन्द से, प्रेम से प्रभावी ढंग से शिक्षा होती है ।
शिक्षा होती है ।हम कहते हैं कि घर में संस्कार होते हैं
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* कुटुम्ब में शिक्षा होती है इससे एक लाभ यह होता है कि शिक्षा जीवन का एक स्वाभाविक अंग बन जाती है। सीखने का सबसे अच्छा तरीका साथ रहना, साथ काम करना और साथ जीना है । इसी तथ्य के आधार पर ही गुरुकुल संकल्पना का विकास हुआ है जिसमें गुरुगृहवास अनिवार्य और स्वाभाविक माना गया है यह तथ्य न समझकर हम कहते हैं कि यातायात के साधन नहीं थे इसलिए गुरुकुल में शिक्षा के साथ आवास और भोजन की भी व्यवस्था करनी पड़ती थी आज भी छात्रावास सहित के अथवा आवासी विद्यालय इसी तथ्य को स्वीकार कर ही चलते हैं कि पढ़ाई के स्थान पर आवास और भोजन की व्यवस्था नहीं होती है इसलिए वह कर देने से विद्यार्थियों को सुविधा रहेगी । जब शिक्षा जीवन का अंग बनकर चलती है तब उसका अलग से कोई शास्त्र बनाने की आवश्यकता नहीं होती इस कारण से ही कदाचित आज के जैसा भारत में अध्यापनशास्त्र नहीं रचा गया, हाँ, संगोपनशास्त्र अवश्य रचा गया ।
 
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* कुटुम्ब में शिक्षा संभव होने के लिये घर में संस्कारक्षम वातावरण होना चाहिए, बड़ों का चरित्र प्रेरणादायी होना चाहिए बालक का चरित्र ठीक नहीं है तो मातापिता को दोष दिया जाता है और बालक के यश का श्रेय मातापिता को दिया जाता है । ऐसा करके मातापिता की ज़िम्मेदारी का भी स्वीकार किया गया है । इसी प्रकार गुरु अपने शिष्य की और शिष्य अपने गुरु की कीर्ति से जाना जाता है ।  
इसके साथ ही दूसरी गलत धारणा यह बनी है कि शिक्षा
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* भारतीय व्यवस्था में अधथार्जिन कुटुंबजीवन का ही हिस्सा था, अत: अधथर्जिन के लिये विद्यालय में पढ़ने के लिये जाने का कोई प्रयोजन नहीं था जिस प्रकार सब मिलकर घर के और सारे काम करते थे उसी प्रकार सब मिलकर अधथार्जिन भी कर लेते थे । कुटुम्ब का व्यवसाय भी निश्चित होता था । अत: व्यवसाय सीखना अपने आप हो जाता था अन्य कोई व्यवसाय सीखना है तो सिखाने वाले के पास जाना होता था और उसके घर रहकर सीखा जाता था । घर से बाहर जाकर सीखना भी व्यक्तिगत विषय ही था।
 
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* अर्थार्जन को लेकर नहीं तो घर में रहने को केन्द्र बनाकर जीवन की रचना होती थी और अर्थार्जन साथ रहने के भाग स्वरूप ही विचार में लिया जाता
और संस्कार अलग बातें हैं । फिर हम कहते हैं कि शिक्षा
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था । व्यक्तिगत करियर या व्यक्तिगत अर्थार्जन यह
 
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संस्कारहीन नहीं होनी चाहिए । हम आज की स्थिति को
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ध्यान में रखकर ही ऐसा कहते हैं यह सत्य है परन्तु इससे
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सिद्ध यह होता है कि शिक्षा और संस्कार अलग हैं ।
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अतः: पहला तो गृहीत यह है कि शिक्षा और संस्कार
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अलग नहीं हैं । संस्कार को हम सदुण और सदाचार के रूप
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में समझते हैं । सदुण और सदाचार वास्तव में धर्म शिक्षा
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है । भारत में शिक्षा वही है जो धर्म सिखाती है । अर्थकरी
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शिक्षा को वास्तव में शिक्षा नहीं अपितु कौशल कहते हैं
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धर्मकरी शिक्षा को ही शिक्षा कहते हैं
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इस दृष्टि से देखें तो शिक्षा विद्यालय में तो बहुत ही
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कम होती है । शिक्षा की शुरुआत घर में होती है, जन्म के
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भी पूर्व से होती है और विद्यालयीन शिक्षा समाप्त हो जाने
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के बाद भी चलती है
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हम यह भी कह सकते हैं कि प्राचीन समय में,
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अथवा तो यह कहें कि भारत में गुरुकुल में जाकर शास्त्रों
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के अध्ययन को ही शिक्षा कहा जाता था, चिकित्सा,
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इंजीनियरिंग, व्यापार आदि सीखने को शिक्षा नहीं कहा
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श्८्३
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जाता था । यह सब सीखने के लिए गुरुकुल में जाने की
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आवश्यकता नहीं थी । वह घर में और घर के आसपास
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मिलने वाले मार्गदर्शन से ही मिल जाती थी उसके लिए न
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तो कोई तंत्र आवश्यक था न पैसा अथर्जिन अथवा अन्य
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भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति तो घर में और आसपास
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से ही हो जाती थी ।
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घर भी शिक्षा केन्द्र है
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कुछ भी हो जीवनविकास के लिए यदि शिक्षा है तो
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वह केवल विद्यालय में नहीं अपितु घर में प्राप्त होती थी
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घर में शिक्षा के पहलू इस प्रकार कहे जा सकते हैं
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बालक को जन्म देना पतिपत्नी का परम कर्तव्य है ।
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वास्तव में विवाह किया ही इसलिए जाता है कि हम
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पितृकऋण से उक्रण हो सकें । पितृकण से उक्रण होना
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सांस्कृतिक कर्तव्य है क्योंकि बालक को जन्म देने से
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ही नई पीढ़ी निर्माण होती है और नई पीढ़ी को पूर्व
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पीढ़ी द्वारा परिवारगत जो भी सांस्कृतिक विरासत
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होती है वह नई पीढ़ी को हस्तान्तरित की जा सकती
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है । यदि नई पीढ़ी जनमी ही नहीं तो परम्परा खंडित
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होती है परम्परा खंडित होने का निमित्त बनना बहुत
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बड़ा सामाजिक सांस्कृतिक अपराध है इसे ही
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भारत में पाप माना जाता था आज हम व्यक्तिकेन्द्री
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जीवनदृष्टि से प्रभावित हो गये हैं इसलिए सामाजिक
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सांस्कृतिक दायित्व को महत्त्वपूर्ण मानते नहीं हैं
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परन्तु हमें स्मरण में रखना चाहिए कि भारत परम्परा
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निर्वहण के कारण ही चिरंजीवी बना है ।
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घर सांस्कृतिक परम्परा निभाने का एक महत्त्वपूर्ण
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केन्द्र है और बालक परम्परा निर्वहण का महत्त्वपूर्ण
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माध्यम इस दृष्टि से बालक की शिक्षा की व्यवस्था
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की जाती थी भारत के मनीषियों ने
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जाना कि कोई भी व्यक्ति अकेले में जीवन व्यतीत
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नहीं कर सकता । वह अपने साथ अपने पूर्वजन्म के
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संस्कार लेकर आता है । वे उसके चस्त्र में बहुत
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बड़ी भूमिका निभाते हैं साथ ही उसे माता की पाँच
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और पिता की चौदह पीढ़ियों के संस्कार मिलते हैं
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तीसरे, वह जिस संस्कृति में जनमा है उस संस्कृति के
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संस्कार भी उसके चरित्र का हिस्सा होते हैं । वह
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जिस वातावरण में जन्मता है उस वातावरण के
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संस्कार भी उस पर होते हैं । ये सब उसकी शिक्षा के
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अंग हैं । बालक का पूर्व जन्म और अपनी पाँच और
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चौदह पीढ़ीयाँ तो हमारे हाथ में नहीं हैं परन्तु
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मातापिता स्वयं को तो अच्छे बालक को जन्म देने
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के लिये समर्थ बना सकते हैं । अत: मातापिता को
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इस लायक बनाने का हर प्रकार से प्रयास किया
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जाता था । भारत में अधिजननशाख्र का. बहुत
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विकास हुआ है यह शाख्र घर में जन्म पूर्व से ही
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बालक के चरित्रनिर्माण के लिये क्या करना और क्या
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नहीं करना इसका ही शाख्र है ।
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मनुष्य के जीवन को सांस्कृतिक दृष्टि से नियमित और
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व्यवस्थित करने हेतु भारतीय समाजचिंतकों ने सोलह
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संस्कारों की व्यवस्था दी है इन सोलह संस्कारों में
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से नौ संस्कार व्यक्ति की आयु के प्रथम पाँच वर्षों में
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ही हो जाते हैं । ये संस्कार शारीरिक और मानसिक
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विकास की दृष्टि से ही होते हैं खूबी की बात यह
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है कि गर्भाधान संस्कार तो बालक का आगमन अभी
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माता के गर्भाशय में हुआ भी नहीं है तब होते हैं ।
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गर्भावस्‍था में माता के माध्यम से बालक का
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चरित्रनिर्माण बहुत सावधानी पूर्वक किया जाता है ।
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बालक का जन्म, जन्म के बाद की उसकी सुरक्षा,
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उसका संगोपन, उसके संस्कार आदि का भी विस्तृत
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विधान हमारे शास्त्रों में निरूपित है और हमारी
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परम्परा में जीवित है केवल उसे व्यवस्थित करने
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की आवाश्यकता है
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घर में जो शिक्षा मिलती है वह घर की जीवनशैली
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श्८्ढं
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भारतीय शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप
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की और कुलपरम्परा कि होती है । वह बहुत छोटी
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अवस्था से इन सबके संस्कार प्राप्त करता है।
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बालक भाषा सीखता है और अभिव्यक्ति की क्षमता
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भी सीखता है। वह आदतें भी सीखता है और
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अनेक प्रकार के कौशल भी वह जीवनमूल्य भी
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सीखता है और शैली भी ग्रहण करता है। वह
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अनुकरण से भी सीखता है और प्रेरणा से भी सीखता
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है वह घर के सारे कामों को साथ साथ करके भी
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सीखता है और अपनी बुद्धि से भी सीखता है वह
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निरीक्षण से भी सीखता है और परीक्षण से भी
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सीखता है । वह स्वयं प्रेरणा से और स्वयं पुरुषार्थ से
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सीखता है । वह मातापिता और बड़ों के संरक्षण में
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अनेक प्रकार से लाड़ प्यार पाकर सीखता है । वह
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आनन्द से सीखता है, उत्साह से सीखता है।
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सीखना उसके लिये बोज नहीं है, न घर के अन्य
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लोगों के लिये । आज हम शिक्षक विद्यार्थी अनुपात
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को लेकर परेशान हैं । हम कहते हैं कि एक शिक्षक
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तीस, चालीस बच्चों को एक साथ पढ़ा नहीं सकता ।
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परन्तु व्यावहारिक कारणों से हम यह अनुपात कम
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नहीं कर सकते । परन्तु घर में तो एक विद्यार्थी और
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दो, तीन, चार या उससे भी अधिक शिक्षक होते हैं ।
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वे सब बिना वेतन के होते हैं । सीखने के लिये न तो
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गणवेश चाहिए न बस्ता, न वाहन चाहिए न शुल्क,
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न समयसारिणी है न गृहकार्य । साहाजिक ढंग से,
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आनन्द से, प्रेम से प्रभावी ढंग से शिक्षा होती है ।
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कुट्म्ब में शिक्षा होती है इससे एक लाभ यह होता है
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कि शिक्षा जीवन का एक स्वाभाविक अंग बन जाती
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है। सीखने का सबसे अच्छा तरीका साथ रहना,
  −
 
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साथ काम करना और साथ जीना है । इसी तथ्य के
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आधार पर ही गुरुकुल संकल्पना का विकास हुआ है
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जिसमें गुरुगृहबास अनिवार्य और स्वाभाविक माना
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गया है । यह तथ्य न समझकर हम कहते हैं कि
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यातायात के साधन नहीं थे इसलिए गुरुकुल में शिक्षा
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के साथ आवास और भोजन की भी व्यवस्था करनी
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पड़ती थी । आज भी छात्रावास सहित के अथवा
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पर्व ५ : कुटुम्बशिक्षा एवं लोकशिक्षा
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आवासी विद्यालय इसी तथ्य को स्वीकार कर ही
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चलते हैं कि पढ़ाई के स्थान पर आवास और भोजन
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की व्यवस्था नहीं होती है इसलिए वह कर देने से
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विद्यार्थियों को सुविधा रहेगी । जब शिक्षा जीवन का
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अंग बनकर चलती है तब उसका अलग से कोई
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शास्त्र बनाने की आवश्यकता नहीं होती । इस कारण
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से ही कदाचित आज के जैसा भारत में
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अध्यापनशास्त्र नहीं रचा गया, हाँ, संगोपनशास्त्र
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अवश्य रचा गया ।
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कुट्म्ब में शिक्षा संभव होने के लिये घर में
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संस्कारक्षम वातावरण होना चाहिए, बड़ों का चरित्र
  −
 
  −
प्रेरणादायी होना चाहिए । बालक का चरित्र ठीक नहीं
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है तो मातापिता को दोष दिया जाता है और बालक
  −
 
  −
के यश का श्रेय मातापिता को दिया जाता है । ऐसा
  −
 
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करके मातापिता की ज़िम्मेदारी का भी स्वीकार किया
  −
 
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गया है । इसी प्रकार गुरु अपने शिष्य की और शिष्य
  −
 
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अपने गुरु की कीर्ति से जाना जाता है ।
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भारतीय व्यवस्था में अधथार्जिन कुटुंबजीवन का ही
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हिस्सा था, अत: अधथर्जिन के लिये विद्यालय में पढ़ने
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के लिये जाने का कोई प्रयोजन नहीं था । जिस
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प्रकार सब मिलकर घर के और सारे काम करते थे
  −
 
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उसी प्रकार सब मिलकर अधथार्जिन भी कर लेते थे ।
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कुट्म्ब का व्यवसाय भी निश्चित होता था । अत:
  −
 
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व्यवसाय सीखना अपने आप हो जाता था । अन्य
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  −
कोई व्यवसाय सीखना है तो सिखाने वाले के पास
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जाना होता था और उसके घर रहकर सीखा जाता
  −
 
  −
था । घर से बाहर जाकर सीखना भी व्यक्तिगत विषय
  −
 
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हीथा।
  −
 
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अथर्जिन को लेकर नहीं तो घर में रहने को केन्द्र
  −
 
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बनाकर जीवन की रचना होती थी और aia
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साथ रहने के भाग स्वरूप ही विचार में लिया जाता
  −
 
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था । व्यक्तिगत करियर या व्यक्तिगत अथर्जिन यह
      
विषय ही नहीं था । अधथर्जिन अपने आपमें सबसे
 
विषय ही नहीं था । अधथर्जिन अपने आपमें सबसे
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इसलिए कोई व्यवसाय छोड़ नहीं सकता । Hers
 
इसलिए कोई व्यवसाय छोड़ नहीं सकता । Hers
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की इस रचना की शिक्षा कुट्म्ब में ही प्राप्त होती है ।
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की इस रचना की शिक्षा कुटुम्ब में ही प्राप्त होती है ।
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जिस प्रकार अथर्जिन घर का विषय है उसी प्रकार
+
जिस प्रकार अर्थार्जन घर का विषय है उसी प्रकार
    
चरित्रनिर्माण भी घर का ही विषय है । आज हम
 
चरित्रनिर्माण भी घर का ही विषय है । आज हम
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होता जाता है ।
 
होता जाता है ।
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समाजव्यवस्था व्यक्ति केन्द्री बन गई है
+
== समाजव्यवस्था व्यक्ति केन्द्री बन गई है ==
 
   
इस प्रकार जीवन की अनेक बातें ऐसी हैं जो घर में
 
इस प्रकार जीवन की अनेक बातें ऐसी हैं जो घर में
   Line 513: Line 207:  
सामाजिक प्रतिमान अपना लिया है । कानून उसके अनुकूल
 
सामाजिक प्रतिमान अपना लिया है । कानून उसके अनुकूल
   −
बना लिये हैं । इसके चलते कुट्म्ब शिक्षा का केन्द्र नहीं रह
+
बना लिये हैं । इसके चलते कुटुम्ब शिक्षा का केन्द्र नहीं रह
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गया है । कुट्म्ब में शिक्षा नहीं होने के कारण से शिक्षा की
+
गया है । कुटुम्ब में शिक्षा नहीं होने के कारण से शिक्षा की
    
कुट्म्बबाह्य व्यवस्था बनाना हमारे लिये अनिवार्य बन गया
 
कुट्म्बबाह्य व्यवस्था बनाना हमारे लिये अनिवार्य बन गया
Line 571: Line 265:  
समझना होगा । इन सारी बातों को ध्यान में लेकर नई
 
समझना होगा । इन सारी बातों को ध्यान में लेकर नई
   −
नई रचना बनानी होगी स्चना बनानी होगी । थोड़ी दीर्घकालीन योजना बनानी
+
== नई रचना बनानी होगी ==
 +
 
 +
स्चना बनानी होगी । थोड़ी दीर्घकालीन योजना बनानी
    
इस कारण से कितना भी अपरिचित या असंभव... होगी । दीर्घकालीन हो या त्वरित, कुट्म्बजीवन को केन्द्र में
 
इस कारण से कितना भी अपरिचित या असंभव... होगी । दीर्घकालीन हो या त्वरित, कुट्म्बजीवन को केन्द्र में
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अध्याय २६
 
अध्याय २६
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कुट्म्ब में शिक्षा
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कुटुम्ब में शिक्षा
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सीखा कैसे जाता है इसकी चर्चा जब होती है तब. में होती है । इस दृष्टि से कुट्म्ब में शिक्षा यह Pama
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सीखा कैसे जाता है इसकी चर्चा जब होती है तब. में होती है । इस दृष्टि से कुटुम्ब में शिक्षा यह Pama
    
आपग्रहपूर्वक कहा जाता है कि साथ रहकर सीखना अथवा... का एक महत्त्वपूर्ण विषय है । इसलिए यह देखना महत्त्वपूर्ण
 
आपग्रहपूर्वक कहा जाता है कि साथ रहकर सीखना अथवा... का एक महत्त्वपूर्ण विषय है । इसलिए यह देखना महत्त्वपूर्ण

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