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लेख सम्पादित किया
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* उत्तीर्ण होने के लिये सभी विद्यार्थियों के लिये एक ही लक्ष्य
 
* उत्तीर्ण होने के लिये सभी विद्यार्थियों के लिये एक ही लक्ष्य
 
* प्रवेश के लिये, पढ़ने के लिये, उत्तीर्ण होने के लिये एक ही आयुसीमा
 
* प्रवेश के लिये, पढ़ने के लिये, उत्तीर्ण होने के लिये एक ही आयुसीमा
ऐसे और भी आयाम बताये जा सकते हैं परन्तु इतने भी समझने के लिये पर्याप्त है । यांत्रिकता को हमने समानता का नाम देकर उलझा दिया है । एकरूपता को समान मानने की मानसिकता इतनी गहरा गई है कि अब व्यक्ति के हिसाब से कुछ अन्तर करने का प्रयास होता है तो अनेक प्रकार के प्रश्न और विरोध निर्माण हो जाते हैं ।
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ऐसे और भी आयाम बताये जा सकते हैं परन्तु इतने भी समझने के लिये पर्याप्त है। यांत्रिकता को हमने समानता का नाम देकर उलझा दिया है। एकरूपता को समान मानने की मानसिकता इतनी गहरा गई है कि अब व्यक्ति के हिसाब से कुछ अन्तर करने का प्रयास होता है तो अनेक प्रकार के प्रश्न और विरोध निर्माण हो जाते हैं।
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अब हमें यह समझना और समझाना होगा कि एकरूपता यंत्रों के लिये होती है, जीवित मनुष्यों के लिये नहीं । मनुष्यों की रुचि, स्वभाव, क्षमतायें, गति, आवश्यकतायें सब अपनी अपनी और एकदूसरे से अलग होती हैं । समानता और एकरूपता का मुद्दा ही सुलझाना होगा । मनुष्य का विश्व आन्तरिक समानता से चलता है । जो जैसा है वैसा है । विश्व में एक जैसे कोई भी दो पदार्थ होते नहीं हैं । सब अपनी अपनी गति से, अपनी अपनी पद्धति से, अपनी अपनी रुचि से चलें यही स्वाभाविक विकास का क्रम है । जहां एकरूपता होनी चाहिये वहाँ एकरूपता का और जहां नहीं होनी चाहिये वहाँ उसका आग्रह नहीं रखना ही आवश्यक है । एकरूपता नहीं, समानता के सूत्र पर ही पाठ्यक्रम, पठनसामग्री, समयसारिणी, व्यवस्था आदि का नियोजन करना चाहिये ।
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अब हमें यह समझना और समझाना होगा कि एकरूपता यंत्रों के लिये होती है, जीवित मनुष्यों के लिये नहीं। मनुष्यों की रुचि, स्वभाव, क्षमतायें, गति, आवश्यकतायें सब अपनी अपनी और एकदूसरे से अलग होती हैं। समानता और एकरूपता का मुद्दा ही सुलझाना होगा। मनुष्य का विश्व आन्तरिक समानता से चलता है । जो जैसा है वैसा है। विश्व में एक जैसे कोई भी दो पदार्थ होते नहीं हैं। सब अपनी अपनी गति से, अपनी अपनी पद्धति से, अपनी अपनी रुचि से चलें यही स्वाभाविक विकास का क्रम है। जहां एकरूपता होनी चाहिये वहाँ एकरूपता का और जहां नहीं होनी चाहिये वहाँ उसका आग्रह नहीं रखना ही आवश्यक है । एकरूपता नहीं, समानता के सूत्र पर ही पाठ्यक्रम, पठनसामग्री, समयसारिणी, व्यवस्था आदि का नियोजन करना चाहिये।
    
== पाठ्यक्रम ==
 
== पाठ्यक्रम ==
एक बालक को क्या पढ़ाना है उसका निर्धारण
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एक बालक को क्या पढ़ाना है उसका निर्धारण उसकी पात्रता के आधार पर होता है। उसकी पात्रता निर्धारित करने के अनेक तरीके हैं । आज तो ये तरीके बहुत यांत्रिक स्वरूप के हैं यथा उसकी आयु कितनी है, और पूर्व परीक्षा में उसे कितने अंक मिले हैं। परन्तु पात्रता निश्चित करने के शास्त्रीय और व्यावहारिक तरीके अपनाने चाहिये । इसकी चर्चा पूर्व के अध्याय में की ही गई है। हमें उसके अनुरूप व्यवस्थायें करनी होंगी। पात्रता निश्चित करने के मापदण्ड शास्त्रों के आधार पर प्रथम बनाने होंगे।
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उसकी पात्रता के आधार पर होता है । उसकी पात्रता
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जिस प्रकार रोग का निदान करने के लिये चिकित्सक होते हैं, जिस प्रकार किसके लिये कौन सा आहार उचित है यह निश्चित करने के लिये वैद्य होते हैं, जिस प्रकार किसके लिये कौनसे नाप का कपड़ा चाहिये यह निश्चित करने के लिये दर्जी होता है, किसके लिये कौन से नाप के जूते चाहिये यह निश्चित करने के लिये मोची होता है उसी प्रकार किसके लिये कौन सी शिक्षा आवश्यक है यह निश्चित करने के लिये शिक्षक होता है। पात्रता निश्चित करने के सिद्धान्त अनेक शास्त्र के आधार पर मनोविज्ञान के प्राध्यापक निश्चित कर सकते हैं और उन्हें लागू करने का काम शिक्षक कर सकता है। शक्षकों के प्रशिक्षण का यह एक अनिवार्य मुद्दा होना चाहिये।
 
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निर्धारित करने के अनेक तरीके हैं । आज तो ये तरीके
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बहुत यांत्रिक स्वरूप के हैं यथा उसकी आयु कितनी है
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और पूर्व परीक्षा में उसे कितने अंक मिले हैं । परन्तु पात्रता
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निश्चित करने के शास्त्रीय और व्यावहारिक तरीके अपनाने
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चाहिये । इसकी चर्चा पूर्व के अध्याय में की ही गई है ।
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हमें उसके अनुरूप व्यवस्थायें करनी होंगी । पात्रता निश्चित
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करने के मापदण्ड शास्त्रों के आधार पर प्रथम बनाने होंगे ।
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जिस प्रकार रोग का निदान करने के लिये चिकित्सक होते
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हैं, जिस प्रकार किसके लिये कौनसा
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आहार उचित है यह निश्चित करने के लिये वैद्य होते हैं,
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जिस प्रकार किसके लिये कौनसे नाप का कपड़ा चाहिये यह
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निश्चित करने के लिये दर्जी होता है, किसके लिये कौनसे
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नाप के जूते चाहिये यह निश्चित करने के लिये मोची होता
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है उसी प्रकार किसके लिये कौनसी शिक्षा आवश्यक है यह
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निश्चित करने के लिये शिक्षक होता है । पात्रता निश्चित
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करने के सिद्धान्त अनेक शास्त्र के आधार पर मनोविज्ञान के
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प्राध्यापक निश्चित कर सकते हैं और उन्हें लागू करने का
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काम शिक्षक कर सकता है । शिक्षकों के प्रशिक्षण का यह
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एक अनिवार्य मुद्दा होना चाहिये ।
      
== पाठ्यक्रम निर्माण के सिद्धान्त ==
 
== पाठ्यक्रम निर्माण के सिद्धान्त ==
पाठ्यक्रम हमारे उद्देश्य के अनुरूप होना चाहिये यह
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पाठ्यक्रम हमारे उद्देश्य के अनुरूप होना चाहिये यह तो सार्वत्रिक सिद्धान्त है और विश्व में मान्य है । परन्तु जिस देश के विद्यार्थियों के लिये वह बनने वाला है उस देश की जीवनदृष्टि और राष्ट्रीय आवश्यकताओं की पूर्ति का आधार लेना चाहिये यह भी सार्वत्रिक सिद्धान्त है । आज भारत के सन्दर्भ में इस बात का विशेष रूप से उल्लेख करना पड़ता है क्योंकि हम वैश्विकता के मोह में भारतीयता को भुलाकर ही चलते हैं । अत: प्रथम सिद्धान्त है जीवनदृष्टि के आधार पर पाठ्यक्रम निर्धारित होना ।
 
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तो सार्वत्रिक सिद्धान्त है और विश्व में मान्य है । परन्तु जिस
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देश के विद्यार्थियों के लिये वह बनने वाला है उस देश की
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जीवनदृष्टि और राष्ट्रीय आवश्यकताओं की पूर्ति का आधार
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लेना चाहिये यह भी सार्वत्रिक सिद्धान्त है । आज भारत के
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सन्दर्भ में इस बात का विशेष रूप से उल्लेख करना पड़ता है
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क्योंकि हम वैश्विकता के मोह में भारतीयता को भुलाकर ही
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चलते हैं । अत: प्रथम सिद्धान्त है जीवनदृष्टि के आधार पर
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पाठ्यक्रम निर्धारित होना ।
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दूसरा मुद्दा यह है कि पाठ्यक्रम व्यक्ति के लिये होता
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है परन्तु व्यक्ति को समाज, सृष्टि और देश के लिये लायक
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और जिम्मेदार नागरिक बनाने के लिये होता है । आज हम
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व्यक्ति के विकास को लक्ष्य बनाकर चल रहे हैं । व्यक्ति
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का विकास यह प्राथमिक और व्यावहारिक लक्ष्य है परन्तु
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व्यक्ति के विकास को राष्ट्रीय आलंबन होना अनिवार्य है ।
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यह भी भारतीय जीवनदृष्टि का एक अनिवार्य हिस्सा है ।
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पाठ्यक्रम में धर्मशिक्षा और कर्मशिक्षा को अनिवार्य
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रूप से स्थान देना चाहिये । भारत में हम जनसंख्या को
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उल्टी दृष्टि से देखते हैं । जनसंख्या हमें एक समस्या लगती
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है जबकि वह हमारे लिये मूल्यवान सम्पत्ति है । इसे समस्या
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मानना भी पश्चिम के प्रभाव से हमने शुरू किया है । वहाँ
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दूसरा मुद्दा यह है कि पाठ्यक्रम व्यक्ति के लिये होता है परन्तु व्यक्ति को समाज, सृष्टि और देश के लिये लायक और जिम्मेदार नागरिक बनाने के लिये होता है । आज हम व्यक्ति के विकास को लक्ष्य बनाकर चल रहे हैं । व्यक्ति का विकास यह प्राथमिक और व्यावहारिक लक्ष्य है परन्तु व्यक्ति के विकास को राष्ट्रीय आलंबन होना अनिवार्य है ।यह भी भारतीय जीवनदृष्टि का एक अनिवार्य हिस्सा है । पाठ्यक्रम में धर्मशिक्षा और कर्मशिक्षा को अनिवार्य रूप से स्थान देना चाहिये । भारत में हम जनसंख्या को उल्टी दृष्टि से देखते हैं । जनसंख्या हमें एक समस्या लगती है जबकि वह हमारे लिये मूल्यवान सम्पत्ति है । इसे समस्या मानना भी पश्चिम के प्रभाव से हमने शुरू किया है । वहाँ  
    
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भारतीय शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप
 
भारतीय शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप
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वह समस्या हो सकती है, हमारे लिये... आवश्यकताओं के. अनुरूप बनाना. चाहिये. यह
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''वह समस्या हो सकती है, हमारे लिये... आवश्यकताओं के. अनुरूप बनाना. चाहिये. यह''
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नहीं । हमें यंत्रों की आवश्यकता ही नहीं है क्योंकि... निर्विवाद है ।
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''नहीं । हमें यंत्रों की आवश्यकता ही नहीं है क्योंकि... निर्विवाद है ।''
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प्रकृतिदत्त यंत्र मनुष्यशरीर के रूप में हमारे पास है ही । विकृतिकरण का जो मुद्दा है वह भी समझने जैसा है ।
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''प्रकृतिदत्त यंत्र मनुष्यशरीर के रूप में हमारे पास है ही । विकृतिकरण का जो मुद्दा है वह भी समझने जैसा है ।''
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मानवशरीर को यंत्र कहना उसका अपमान नहीं है । शरीर . योग का हमने स्वीकार तो किया हुआ है परन्तु उसे
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''मानवशरीर को यंत्र कहना उसका अपमान नहीं है । शरीर . योग का हमने स्वीकार तो किया हुआ है परन्तु उसे''
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तो यंत्र है ही । शरीर के स्थान पर निर्जीव सामग्री से बने. शारीरिक शिक्षा का अंग बना दिया है जबकी वह
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''तो यंत्र है ही । शरीर के स्थान पर निर्जीव सामग्री से बने. शारीरिक शिक्षा का अंग बना दिया है जबकी वह''
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यंत्र का प्रयोग करना इस जिंदा शरीर का अपमान है । इस. मनोविज्ञान का अंग होना चाहिये । वास्तव में योग ही
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''यंत्र का प्रयोग करना इस जिंदा शरीर का अपमान है । इस. मनोविज्ञान का अंग होना चाहिये । वास्तव में योग ही''
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शरीर रूपी यंत्र को सक्षम बनाना और उसके आधार पर... भारतीय मनोविज्ञान है । आयुर्वेद को एलोपथी के मापदण्डों
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''शरीर रूपी यंत्र को सक्षम बनाना और उसके आधार पर... भारतीय मनोविज्ञान है । आयुर्वेद को एलोपथी के मापदण्डों''
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उत्पादनक्षमता बढ़ाना हमारी प्रथम राष्ट्रीय आवश्यकता है। के अनुसार ढाल लिया है जबकि वह अध्यात्मशासत्र और
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''उत्पादनक्षमता बढ़ाना हमारी प्रथम राष्ट्रीय आवश्यकता है। के अनुसार ढाल लिया है जबकि वह अध्यात्मशासत्र और''
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शरीर के साथ ही मनुष्य का मन प्रथम से ही ठीक करना. योग के साथ सुसंगत होना चाहिये । गृहशास्त्र को हमने
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''शरीर के साथ ही मनुष्य का मन प्रथम से ही ठीक करना. योग के साथ सुसंगत होना चाहिये । गृहशास्त्र को हमने''
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चाहिये । तभी वह अपने दायित्वों को निभाने के लिये . व्यवसाय की तरह स्वीकार कर लिया है और घर को
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''चाहिये । तभी वह अपने दायित्वों को निभाने के लिये . व्यवसाय की तरह स्वीकार कर लिया है और घर को''
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तत्पर भी होगा और सक्षम भी होगा । इन दो बिन्‍्दुओं को उपेक्षित कर दिया है। संस्कृति को कल्चर के रूप में
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''तत्पर भी होगा और सक्षम भी होगा । इन दो बिन्‍्दुओं को उपेक्षित कर दिया है। संस्कृति को कल्चर के रूप में''
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लेकर ही धर्मशिक्षा और कर्मशिक्षा का स्वीकार करना... अपना कर उसे अर्थहीन बना दिया है । ऐसे अनेक विषय हैं
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''लेकर ही धर्मशिक्षा और कर्मशिक्षा का स्वीकार करना... अपना कर उसे अर्थहीन बना दिया है । ऐसे अनेक विषय हैं''
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चाहिये । यह बात केवल प्राथमिक शिक्षा के लिये नहीं है, जो व्यक्तिगत से लेकर राष्ट्रजीवन के लिये अनिवार्य हैं परन्तु
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''चाहिये । यह बात केवल प्राथमिक शिक्षा के लिये नहीं है, जो व्यक्तिगत से लेकर राष्ट्रजीवन के लिये अनिवार्य हैं परन्तु''
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उच्चशिक्षा तक यही सिद्धान्त लागू है । सिखाये नहीं जाते । अत: पाठ्यक्रमों को बनाते समय हमें
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''उच्चशिक्षा तक यही सिद्धान्त लागू है । सिखाये नहीं जाते । अत: पाठ्यक्रमों को बनाते समय हमें''
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वर्तमान पाठ्यक्रम बहुत अधिक पुस्तकीय हो गया... बहुत कुछ विचार में लेना होगा ।
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''वर्तमान पाठ्यक्रम बहुत अधिक पुस्तकीय हो गया... बहुत कुछ विचार में लेना होगा ।''
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है । वैसे तो पाठनपद्धति उसे अधिक पुस्तकीय बना देती है पाठ्यक्रम को अध्ययनक्रम के रूप में बदलना
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''है । वैसे तो पाठनपद्धति उसे अधिक पुस्तकीय बना देती है पाठ्यक्रम को अध्ययनक्रम के रूप में बदलना''
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तथापि हमारी परीक्षा पद्धति को देखते हुए यह बात भी . चाहिये | विद्यार्थी को स्वयं अध्ययन करना है और शिक्षक
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''तथापि हमारी परीक्षा पद्धति को देखते हुए यह बात भी . चाहिये | विद्यार्थी को स्वयं अध्ययन करना है और शिक्षक''
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सिद्ध होती है कि पाठ्यक्रम भी पुस्तकीय ही है। हमने. को उसमें सहायता करना है इस बात को ध्यान में रखकर
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''सिद्ध होती है कि पाठ्यक्रम भी पुस्तकीय ही है। हमने. को उसमें सहायता करना है इस बात को ध्यान में रखकर''
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वाचन और लेखन को इतना अधिक महत्त्व दिया है कि... विद्यार्थी का स्तर देखकर पाठ्यक्रम बनाना चाहिये । अर्थात्‌
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''वाचन और लेखन को इतना अधिक महत्त्व दिया है कि... विद्यार्थी का स्तर देखकर पाठ्यक्रम बनाना चाहिये । अर्थात्‌''
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सारी शिक्षा साक्षरता का ही पर्याय बन गई है और साक्षरता. वह इस प्रकार से लचीला होना चाहिये कि हर विद्यार्थी उसे
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''सारी शिक्षा साक्षरता का ही पर्याय बन गई है और साक्षरता. वह इस प्रकार से लचीला होना चाहिये कि हर विद्यार्थी उसे''
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लिखने, पढ़ने और बोलने में ही सीमित हो गई है । हम. अपनी आवश्यकता के अनुसार उपयोग में ले सके । यह
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''लिखने, पढ़ने और बोलने में ही सीमित हो गई है । हम. अपनी आवश्यकता के अनुसार उपयोग में ले सके । यह''
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शारीरिक, मानसिक और बौद्धिक रूप से आलसी और . सिद्धांत छोटी से लेकर बड़ी कक्षाओं में लागू होता है।
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''शारीरिक, मानसिक और बौद्धिक रूप से आलसी और . सिद्धांत छोटी से लेकर बड़ी कक्षाओं में लागू होता है।''
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अकर्मण्य हो गए हैं और उसमें ही महत्ता मानते हैं । इसके. पाठ्यक्रम शिक्षक को पूर्ण नहीं करना है, विद्यार्थी को पूर्ण
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''अकर्मण्य हो गए हैं और उसमें ही महत्ता मानते हैं । इसके. पाठ्यक्रम शिक्षक को पूर्ण नहीं करना है, विद्यार्थी को पूर्ण''
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इलाज के लिये हमें धर्मप्रधान और कर्मप्रधान पाठ्यक्रमों. करना है, वह भी अपनी गति से इस बात का ध्यान रखना
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''इलाज के लिये हमें धर्मप्रधान और कर्मप्रधान पाठ्यक्रमों. करना है, वह भी अपनी गति से इस बात का ध्यान रखना''
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की आवश्यकता है । चाहिये ।
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''की आवश्यकता है । चाहिये ।''
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== पाठ्यक्रम में भारतीय विद्याओं को जोड़ना ==
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== ''पाठ्यक्रम में भारतीय विद्याओं को जोड़ना'' ==
हर विषय का दूसरे विषय के साथ संबंध है यह
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''हर विषय का दूसरे विषय के साथ संबंध है यह''
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व्यक्ति को बनाने के लिये अनेक भारतीय... शिकर और वे सभी अध्यात्मशास्र के अंग हैं यह
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''व्यक्ति को बनाने के लिये अनेक भारतीय... शिकर और वे सभी अध्यात्मशास्र के अंग हैं यह''
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) है जिन्हें लायक मना अनेक भारतीय समझकर पाठ्यक्रम बनने चाहिये यह प्रथम आवश्यकता
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'') है जिन्हें लायक मना अनेक भारतीय समझकर पाठ्यक्रम बनने चाहिये यह प्रथम आवश्यकता''
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विद्यायें हैं जिन्हें आज हमने या तो भुला दिया है या
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''विद्यायें हैं जिन्हें आज हमने या तो भुला दिया है या''
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है। हर विषय का सांस्कृतिक स्वरूप ध्यान में लेकर वे
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''है। हर विषय का सांस्कृतिक स्वरूप ध्यान में लेकर वे''
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उपेक्षित कर दिया है या उनका विकृतिकरण किया है । इन बनने चाहिए यह दूसरा मुद्दा है और हर विषय को आयु की
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''उपेक्षित कर दिया है या उनका विकृतिकरण किया है । इन बनने चाहिए यह दूसरा मुद्दा है और हर विषय को आयु की''
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विषयों का प्रथम तो स्वरूप ठीक कर उन्हें पाठ्यक्रमों का
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''विषयों का प्रथम तो स्वरूप ठीक कर उन्हें पाठ्यक्रमों का''
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कि अवस्था को ध्यान में रखकर पाठ्यक्रम में नियोजित करने
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''कि अवस्था को ध्यान में रखकर पाठ्यक्रम में नियोजित करने''
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अंग बनाना चाहिये ।
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''अंग बनाना चाहिये ।''
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5 चाहिये यह तीसरी आवश्यकता है ।
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''5 चाहिये यह तीसरी आवश्यकता है ।''
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ये विषय हैं योग, आयुर्वेद, गृहशास्त्र, धर्मशास्त्र,
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''ये विषय हैं योग, आयुर्वेद, गृहशास्त्र, धर्मशास्त्र,''
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उद्योग और संस्कृति । इन सबको व्यावहारिक और
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''उद्योग और संस्कृति । इन सबको व्यावहारिक और''
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R92
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''R92''
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''............. page-189 .............''
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पर्व ४ : शिक्षक, विद्यार्थी एवं अध्ययन
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''पर्व ४ : शिक्षक, विद्यार्थी एवं अध्ययन''
    
== पाठ्यक्रम पढ़ाना पाठ्यपुस्तक नहीं ==
 
== पाठ्यक्रम पढ़ाना पाठ्यपुस्तक नहीं ==

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