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=== अध्याय ४१ ===
 
=== अध्याय ४१ ===
हे विश्ववासियों, भारत विश्व को एक मानता है, सबको अपना मानता है। वह जगत का मित्र है। वह कभी किसी का अहित करता नहीं है, अहित चाहता भी नहीं है । जो अपने पास है वह सबको देना चाहता है । जो अपने पास है उसका स्वयं उपभोग करने से पहले सबको देना चाहता है। अपने सामर्थ्य से किसी को भयभीत करना भारत का धर्म नहीं है। अपने सामर्थ्य से सबकी सहायता करना, सबकी रक्षा करना, सबका पोषण करना भारत का धर्म है । ऐसा नहीं हैं कि भारत आज ही यह कह रहा है। भारत की यह सहस्राब्दियों की परम्परा रही है । पाँच हजार वर्ष पूर्व भारत में कौरवों और पाण्डवों के बीच युद्ध हुआ था इसकी कथा तो आपने सुनी होगी। दुर्योधनने युधिष्ठिर आदि को राज्य देने से तो इन्कार कर दिया परन्तु बडों के परामर्श से बीहड जंगल उन्हें निवास के लिये दे दिया । उस बीहड जंगल का रूपान्तरण इन्द्रप्रस्थ नामक सुन्दर नगरी में कर देने वाला मय नामक राक्षस स्थपति मयदेश का था जिसे आज मैक्सिको कहते हैं। अमेरिका को हम भारतवासी पाताल देश के नाम से स्वयं अमेरिका जानता है उससे हजारों वर्ष पूर्व से जानते हैं। आफ्रिका हमारे लिये शाकद्वीप और शाल्मली द्वीप है। दुनिया के लगभग सभी देशों में आज भी भारतीय संस्कृति के अवशेष शिल्प, स्थापत्य, वनविद्या, कृषिविद्या, वेदशाला, गणित जैसे शास्रों के रूप में हैं। वह दर्शाता है कि भारत ने सम्पूर्ण विश्व का प्रवास किया है, वहाँ निवास किया हैं, वहाँ संस्कृति का प्रसार भी किया है। हमने विश्व को जीता है शस्त्रों से नहीं, शास्त्रों से भी नहीं, युक्ति से भी नहीं। हमने दुनिया को मैत्री से, शुभचिन्तन से और प्रेम से जीता है। हमने दुनिया को अपना माना है, अपना बनाया है । अतः आज भी संकटग्रस्त विश्व की सहायता करना भारत के लिय स्वाभाविक है। ऐसा करने में भारत अपना ईश्वर प्रदत्त कर्तव्य ही मानता है। हम दुनिया को ऐसा विश्वास दिलाना चाहते हैं।
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हे विश्ववासियों, भारत विश्व को एक मानता है, सबको अपना मानता है। वह जगत का मित्र है। वह कभी किसी का अहित करता नहीं है, अहित चाहता भी नहीं है । जो अपने पास है वह सबको देना चाहता है । जो अपने पास है उसका स्वयं उपभोग करने से पहले सबको देना चाहता है। अपने सामर्थ्य से किसी को भयभीत करना भारत का धर्म नहीं है। अपने सामर्थ्य से सबकी सहायता करना, सबकी रक्षा करना, सबका पोषण करना भारत का धर्म है । ऐसा नहीं हैं कि भारत आज ही यह कह रहा है। भारत की यह सहस्राब्दियों की परम्परा रही है । पाँच हजार वर्ष पूर्व भारत में कौरवों और पाण्डवों के बीच युद्ध हुआ था इसकी कथा तो आपने सुनी होगी। दुर्योधनने युधिष्ठिर आदि को राज्य देने से तो इन्कार कर दिया परन्तु बडों के परामर्श से बीहड जंगल उन्हें निवास के लिये दे दिया । उस बीहड जंगल का रूपान्तरण इन्द्रप्रस्थ नामक सुन्दर नगरी में कर देने वाला मय नामक राक्षस स्थपति मयदेश का था जिसे आज मैक्सिको कहते हैं। अमेरिका को हम भारतवासी पाताल देश के नाम से स्वयं अमेरिका जानता है उससे हजारों वर्ष पूर्व से जानते हैं। आफ्रिका हमारे लिये शाकद्वीप और शाल्मली द्वीप है। दुनिया के लगभग सभी देशों में आज भी धार्मिक संस्कृति के अवशेष शिल्प, स्थापत्य, वनविद्या, कृषिविद्या, वेदशाला, गणित जैसे शास्रों के रूप में हैं। वह दर्शाता है कि भारत ने सम्पूर्ण विश्व का प्रवास किया है, वहाँ निवास किया हैं, वहाँ संस्कृति का प्रसार भी किया है। हमने विश्व को जीता है शस्त्रों से नहीं, शास्त्रों से भी नहीं, युक्ति से भी नहीं। हमने दुनिया को मैत्री से, शुभचिन्तन से और प्रेम से जीता है। हमने दुनिया को अपना माना है, अपना बनाया है । अतः आज भी संकटग्रस्त विश्व की सहायता करना भारत के लिय स्वाभाविक है। ऐसा करने में भारत अपना ईश्वर प्रदत्त कर्तव्य ही मानता है। हम दुनिया को ऐसा विश्वास दिलाना चाहते हैं।
    
ऐसा नहीं है कि हम सिखाने के सामर्थ्य का अहंकार पालते हैं। हम दुनिया से सीखे भी हैं । हमने आक्रमणों का प्रतिकार किया है परन्तु, आक्रान्ताओं को आत्मसात कर उनसे अनेक बातें ग्रहण की हैं। उन्हें अपना बनाया है। हम आक्रमक बनकर नहीं अपितु मित्र बनकर गये तो जहाँ गये वहाँ से बहुत कुछ सीखा। सीखते सीखते हम भावात्मक और सांस्कृतिक दृष्टि से समृद्ध भी हुए हैं । आप अभी अभी ग्लोबल संज्ञा का प्रयोग करने लगे हैं, हम हमेशा ही वैश्विकता का विचार करते आये हैं। हमारा संन्यासी 'स्वदेशो भुवनत्र' की घोषणा करता है। हमारा कवि 'वसुधैव कुटुम्बकम्' को उदारता का लक्षण मानता है। हमारी उपनिषद 'सर्वभूतहितेरताः' को भगवान के भक्त मानती है । हमारे इतिहासकार अपने सम्पूर्ण कथन का सार बताते हुए कहते हैं, 'परोपकारः पुण्याय पापाय परपीडनम्' आपका और हमारा अन्तर केवल इतना ही है कि आप मुख्य रूप से अर्थ के सन्दर्भ में और निहित रूप से सत्ता अथवा आधिपत्य के सन्दर्भ में ग्लोबलाइझेशन की बात करते हैं हम सांस्कृतिक सन्दर्भ में वैश्विकता का समर्थन करते हैं। और यही मुद्दा हम आपको समझाना चाहते हैं। आर्थिक सन्दर्भ से ग्लोबलाइझेश की कल्पना करना और उसे साकार करने का प्रवास करना अन्यों के और अपने विनाश की ओर जाना है जबकि सांस्कृतिक सन्दर्भ से वैश्विकता की बात करना सब मिलकर विकास की दिशा में अग्रसर होना है। हम मिलकर उन्नति की ओर बढें ऐसी ही कामना आप भी करें यही हमारा निवेदन है।
 
ऐसा नहीं है कि हम सिखाने के सामर्थ्य का अहंकार पालते हैं। हम दुनिया से सीखे भी हैं । हमने आक्रमणों का प्रतिकार किया है परन्तु, आक्रान्ताओं को आत्मसात कर उनसे अनेक बातें ग्रहण की हैं। उन्हें अपना बनाया है। हम आक्रमक बनकर नहीं अपितु मित्र बनकर गये तो जहाँ गये वहाँ से बहुत कुछ सीखा। सीखते सीखते हम भावात्मक और सांस्कृतिक दृष्टि से समृद्ध भी हुए हैं । आप अभी अभी ग्लोबल संज्ञा का प्रयोग करने लगे हैं, हम हमेशा ही वैश्विकता का विचार करते आये हैं। हमारा संन्यासी 'स्वदेशो भुवनत्र' की घोषणा करता है। हमारा कवि 'वसुधैव कुटुम्बकम्' को उदारता का लक्षण मानता है। हमारी उपनिषद 'सर्वभूतहितेरताः' को भगवान के भक्त मानती है । हमारे इतिहासकार अपने सम्पूर्ण कथन का सार बताते हुए कहते हैं, 'परोपकारः पुण्याय पापाय परपीडनम्' आपका और हमारा अन्तर केवल इतना ही है कि आप मुख्य रूप से अर्थ के सन्दर्भ में और निहित रूप से सत्ता अथवा आधिपत्य के सन्दर्भ में ग्लोबलाइझेशन की बात करते हैं हम सांस्कृतिक सन्दर्भ में वैश्विकता का समर्थन करते हैं। और यही मुद्दा हम आपको समझाना चाहते हैं। आर्थिक सन्दर्भ से ग्लोबलाइझेश की कल्पना करना और उसे साकार करने का प्रवास करना अन्यों के और अपने विनाश की ओर जाना है जबकि सांस्कृतिक सन्दर्भ से वैश्विकता की बात करना सब मिलकर विकास की दिशा में अग्रसर होना है। हम मिलकर उन्नति की ओर बढें ऐसी ही कामना आप भी करें यही हमारा निवेदन है।
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आपको सुखी होना है तो शिक्षाक्षेत्र से स्पर्धा के तत्त्व को निष्कासित कर देना होगा। बात एकदम से आपकी समझ में नहीं आयेगी क्योंकि स्पर्धा की प्रतिष्ठा के मूल आपकी सर्वश्रेष्ठ बनने की लालसा में हैं। क्या आपने अपने ही बारे में कभी सोचा है कि आप श्रेष्ठ नहीं सर्वश्रेष्ठ बनना चाहते हैं । श्रेष्ठ बनना तो अच्छा है परन्तु सर्वश्रेष्ठ बनने की चाह रखना अमानवीय है और हिंसा है । दूसरों से आगे निकलना, दूसरों को पीछे रखना अच्छी चाह नहीं है। मानवीय सम्बन्धों के क्षेत्र में यह अनेक दूषणों को जन्म देती है। स्पर्धा, संघर्ष, हिंसा और नाश इसके अनिवार्य चरण हैं। दुःख दौर्मनस्य, मारकाट और बुद्धि इसके अनिवार्य परिणाम हैं । विश्व के सुख और शान्ति का नाश करने वाले इस स्पर्धा के तत्त्व को तो जीवन से निष्कासित करना शिक्षा ही सिखाती है परन्तु आपने शिक्षा को ही स्पर्धा से दूषित कर दिया है। वह इतनी प्रभावी बन गई है कि कक्षाकक्षों से निकलकर सम्पूर्ण जीवन में व्याप्त हो गई है। इससे मुक्त होना आपके लिये भारी चुनौती है परन्तु उस चुनौती का स्वीकार किये बिना आपकी सद्गति नहीं होगी।
 
आपको सुखी होना है तो शिक्षाक्षेत्र से स्पर्धा के तत्त्व को निष्कासित कर देना होगा। बात एकदम से आपकी समझ में नहीं आयेगी क्योंकि स्पर्धा की प्रतिष्ठा के मूल आपकी सर्वश्रेष्ठ बनने की लालसा में हैं। क्या आपने अपने ही बारे में कभी सोचा है कि आप श्रेष्ठ नहीं सर्वश्रेष्ठ बनना चाहते हैं । श्रेष्ठ बनना तो अच्छा है परन्तु सर्वश्रेष्ठ बनने की चाह रखना अमानवीय है और हिंसा है । दूसरों से आगे निकलना, दूसरों को पीछे रखना अच्छी चाह नहीं है। मानवीय सम्बन्धों के क्षेत्र में यह अनेक दूषणों को जन्म देती है। स्पर्धा, संघर्ष, हिंसा और नाश इसके अनिवार्य चरण हैं। दुःख दौर्मनस्य, मारकाट और बुद्धि इसके अनिवार्य परिणाम हैं । विश्व के सुख और शान्ति का नाश करने वाले इस स्पर्धा के तत्त्व को तो जीवन से निष्कासित करना शिक्षा ही सिखाती है परन्तु आपने शिक्षा को ही स्पर्धा से दूषित कर दिया है। वह इतनी प्रभावी बन गई है कि कक्षाकक्षों से निकलकर सम्पूर्ण जीवन में व्याप्त हो गई है। इससे मुक्त होना आपके लिये भारी चुनौती है परन्तु उस चुनौती का स्वीकार किये बिना आपकी सद्गति नहीं होगी।
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आपके सुखी और समृद्ध जीवन के लिये आपको और एक बात करनी होगी। आपके पदार्थों, प्राणियों, बनस्पति और मनुष्यों के साथ के सम्बन्धों में भी परिवर्तन करना होगा। ये सम्बन्ध सर्वप्रथम तो आत्मीयता के बनाने होंगे। यदि आप सृष्टि की हर सत्ता के साथ प्रेम से नहीं जुड़ेंगे तो सुखी कैसे हो सकेंगे ? यह विश्व प्रेम, ज्ञान, धर्म और सत्य के आधार पर ही चलती है । यह केवल भारतीय सिद्धान्त नहीं है, यह सार्वभौम सिद्दान्त है । आपको भी इस का स्वीकार करना होगा। यह सत्य आपको कौन सिखायेगा ? आपके विश्वविद्यालयों को ही इस विषय में पहल करनी होगी। विद्वजन वैश्विक स्तर पर अध्ययन करेंगे तो कुछ कर पायेंगे। विश्व के अन्यान्य देशों के साथ विमर्श करना और सही निष्कर्ष पर पहुँचना उनका ही काम है। परन्तु उन्हें ऐसा करने हेतु निवेदन करना आपका काम है। हर समस्या का ज्ञानात्मक हल ही श्रेष्ठ हल होता है । इस दृष्टि से विश्वविद्यालयों को सक्रिया होना ही होगा।
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आपके सुखी और समृद्ध जीवन के लिये आपको और एक बात करनी होगी। आपके पदार्थों, प्राणियों, बनस्पति और मनुष्यों के साथ के सम्बन्धों में भी परिवर्तन करना होगा। ये सम्बन्ध सर्वप्रथम तो आत्मीयता के बनाने होंगे। यदि आप सृष्टि की हर सत्ता के साथ प्रेम से नहीं जुड़ेंगे तो सुखी कैसे हो सकेंगे ? यह विश्व प्रेम, ज्ञान, धर्म और सत्य के आधार पर ही चलती है । यह केवल धार्मिक सिद्धान्त नहीं है, यह सार्वभौम सिद्दान्त है । आपको भी इस का स्वीकार करना होगा। यह सत्य आपको कौन सिखायेगा ? आपके विश्वविद्यालयों को ही इस विषय में पहल करनी होगी। विद्वजन वैश्विक स्तर पर अध्ययन करेंगे तो कुछ कर पायेंगे। विश्व के अन्यान्य देशों के साथ विमर्श करना और सही निष्कर्ष पर पहुँचना उनका ही काम है। परन्तु उन्हें ऐसा करने हेतु निवेदन करना आपका काम है। हर समस्या का ज्ञानात्मक हल ही श्रेष्ठ हल होता है । इस दृष्टि से विश्वविद्यालयों को सक्रिया होना ही होगा।
    
भारत मानता है कि शिक्षा धर्म सिखाती है। हमने पहले ही कहा है कि आपके विचारविश्व में धर्म की संकल्पना बताने वाली एक भी संज्ञा नहीं है। धर्म कहते ही हम जो समझते हैं वह आपकी कल्पना में नहीं आता। आपने हमारे धर्म को रिलीजन कहकर बडा घालमेल कर दिया है । आप जिसे एथिक्स, युनिवर्सल लॉ, नेचर, ड्यूटी, रिलीजन कहते है उन सबका समावेश हमारे धर्म शब्द में होता है । आप यदि धर्म संकल्पना को समझ लेंगे तो धर्म और शिक्षा का सम्बन्ध कैसा है वह भी समझ में आ जायेगा । आपकी बुद्धि यह देखकर स्तिमित हो जायेगी कि इस धर्म संकल्पना ने ही भारत को चिरंजीव बनाया है। आपको भी यदि सुख, समृद्धि, वैभव, दीर्घ आयु शान्ति और सर्वतोमुखी विकास की आकांक्षा है तो धर्मानुसारी शिक्षा को अपनाना होगा। धर्म : संकल्पना का स्वीकार करते ही आप ईसाई, मुसलमान, यहूदी या पारसी हैं तो ईसाई, मुसलमान यहूदी या पारसी मिट नहीं जायेंगे, उल्टे अधिक अच्छे ईसाई बनेंगे। हम भारतवासी हिन्दू है परन्तु हम साम्प्रदायिक हिन्दू नहीं, धार्मिक हिन्दू हैं। हम आपका और सम्पूर्ण विश्व का स्वीकार करते हैं। जाति, भाषा, वेश, खानपान, सम्प्रदाय, रीतिरिवाज आदि कितने ही भिन्न हों हम सबका आदर करते हैं सबका कल्याण चाहते हैं, सबका स्वीकार करते हैं। हमने शिक्षा के माध्यम से हमारी हर पीढी को यही, सबके लिये समादर की बात सिखाई है।
 
भारत मानता है कि शिक्षा धर्म सिखाती है। हमने पहले ही कहा है कि आपके विचारविश्व में धर्म की संकल्पना बताने वाली एक भी संज्ञा नहीं है। धर्म कहते ही हम जो समझते हैं वह आपकी कल्पना में नहीं आता। आपने हमारे धर्म को रिलीजन कहकर बडा घालमेल कर दिया है । आप जिसे एथिक्स, युनिवर्सल लॉ, नेचर, ड्यूटी, रिलीजन कहते है उन सबका समावेश हमारे धर्म शब्द में होता है । आप यदि धर्म संकल्पना को समझ लेंगे तो धर्म और शिक्षा का सम्बन्ध कैसा है वह भी समझ में आ जायेगा । आपकी बुद्धि यह देखकर स्तिमित हो जायेगी कि इस धर्म संकल्पना ने ही भारत को चिरंजीव बनाया है। आपको भी यदि सुख, समृद्धि, वैभव, दीर्घ आयु शान्ति और सर्वतोमुखी विकास की आकांक्षा है तो धर्मानुसारी शिक्षा को अपनाना होगा। धर्म : संकल्पना का स्वीकार करते ही आप ईसाई, मुसलमान, यहूदी या पारसी हैं तो ईसाई, मुसलमान यहूदी या पारसी मिट नहीं जायेंगे, उल्टे अधिक अच्छे ईसाई बनेंगे। हम भारतवासी हिन्दू है परन्तु हम साम्प्रदायिक हिन्दू नहीं, धार्मिक हिन्दू हैं। हम आपका और सम्पूर्ण विश्व का स्वीकार करते हैं। जाति, भाषा, वेश, खानपान, सम्प्रदाय, रीतिरिवाज आदि कितने ही भिन्न हों हम सबका आदर करते हैं सबका कल्याण चाहते हैं, सबका स्वीकार करते हैं। हमने शिक्षा के माध्यम से हमारी हर पीढी को यही, सबके लिये समादर की बात सिखाई है।
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दूसरा महत्त्वपूर्ण मुद्दा है सत्य और न्याय पर आधारित मूल्यांकन । अपने अलावा और किसी को भी स्वतन्त्रता का अधिकार है कि नहीं, जीवित रहने का अधिकार है कि नहीं इस प्रश्न का हर रिलीजन क्या उत्तर देता है इसके आधार पर मूल्यांकन होना चाहिये । सत्य, अहिंसा, स्वतन्त्रता, प्रेम आदि संकल्पनाओं की व्याख्या कौन कैसी करता है यह भी मूल्यांकन का आधार बनना चाहिये ।
 
दूसरा महत्त्वपूर्ण मुद्दा है सत्य और न्याय पर आधारित मूल्यांकन । अपने अलावा और किसी को भी स्वतन्त्रता का अधिकार है कि नहीं, जीवित रहने का अधिकार है कि नहीं इस प्रश्न का हर रिलीजन क्या उत्तर देता है इसके आधार पर मूल्यांकन होना चाहिये । सत्य, अहिंसा, स्वतन्त्रता, प्रेम आदि संकल्पनाओं की व्याख्या कौन कैसी करता है यह भी मूल्यांकन का आधार बनना चाहिये ।
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तीसरा मुद्दा है रिलीजनों का तुलनात्मक अध्ययन । वैसे भारतीय दृष्टि से तुलनात्मक अध्ययन का बहुत महत्त्व नहीं है क्योंकि भारत सभी रिलीजनों का समान रूप से आदर करता है।
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तीसरा मुद्दा है रिलीजनों का तुलनात्मक अध्ययन । वैसे धार्मिक दृष्टि से तुलनात्मक अध्ययन का बहुत महत्त्व नहीं है क्योंकि भारत सभी रिलीजनों का समान रूप से आदर करता है।
    
परन्तु भारत ने सम्प्रदायों के संकट को अपनी विशिष्ट शैली से हल करने का यशस्वी प्रयास किया है। भारत की धर्म संकल्पना रिलीजन संकल्पना से भिन्न है , उससे कहीं अधिक व्यापक है। भारत मानता है कि विश्व में अनेक सम्प्रदायों का होना स्वाभाविक है। सम्प्रदाय समुदायों की देश काल परिस्थिति के अनुसार पैदा होते हैं, विस्तारित होते हैं, कभी मिटते भी हैं। उनमें व्यवस्थागत और व्यवहारगत बदल भी हो सकते हैं। परन्तु सम्प्रदायों का मूल्यांकन धर्म के निकष पर होता है। धर्म सनातन तत्त्व है। सृष्टि की उत्पत्ति के साथ ही उसकी भी उत्पत्ति हुई है। वह सम्पूर्ण सृष्टि के जीवन का आधार है। प्रतिमा, पुस्तक, पयगम्बर, पूजापद्धति, विधिनिषेध आदि में वह सीमित नहीं है। ये सारे सम्प्रदाय के लक्षण हैं। धर्म जगत के सभी सम्प्रदायों से परे है। इसलिये वह सभी सम्प्रदायों का निकष है।
 
परन्तु भारत ने सम्प्रदायों के संकट को अपनी विशिष्ट शैली से हल करने का यशस्वी प्रयास किया है। भारत की धर्म संकल्पना रिलीजन संकल्पना से भिन्न है , उससे कहीं अधिक व्यापक है। भारत मानता है कि विश्व में अनेक सम्प्रदायों का होना स्वाभाविक है। सम्प्रदाय समुदायों की देश काल परिस्थिति के अनुसार पैदा होते हैं, विस्तारित होते हैं, कभी मिटते भी हैं। उनमें व्यवस्थागत और व्यवहारगत बदल भी हो सकते हैं। परन्तु सम्प्रदायों का मूल्यांकन धर्म के निकष पर होता है। धर्म सनातन तत्त्व है। सृष्टि की उत्पत्ति के साथ ही उसकी भी उत्पत्ति हुई है। वह सम्पूर्ण सृष्टि के जीवन का आधार है। प्रतिमा, पुस्तक, पयगम्बर, पूजापद्धति, विधिनिषेध आदि में वह सीमित नहीं है। ये सारे सम्प्रदाय के लक्षण हैं। धर्म जगत के सभी सम्प्रदायों से परे है। इसलिये वह सभी सम्प्रदायों का निकष है।
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परन्तु स्वस्थ चर्चा चलाकर यह समझने और समझाने का प्रयास करना चाहिये कि 'धर्म' संकल्पना शद्ध रूप से वैश्विक है और इस वैश्विकता में पंचमहाभूत प्राणी, वनस्पति, मनुष्य आदि सबका समावेश होता है। इस विश्वधर्म के निकष पर विश्व के सभी सम्प्रदायों का मूल्यांकन करना चाहिये।
 
परन्तु स्वस्थ चर्चा चलाकर यह समझने और समझाने का प्रयास करना चाहिये कि 'धर्म' संकल्पना शद्ध रूप से वैश्विक है और इस वैश्विकता में पंचमहाभूत प्राणी, वनस्पति, मनुष्य आदि सबका समावेश होता है। इस विश्वधर्म के निकष पर विश्व के सभी सम्प्रदायों का मूल्यांकन करना चाहिये।
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यह भारतीय है इसलिये वैश्विक है या भारतीय है इसलिये हिन्दू है इसलिये वैश्विक है यह सही नहीं है, यह वैश्विक है इसलिये हिन्दू है इसलिये भारतीय है वह सही तर्क है।
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यह धार्मिक है इसलिये वैश्विक है या धार्मिक है इसलिये हिन्दू है इसलिये वैश्विक है यह सही नहीं है, यह वैश्विक है इसलिये हिन्दू है इसलिये धार्मिक है वह सही तर्क है।
    
संक्षेप में धर्म-सम्प्रदाय तथा धार्मिकता और साम्प्रदायिकता को लेकर विश्वविद्यालयों में अध्ययन होना अति आवश्यक है। यह अध्ययन राजनीतिक दबावों से मुक्त रहकर होना चाहिये यह भी विशेष उल्लेखनीय है। अनुभूति और उदार बुद्धि की इसमें अनिवार्य आवश्यकता रहेगी। आज अनुभूति की स्वीकृति नहीं है इसलिये केवल उदार बुद्धि और विशाल बुद्धि की आवश्यकता मानना चाहिये । यह चर्चा पर्याप्त रूप से व्यापक और परिणामकारी होनी चाहिये।  
 
संक्षेप में धर्म-सम्प्रदाय तथा धार्मिकता और साम्प्रदायिकता को लेकर विश्वविद्यालयों में अध्ययन होना अति आवश्यक है। यह अध्ययन राजनीतिक दबावों से मुक्त रहकर होना चाहिये यह भी विशेष उल्लेखनीय है। अनुभूति और उदार बुद्धि की इसमें अनिवार्य आवश्यकता रहेगी। आज अनुभूति की स्वीकृति नहीं है इसलिये केवल उदार बुद्धि और विशाल बुद्धि की आवश्यकता मानना चाहिये । यह चर्चा पर्याप्त रूप से व्यापक और परिणामकारी होनी चाहिये।  
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विश्व पर आधिपत्य स्थापित करने की आकांक्षा से ग्रस्त होकर अमेरिका राष्ट्रों के साथ व्यवहार कर रहा है। पाँच सो वर्ष पूर्व से यूरोप ने अपना साम्राज्य स्थापित करने का प्रयास शुरू किया था उसका ही यह नवीन संस्करण है। उस समय यूरोप था, आज अमेरिका है। देशों के नाम भले ही बदलें हों, प्रजा वही है। विगत पाँच सौ वर्षों में यूरोप के अन्यान्य देशों ने पूर्व अपरिचित अमेरिका में अपने उपनिवेश स्थापित किये, अठारहवीं शातब्दी के उत्तरार्ध में ये सारे उपनिवेश अपने मूल देशों से स्वतन्त्र होकर अमेरिकन देश बन गये और अपने आपको यूरोपीय नहीं अपितु अमेरिकन कहने लगे। अमेरिकन बनकर अब वे वही कर रहे हैं जो वे यूरोपीय थे तब कर रहे थे ।
 
विश्व पर आधिपत्य स्थापित करने की आकांक्षा से ग्रस्त होकर अमेरिका राष्ट्रों के साथ व्यवहार कर रहा है। पाँच सो वर्ष पूर्व से यूरोप ने अपना साम्राज्य स्थापित करने का प्रयास शुरू किया था उसका ही यह नवीन संस्करण है। उस समय यूरोप था, आज अमेरिका है। देशों के नाम भले ही बदलें हों, प्रजा वही है। विगत पाँच सौ वर्षों में यूरोप के अन्यान्य देशों ने पूर्व अपरिचित अमेरिका में अपने उपनिवेश स्थापित किये, अठारहवीं शातब्दी के उत्तरार्ध में ये सारे उपनिवेश अपने मूल देशों से स्वतन्त्र होकर अमेरिकन देश बन गये और अपने आपको यूरोपीय नहीं अपितु अमेरिकन कहने लगे। अमेरिकन बनकर अब वे वही कर रहे हैं जो वे यूरोपीय थे तब कर रहे थे ।
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साम्राज्य विस्तार भारत ने भी किया है। समुद्रपर्यन्त की पृथ्वी एक राष्ट्र बने । ऐसी आकांक्षा रखी है। परन्तु भारत का साम्राज्यवाद सांस्कृतिक रहा है, राजीनतिक नहीं । प्रजा के व्यावहारिक जीवन की सारी । इकाइयाँ छोटी और स्वायत्त हों यह भारतीय समाजरचना का आधारभूत सूत्र रहा है । इस समाजरचना में राज्य भी एक अंग था जो शासक होकर भी व्यवस्था की रक्षा और नियमन करने का काम करता था। आज का अमेरिकन साम्राज्यवाद सांस्कृतिक नहीं राजनीतिक है। वह विश्व के लिये एक ही अमेरिकन सरकार चाहता है।
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साम्राज्य विस्तार भारत ने भी किया है। समुद्रपर्यन्त की पृथ्वी एक राष्ट्र बने । ऐसी आकांक्षा रखी है। परन्तु भारत का साम्राज्यवाद सांस्कृतिक रहा है, राजीनतिक नहीं । प्रजा के व्यावहारिक जीवन की सारी । इकाइयाँ छोटी और स्वायत्त हों यह धार्मिक समाजरचना का आधारभूत सूत्र रहा है । इस समाजरचना में राज्य भी एक अंग था जो शासक होकर भी व्यवस्था की रक्षा और नियमन करने का काम करता था। आज का अमेरिकन साम्राज्यवाद सांस्कृतिक नहीं राजनीतिक है। वह विश्व के लिये एक ही अमेरिकन सरकार चाहता है।
    
परन्तु अमेरिकन साम्राज्यवाद भी शुद्ध राजकीय नहीं है । वह आर्थिक साम्राज्यवाद है। समाज की अर्थव्यवस्था को राज्य ने नियन्त्रित करना चाहिये यह राज्य और अर्थव्यवस्था के सम्बन्ध का आधारभूत सूत्र है। परन्तु अमेरिका ने राज्य और अर्थ को एक कर दिया है। अर्थव्यवस्था ने ही राज्य अपने हस्तक कर लिया है। शासक और व्यापारी एक ही हैं । अब अर्थ को नियन्त्रण में रखने की आवश्यकता नहीं, अर्थ स्वयं नियन्त्रक है। यह बाजार-साम्राज्यवाद है।  
 
परन्तु अमेरिकन साम्राज्यवाद भी शुद्ध राजकीय नहीं है । वह आर्थिक साम्राज्यवाद है। समाज की अर्थव्यवस्था को राज्य ने नियन्त्रित करना चाहिये यह राज्य और अर्थव्यवस्था के सम्बन्ध का आधारभूत सूत्र है। परन्तु अमेरिका ने राज्य और अर्थ को एक कर दिया है। अर्थव्यवस्था ने ही राज्य अपने हस्तक कर लिया है। शासक और व्यापारी एक ही हैं । अब अर्थ को नियन्त्रण में रखने की आवश्यकता नहीं, अर्थ स्वयं नियन्त्रक है। यह बाजार-साम्राज्यवाद है।  
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==References==
 
==References==
<references />भारतीय शिक्षा : वैश्विक संकटों का निवारण भारतीय शिक्षा (भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला ५), प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे
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<references />धार्मिक शिक्षा : वैश्विक संकटों का निवारण धार्मिक शिक्षा (धार्मिक शिक्षा ग्रन्थमाला ५), प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे
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