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| * ज्ञानपरंपरा को बनाए रखने के लिये शिक्षक और विद्यार्थी में कुछ विशेष गुण होना अपेक्षित है। हमने शिक्षक के विषय में पूर्व के अध्याय में विचार किया था। इस अध्याय में अब विद्यार्थी के गुणों का विचार कर रहे हैं। | | * ज्ञानपरंपरा को बनाए रखने के लिये शिक्षक और विद्यार्थी में कुछ विशेष गुण होना अपेक्षित है। हमने शिक्षक के विषय में पूर्व के अध्याय में विचार किया था। इस अध्याय में अब विद्यार्थी के गुणों का विचार कर रहे हैं। |
| * सोलह वर्ष की आयु तक विद्यार्थी शिक्षक और मातापिता के अधीन रहता है। यह उसके व्यक्तित्व की स्वाभाविक आवश्यकता है की वह बड़ों के निर्देशन, नियमन और नियन्त्रण में अपना अध्ययन और विकास करे । शिक्षक और मातापिता का भी दायित्व होता है कि वे विद्यार्थी के समग्र विकास की चिन्ता करें । उनकी योजना से सोलह वर्ष की आयु तक विद्यार्थी में विनयशीलता, परिश्रमशीलता, जिज्ञासा, अनुशासन, नियम और आज्ञापालन जैसे गुणों का विकास अपेक्षित है । साथ ही ज्ञानार्जन के करणों की क्षमता का भी जीतना होना था उतना विकास हो गया है। अतः अब वह स्वतंत्र होकर अध्ययन करने हेतु सिद्ध हुआ है। वास्तव में अभी वह सही अर्थ में विद्यार्थी है। अबतक उसकी तैयारी चल रही थी। अब प्रत्यक्ष अध्ययन शुरू हुआ है। हम ऐसे विद्यार्थी के लक्षण का विचार करेंगे। | | * सोलह वर्ष की आयु तक विद्यार्थी शिक्षक और मातापिता के अधीन रहता है। यह उसके व्यक्तित्व की स्वाभाविक आवश्यकता है की वह बड़ों के निर्देशन, नियमन और नियन्त्रण में अपना अध्ययन और विकास करे । शिक्षक और मातापिता का भी दायित्व होता है कि वे विद्यार्थी के समग्र विकास की चिन्ता करें । उनकी योजना से सोलह वर्ष की आयु तक विद्यार्थी में विनयशीलता, परिश्रमशीलता, जिज्ञासा, अनुशासन, नियम और आज्ञापालन जैसे गुणों का विकास अपेक्षित है । साथ ही ज्ञानार्जन के करणों की क्षमता का भी जीतना होना था उतना विकास हो गया है। अतः अब वह स्वतंत्र होकर अध्ययन करने हेतु सिद्ध हुआ है। वास्तव में अभी वह सही अर्थ में विद्यार्थी है। अबतक उसकी तैयारी चल रही थी। अब प्रत्यक्ष अध्ययन शुरू हुआ है। हम ऐसे विद्यार्थी के लक्षण का विचार करेंगे। |
− | * विद्यार्थी का सबसे प्रथम गुण है जिज्ञासा । जिज्ञासा का अर्थ है जानने की इच्छा । विद्यार्थी ज्ञान प्राप्त करने की इच्छा से ही अध्ययन करे यह आवश्यक है। वर्तमान सन्दर्भ में यह बात विशेष रूप से विचारणीय है । कारण यह है कि आज सब अर्थार्जन के लिये पढ़ते हैं । ज्ञान प्राप्त करने का उद्देश्य ही नहीं है इसलिए परीक्षा में उत्तीर्ण होने के लिये जो भी करना पड़ता है वह करना यही प्रवृत्ति रहती है। अत: विद्यार्थी विद्या का नहीं अपितु परीक्षा का अर्थी होता है। ज्ञानार्जन की इच्छा रखने वाला ही विद्यार्थी होता है। जब जिज्ञासा होती है तब ज्ञानार्जन आनन्द का विषय बनाता है। ज्ञान का आनन्द सर्वश्रेष्ठ होता है । उसके समक्ष और मनोरंजन के विषय क्षुद्र हो जाते हैं । अतः विद्यार्थी को टीवी, होटेलिंग, वस्त्रालंकार आदि में रुचि नहीं होती । वह वाचन, श्रवण, मनन, चिन्तन आदि में ही रुचि लेता है । ऐसे विद्यार्थी के लिये ही उक्ति है{{Citation needed}} : काव्यशास्त्रविनोदेन कालो गच्छति धीमताम । अर्थात् बुद्धिमानों का समय काव्य और शास्त्र के विनोद से ही गुजरता है। | + | * विद्यार्थी का सबसे प्रथम गुण है जिज्ञासा । जिज्ञासा का अर्थ है जानने की इच्छा । विद्यार्थी ज्ञान प्राप्त करने की इच्छा से ही अध्ययन करे यह आवश्यक है। वर्तमान सन्दर्भ में यह बात विशेष रूप से विचारणीय है । कारण यह है कि आज सब अर्थार्जन के लिये पढ़ते हैं । ज्ञान प्राप्त करने का उद्देश्य ही नहीं है इसलिए परीक्षा में उत्तीर्ण होने के लिये जो भी करना पड़ता है वह करना यही प्रवृत्ति रहती है। अत: विद्यार्थी विद्या का नहीं अपितु परीक्षा का अर्थी होता है। ज्ञानार्जन की इच्छा रखने वाला ही विद्यार्थी होता है। जब जिज्ञासा होती है तब ज्ञानार्जन आनन्द का विषय बनाता है। ज्ञान का आनन्द सर्वश्रेष्ठ होता है । उसके समक्ष और मनोरंजन के विषय क्षुद्र हो जाते हैं । अतः विद्यार्थी को टीवी, होटेलिंग, वस्त्रालंकार आदि में रुचि नहीं होती । वह वाचन, श्रवण, मनन, चिन्तन आदि में ही रुचि लेता है । ऐसे विद्यार्थी के लिये ही उक्ति है{{Citation needed}} : काव्यशास्त्रविनोदेन कालो गच्छति धीमताम । अर्थात् बुद्धिमानों का समय काव्य और शास्त्र के विनोद से ही गुजरता है। जिज्ञासा से प्रेरित वह पुस्तकालय में समय व्यतीत करता है, प्रवचन सुनता है, विमर्श करता है, विद्वानों कि सेवा करता है, अलंकारों के स्थान पर पुस्तकें खरीदता है। अध्ययन में रत होने के कारण से उसे आसपास की दुनिया का भान नहीं होता है । ऐसे अनेक विद्यार्थियों के उदाहरण मिलेंगे जिन्हें अध्ययन करते समय भूख या प्यास की स्मृति नहीं रहती। चौबीस में से अठारह घण्टे अध्ययन करने वाले विद्यार्थियों की आज भी कमी नहीं है । वह भी केवल परीक्षा के लिये या परीक्षा के समय नहीं, बिना परीक्षा के केवल ज्ञान के लिये ही इनका अध्ययन चलता है । |
− | जिज्ञासा से प्रेरित वह पुस्तकालय में समय व्यतीत करता है, प्रवचन सुनता है, विमर्श करता है, विद्वानों कि सेवा करता है, अलंकारों के स्थान पर पुस्तकें खरीदता है । अध्ययन में रत होने के कारण से उसे आसपास की दुनिया का भान नहीं होता है । ऐसे अनेक विद्यार्थियों के उदाहरण मिलेंगे जिन्हें अध्ययन करते समय भूख या प्यास की स्मृति नहीं रहती। चौबीस में से अठारह घण्टे अध्ययन करने वाले विद्यार्थियों की आज भी कमी नहीं है । वह भी केवल परीक्षा के लिये या परीक्षा के समय नहीं, बिना परीक्षा के केवल ज्ञान के लिये ही इनका अध्ययन चलता है । • विद्यार्थी आचार्यनिष्ठ होता है । वह आचार्य का आदर करता है, उनकी सेवा करता है, उनके पास और उनके साथ रहना चाहता है । इसका कारण यह है कि वह ज्ञान के क्षेत्र में आचार्य का ऋणी है । भारत कि परम्परा में व्यक्ति के तीन ऋण बताये हैं। वे हैं पितृऋण, देवऋण और ऋषिऋण । व्यक्ति को इन ऋणों से मुक्त होना है। विद्यार्थी को आचार्य से जो ज्ञान मिला है उसके लिये वह आचार्य का ऋणी होता है । विद्यार्थी आचार्यनिष्ठ होता है। इसका अर्थ है वह अपने आचार्य की प्रतिष्ठा को आंच नहीं आने देता। अपने व्यवहार एवं ज्ञान से वह आचार्य की प्रतिष्ठा बढ़ाता है। आचार्य भी उसका शिक्षक होने में गौरव का अनुभव करता है। आचार्य ने दिये हुए ज्ञान का भी वह द्रोह नहीं करता । वह आचार्य की स्पर्धा नहीं करता, आचार्य का द्वेष नहीं करता, आचार्य के गुणों को ही देखता है, उनके अवगुणों को देखता नहीं है, उनका अनुकरण करता नहीं और कहीं बखान भी नहीं करता। वह मानता है कि आचार्य एक संस्था है जिसका किसी भी परिस्थिति में सम्मान करना चाहिए। वह कर्तव्यभाव से प्रेरित होकर भी सम्मान करता है और हृदय से भी सम्मान करता है। विद्यार्थी ज्ञाननिष्ठ होता है । वह ज्ञान प्रतिष्ठा कम नहीं होने देता । ज्ञान जैसा पवित्र इस संसार में कुछ नहीं है । ज्ञान जैसा श्रेष्ठ इस संसार में कुछ नहीं है। वह ज्ञान की पवित्रता और श्रेष्ठता कभी दांव पर नहीं लगाता । वह ज्ञान का अपमान नहीं होने देता । वह धन, सत्ता, बल के समक्ष ज्ञान को झुकने नहीं देता । वह ज्ञानवान का आदर करता है, बलवान, सत्तावान या धनवान का नहीं। वह ज्ञानसाधना करता है। ज्ञान उसके लिये मुक्ति का साधन है, मनोरंजन का या अर्थार्जन का नहीं। विद्यार्थी के लिये ब्रह्मचर्य का विधान है। ब्रह्मचर्य केवल स्त्रीपुरुष सम्बन्ध के निषेध तक सीमित नहीं है। सर्व प्रकार के उपभोग का संयम करना ब्रह्मचर्य है। वस्त्रालंकार, नाटकसिनेमा, खानपान आदि का विद्यार्थी के लिये निषेध है। विद्यार्थी के लिये शृंगार निषिद्ध है । पलंग पर सोना, विवाहासमारोहों में जाना विद्यार्थी के लिये मान्य नहीं है। आज के सन्दर्भ में देखें तो स्त्रीपुरुष मित्रता, अनेक प्रकार के दिन मनाना, भांति भांति के कपड़े पहनना, होटल में जाना, पार्टी करना, नवरात्रि जैसे उत्सव में खेलना, चुनाव लड़ना आदि विद्यार्थी के लिये नहीं है । ऐसा करने से गंभीर अध्ययन में बहुत अवरोध निर्माण होते हैं। आज हड़ताल होती है, पथराव होता है, अध्यापकों का अपमान होता है, परीक्षा में नकल होती है, उत्तीर्ण होने के लिये भ्रष्टाचार होता है, बलात्कार जैसी घटनायें होती हैं, अध्यापक के साथ होटल में भी खानापीना होता है यह सब विद्यार्थी के लिये नहीं है । यह दर्शाता है कि हमने | + | * विद्यार्थी आचार्यनिष्ठ होता है । वह आचार्य का आदर करता है, उनकी सेवा करता है, उनके पास और उनके साथ रहना चाहता है । इसका कारण यह है कि वह ज्ञान के क्षेत्र में आचार्य का ऋणी है । भारत कि परम्परा में व्यक्ति के तीन ऋण बताये हैं। वे हैं पितृऋण, देवऋण और ऋषिऋण । व्यक्ति को इन ऋणों से मुक्त होना है। विद्यार्थी को आचार्य से जो ज्ञान मिला है उसके लिये वह आचार्य का ऋणी होता है । |
− | | + | * विद्यार्थी आचार्यनिष्ठ होता है। इसका अर्थ है वह अपने आचार्य की प्रतिष्ठा को आंच नहीं आने देता। अपने व्यवहार एवं ज्ञान से वह आचार्य की प्रतिष्ठा बढ़ाता है। आचार्य भी उसका शिक्षक होने में गौरव का अनुभव करता है। आचार्य ने दिये हुए ज्ञान का भी वह द्रोह नहीं करता । वह आचार्य की स्पर्धा नहीं करता, आचार्य का द्वेष नहीं करता, आचार्य के गुणों को ही देखता है, उनके अवगुणों को देखता नहीं है, उनका अनुकरण करता नहीं और कहीं बखान भी नहीं करता। वह मानता है कि आचार्य एक संस्था है जिसका किसी भी परिस्थिति में सम्मान करना चाहिए। वह कर्तव्यभाव से प्रेरित होकर भी सम्मान करता है और हृदय से भी सम्मान करता है। |
− | ज्ञान की प्रतिष्ठा को सर्वथा खो दिया है । ज्ञान की | + | * विद्यार्थी ज्ञाननिष्ठ होता है । वह ज्ञान प्रतिष्ठा कम नहीं होने देता । ज्ञान जैसा पवित्र इस संसार में कुछ नहीं है । ज्ञान जैसा श्रेष्ठ इस संसार में कुछ नहीं है। वह ज्ञान की पवित्रता और श्रेष्ठता कभी दांव पर नहीं लगाता । वह ज्ञान का अपमान नहीं होने देता । वह धन, सत्ता, बल के समक्ष ज्ञान को झुकने नहीं देता । वह ज्ञानवान का आदर करता है, बलवान, सत्तावान या धनवान का नहीं। वह ज्ञानसाधना करता है। ज्ञान उसके लिये मुक्ति का साधन है, मनोरंजन का या अर्थार्जन का नहीं। |
− | | + | * विद्यार्थी के लिये ब्रह्मचर्य का विधान है। ब्रह्मचर्य केवल स्त्रीपुरुष सम्बन्ध के निषेध तक सीमित नहीं है। सर्व प्रकार के उपभोग का संयम करना ब्रह्मचर्य है। वस्त्रालंकार, नाटकसिनेमा, खानपान आदि का विद्यार्थी के लिये निषेध है। विद्यार्थी के लिये शृंगार निषिद्ध है । पलंग पर सोना, विवाहासमारोहों में जाना विद्यार्थी के लिये मान्य नहीं है। आज के सन्दर्भ में देखें तो स्त्रीपुरुष मित्रता, अनेक प्रकार के दिन मनाना, भांति भांति के कपड़े पहनना, होटल में जाना, पार्टी करना, नवरात्रि जैसे उत्सव में खेलना, चुनाव लड़ना आदि विद्यार्थी के लिये नहीं है । ऐसा करने से गंभीर अध्ययन में बहुत अवरोध निर्माण होते हैं। आज हड़ताल होती है, पथराव होता है, अध्यापकों का अपमान होता है, परीक्षा में नकल होती है, उत्तीर्ण होने के लिये भ्रष्टाचार होता है, बलात्कार जैसी घटनायें होती हैं, अध्यापक के साथ होटल में भी खानापीना होता है यह सब विद्यार्थी के लिये नहीं है । यह दर्शाता है कि हमने ज्ञान की प्रतिष्ठा को सर्वथा खो दिया है । ज्ञान की प्रतिष्ठा समाप्त हो गई है । |
− | प्रतिष्ठा समाप्त हो गई है । | |
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| == श्रेष्ठ विद्यार्थी आचार्य बने == | | == श्रेष्ठ विद्यार्थी आचार्य बने == |
| * विद्यार्थी ज्ञानपरम्परा की अगली पीढ़ी है । उसका दायित्व है कि वह परम्परा को आगे बढ़ाये और बढ़ाने का काम सम्यक रूप में हो । इस दृष्टि से अच्छी तरह से अध्ययन करना उसका दायित्व है । समय के प्रवाह के साथ बहते बहते ज्ञान को परिष्कृत करना होता है और अपनी ओर से कुछ जोड़कर उसे समृद्ध भी बनाना होता है जमाने में उसे प्रासंगिक बनाना होता है । इस दृष्टि से जागृत रहकर अध्ययन करना आवश्यक होता है । कषिक्रण से मुक्त होने के लिये उसे भावी पीढ़ी को सौंपने के लिये भी सिद्ध होना है । इस दृष्टि से श्रेष्ठ विद्यार्थी को अध्यापक बनना चाहिए । जो अध्यापक नहीं बन सकता वही और कुछ करेगा ऐसी विद्यार्थी वर्ग की मानसिकता बनना अपेक्षित है। जो विद्यार्थी अध्यापक नहीं बनता उसे अपना ज्ञान समाजहित के लिये प्रयुक्त करना है। समाज शिक्षित व्यक्ति से लाभान्वित होना चाहिए । अत: विद्यार्थी का ज्ञान सेवा के लिये होता है । | | * विद्यार्थी ज्ञानपरम्परा की अगली पीढ़ी है । उसका दायित्व है कि वह परम्परा को आगे बढ़ाये और बढ़ाने का काम सम्यक रूप में हो । इस दृष्टि से अच्छी तरह से अध्ययन करना उसका दायित्व है । समय के प्रवाह के साथ बहते बहते ज्ञान को परिष्कृत करना होता है और अपनी ओर से कुछ जोड़कर उसे समृद्ध भी बनाना होता है जमाने में उसे प्रासंगिक बनाना होता है । इस दृष्टि से जागृत रहकर अध्ययन करना आवश्यक होता है । कषिक्रण से मुक्त होने के लिये उसे भावी पीढ़ी को सौंपने के लिये भी सिद्ध होना है । इस दृष्टि से श्रेष्ठ विद्यार्थी को अध्यापक बनना चाहिए । जो अध्यापक नहीं बन सकता वही और कुछ करेगा ऐसी विद्यार्थी वर्ग की मानसिकता बनना अपेक्षित है। जो विद्यार्थी अध्यापक नहीं बनता उसे अपना ज्ञान समाजहित के लिये प्रयुक्त करना है। समाज शिक्षित व्यक्ति से लाभान्वित होना चाहिए । अत: विद्यार्थी का ज्ञान सेवा के लिये होता है । |