Changes

Jump to navigation Jump to search
→‎“गुरुकुल' संज्ञा: लेख सम्पादित किया
Line 4: Line 4:  
“गुरुकुल' शब्द आज भी भारत के लोगों के मन में एक आकर्षण पैदा करता है<ref>धार्मिक शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप (धार्मिक शिक्षा ग्रन्थमाला १): पर्व ४, प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे</ref>। गुरुकुल की पढ़ाई उत्तम थी ऐसा ही भाव मन में जाग्रत होता है । आज कहाँ वे गुरुकुल सम्भव है ऐसा एक खेद का भाव भी पैदा होता है । एक रम्य चित्र मनःचक्षु के सामने आता है जहाँ वन के प्राकृतिक वातावरण में आश्रम बने हुए हैं, आश्रम में पर्णकुटियाँ हैं, ऋषि और ऋषिकुमार यज्ञ कर रहे हैं, मृग निर्भयता से विचरण कर रहे हैं, विद्याध्ययन हो रहा है, वेदपाठ हो रहा है, वातावरण तथा सबके मन प्रसन्न और निश्चिन्त हैं । यह एक ऐसा रम्य चित्र है जिसे आज हमने खो दिया है, आज हमें उस चित्र को बनाना नहीं आता है । आधुनिक काल में अरण्य, पर्णकुटी, यज्ञ, वेदाध्ययन, गुरुगृहवास, ऋषि और कऋषिकुमार इनमें से कुछ भी सम्भव नहीं है, क्योंकि जीवन आपाधापी से व्यस्त, व्यवसाय पाने की चिन्ता से ग्रस्त, चारों ओर भीड़, कोलाहल, प्रदूषण से त्रस्त हो गया है तब वह सौभाग्य कहाँ मिलेगा ऐसा एक दर्द मन में संजोये हम अपने भव्य भवनों में चलने वाले आवासी विद्यालयों को 'गुरुकुल' संज्ञा देते हैं। उसे 'आधुनिक गुरुकुल' कहते हैं । केवल परिवेश बदला है, केवल भाषा बदली है, केवल अध्ययन के विषय बदले हैं, केवल सन्दर्भ बदले हैं, केवल पढ़ने पढ़ाने तथा पढ़वाने वालों के मनोभाव ही बदले हैं, फिर भी यह है तो गुरुकुल ऐसा हमारा प्रतिपादन होता है ।
 
“गुरुकुल' शब्द आज भी भारत के लोगों के मन में एक आकर्षण पैदा करता है<ref>धार्मिक शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप (धार्मिक शिक्षा ग्रन्थमाला १): पर्व ४, प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे</ref>। गुरुकुल की पढ़ाई उत्तम थी ऐसा ही भाव मन में जाग्रत होता है । आज कहाँ वे गुरुकुल सम्भव है ऐसा एक खेद का भाव भी पैदा होता है । एक रम्य चित्र मनःचक्षु के सामने आता है जहाँ वन के प्राकृतिक वातावरण में आश्रम बने हुए हैं, आश्रम में पर्णकुटियाँ हैं, ऋषि और ऋषिकुमार यज्ञ कर रहे हैं, मृग निर्भयता से विचरण कर रहे हैं, विद्याध्ययन हो रहा है, वेदपाठ हो रहा है, वातावरण तथा सबके मन प्रसन्न और निश्चिन्त हैं । यह एक ऐसा रम्य चित्र है जिसे आज हमने खो दिया है, आज हमें उस चित्र को बनाना नहीं आता है । आधुनिक काल में अरण्य, पर्णकुटी, यज्ञ, वेदाध्ययन, गुरुगृहवास, ऋषि और कऋषिकुमार इनमें से कुछ भी सम्भव नहीं है, क्योंकि जीवन आपाधापी से व्यस्त, व्यवसाय पाने की चिन्ता से ग्रस्त, चारों ओर भीड़, कोलाहल, प्रदूषण से त्रस्त हो गया है तब वह सौभाग्य कहाँ मिलेगा ऐसा एक दर्द मन में संजोये हम अपने भव्य भवनों में चलने वाले आवासी विद्यालयों को 'गुरुकुल' संज्ञा देते हैं। उसे 'आधुनिक गुरुकुल' कहते हैं । केवल परिवेश बदला है, केवल भाषा बदली है, केवल अध्ययन के विषय बदले हैं, केवल सन्दर्भ बदले हैं, केवल पढ़ने पढ़ाने तथा पढ़वाने वालों के मनोभाव ही बदले हैं, फिर भी यह है तो गुरुकुल ऐसा हमारा प्रतिपादन होता है ।
   −
इतना सब कुछ बदल जाने के बाद भी ऐसा कौन सा तत्त्व है जो वही का वही है और जिस कारण से हम उसे गुरुकुल कहते हैं इस विषय में हम स्पष्ट नहीं होते हैं, कदाचित हम जानते भी हैं कि उस गुरुकुल और इस गुरुकुल में केवल शब्दसाम्य ही है, और कोई साम्य नहीं है, फिर भी हमें यह नामाभिधान अच्छा लगता है ।
+
इतना सब कुछ बदल जाने के बाद भी ऐसा कौन सा तत्त्व है जो वही का वही है और जिस कारण से हम उसे गुरुकुल कहते हैं इस विषय में हम स्पष्ट नहीं होते हैं, कदाचित हम जानते भी हैं कि उस गुरुकुल और इस गुरुकुल में केवल शब्दसाम्य ही है, और कोई साम्य नहीं है, फिर भी हमें यह नामाभिधान अच्छा लगता है । इसका कारण यह है कि आज भी हमारे अन्तर्मन में शिक्षा के उस स्वरूप के प्रति अटूट आस्था है और उसे येन केन प्रकारेण जिस किसी भी रूपमें जीवित रखना चाहते हैं। सर्वजन समाज की इस आस्था का दम्भपूर्वक और सफलता पूर्वक व्यावसायिक लाभ कमाना यह भी इसका एक पहलू है । इस भौतिक और मानसिक परिप्रेक्ष्य में गुरुकुल संकल्पना का शैक्षिक स्वरूप क्या आज भी सम्भव है, और यदि है तो क्या ऐसा करना उचित है इस प्रश्न का उत्तर खोजने का प्रयास करना चाहिये । इस विमर्श का उद्देश्य भी वही है ।
 
  −
इसका कारण यह है कि आज भी हमारे अन्तर्मन में शिक्षा के उस स्वरूप के प्रति अटूट आस्था है और उसे येन केन प्रकारेण जिस किसी भी रूपमें जीवित रखना चाहते हैं। सर्वजन समाज की इस आस्था का दम्भपूर्वक और सफलता पूर्वक व्यावसायिक लाभ कमाना यह भी इसका एक पहलू है ।
  −
 
  −
इस भौतिक और मानसिक परिप्रेक्ष्य में गुरुकुल संकल्पना का शैक्षिक स्वरूप क्या आज भी सम्भव है, और यदि है तो क्या ऐसा करना उचित है इस प्रश्न का उत्तर खोजने का प्रयास करना चाहिये । इस विमर्श का उद्देश्य भी वही है ।
      
== “गुरुकुल' संज्ञा ==
 
== “गुरुकुल' संज्ञा ==
Line 23: Line 19:  
तीसरा श्लोक है<ref>Guru Gita, Uttarakhand, Skanda Purana, ३२ वा  श्लोक</ref> <ref>एक अन्य स्रोत के हिसाब से: Guru Gita, Uttarakhand, Skanda Purana, प्रथमोऽध्यायः, ५८ वा श्लोक (https://tinyurl.com/y6e7e77p)</ref><blockquote>गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुर्गुरुर्देवो महेश्वरः।</blockquote><blockquote>गुरुरेव परं ब्रह्म तस्मै श्रीगुरवे नमः॥५८॥</blockquote>
 
तीसरा श्लोक है<ref>Guru Gita, Uttarakhand, Skanda Purana, ३२ वा  श्लोक</ref> <ref>एक अन्य स्रोत के हिसाब से: Guru Gita, Uttarakhand, Skanda Purana, प्रथमोऽध्यायः, ५८ वा श्लोक (https://tinyurl.com/y6e7e77p)</ref><blockquote>गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुर्गुरुर्देवो महेश्वरः।</blockquote><blockquote>गुरुरेव परं ब्रह्म तस्मै श्रीगुरवे नमः॥५८॥</blockquote>
   −
गुरु ही ब्रह्मा है, गुरु ही विष्णु है, गुरु ही महेश्वर है,
+
गुरु ही ब्रह्मा है, गुरु ही विष्णु है, गुरु ही महेश्वर है, गुरु साक्षात्‌ परब्रह्म है । ऐसे गुरु को नमस्कार ।
 
  −
गुरु साक्षात्‌ परब्रह्म है । ऐसे गुरु को नमस्कार ।
  −
 
  −
विभिन्‍न संदर्भो में विभिन्‍न प्रकार से किये गये गुरु
  −
 
  −
विषयक निरूपणों का सार इन तीन श्लोकों में बताया गया
  −
 
  −
है। यह इस बात का बलपूर्वक प्रतिपादन करता है कि
  −
 
  −
सम्पूर्ण शिक्षाव्यवस्था में गुरु का स्थान सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण
  −
 
  −
है । उसमें अध्यात्मनिष्ठा से लेकर दैनन्दिन कार्य में कुशलता
  −
 
  −
तक और सर्वज्ञता से लेकर अध्यापन कार्य की कुशलता
  −
 
  −
तक के सभी गुणों की कल्पना की गई है एवं अपेक्षा भी
  −
 
  −
की गई है । वर्तमान में वेश, शिष्टाचार और प्रभावी बाह्य
  −
 
  −
व्यक्तित्व की अपेक्षा की जाती है उसका भी समावेश गुरु
     −
के उपरिवर्णित गुणों में हो जाता है ।
+
विभिन्‍न संदर्भो में विभिन्‍न प्रकार से किये गये गुरु विषयक निरूपणों का सार इन तीन श्लोकों में बताया गया है। यह इस बात का बलपूर्वक प्रतिपादन करता है कि सम्पूर्ण शिक्षाव्यवस्था में गुरु का स्थान सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है । उसमें अध्यात्मनिष्ठा से लेकर दैनन्दिन कार्य में कुशलता तक और सर्वज्ञता से लेकर अध्यापन कार्य की कुशलता तक के सभी गुणों की कल्पना की गई है एवं अपेक्षा भी की गई है । वर्तमान में वेश, शिष्टाचार और प्रभावी बाह्य व्यक्तित्व की अपेक्षा की जाती है उसका भी समावेश गुरु के उपरिवर्णित गुणों में हो जाता है ।
    
== गुरुकुल गुरु का घर है ==
 
== गुरुकुल गुरु का घर है ==
दूसरी संज्ञा है 'कुल' । कुल का अर्थ है वंश,
+
दूसरी संज्ञा है 'कुल' । कुल का अर्थ है वंश, परिवार, गृह आदि । कुल शब्द परंपरा के संदर्भ में अत्यंत महत्त्व रखता है । गुरुकुल एक ऐसी शिक्षासंस्था है जो गुरु का घर है, गुरु का परिवार है और गुरु शिष्य का सजीव सम्बन्ध प्रस्थापित होकर जहाँ ज्ञानपरंपरा बनती है और उसके परिणाम स्वरूप ज्ञान का प्रवाह अविरत रूप से चलता रहता है । “गुरुकुल' संज्ञा का स्वाभाविक संकेत यह है कि गुरु इस शिक्षासंस्था का स्वामी, अथवा अधिष्ठाता होता है । दूसरा संकेत यह भी है कि ज्ञानपरंपरा पिता पुत्र के रूप में नहीं अपितु गुरु शिष्य के रूप में पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़ती है । तीसरा संकेत यह है कि गुरु और शिष्य का सम्बन्ध दैहिक पिता पुत्र का नहीं अपितु मानस पिता पुत्र का होता है। सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण बात यह है कि गुरुकुल में ज्ञान परंपरा खंडित नहीं होनी चाहिये । ज्ञान की परंपरा खंडित होगी तो ज्ञानप्रवाह रुकेगा । ज्ञान नष्ट होगा और संस्कृति और सभ्यता की हानि होगी । आज वेदों की अनेक शाखायें लुप्त हो गई हैं इसका कारण परंपरा का खंडित हो जाना ही है । परंपरा खंडित करना अपराध माना गया है ।
 
  −
परिवार, गृह आदि । कुल शब्द परंपरा के संदर्भ में अत्यंत
  −
 
  −
१७६
  −
 
  −
भारतीय शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप
  −
 
  −
महत्त्व रखता है । गुरुकुल एक ऐसी शिक्षासंस्था है जो गुरु
  −
 
  −
का घर है, गुरु का परिवार है और गुरु शिष्य का सजीव
  −
 
  −
सम्बन्ध प्रस्थापित होकर जहाँ ज्ञानपरंपरा बनती है और
  −
 
  −
उसके परिणाम स्वरूप ज्ञान का प्रवाह अविरत रूप से
  −
 
  −
चलता रहता है ।
  −
 
  −
“गुरुकुल' संज्ञा का स्वाभाविक संकेत यह है कि गुरु
  −
 
  −
इस शिक्षासंस्था का स्वामी, अथवा अधिष्ठाता होता है ।
  −
 
  −
दूसरा संकेत यह भी है कि ज्ञानपरंपरा पिता पुत्र के रूप में
  −
 
  −
नहीं अपितु गुरु शिष्य के रूप में पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़ती
  −
 
  −
है । तीसरा संकेत यह है कि गुरु और शिष्य का सम्बन्ध
  −
 
  −
दैहिक पिता पुत्र का नहीं अपितु मानस पिता पुत्र का होता
  −
 
  −
है।
  −
 
  −
सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण बात यह है कि गुरुकुल में ज्ञान
  −
 
  −
परंपरा खंडित नहीं होनी चाहिये । ज्ञान की परंपरा खंडित
  −
 
  −
होगी तो ज्ञानप्रवाह रुकेगा । ज्ञान नष्ट होगा और संस्कृति
  −
 
  −
और सभ्यता की हानि होगी । आज वेदों की अनेक
  −
 
  −
शाखायें लुप्त हो गई हैं इसका कारण परंपरा का खंडित हो
  −
 
  −
जाना ही है । परंपरा खंडित करना अपराध माना गया है ।
  −
 
  −
उस परंपरा को बनाये रखने के लिये ही शिक्षासंस्था को
  −
 
  −
‘pea ऐसा नाम दिया गया है और गुरु का ही आधिपत्य
  −
 
  −
होने के कारण से उसे 'गुरुकुल' कहा गया है ।
  −
 
  −
“गुरुकुल' ज्ञानधारा और आचारशैली के रूप में भी
  −
 
  −
विशिष्ट इकाई बनता है । कुल की रीति अर्थात्‌ शील और
  −
 
  −
शैली होती है, कुल की परंपरा होती है, कुलधर्म अर्थात्‌
  −
 
  −
कुल का आचार होता है । गुरु के कुल में ज्ञान परंपरा भी
  −
 
  −
होती है । इन सब बातों को लेकर एक एक गुरुकुल का
  −
 
  −
अपना अपना एक वैशिष्ट्य होता है, अपनी एक पहचान
  −
 
  −
होती है । उदाहरण के लिये एक गुरुकुल की जटा बाँधने
  −
 
  −
की शैली दूसरे गुरुकुल की शैली से भिन्न होगी । इसे हम
  −
 
  −
गणवेश जैसी अत्यन्त ऊपरी सतह की पहचान कह सकते
  −
 
  −
हैं। परन्तु इतनी छोटी सी बात से लेकर बहुत बड़ी बातों
  −
 
  −
तक का अन्तर भी हो सकता है। उदाहरण के लिये
  −
 
  −
विश्वामित्र की विद्या और वसिष्ठ की विद्या सिद्धान्तः अलग
  −
 
  −
है । विश्वामित्र मानते हैं कि आर्यत्व रूप या रंग में नहीं है,
  −
 
  −
............. page-193 .............
  −
 
  −
पर्व ४ : शिक्षक, विद्यार्थी एवं अध्ययन
  −
 
  −
ज्ञान और गुण में है, वसिष्ठ मानते हैं कि आर्यत्व वंश और
  −
 
  −
वर्ण में है । यह विचारशैली का ही अन्तर है । विश्वामित्र के
  −
 
  −
गुरुकुल का छात्र वसिष्ठ के सिद्धान्त का नहीं हो सकता,
  −
 
  −
वसिष्ठ का छात्र विश्वामित्र के सिद्धान्त का नहीं हो सकता ।
  −
 
  −
तप, स्वाध्याय, यज्ञ, ईश्वरनिष्ठा आदि सब समान रूप से
  −
 
  −
श्रेष्ठ होने पर भी यह सामाजिक दृष्टि का अन्तर दो गुरुकुलों
  −
 
  −
को अलग और स्वतंत्र रखता है ।
  −
 
  −
विद्या के क्षेत्र में गायत्री विज्ञान और गायत्री विद्या
  −
 
  −
विश्वामित्र के गुरुकुल का अनूठा वैशिष्टय है ।
  −
 
  −
आज हमें विद्यासंस्थाओं को लेकर इस प्रकार के
  −
 
  −
3S FI - uniqueness का - विचार नहीं आता ।
  −
 
  −
विश्वविद्यालयों की व्यवस्था, वेश, पाठ्यक्रम, चर्या आदि
  −
 
  −
सभी आयामों को लेकर कोई एक विशिष्ट अधिष्ठान होगा
  −
 
  −
तभी वह गुरुकुल होगा । यह अधिष्ठान सांस्कृतिक कम
  −
 
  −
परन्तु वैचारिक अधिक होगा क्योंकि मूल संस्कृति सबकी
  −
 
  −
एक ही है परन्तु वैचारिक अधिष्ठान अलग है, अपना ही
  −
 
  −
है। इसे @4 school of thought कह सकते हैं।
  −
 
  −
उदाहरण के लिये पूर्वमीमांसा दर्शन के आचार्यों के और
  −
 
  −
वेदान्त के आचार्यों के गुरुकुल वैचारिक रूप से एकदूसरे से
  −
 
  −
अलग होंगे । वेदान्त में भी शंकराचार्य, aed,
  −
 
  −
रामानुजाचार्य आदि सब वेदान्ती आचार्य होने के बाद भी
  −
 
  −
उनके गुरुकुल अलग रहेंगे, एक का छात्र दूसरे में नहीं पढ़
  −
 
  −
सकता । यदि जायेगा तो एक मत पूरा पढ़ लेने के बाद
  −
 
  −
जायेगा, उस मत को भी जानने समझने के लिये जायेगा,
  −
 
  −
या तुलनात्मक अध्ययन के लिये जायेगा । परन्तु वह अपने
  −
 
  −
आपको जिस गुरुकुल का छात्र कहेगा उसी गुरुकुल के
  −
 
  −
शील, शैली, विचार, आचार उसे अपनाने होंगे । ऐसा होने
  −
 
  −
से ही गुरुकुल परंपरा या ज्ञान की परंपरा बनती है और
  −
 
  −
परंपरा बनने से ही ज्ञान के क्षेत्र का विकास भी होता है ।
  −
 
  −
आज इस सूत्र की स्पष्टता नहीं होने से हम कभी
  −
 
  −
विद्यालयों को, कभी आवासीय विद्यालयों को, या कभी
  −
 
  −
वेद पाठशालाओं को गुरुकुल कहते हैं । परन्तु वास्तव में
  −
 
  −
गुरुकुल संज्ञा एक विश्वविद्यालय को ही देना उचित है।
  −
 
  −
प्रत्येक विश्वविद्यालय के शील, शैली, आचार और विचार
  −
 
  −
१७७
  −
 
  −
में एक विशिष्ट पहचान भी बननी
  −
 
  −
चाहिये । ऐसा बन सकता है तभी उसे विश्वविद्यालय कह
  −
 
  −
सकते हैं । आज हमने केवल परीक्षा और पदवी के सन्दर्भ
  −
 
  −
में ही विश्वविद्यालयों की रचना की है । इस रचना का मूल
  −
 
  −
इस तथ्य में है कि आधुनिक भारत के प्रथम तीन
  −
 
  −
विश्वविद्यालयों - बोम्बे, कलकत्ता और मद्रास - की रचना
  −
 
  −
सन्‌ १८५७ में लन्दन युनिवर्सिटी के अनुसरण में परीक्षाओं
  −
 
  −
का संचालन करने हेतु एवं प्रमाणपत्र देने हेतु हुई थी ।
  −
 
  −
इसका ज्ञानात्मक वैशिष्टय का पहलू विचार में नहीं आने से
  −
 
  −
आज के विश्वविद्यालय रचना के पक्ष में डिपार्टमेन्टल स्टोर
     −
जैसे बन गये हैं, जहाँ हर तरह का ज्ञान मिलता है परन्तु हर
+
उस परंपरा को बनाये रखने के लिये ही शिक्षासंस्था को 'कुल' ऐसा नाम दिया गया है और गुरु का ही आधिपत्य होने के कारण से उसे 'गुरुकुल' कहा गया है । “गुरुकुल' ज्ञानधारा और आचारशैली के रूप में भी विशिष्ट इकाई बनता है । कुल की रीति अर्थात्‌ शील और शैली होती है, कुल की परंपरा होती है, कुलधर्म अर्थात्‌ कुल का आचार होता है। गुरु के कुल में ज्ञान परंपरा भी होती है । इन सब बातों को लेकर एक एक गुरुकुल का अपना अपना एक वैशिष्ट्य होता है, अपनी एक पहचान होती है। उदाहरण के लिये एक गुरुकुल की जटा बाँधने की शैली दूसरे गुरुकुल की शैली से भिन्न होगी । इसे हम गणवेश जैसी अत्यन्त ऊपरी सतह की पहचान कह सकते हैं। परन्तु इतनी छोटी सी बात से लेकर बहुत बड़ी बातों तक का अन्तर भी हो सकता है। उदाहरण के लिये विश्वामित्र की विद्या और वसिष्ठ की विद्या सिद्धान्तः अलग है । विश्वामित्र मानते हैं कि आर्यत्व रूप या रंग में नहीं है, ज्ञान और गुण में है, वसिष्ठ मानते हैं कि आर्यत्व वंश और वर्ण में है । यह विचारशैली का ही अन्तर है। विश्वामित्र के गुरुकुल का छात्र वसिष्ठ के सिद्धान्त का नहीं हो सकता, वसिष्ठ का छात्र विश्वामित्र के सिद्धान्त का नहीं हो सकता । तप, स्वाध्याय, यज्ञ, ईश्वरनिष्ठा आदि सब समान रूप से श्रेष्ठ होने पर भी यह सामाजिक दृष्टि का अन्तर दो गुरुकुलों को अलग और स्वतंत्र रखता है ।
   −
तरह के ज्ञान में विचार का समान सूत्र केवल योगानुयोग से
+
विद्या के क्षेत्र में गायत्री विज्ञान और गायत्री विद्या विश्वामित्र के गुरुकुल का अनूठा वैशिष्टय है । आज हमें विद्यासंस्थाओं को लेकर इस प्रकार के अनूठेपन का - uniqueness का - विचार नहीं आता। विश्वविद्यालयों की व्यवस्था, वेश, पाठ्यक्रम, चर्या आदि सभी आयामों को लेकर कोई एक विशिष्ट अधिष्ठान होगा तभी वह गुरुकुल होगा। यह अधिष्ठान सांस्कृतिक कम परन्तु वैचारिक अधिक होगा क्योंकि मूल संस्कृति सबकी एक ही है परन्तु वैचारिक अधिष्ठान अलग है, अपना ही है। इसे हम school of thought कह सकते हैं। उदाहरण के लिये पूर्वमीमांसा दर्शन के आचार्यों के और वेदान्त के आचार्यों के गुरुकुल वैचारिक रूप से एकदूसरे से अलग होंगे । वेदान्त में भी शंकराचार्य, वल्लभाचार्य, रामानुजाचार्य आदि सब वेदान्ती आचार्य होने के बाद भी उनके गुरुकुल अलग रहेंगे, एक का छात्र दूसरे में नहीं पढ़ सकता । यदि जायेगा तो एक मत पूरा पढ़ लेने के बाद जायेगा, उस मत को भी जानने समझने के लिये जायेगा, या तुलनात्मक अध्ययन के लिये जायेगा । परन्तु वह अपने आपको जिस गुरुकुल का छात्र कहेगा उसी गुरुकुल के शील, शैली, विचार, आचार उसे अपनाने होंगे । ऐसा होने से ही गुरुकुल परंपरा या ज्ञान की परंपरा बनती है और परंपरा बनने से ही ज्ञान के क्षेत्र का विकास भी होता है ।
   −
ही मिलता है ।
+
आज इस सूत्र की स्पष्टता नहीं होने से हम कभी विद्यालयों को, कभी आवासीय विद्यालयों को, या कभी वेद पाठशालाओं को गुरुकुल कहते हैं । परन्तु वास्तव में गुरुकुल संज्ञा एक विश्वविद्यालय को ही देना उचित है। प्रत्येक विश्वविद्यालय के शील, शैली, आचार और विचार एक विशिष्ट पहचान भी बननी चाहिये । ऐसा बन सकता है तभी उसे विश्वविद्यालय कह सकते हैं । आज हमने केवल परीक्षा और पदवी के सन्दर्भ में ही विश्वविद्यालयों की रचना की है । इस रचना का मूल इस तथ्य में है कि आधुनिक भारत के प्रथम तीन विश्वविद्यालयों - बोम्बे, कलकत्ता और मद्रास - की रचना सन्‌ १८५७ में लन्दन युनिवर्सिटी के अनुसरण में परीक्षाओं का संचालन करने हेतु एवं प्रमाणपत्र देने हेतु हुई थी । इसका ज्ञानात्मक वैशिष्टय का पहलू विचार में नहीं आने से आज के विश्वविद्यालय रचना के पक्ष में डिपार्टमेन्टल स्टोर जैसे बन गये हैं, जहाँ हर तरह का ज्ञान मिलता है परन्तु हर तरह के ज्ञान में विचार का समान सूत्र केवल योगानुयोग से ही मिलता है ।
    
== गुरुगृहवास ==
 
== गुरुगृहवास ==

Navigation menu