जब समाज के सभी लोग स्वार्थ को वरीयता देते हैं तब बलवानों की चलती है। दुर्बलों के स्वार्थ का कोई महत्त्व नहीं होता। स्वार्थ के लिये संघर्ष करना होता है। दुर्बल इस संघर्ष में हार जाते हैं। अधिकारों के लिये संघर्ष यह स्वार्थ भावना का ही फल होता है। अधिकारों के लिये संघर्ष होने से समाज में बलवानों के छोटे वर्ग को छोड़कर अन्य सभी लोग संघर्ष, अशांति, अस्थिरता, दु:ख, विषमता आदि से पीडित हो जाते हैं। सभी समाजों में व्यवस्थाएँ बनाने वाले बलवान ही होते हैं। स्वार्थ पर आधारित समाज में बलवानों के स्वार्थ के पोषण के लिये व्यवस्थाएँ बनतीं हैं। जब जीवन का आधार स्वार्थ होता है तो स्वार्थ का व्यवहार हो सके ऐसी व्यवस्थाएँ भी बनतीं हैं। विचार, विचार के अनुसार व्यवहार करने के लिये उपयुक्त व्यवस्था समूह को मिलाकर ही उसे समाज के जीवन का प्रतिमान कहते हैं। शासन सबसे बलवान होने से शासन सर्वोपरि बन जाता है। अन्य सभी सामाजिक व्यवस्थाएँ शासक की सुविधा के लिये बनतीं हैं। इस प्रतिमान में लोगों की सामाजिकता को नष्ट किया जाता है। व्यक्ति को व्यक्तिवादी याने स्वार्थ प्रेरित बनाया जाता है। तब कोई भी अच्छे सामाजिक संगठन ऐसे समाज में पनप नहीं पाते। आज भी हम देख रहे हैं कि वर्तमान जीवन का अधार्मिक (अधार्मिक) प्रतिमान कुटुंब, स्वभाव समायोजन, कौशल समायोजन जैसी राष्ट्र के सामाजिक संगठन की प्रणालियों को ध्वस्त किये जा रहा है। | जब समाज के सभी लोग स्वार्थ को वरीयता देते हैं तब बलवानों की चलती है। दुर्बलों के स्वार्थ का कोई महत्त्व नहीं होता। स्वार्थ के लिये संघर्ष करना होता है। दुर्बल इस संघर्ष में हार जाते हैं। अधिकारों के लिये संघर्ष यह स्वार्थ भावना का ही फल होता है। अधिकारों के लिये संघर्ष होने से समाज में बलवानों के छोटे वर्ग को छोड़कर अन्य सभी लोग संघर्ष, अशांति, अस्थिरता, दु:ख, विषमता आदि से पीडित हो जाते हैं। सभी समाजों में व्यवस्थाएँ बनाने वाले बलवान ही होते हैं। स्वार्थ पर आधारित समाज में बलवानों के स्वार्थ के पोषण के लिये व्यवस्थाएँ बनतीं हैं। जब जीवन का आधार स्वार्थ होता है तो स्वार्थ का व्यवहार हो सके ऐसी व्यवस्थाएँ भी बनतीं हैं। विचार, विचार के अनुसार व्यवहार करने के लिये उपयुक्त व्यवस्था समूह को मिलाकर ही उसे समाज के जीवन का प्रतिमान कहते हैं। शासन सबसे बलवान होने से शासन सर्वोपरि बन जाता है। अन्य सभी सामाजिक व्यवस्थाएँ शासक की सुविधा के लिये बनतीं हैं। इस प्रतिमान में लोगों की सामाजिकता को नष्ट किया जाता है। व्यक्ति को व्यक्तिवादी याने स्वार्थ प्रेरित बनाया जाता है। तब कोई भी अच्छे सामाजिक संगठन ऐसे समाज में पनप नहीं पाते। आज भी हम देख रहे हैं कि वर्तमान जीवन का अधार्मिक (अधार्मिक) प्रतिमान कुटुंब, स्वभाव समायोजन, कौशल समायोजन जैसी राष्ट्र के सामाजिक संगठन की प्रणालियों को ध्वस्त किये जा रहा है। |