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उदाहरण के लिये अनाज की ऐसी जात तैयार करना जिसे पुनः बोया नहीं जा सकता, अर्थात् उसे बोने से अनाज ऊगेगा नहीं। इसे टर्मिनेटेड सीड - पुनः न ऊगने वाला बीज - अन्तिम बीज कहते हैं। अनाज, फल, सागसब्जी, फूल सब में यह प्रक्रिया चलती है । इसका अर्थ यह हुआ कि इन पदार्थों में रूप, रस, गन्ध, रंग आदि तो हैं परन्तु प्राण नहीं है। ये पदार्थ खाने से पेट तो भरता है परन्तु प्राणों का पोषण नहीं होता । उन्हें खाने से शरीर का संविधान भी धीरे धीरे बदलता जाता है। यदि ऐसा ही चलता रहा तो कोई आश्चर्य नहीं कि पचास सौ वर्षों में मनुष्य भी टर्मिनेटेड हो जायेंगे । आज लक्षण शुरू तो हो ही गये हैं।
 
उदाहरण के लिये अनाज की ऐसी जात तैयार करना जिसे पुनः बोया नहीं जा सकता, अर्थात् उसे बोने से अनाज ऊगेगा नहीं। इसे टर्मिनेटेड सीड - पुनः न ऊगने वाला बीज - अन्तिम बीज कहते हैं। अनाज, फल, सागसब्जी, फूल सब में यह प्रक्रिया चलती है । इसका अर्थ यह हुआ कि इन पदार्थों में रूप, रस, गन्ध, रंग आदि तो हैं परन्तु प्राण नहीं है। ये पदार्थ खाने से पेट तो भरता है परन्तु प्राणों का पोषण नहीं होता । उन्हें खाने से शरीर का संविधान भी धीरे धीरे बदलता जाता है। यदि ऐसा ही चलता रहा तो कोई आश्चर्य नहीं कि पचास सौ वर्षों में मनुष्य भी टर्मिनेटेड हो जायेंगे । आज लक्षण शुरू तो हो ही गये हैं।
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भोजन में तो यह बहुत गहरे तक गया है। अनाज, सब्जी की तरह मसाले भी पोषक के लिये होते हैं। शरीर और प्राण के लिये पोषक पदार्थों को स्वादिष्ट और दर्शनीय बनाने की कला मनुष्य को अवगत है । परन्तु प्लास्टिकवाद पोषण नष्ट कर केवल स्वाद और सुन्दरता को प्रस्तुत करता है। स्वाद और सुन्दरता भी चाहिये इसमें कोई सन्देह नहीं । रूप, रस, गन्ध, स्पर्श, शब्द आदि की सुन्दरता और मधुरता ज्ञानेन्द्रियों को सुख देती है परन्तु वह प्राकृतिक हो तभी । प्लास्टिक मसालों को प्राणहीन बना देता है । भोजन बनाने की, पैकिंग की, सुरक्षित रखने की सारी व्यवस्था प्लास्टिकवाद से ओतप्रोत है। इसका बहुत गहरा प्रभाव शरीर पर होता है। शरीर से सम्बन्धित ही बात करनी है तो औषधि का क्रम आहार के तुरन्त बाद आता है। एलोपथी द्वारा प्रयोग में लाई जाने वाली जो औषधियाँ होती हैं उनका स्वभाव भी प्लास्टिक का ही होता है। अर्थात् ये अविघटनक्षम होता हैं । ये बिमारी दूर नहीं करतीं, शरीर का संविधान बदलती हैं, कुछ मात्रा में ज्ञानेन्द्रियों को बधिर भी कर देती हैं। प्रत्यक्ष में तो इन औषधियों तथा सर्जरी आदि प्रक्रियाओं का परिणाम चमत्कारपूर्ण लगता है परन्तु उनका प्लास्टीक का स्वभाव शरीर की  आन्तर्बाह्य संरचना पर विपरीत परिणाम करता है। आज मेडिकल साइन्स-औषधि विज्ञान से सब इतने अधिक प्रभावित हैं कि इस मुद्दे की ओर खास किसी का ध्यान जाता नहीं हैं परन्तु इस विषय पर भारतीय दृष्टि से अनुसन्धान करने की बहुत आवश्यकता है। एलोपथीं के सिद्धान्त और शरीररचना का सम्बन्ध कैसा है। औषधि बनाने की प्रक्रिया कैसी है और उसके शरीर पर क्या परिणाम होते हैं इसका अध्ययन होने की आवश्यकता है। सामान्य जन के लिये एक गोली लेते ही दर्द शान्त हो जाता है यह चमत्कार लगता है परन्तु उसके दुष्परिणाम समझ में नहीं आते। शरीर स्वास्थ्य से सम्बन्धित दिनचर्या, ऋतुचर्या, जीवनचर्या, आहारविहार, पथ्यापथ्य, व्यक्ति की मूल प्रकृति आदि का जिस शास्त्र में कुछ भी विचार नहीं करना पडता है वह शास्त्र मूल रूप में ही अप्राकृतिक कहा जायेगा । मनुष्य शरीर को एक भौतिक पदार्थ के रूप में ही वह देखता है ऐसा कहा जायेगा।
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भोजन में तो यह बहुत गहरे तक गया है। अनाज, सब्जी की तरह मसाले भी पोषक के लिये होते हैं। शरीर और प्राण के लिये पोषक पदार्थों को स्वादिष्ट और दर्शनीय बनाने की कला मनुष्य को अवगत है । परन्तु प्लास्टिकवाद पोषण नष्ट कर केवल स्वाद और सुन्दरता को प्रस्तुत करता है। स्वाद और सुन्दरता भी चाहिये इसमें कोई सन्देह नहीं । रूप, रस, गन्ध, स्पर्श, शब्द आदि की सुन्दरता और मधुरता ज्ञानेन्द्रियों को सुख देती है परन्तु वह प्राकृतिक हो तभी । प्लास्टिक मसालों को प्राणहीन बना देता है । भोजन बनाने की, पैकिंग की, सुरक्षित रखने की सारी व्यवस्था प्लास्टिकवाद से ओतप्रोत है। इसका बहुत गहरा प्रभाव शरीर पर होता है। शरीर से सम्बन्धित ही बात करनी है तो औषधि का क्रम आहार के तुरन्त बाद आता है। एलोपथी द्वारा प्रयोग में लाई जाने वाली जो औषधियाँ होती हैं उनका स्वभाव भी प्लास्टिक का ही होता है। अर्थात् ये अविघटनक्षम होता हैं । ये बिमारी दूर नहीं करतीं, शरीर का संविधान बदलती हैं, कुछ मात्रा में ज्ञानेन्द्रियों को बधिर भी कर देती हैं। प्रत्यक्ष में तो इन औषधियों तथा सर्जरी आदि प्रक्रियाओं का परिणाम चमत्कारपूर्ण लगता है परन्तु उनका प्लास्टीक का स्वभाव शरीर की  आन्तर्बाह्य संरचना पर विपरीत परिणाम करता है। आज मेडिकल साइन्स-औषधि विज्ञान से सब इतने अधिक प्रभावित हैं कि इस मुद्दे की ओर खास किसी का ध्यान जाता नहीं हैं परन्तु इस विषय पर धार्मिक दृष्टि से अनुसन्धान करने की बहुत आवश्यकता है। एलोपथीं के सिद्धान्त और शरीररचना का सम्बन्ध कैसा है। औषधि बनाने की प्रक्रिया कैसी है और उसके शरीर पर क्या परिणाम होते हैं इसका अध्ययन होने की आवश्यकता है। सामान्य जन के लिये एक गोली लेते ही दर्द शान्त हो जाता है यह चमत्कार लगता है परन्तु उसके दुष्परिणाम समझ में नहीं आते। शरीर स्वास्थ्य से सम्बन्धित दिनचर्या, ऋतुचर्या, जीवनचर्या, आहारविहार, पथ्यापथ्य, व्यक्ति की मूल प्रकृति आदि का जिस शास्त्र में कुछ भी विचार नहीं करना पडता है वह शास्त्र मूल रूप में ही अप्राकृतिक कहा जायेगा । मनुष्य शरीर को एक भौतिक पदार्थ के रूप में ही वह देखता है ऐसा कहा जायेगा।
    
ज्ञानेन्द्रियों से सम्बन्धित सभी विषयों और पदार्थों के प्लास्टिकवाद का विस्तार हुआ है। फूलों के, फलों के, मसालों के जो अर्क बनते हैं उनमें मूल रूप से उन पदार्थों का कोई अस्तित्व नहीं होता है। रासायनिक संयोजनों से रसायनशास्त्र की प्रयोगशाला में वे बनाये जाते हैं। उनका जो मूल उद्देश्य है वह सिद्ध नहीं होता, इन्द्रियों को केवल बाहरी अनुभव होता है। ग्रीन हाऊस खेती, बाजार में पैकींग में मिलने वाले फलों के रस, रासायनिक खाद, विटामीन की गोलियाँ आदि सब इस के उदाहरण हैं।
 
ज्ञानेन्द्रियों से सम्बन्धित सभी विषयों और पदार्थों के प्लास्टिकवाद का विस्तार हुआ है। फूलों के, फलों के, मसालों के जो अर्क बनते हैं उनमें मूल रूप से उन पदार्थों का कोई अस्तित्व नहीं होता है। रासायनिक संयोजनों से रसायनशास्त्र की प्रयोगशाला में वे बनाये जाते हैं। उनका जो मूल उद्देश्य है वह सिद्ध नहीं होता, इन्द्रियों को केवल बाहरी अनुभव होता है। ग्रीन हाऊस खेती, बाजार में पैकींग में मिलने वाले फलों के रस, रासायनिक खाद, विटामीन की गोलियाँ आदि सब इस के उदाहरण हैं।
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# वेदों का ज्ञान, ऋषियों का विज्ञान, महापुरुषों का कर्तृत्व, कारीगरों की कारीगरी का कौशल, कलाकारों की कलासाधना, सज्ञजनों और स्मृतिकारों द्वारा प्रणीत रीतिरिवाज और खानपानादि की पद्धति एक पीढी से दूसरी पीढी को हस्तान्तरित होते हुए पूर्वजों से हमारे तक पहुंची है। यदि यह परम्परा नहीं होती तो हर पीढी को सारी बातें नये से ही निर्धारित करनी पड़ती। इसलिये परम्परा का महत्त्व है।  
 
# वेदों का ज्ञान, ऋषियों का विज्ञान, महापुरुषों का कर्तृत्व, कारीगरों की कारीगरी का कौशल, कलाकारों की कलासाधना, सज्ञजनों और स्मृतिकारों द्वारा प्रणीत रीतिरिवाज और खानपानादि की पद्धति एक पीढी से दूसरी पीढी को हस्तान्तरित होते हुए पूर्वजों से हमारे तक पहुंची है। यदि यह परम्परा नहीं होती तो हर पीढी को सारी बातें नये से ही निर्धारित करनी पड़ती। इसलिये परम्परा का महत्त्व है।  
 
# अब हमें स्मरण करना चाहिये कि हमारे पूर्वजों से हमें परम्परा में क्या क्या प्राप्त हआ है। ऐसी कौन सी बातें हैं जिससे हम गौरवान्वित हो सकते हैं ?  
 
# अब हमें स्मरण करना चाहिये कि हमारे पूर्वजों से हमें परम्परा में क्या क्या प्राप्त हआ है। ऐसी कौन सी बातें हैं जिससे हम गौरवान्वित हो सकते हैं ?  
# जगत और जीवन के निःशेष सभी प्रश्नों के खलासे कर सके ऐसी अध्यात्म संकल्पना हमारे आर्षदृष्टा, सर्वज्ञ, आत्मज्ञानी, साक्षात्कारी पूर्वजों की देन है। तत्त्वज्ञान के क्षेत्र में विश्व में कोई विचारधारा इसकी बराबरी नहीं कर सकती । समस्त भारतीय वाङ्मय में यह संकल्पना विभिन्न स्वरूप धारण कर प्रस्फुटित होती रही है और हम तक पहुंची है।  
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# जगत और जीवन के निःशेष सभी प्रश्नों के खलासे कर सके ऐसी अध्यात्म संकल्पना हमारे आर्षदृष्टा, सर्वज्ञ, आत्मज्ञानी, साक्षात्कारी पूर्वजों की देन है। तत्त्वज्ञान के क्षेत्र में विश्व में कोई विचारधारा इसकी बराबरी नहीं कर सकती । समस्त धार्मिक वाङ्मय में यह संकल्पना विभिन्न स्वरूप धारण कर प्रस्फुटित होती रही है और हम तक पहुंची है।  
 
# ज्ञानधारा के स्रोत वेद, उपनिषद, सूत्रग्रन्थ, शास्त्रग्रन्थ आदि युगों में मन्त्रगायकों, भाष्यकारों, पाठकों, उपदेशकों, अध्यापकों के माध्यम से, युगानुकूल सन्दर्भो में प्रस्तुत होते हुए आजतक पहुँचे हैं । आज भी ये साधु, सन्तों, संन्यासियों, धर्माचार्यों, अध्यापकों के द्वारा गाये जाते हैं । विवेचित किये जाते हैं, पढाये जाते हैं।  
 
# ज्ञानधारा के स्रोत वेद, उपनिषद, सूत्रग्रन्थ, शास्त्रग्रन्थ आदि युगों में मन्त्रगायकों, भाष्यकारों, पाठकों, उपदेशकों, अध्यापकों के माध्यम से, युगानुकूल सन्दर्भो में प्रस्तुत होते हुए आजतक पहुँचे हैं । आज भी ये साधु, सन्तों, संन्यासियों, धर्माचार्यों, अध्यापकों के द्वारा गाये जाते हैं । विवेचित किये जाते हैं, पढाये जाते हैं।  
# युग के बाद युगों में स्मृतिकारों ने भारतीय ज्ञानधारा पर आधारित व्यवहार हेतु समाज के विभिन्न वर्गों के लिये रीतियों का निरूपण किया है। पुराणों ने लोक के लिये ज्ञानधारा को रोचक रूप प्रदान किया है। साहित्यकारों, कलाकारों, संगीतकारों ने उसी ज्ञानधारा को रसरूप प्रदान कर मोक्ष का मार्ग प्रशस्त किया है। पीढी दर पीढी इस की उपासना, साधना, अध्ययन, विमर्श, व्यवहार होता रहा है । इस परम्परा का गौरव होना हमारे लिये स्वाभाविक है।  
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# युग के बाद युगों में स्मृतिकारों ने धार्मिक ज्ञानधारा पर आधारित व्यवहार हेतु समाज के विभिन्न वर्गों के लिये रीतियों का निरूपण किया है। पुराणों ने लोक के लिये ज्ञानधारा को रोचक रूप प्रदान किया है। साहित्यकारों, कलाकारों, संगीतकारों ने उसी ज्ञानधारा को रसरूप प्रदान कर मोक्ष का मार्ग प्रशस्त किया है। पीढी दर पीढी इस की उपासना, साधना, अध्ययन, विमर्श, व्यवहार होता रहा है । इस परम्परा का गौरव होना हमारे लिये स्वाभाविक है।  
 
# इसी प्रकार से वैज्ञानिकों ने ज्ञान तक पहुँचने हेतु, जगत के सम्यक् परिचय हेतु, व्यवहार को सुकर और समुचित बनाने हेतु प्रक्रियायें निर्धारित की हैं। प्रकृति को, प्राणियों को, मनुष्यों को शारीरिक, मानसिक स्वास्थ्य और क्षमताओं की दृष्टि से हानि न हो, उपयोग के लिये अत्यन्त सुकर हो, कहीं भी अत्यन्त सुलभ हो और किसी भी विषय में निपुणता और उत्कृष्टता प्राप्त हो सके ऐसा तन्त्रज्ञान विकसित किया। इस विज्ञान और तन्त्रज्ञान की सार्थकता और इसकी पार्श्वभूमि में स्थित दृष्टि की बराबरी विश्व में कोई नहीं कर सकता।  
 
# इसी प्रकार से वैज्ञानिकों ने ज्ञान तक पहुँचने हेतु, जगत के सम्यक् परिचय हेतु, व्यवहार को सुकर और समुचित बनाने हेतु प्रक्रियायें निर्धारित की हैं। प्रकृति को, प्राणियों को, मनुष्यों को शारीरिक, मानसिक स्वास्थ्य और क्षमताओं की दृष्टि से हानि न हो, उपयोग के लिये अत्यन्त सुकर हो, कहीं भी अत्यन्त सुलभ हो और किसी भी विषय में निपुणता और उत्कृष्टता प्राप्त हो सके ऐसा तन्त्रज्ञान विकसित किया। इस विज्ञान और तन्त्रज्ञान की सार्थकता और इसकी पार्श्वभूमि में स्थित दृष्टि की बराबरी विश्व में कोई नहीं कर सकता।  
 
# ज्ञान अपने तात्त्विक रूप में अपरिवर्तित रहता है परन्तु उसका जो व्यावहारिक स्वरूप होता है वह देशकाल-परिस्थिति के अनुरूप परिवर्तनशील रहता है। यह सत्य हमारे पूर्वजों ने जाना, उसे समझा, तत्त्व और व्यवहार के स्वरूप को जानने का निरक्षीरविवेक विकसित किया और समय समय पर व्यवहार में आवश्यक परिवर्तन करते हए स्मृति ग्रन्थों की रचना की। ऐसे व्यवहारदक्ष पूर्वजों के सम्बन्ध में गौरव का अनुभव करना स्वाभाविक है।  
 
# ज्ञान अपने तात्त्विक रूप में अपरिवर्तित रहता है परन्तु उसका जो व्यावहारिक स्वरूप होता है वह देशकाल-परिस्थिति के अनुरूप परिवर्तनशील रहता है। यह सत्य हमारे पूर्वजों ने जाना, उसे समझा, तत्त्व और व्यवहार के स्वरूप को जानने का निरक्षीरविवेक विकसित किया और समय समय पर व्यवहार में आवश्यक परिवर्तन करते हए स्मृति ग्रन्थों की रचना की। ऐसे व्यवहारदक्ष पूर्वजों के सम्बन्ध में गौरव का अनुभव करना स्वाभाविक है।  
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# भारत को भारत बनना है तो कानून और न्याय के क्षेत्र में धर्म की प्रतिष्ठा करनी होगी। धर्मसत्ता शासन-निरपेक्ष और अर्थनिरपेक्ष ही होनी चाहिये, शासन और अर्थसत्ता धर्मसापेक्ष होना अनिवार्य है। भारत को दृढतापूर्वक यह परिवर्तन करना होगा।
 
# भारत को भारत बनना है तो कानून और न्याय के क्षेत्र में धर्म की प्रतिष्ठा करनी होगी। धर्मसत्ता शासन-निरपेक्ष और अर्थनिरपेक्ष ही होनी चाहिये, शासन और अर्थसत्ता धर्मसापेक्ष होना अनिवार्य है। भारत को दृढतापूर्वक यह परिवर्तन करना होगा।
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==== ४. पर्यावरण संकल्पना को भारतीय बनाना ====
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==== ४. पर्यावरण संकल्पना को धार्मिक बनाना ====
 
# यन्त्रवाद और प्लास्टिकवाद के चलते सम्पूर्ण विश्व पर्यावरण के प्रदूषण की चपेट में आ गया है। सर्वत्र प्राकृतिक संकट बढ गये हैं । वैश्विक तापमान में वृद्धि हो रही है । पहाड़ों पर बर्फ पिघल रही हैं, नदियों में बाढ आ रही है। अब यह विश्वस्तर पर चिन्ता का विषय बन गया है।  
 
# यन्त्रवाद और प्लास्टिकवाद के चलते सम्पूर्ण विश्व पर्यावरण के प्रदूषण की चपेट में आ गया है। सर्वत्र प्राकृतिक संकट बढ गये हैं । वैश्विक तापमान में वृद्धि हो रही है । पहाड़ों पर बर्फ पिघल रही हैं, नदियों में बाढ आ रही है। अब यह विश्वस्तर पर चिन्ता का विषय बन गया है।  
 
# इस संकट का मुकाबला करने के लिये सभायें, सम्मेलन, परिचर्चाओं का आयोजन विश्वस्तर पर हो रहा है। नीतियाँ बनाई जा रही हैं, योजनायें बनती हैं, अभियान छिड रहे हैं, नारे बनाये जा रहे हैं।  
 
# इस संकट का मुकाबला करने के लिये सभायें, सम्मेलन, परिचर्चाओं का आयोजन विश्वस्तर पर हो रहा है। नीतियाँ बनाई जा रही हैं, योजनायें बनती हैं, अभियान छिड रहे हैं, नारे बनाये जा रहे हैं।  
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अहिंसा का अर्थ है मन, कर्म, वचन से किसी का अहित नहीं करना । इसका अर्थ सूक्ष्मतापूर्वक समझने की आवश्यकता है । पुत्र के किसी अपराध पर पिता उसे डाँटता है अथवा दण्ड देता है । पुत्र को दुःख होता है । पुत्र को दःखी करना ऊपर से तो हिंसा का कृत्य लगता है, परन्तु बालबुद्धि पुत्र के हित के लिये डाँटना या दण्ड देना पिता का कर्तव्य ही है । उसके हित के लिये जो दण्ड दिया जाता है वह हिंसा नहीं है । इसी प्रकार अपराधी को, आततायी को, दुर्जनों को, दुष्टों को दण्ड देना हिंसा नहीं है यह सर्वविदित है। इसी प्रकार स्वरक्षण के लिये की जाने वाली हिंसा भी हिंसा नहीं है।
 
अहिंसा का अर्थ है मन, कर्म, वचन से किसी का अहित नहीं करना । इसका अर्थ सूक्ष्मतापूर्वक समझने की आवश्यकता है । पुत्र के किसी अपराध पर पिता उसे डाँटता है अथवा दण्ड देता है । पुत्र को दुःख होता है । पुत्र को दःखी करना ऊपर से तो हिंसा का कृत्य लगता है, परन्तु बालबुद्धि पुत्र के हित के लिये डाँटना या दण्ड देना पिता का कर्तव्य ही है । उसके हित के लिये जो दण्ड दिया जाता है वह हिंसा नहीं है । इसी प्रकार अपराधी को, आततायी को, दुर्जनों को, दुष्टों को दण्ड देना हिंसा नहीं है यह सर्वविदित है। इसी प्रकार स्वरक्षण के लिये की जाने वाली हिंसा भी हिंसा नहीं है।
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आज हिंसा और अहिंसा की विपरीतता हो गई है। मूल भारतीय सिद्धान्त के अनुसार स्वार्थ के लिये किया गया कोई भी कार्य हिंसा है।
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आज हिंसा और अहिंसा की विपरीतता हो गई है। मूल धार्मिक सिद्धान्त के अनुसार स्वार्थ के लिये किया गया कोई भी कार्य हिंसा है।
    
कभी कभी बालबुद्धि लोग भगवान कृष्ण द्वारा दिये गये युद्ध करने के परामर्श को हिंसा मानते हैं । महाभारत के युद्ध में अठारह अक्षौहिणी सेना का विनाश हआ। इतना विनाशक युद्ध करवाने वाले को अहिंसक कैसे कहा जा सकता है ? परन्तु भगवान कृष्ण को तो योगेश्वर भी कहा गया है। योगेश्वर स्वयं हिंसक कैसे हो सकते हैं ? महाभारत का युद्ध धर्म की रक्षा के लिये किया गया था इसलिये वह हिंसापूर्ण कृत्य नहीं था । हाँ, दुर्योधन के लिये वह हिंसा पूर्ण कृत्य था क्योंकि वह स्वार्थ से प्रेरित था।
 
कभी कभी बालबुद्धि लोग भगवान कृष्ण द्वारा दिये गये युद्ध करने के परामर्श को हिंसा मानते हैं । महाभारत के युद्ध में अठारह अक्षौहिणी सेना का विनाश हआ। इतना विनाशक युद्ध करवाने वाले को अहिंसक कैसे कहा जा सकता है ? परन्तु भगवान कृष्ण को तो योगेश्वर भी कहा गया है। योगेश्वर स्वयं हिंसक कैसे हो सकते हैं ? महाभारत का युद्ध धर्म की रक्षा के लिये किया गया था इसलिये वह हिंसापूर्ण कृत्य नहीं था । हाँ, दुर्योधन के लिये वह हिंसा पूर्ण कृत्य था क्योंकि वह स्वार्थ से प्रेरित था।
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जो लोग भौतिक दृष्टि से ही जीवन और जगत को देखते हैं वे इस प्रकार की समानता की कल्पना करते हैं। उनके लिये सारा मापन यान्त्रिक हो जाता है। अन्तःकरण की प्रवृत्तियाँ उनके लिये कोई मायने नहीं रखती।
 
जो लोग भौतिक दृष्टि से ही जीवन और जगत को देखते हैं वे इस प्रकार की समानता की कल्पना करते हैं। उनके लिये सारा मापन यान्त्रिक हो जाता है। अन्तःकरण की प्रवृत्तियाँ उनके लिये कोई मायने नहीं रखती।
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भारत को इसका त्याग करना होगा । भौतिकवादी यान्त्रिक एकरूपता से भारतीय जीवनशैली का विकास नहीं हो सकता । यह केवल तत्त्वज्ञान का नहीं, व्यवहार का विषय है। एकरूपता के स्थान पर एकात्मता से प्रेरित स्वाभाविकता का स्वीकार किया जाय तो असंख्य रचनायें बदल जायेंगी। दिशा बदली तो मार्ग और गन्तव्य दोनों बदल जाने जैसा ही है ।
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भारत को इसका त्याग करना होगा । भौतिकवादी यान्त्रिक एकरूपता से धार्मिक जीवनशैली का विकास नहीं हो सकता । यह केवल तत्त्वज्ञान का नहीं, व्यवहार का विषय है। एकरूपता के स्थान पर एकात्मता से प्रेरित स्वाभाविकता का स्वीकार किया जाय तो असंख्य रचनायें बदल जायेंगी। दिशा बदली तो मार्ग और गन्तव्य दोनों बदल जाने जैसा ही है ।
    
एकरूपता के स्थान पर यदि स्वाभाविकता लाना है तो हमें, उदाहरण के लिये, हमारी दैनन्दिन उपयोग की छोटी छोटी बातें बदलने से प्रारम्भ करना होगा। छोटे प्रारम्भ से बडे बडे परिवर्तनों तक पहुँचा जा सकता है। यदि हम कारखाने में बने तैयार कपडे और जूते पहनने के स्थान पर हाथ से बने कपडे और जूते पहनने लगेंगे तो जूते और कपडे के कारखाने बन्द हो जायेंगे, यन्त्रसामग्री निरुपयोगी बन जायेगी, दर्जी और मोची को काम मिलेगा, वे नौकर नहीं अपितु अपने व्यवसाय के मालिक बनेंगे। अपने व्यवसाय के लिये वे गाँव में जायेंगे, वहाँ सुख से रहेंगे, गाँवों का विकास होगा और हमें अपने नाप के, दर्जी और मोची के मानवीय स्पर्शवाले कपड़े और जूते मिलेंगे । सारा अर्थतन्त्र, यान्त्रिकीकरण और शहरीकरण रुक जायेगा । और दिशा बदल जायेगी। आज डिझाइनर कपड़ों और जूतों की बडी प्रतिष्ठा है । यन्त्र दूर करते ही हर व्यक्ति को डिझाइनर कपडे और जूते मिलेंगे।
 
एकरूपता के स्थान पर यदि स्वाभाविकता लाना है तो हमें, उदाहरण के लिये, हमारी दैनन्दिन उपयोग की छोटी छोटी बातें बदलने से प्रारम्भ करना होगा। छोटे प्रारम्भ से बडे बडे परिवर्तनों तक पहुँचा जा सकता है। यदि हम कारखाने में बने तैयार कपडे और जूते पहनने के स्थान पर हाथ से बने कपडे और जूते पहनने लगेंगे तो जूते और कपडे के कारखाने बन्द हो जायेंगे, यन्त्रसामग्री निरुपयोगी बन जायेगी, दर्जी और मोची को काम मिलेगा, वे नौकर नहीं अपितु अपने व्यवसाय के मालिक बनेंगे। अपने व्यवसाय के लिये वे गाँव में जायेंगे, वहाँ सुख से रहेंगे, गाँवों का विकास होगा और हमें अपने नाप के, दर्जी और मोची के मानवीय स्पर्शवाले कपड़े और जूते मिलेंगे । सारा अर्थतन्त्र, यान्त्रिकीकरण और शहरीकरण रुक जायेगा । और दिशा बदल जायेगी। आज डिझाइनर कपड़ों और जूतों की बडी प्रतिष्ठा है । यन्त्र दूर करते ही हर व्यक्ति को डिझाइनर कपडे और जूते मिलेंगे।
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==== ७. धर्म के स्वीकार की बाध्यता ====
 
==== ७. धर्म के स्वीकार की बाध्यता ====
यह कितने आश्चर्य की बात है कि भारत में हम जिस धर्म की हमेशा बात करते हैं उस धर्म का पश्चिम में कोई स्थान ही नहीं है, किंबहुना वहाँ के जीवनविचार में धर्म संकल्पना का अस्तित्व ही नहीं है । उनके शब्दकोष में धर्म के लिये कोई पर्यायवाची शब्द भी नहीं है। यह तो भारतीयों की ही गलती है कि उन्होंने धर्म का पर्यायवाची शब्द रिलीजन को बनाया अथवा पश्चिम के लोगों द्वारा धर्म को रिलीजन कहे जाने पर कोई आपत्ति नहीं उठाई । इस कारण से विश्व में तो ठीक, भारत में भी धर्म विवाद का विषय बन गया।
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यह कितने आश्चर्य की बात है कि भारत में हम जिस धर्म की हमेशा बात करते हैं उस धर्म का पश्चिम में कोई स्थान ही नहीं है, किंबहुना वहाँ के जीवनविचार में धर्म संकल्पना का अस्तित्व ही नहीं है । उनके शब्दकोष में धर्म के लिये कोई पर्यायवाची शब्द भी नहीं है। यह तो धार्मिकों की ही गलती है कि उन्होंने धर्म का पर्यायवाची शब्द रिलीजन को बनाया अथवा पश्चिम के लोगों द्वारा धर्म को रिलीजन कहे जाने पर कोई आपत्ति नहीं उठाई । इस कारण से विश्व में तो ठीक, भारत में भी धर्म विवाद का विषय बन गया।
    
धर्म के सन्दर्भ में पश्चिम की स्थिति को समझने के लिये अत्यन्त संक्षेप में धर्म और रिलीजन के अर्थ और अन्तर को संक्षेप में समझ लेना उचित रहेगा।
 
धर्म के सन्दर्भ में पश्चिम की स्थिति को समझने के लिये अत्यन्त संक्षेप में धर्म और रिलीजन के अर्थ और अन्तर को संक्षेप में समझ लेना उचित रहेगा।
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==References==
 
==References==
<references />भारतीय शिक्षा : वैश्विक संकटों का निवारण भारतीय शिक्षा (भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला ५), प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे
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<references />धार्मिक शिक्षा : वैश्विक संकटों का निवारण धार्मिक शिक्षा (धार्मिक शिक्षा ग्रन्थमाला ५), प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे
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[[Category:Education Series]]
 
[[Category:Education Series]]
 
[[Category:Dharmik Shiksha Granthmala(धार्मिक शिक्षा ग्रन्थमाला)]]
 
[[Category:Dharmik Shiksha Granthmala(धार्मिक शिक्षा ग्रन्थमाला)]]

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