| विश्व आज जिन संकटों से ग्रस्त हो गया है वे दो प्रकार के हैं। एक है प्राकृतिक और दूसरे हैं सांस्कृतिक । त्सुनामी, चक्रवात, अतिवृष्टि, अनावृष्टि, अकाल, शारीरिक बिमारियाँ आदि प्राकृतिक संकट हैं। भुखमरी, जानहानि, भौतिक सम्पदा का नाश, शारीरिक स्वास्थ्य का नाश आदि इसके परिणाम हैं। चौरी, डकैती, बलात्कार, अनाचार, भ्रष्टाचार, शोषण, आतंकवाद, युद्ध, धर्मान्तरण, आदि सांस्कृतिक संकट हैं। जानहानि, असुरक्षा, गुलामी, मानसिक बिमारियाँ, क्षुद्रता, पशुवृत्ति, मानवीय गौरव का नाश इनके परिणाम हैं। | | विश्व आज जिन संकटों से ग्रस्त हो गया है वे दो प्रकार के हैं। एक है प्राकृतिक और दूसरे हैं सांस्कृतिक । त्सुनामी, चक्रवात, अतिवृष्टि, अनावृष्टि, अकाल, शारीरिक बिमारियाँ आदि प्राकृतिक संकट हैं। भुखमरी, जानहानि, भौतिक सम्पदा का नाश, शारीरिक स्वास्थ्य का नाश आदि इसके परिणाम हैं। चौरी, डकैती, बलात्कार, अनाचार, भ्रष्टाचार, शोषण, आतंकवाद, युद्ध, धर्मान्तरण, आदि सांस्कृतिक संकट हैं। जानहानि, असुरक्षा, गुलामी, मानसिक बिमारियाँ, क्षुद्रता, पशुवृत्ति, मानवीय गौरव का नाश इनके परिणाम हैं। |
| कुल मिलाकर मनुष्य का व्यवहार ही विश्व के संकटों को आमन्त्रित करता है । इसलिये विश्व के संकट कम करने हैं, जगत को संकटों से मुक्त करना है तो मनुष्य को ठीक होना होगा। मनुष्य को ठीक होने का सर्वाधिक उपयुक्त साधन शिक्षा है। हम समझ सकते हैं कि पंचमहाभूतों, वनस्पति, प्राणियों को नहीं अपितु मनुष्य को ही शिक्षा की आवश्यकता है। | | कुल मिलाकर मनुष्य का व्यवहार ही विश्व के संकटों को आमन्त्रित करता है । इसलिये विश्व के संकट कम करने हैं, जगत को संकटों से मुक्त करना है तो मनुष्य को ठीक होना होगा। मनुष्य को ठीक होने का सर्वाधिक उपयुक्त साधन शिक्षा है। हम समझ सकते हैं कि पंचमहाभूतों, वनस्पति, प्राणियों को नहीं अपितु मनुष्य को ही शिक्षा की आवश्यकता है। |
− | आज विश्व पर पश्चिम की जीवनदृष्टि छाई हुई है। श्रीमद् भगवद्गीता में जिसे आसुरी सम्पद् कहा है वही यह पश्चिमी जीवनदृष्टि है। आसुरी सम्पद् स्वयं के लिये भी बन्धन ही निर्माण करती है ऐसा गीता में श्री भगवान कहते हैं। भगवानने कहा हुआ समझने के लिये तो अब पश्चिमी जगत की स्थिति ही प्रत्यक्ष प्रमाण है। आसुरी सम्पदा का प्रभाव कम करने के लिये, विश्व के जो अनेक देश उससे प्रभावित हो गये हैं उन्हें बचाने के लिये, स्वयं पश्चिम को सही दृष्टि देने के लिये और सही व्यवहार सिखाने के लिये भारतीय जीवनदृष्टि ही एक मात्र उपाय दिखाई देता है। स्वयं पश्चिम को भी अब संकटों का अनुभव हो रहा है। वह भी अनेक प्रकार के प्रयास तो कर ही रहा है। परन्तु वे प्रवास वांछित परिणाम देने वाले नहीं हैं। इसका कारण यह है कि संकट से मुक्त होने के लिये वह वही कर रहा है जिससे संकट कम होने के स्थान पर बढें । जिन कारणों से दुःख उत्पन्न हो रहे हैं उन कारणों को दूर किये बिना वह दुःखों से मुक्ति चाहता है। उसकी बुद्धि यह सीधासादा कार्यकारण सम्बन्ध ही नहीं समझ रही है। तात्पर्य यह है कि अब सुख, शान्ति, समृद्धि, संस्कार आदि प्राप्त हो इस हेतु से प्रयास करने की पश्चिम में क्षमता ही नहीं रही है। वह दुर्बल हो गया है। इस स्थिति में अब भारत को ही मार्गदर्शन करने की, बचाने के कुछ उपाय करने की जिम्मेदारी लेनी होगी। | + | आज विश्व पर पश्चिम की जीवनदृष्टि छाई हुई है। श्रीमद् भगवद्गीता में जिसे आसुरी सम्पद् कहा है वही यह पश्चिमी जीवनदृष्टि है। आसुरी सम्पद् स्वयं के लिये भी बन्धन ही निर्माण करती है ऐसा गीता में श्री भगवान कहते हैं। भगवानने कहा हुआ समझने के लिये तो अब पश्चिमी जगत की स्थिति ही प्रत्यक्ष प्रमाण है। आसुरी सम्पदा का प्रभाव कम करने के लिये, विश्व के जो अनेक देश उससे प्रभावित हो गये हैं उन्हें बचाने के लिये, स्वयं पश्चिम को सही दृष्टि देने के लिये और सही व्यवहार सिखाने के लिये धार्मिक जीवनदृष्टि ही एक मात्र उपाय दिखाई देता है। स्वयं पश्चिम को भी अब संकटों का अनुभव हो रहा है। वह भी अनेक प्रकार के प्रयास तो कर ही रहा है। परन्तु वे प्रवास वांछित परिणाम देने वाले नहीं हैं। इसका कारण यह है कि संकट से मुक्त होने के लिये वह वही कर रहा है जिससे संकट कम होने के स्थान पर बढें । जिन कारणों से दुःख उत्पन्न हो रहे हैं उन कारणों को दूर किये बिना वह दुःखों से मुक्ति चाहता है। उसकी बुद्धि यह सीधासादा कार्यकारण सम्बन्ध ही नहीं समझ रही है। तात्पर्य यह है कि अब सुख, शान्ति, समृद्धि, संस्कार आदि प्राप्त हो इस हेतु से प्रयास करने की पश्चिम में क्षमता ही नहीं रही है। वह दुर्बल हो गया है। इस स्थिति में अब भारत को ही मार्गदर्शन करने की, बचाने के कुछ उपाय करने की जिम्मेदारी लेनी होगी। |
| यह जिम्मेदारी निभा सके इस दृष्टि से भारत को समर्थ बनना होगा । यह सामर्थ्य सत्य और धर्म से प्राप्त होता है । सत्य और धर्म समाज में प्रतिष्ठित करने हेतु उत्तम साधन शिक्षा है यह सब जानते हैं अतः भारत को अपनी शिक्षाव्यवस्था का विचार जगत के कल्याण के सन्दर्भ में करना होगा, अपनी पद्धति से करना होगा। | | यह जिम्मेदारी निभा सके इस दृष्टि से भारत को समर्थ बनना होगा । यह सामर्थ्य सत्य और धर्म से प्राप्त होता है । सत्य और धर्म समाज में प्रतिष्ठित करने हेतु उत्तम साधन शिक्षा है यह सब जानते हैं अतः भारत को अपनी शिक्षाव्यवस्था का विचार जगत के कल्याण के सन्दर्भ में करना होगा, अपनी पद्धति से करना होगा। |
− | <references />भारतीय शिक्षा : वैश्विक संकटों का निवारण भारतीय शिक्षा (भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला ५): पर्व ३: अध्याय २५, प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे | + | <references />धार्मिक शिक्षा : वैश्विक संकटों का निवारण धार्मिक शिक्षा (धार्मिक शिक्षा ग्रन्थमाला ५): पर्व ३: अध्याय २५, प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे |