Line 3: |
Line 3: |
| | | |
| === अध्याय ४९ === | | === अध्याय ४९ === |
− | वर्षों से चर्चा चल रही है कि भारत में शिक्षा भारतीय नहीं है। उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध से शिक्षा के भारतीयकरण के प्रयास भी शुरु हुए हैं। फिर भी वर्तमान में हम शिक्षा के स्वरूप से संतुष्ट नहीं हैं । इस स्थिति में कुछ अलग पद्धति से शिक्षा की समस्या को समझने की और उसके निराकरण की दिशा में उपाययोजना करने की आवश्यकता है। | + | वर्षों से चर्चा चल रही है कि भारत में शिक्षा धार्मिक नहीं है। उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध से शिक्षा के धार्मिककरण के प्रयास भी शुरु हुए हैं। फिर भी वर्तमान में हम शिक्षा के स्वरूप से संतुष्ट नहीं हैं । इस स्थिति में कुछ अलग पद्धति से शिक्षा की समस्या को समझने की और उसके निराकरण की दिशा में उपाययोजना करने की आवश्यकता है। |
| | | |
| ==== १. वर्तमान ढाँचे के गृहीत ==== | | ==== १. वर्तमान ढाँचे के गृहीत ==== |
Line 30: |
Line 30: |
| संचार माध्यम और यातायात की सुविधाओं के कारण से विश्व में अन्यान्य देशों के बीच की दूरियाँ बहुत कम हो गई हैं। इससे दैनन्दिन व्यावहारिक जीवन और वैचारिक जीवन बहुत ही प्रभावित हुआ है। सर्वत्र वैश्विकता की भाषा बोली जा रही है। परन्तु जिसे आज वैश्विक विचार कहा जाता है वह वास्तव में युरोपीय विचार है। पूरे विश्व की व्यवस्था को यूरोपीय जीवनदृष्टि के अनुसार ढालने का यूरोप अमेरिका का प्रयास चल रहा है । यूरोप अमेरिका के अलावा विश्व में जो देश हैं उनकी सांस्कृतिक पहचान समाप्त होने की संभावना पैदा हुई है। वैश्विक एकरूपता लाने का प्रयास हो रहा है। इसे ही विकास कहा जा रहा है, आधुनिकता कहा जा रहा है। | | संचार माध्यम और यातायात की सुविधाओं के कारण से विश्व में अन्यान्य देशों के बीच की दूरियाँ बहुत कम हो गई हैं। इससे दैनन्दिन व्यावहारिक जीवन और वैचारिक जीवन बहुत ही प्रभावित हुआ है। सर्वत्र वैश्विकता की भाषा बोली जा रही है। परन्तु जिसे आज वैश्विक विचार कहा जाता है वह वास्तव में युरोपीय विचार है। पूरे विश्व की व्यवस्था को यूरोपीय जीवनदृष्टि के अनुसार ढालने का यूरोप अमेरिका का प्रयास चल रहा है । यूरोप अमेरिका के अलावा विश्व में जो देश हैं उनकी सांस्कृतिक पहचान समाप्त होने की संभावना पैदा हुई है। वैश्विक एकरूपता लाने का प्रयास हो रहा है। इसे ही विकास कहा जा रहा है, आधुनिकता कहा जा रहा है। |
| | | |
− | भारत में यह प्रयास कहीं अनवधान से और कहीं अवधानपूर्वक हो रहा है । युरोपीय जीवनदृष्टि और युरोपीय व्यवस्था भारत में अधिकृत, मुख्य प्रवाह की व्यवस्था बन गई है, भले ही इसे युरोपीय कहा न जाता हो । भारतीयता की प्रतिष्ठा करने के लिये प्रयासरत समूह भी इस वैश्विकता की संकल्पना को एक गृहीत के रूप में स्वीकार कर ही चलते हैं। उनका प्रयास वैश्विक (अर्थात् युरोपीय) ढाँचे में भारतीयता को समायोजित करने का होता है। | + | भारत में यह प्रयास कहीं अनवधान से और कहीं अवधानपूर्वक हो रहा है । युरोपीय जीवनदृष्टि और युरोपीय व्यवस्था भारत में अधिकृत, मुख्य प्रवाह की व्यवस्था बन गई है, भले ही इसे युरोपीय कहा न जाता हो । धार्मिकता की प्रतिष्ठा करने के लिये प्रयासरत समूह भी इस वैश्विकता की संकल्पना को एक गृहीत के रूप में स्वीकार कर ही चलते हैं। उनका प्रयास वैश्विक (अर्थात् युरोपीय) ढाँचे में धार्मिकता को समायोजित करने का होता है। |
| | | |
| ===== छात्र और अध्यापक का सम्बन्ध परोक्ष है ===== | | ===== छात्र और अध्यापक का सम्बन्ध परोक्ष है ===== |
− | भारतीय शिक्षाविचार में छात्र और अध्यापक का सम्बन्ध आत्मीयतापूर्ण माना गया है । छात्र अध्यापक का मानसपुत्र है। दोनों के मध्य आत्मिक संबंध होता है। अध्यापक अपना ज्ञान छात्र को देकर स्वयं ऋषिऋण से मुक्त होता है और छात्र अध्यापक से ज्ञान प्राप्त कर ज्ञानपरम्परा को आगे बढाता है । दोनों साथ मिलकर अध्ययन करते हैं । व्यवहार में अध्यापक को छात्र को पढाने न पढाने का और छात्र को अपने अध्यापक का चयन करने का स्वातन्त्र्य रहता है। वर्तमान व्यवस्था में छात्र और अध्यापक दोनों एक व्यवस्था में बंधे हैं जिसके सूत्र अन्यत्र कहीं होते हैं। इस कारण से शिक्षा की जीवन्तता या तो समाप्त होती है या कम हो जाती है । कुल मिलाकर यह व्यवस्था ऐसी बन गई है जहाँ शिक्षा से सम्बन्धित सभी पक्ष एक दूसरे के साथ सीधे और आन्तरिक रूप से जुड़े हुए नहीं हैं। निर्जीव और अ-मानवीय व्यवस्था ही इन्हें किसी एक छोटे और सीमित प्रयोजन के लिये एक साथ लाती है। शिक्षातंत्र के इस पक्ष की ओर हमारा ध्यान बहुत कम जाता है, या इसकी ओर ध्यान देना हमें आवश्यक लगता नहीं है । इस स्थिति को हम स्वीकार करके चलते हैं।
| + | धार्मिक शिक्षाविचार में छात्र और अध्यापक का सम्बन्ध आत्मीयतापूर्ण माना गया है । छात्र अध्यापक का मानसपुत्र है। दोनों के मध्य आत्मिक संबंध होता है। अध्यापक अपना ज्ञान छात्र को देकर स्वयं ऋषिऋण से मुक्त होता है और छात्र अध्यापक से ज्ञान प्राप्त कर ज्ञानपरम्परा को आगे बढाता है । दोनों साथ मिलकर अध्ययन करते हैं । व्यवहार में अध्यापक को छात्र को पढाने न पढाने का और छात्र को अपने अध्यापक का चयन करने का स्वातन्त्र्य रहता है। वर्तमान व्यवस्था में छात्र और अध्यापक दोनों एक व्यवस्था में बंधे हैं जिसके सूत्र अन्यत्र कहीं होते हैं। इस कारण से शिक्षा की जीवन्तता या तो समाप्त होती है या कम हो जाती है । कुल मिलाकर यह व्यवस्था ऐसी बन गई है जहाँ शिक्षा से सम्बन्धित सभी पक्ष एक दूसरे के साथ सीधे और आन्तरिक रूप से जुड़े हुए नहीं हैं। निर्जीव और अ-मानवीय व्यवस्था ही इन्हें किसी एक छोटे और सीमित प्रयोजन के लिये एक साथ लाती है। शिक्षातंत्र के इस पक्ष की ओर हमारा ध्यान बहुत कम जाता है, या इसकी ओर ध्यान देना हमें आवश्यक लगता नहीं है । इस स्थिति को हम स्वीकार करके चलते हैं। |
| | | |
| ध्यान देने योग्य बात यह भी है कि हम इस स्थिति को मानवीय दुर्बलता से तंत्र को मुक्त रखने के लिये आवश्यक भी मानते हैं । अर्थात् सोचा यह जाता है कि सूत्र यदि शिक्षक के हाथ में दिये तो वह पक्षपात करेगा। पक्षपातपूर्ण व्यवहार न्यायपूर्ण नहीं होता । अतः वस्तुनिष्ठता के लिये हम ऐसा करते हैं । परन्तु ऐसा करने में हम जीवन्त व्यक्ति के विवेक के स्थान पर अ-जीवन्त यांत्रिक व्यवस्था को ही प्रतिष्ठित करते हैं। | | ध्यान देने योग्य बात यह भी है कि हम इस स्थिति को मानवीय दुर्बलता से तंत्र को मुक्त रखने के लिये आवश्यक भी मानते हैं । अर्थात् सोचा यह जाता है कि सूत्र यदि शिक्षक के हाथ में दिये तो वह पक्षपात करेगा। पक्षपातपूर्ण व्यवहार न्यायपूर्ण नहीं होता । अतः वस्तुनिष्ठता के लिये हम ऐसा करते हैं । परन्तु ऐसा करने में हम जीवन्त व्यक्ति के विवेक के स्थान पर अ-जीवन्त यांत्रिक व्यवस्था को ही प्रतिष्ठित करते हैं। |
| | | |
− | उपरिवर्णित ये सारे गृहीत युरोपीय शिक्षा की देन हैं। मूल भारतीय स्वभाव, भारतीय जीवनव्यवस्था, भारतीय शैली के साथ इसका मेल नहीं बैठता है। परन्तु ये सारी बातें इतनी व्यापक और इतनी प्रभावी हो गई हैं कि अब ये हमारे पूरे राष्ट्रीय व्यक्तित्व में षोशळसप लेवू की तरह उपद्रव मचा रही है ऐसा हमें लगता नहीं है। इसका कोई सार्थक और बेहतर पर्याय हो सकता है ऐसा हमें लगता नहीं है। | + | उपरिवर्णित ये सारे गृहीत युरोपीय शिक्षा की देन हैं। मूल धार्मिक स्वभाव, धार्मिक जीवनव्यवस्था, धार्मिक शैली के साथ इसका मेल नहीं बैठता है। परन्तु ये सारी बातें इतनी व्यापक और इतनी प्रभावी हो गई हैं कि अब ये हमारे पूरे राष्ट्रीय व्यक्तित्व में षोशळसप लेवू की तरह उपद्रव मचा रही है ऐसा हमें लगता नहीं है। इसका कोई सार्थक और बेहतर पर्याय हो सकता है ऐसा हमें लगता नहीं है। |
| | | |
| जब तंत्र के अन्दर रहकर ही विचार करना या उपायों के सम्बन्ध में सुझाव देना होता है तब वह तंत्र से ही बाधित हो जाता है। तंत्र अपने विरोध में सुझाव देने की अनुमति नहीं देता है । इसलिये यदि नये सिरे से विचार करना है तो ढाँचे से परे जाकर ही सोचना आवश्यक हो जाता है। | | जब तंत्र के अन्दर रहकर ही विचार करना या उपायों के सम्बन्ध में सुझाव देना होता है तब वह तंत्र से ही बाधित हो जाता है। तंत्र अपने विरोध में सुझाव देने की अनुमति नहीं देता है । इसलिये यदि नये सिरे से विचार करना है तो ढाँचे से परे जाकर ही सोचना आवश्यक हो जाता है। |
| | | |
| ==== २. राष्ट्रीय शिक्षा के प्रयास ==== | | ==== २. राष्ट्रीय शिक्षा के प्रयास ==== |
− | ऐसा नहीं है कि इस प्रकार से आज से पूर्व विचार नहीं किया गया है। उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध से न केवल विचार अपितु प्रयोग भी किये गये हैं, और वे भी बहुत प्रभावी ढंग से। जब भारत में ब्रिटिश शिक्षा का अधिकार प्रस्थापित हो गया तब अनेक बुद्धिमान, कर्तृत्ववान और राष्ट्रभक्त मनीषियों को शिक्षा के भारतीयकरण की अनिवार्य आवश्यकता लगने लगी और इस दिशा में प्रयास भी हुए । उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध से प्रारम्भ हुए इन प्रयासों का अत्यन्त संक्षेप में उल्लेख करना उपयुक्त रहेगा। | + | ऐसा नहीं है कि इस प्रकार से आज से पूर्व विचार नहीं किया गया है। उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध से न केवल विचार अपितु प्रयोग भी किये गये हैं, और वे भी बहुत प्रभावी ढंग से। जब भारत में ब्रिटिश शिक्षा का अधिकार प्रस्थापित हो गया तब अनेक बुद्धिमान, कर्तृत्ववान और राष्ट्रभक्त मनीषियों को शिक्षा के धार्मिककरण की अनिवार्य आवश्यकता लगने लगी और इस दिशा में प्रयास भी हुए । उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध से प्रारम्भ हुए इन प्रयासों का अत्यन्त संक्षेप में उल्लेख करना उपयुक्त रहेगा। |
| | | |
| ===== १. राजनारायण बसु''' :''' ===== | | ===== १. राजनारायण बसु''' :''' ===== |
− | ये श्री योगी अरविन्द के मातामह थे। प्रारम्भ में तो वे अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त कर पूर्ण रूप से युरोपीय शैली में रंगकर उसी प्रकार से जीवनयापन करते थे। परन्तु महर्षि देवेन्द्रनाथ ठाकुर के सम्पर्क में आने पर उनमें स्वदेशी चेतना जाग उठी और समाजजीवन में भारतीयता पुनः प्रस्थापित होने के लिये उन्हें शिक्षा के भारतीयकरण की आवश्यकता का अनुभव हुआ। उन्होंने स्वयं युरोपीय जीवनशैली का त्याग किया और भारतीय शिक्षा देने हेतु 'सोसाइटी फॉर प्रमोशन ऑफ नेशनल फीलींग अमंग दि एजुकेटेड नेटिव्झ ऑफ बंगाल - शिक्षित बंगालियों में राष्ट्रीय भावना संचारिणी संस्था - की स्थापना की। इस संस्था के माध्यम से उन्होंने मातृभाषा का, भारतीय खानपान, वेशभूषा सहित जीवनशैली का और भारतीय ज्ञान के सम्पादन का आग्रह शुरू किया। | + | ये श्री योगी अरविन्द के मातामह थे। प्रारम्भ में तो वे अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त कर पूर्ण रूप से युरोपीय शैली में रंगकर उसी प्रकार से जीवनयापन करते थे। परन्तु महर्षि देवेन्द्रनाथ ठाकुर के सम्पर्क में आने पर उनमें स्वदेशी चेतना जाग उठी और समाजजीवन में धार्मिकता पुनः प्रस्थापित होने के लिये उन्हें शिक्षा के धार्मिककरण की आवश्यकता का अनुभव हुआ। उन्होंने स्वयं युरोपीय जीवनशैली का त्याग किया और धार्मिक शिक्षा देने हेतु 'सोसाइटी फॉर प्रमोशन ऑफ नेशनल फीलींग अमंग दि एजुकेटेड नेटिव्झ ऑफ बंगाल - शिक्षित बंगालियों में राष्ट्रीय भावना संचारिणी संस्था - की स्थापना की। इस संस्था के माध्यम से उन्होंने मातृभाषा का, धार्मिक खानपान, वेशभूषा सहित जीवनशैली का और धार्मिक ज्ञान के सम्पादन का आग्रह शुरू किया। |
| | | |
| कुछ मात्रा में और कुछ समय तक उनका प्रभाव दिखाई दिया। | | कुछ मात्रा में और कुछ समय तक उनका प्रभाव दिखाई दिया। |
| | | |
| ===== '''२. गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर''' : ===== | | ===== '''२. गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर''' : ===== |
− | शान्तिनिकेतन, श्रीनिकेतन और विश्वभारती जैसी तीन असाधारण रूप से मौलिक और प्रभावी संस्थाओं के रूप में राष्ट्रीय शिक्षा की प्रतिष्ठा का प्रयास गुरुदेव का रहा। इसमें शान्तिनिकेतन सामान्य शिक्षा हेतु, श्रीनिकेतन उद्योगकेन्द्री ग्रामीण शिक्षा हेतु और विश्वभारती विश्वविद्यालय के रूप में चलाया गया। श्री गुरुदेव का दर्शन और शिक्षण योजना पूर्णरूप से भारतीय थे। प्रकृति का सान्निध्य, अनौपचारिक शिक्षा पद्धति, आनन्द और सौन्दर्यमय गतिविधियाँ और वैश्विक दृष्टि उनके शिक्षा प्रयोग के मूल तत्त्व थे। इन शिक्षा संस्थाओं को चलाने के लिये उन्होंने अपने ही संसाधनों का उपयोग किया । गुरुदेव को और इनकी संस्थाओं को आन्तर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त हुई। भारत में भी उन्हें श्रेष्ठ स्तर के सहयोगी प्राप्त हुए। देश के अग्रणी शिक्षाविदों को इन संस्थाओं ने पर्याप्त रूप से प्रभावित किया। | + | शान्तिनिकेतन, श्रीनिकेतन और विश्वभारती जैसी तीन असाधारण रूप से मौलिक और प्रभावी संस्थाओं के रूप में राष्ट्रीय शिक्षा की प्रतिष्ठा का प्रयास गुरुदेव का रहा। इसमें शान्तिनिकेतन सामान्य शिक्षा हेतु, श्रीनिकेतन उद्योगकेन्द्री ग्रामीण शिक्षा हेतु और विश्वभारती विश्वविद्यालय के रूप में चलाया गया। श्री गुरुदेव का दर्शन और शिक्षण योजना पूर्णरूप से धार्मिक थे। प्रकृति का सान्निध्य, अनौपचारिक शिक्षा पद्धति, आनन्द और सौन्दर्यमय गतिविधियाँ और वैश्विक दृष्टि उनके शिक्षा प्रयोग के मूल तत्त्व थे। इन शिक्षा संस्थाओं को चलाने के लिये उन्होंने अपने ही संसाधनों का उपयोग किया । गुरुदेव को और इनकी संस्थाओं को आन्तर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त हुई। भारत में भी उन्हें श्रेष्ठ स्तर के सहयोगी प्राप्त हुए। देश के अग्रणी शिक्षाविदों को इन संस्थाओं ने पर्याप्त रूप से प्रभावित किया। |
| | | |
| ===== '''३. श्री अरविन्द''' : ===== | | ===== '''३. श्री अरविन्द''' : ===== |
− | श्री अरविन्द पूर्ण रूप से अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त किये हुए व्यक्ति थे । परन्तु योगानुयोग, अथवा जिसे पूर्वजन्म के संस्कार भी कह सकते हैं, उनमें देशभक्ति की भावना प्रबल थी। अतः इंग्लैण्ड से शिक्षा पूर्ण करके वापस भारत आने पर वे बडौदा में महाराजा सयाजीराव गायकवाड के महाविद्यालय में प्राध्यापक और प्रिन्सिपल बने, बाद में कोलकता जाकर वहाँ नेशनल कालेज की स्थापना की । बाद में उन्होंने राष्ट्रीय शिक्षा परिषद की भी स्थापना की जिसके माध्यम से वे देशभर में राष्ट्रीय शिक्षा का प्रयास करना चाहते थे । परिषद के इन प्रयासों को उस समय की कोंग्रेस का भी समर्थन था और महाराष्ट्र से लोकमान्य तिलक और पंजाब से लाला लाजपतराय इस शिक्षापद्धति को समझने हेतु इसकी अखिल भारतीय बैठक में सहभागी हुए थे । इस प्रकार देश के विभिन्न भागों में राष्ट्रीय विद्यालयों एवं महाविद्यालयों की शृंखला का प्रारम्भ हुआ। | + | श्री अरविन्द पूर्ण रूप से अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त किये हुए व्यक्ति थे । परन्तु योगानुयोग, अथवा जिसे पूर्वजन्म के संस्कार भी कह सकते हैं, उनमें देशभक्ति की भावना प्रबल थी। अतः इंग्लैण्ड से शिक्षा पूर्ण करके वापस भारत आने पर वे बडौदा में महाराजा सयाजीराव गायकवाड के महाविद्यालय में प्राध्यापक और प्रिन्सिपल बने, बाद में कोलकता जाकर वहाँ नेशनल कालेज की स्थापना की । बाद में उन्होंने राष्ट्रीय शिक्षा परिषद की भी स्थापना की जिसके माध्यम से वे देशभर में राष्ट्रीय शिक्षा का प्रयास करना चाहते थे । परिषद के इन प्रयासों को उस समय की कोंग्रेस का भी समर्थन था और महाराष्ट्र से लोकमान्य तिलक और पंजाब से लाला लाजपतराय इस शिक्षापद्धति को समझने हेतु इसकी अखिल धार्मिक बैठक में सहभागी हुए थे । इस प्रकार देश के विभिन्न भागों में राष्ट्रीय विद्यालयों एवं महाविद्यालयों की शृंखला का प्रारम्भ हुआ। |
| | | |
| परन्तु बहुत जल्दी यह प्रयास सरकारी संस्थाओं की अनुकृति बनकर रह गया। श्री अरविन्द ने इस बात की भर्त्सना की, उसका त्याग किया और नये सिरे से राष्ट्रीय शिक्षा के विषय में चिन्तन शुरू किया। इस चिन्तन के परिपाक रूप उन्होंने 'राष्ट्रीय शिक्षा पद्धति' शीर्षक से लेख लिखे। शिक्षा के प्रयोगों के साथ साथ वे भारत की स्वतंत्रता हेतु क्रान्तिकारी आंदोलन में भी सहयोगी थे । इसी दौरान अंग्रेजों के द्वारा होने वाली गिरफ्तारी से बचने हेतु वे पोंडीचेरी चले गये। वहाँ उनके जीवन में बहुत बडा बदलाव आया । वे योगसाधना में रत हो गये । वहाँ उन्होंने श्री माताजी के साथ मिलकर शिक्षा के मौलिक प्रयोग चलाये जो आज भी चल रहे हैं। | | परन्तु बहुत जल्दी यह प्रयास सरकारी संस्थाओं की अनुकृति बनकर रह गया। श्री अरविन्द ने इस बात की भर्त्सना की, उसका त्याग किया और नये सिरे से राष्ट्रीय शिक्षा के विषय में चिन्तन शुरू किया। इस चिन्तन के परिपाक रूप उन्होंने 'राष्ट्रीय शिक्षा पद्धति' शीर्षक से लेख लिखे। शिक्षा के प्रयोगों के साथ साथ वे भारत की स्वतंत्रता हेतु क्रान्तिकारी आंदोलन में भी सहयोगी थे । इसी दौरान अंग्रेजों के द्वारा होने वाली गिरफ्तारी से बचने हेतु वे पोंडीचेरी चले गये। वहाँ उनके जीवन में बहुत बडा बदलाव आया । वे योगसाधना में रत हो गये । वहाँ उन्होंने श्री माताजी के साथ मिलकर शिक्षा के मौलिक प्रयोग चलाये जो आज भी चल रहे हैं। |
Line 64: |
Line 64: |
| | | |
| ===== '''६. महात्मा गांधी''' : ===== | | ===== '''६. महात्मा गांधी''' : ===== |
− | बुनियादी शिक्षा अथवा नई तालीम अथवा वर्धा योजना के नाम से ख्यात महात्मा गाँधी के शिक्षा के प्रयोग सर्वाधिक युगानुकूल थे । स्वदेशी तंत्र, ग्रामकेन्द्रित व्यवस्था, उद्योगप्रधान योजना, श्रमनिष्ठा, स्वावलम्बन और सादगीपूर्ण व्यवहार और पूर्ण भारतीय परिवेशयुक्त विद्यालयों और महाविद्यालयों की शृंखला उत्साहपूर्वक शुरू हुई, सन्निष्ठ प्रयासों से चली और अन्त में सरकारी शिक्षातंत्र में विलीन हो गई। आज भी ये विद्यालय चल रहे हैं। | + | बुनियादी शिक्षा अथवा नई तालीम अथवा वर्धा योजना के नाम से ख्यात महात्मा गाँधी के शिक्षा के प्रयोग सर्वाधिक युगानुकूल थे । स्वदेशी तंत्र, ग्रामकेन्द्रित व्यवस्था, उद्योगप्रधान योजना, श्रमनिष्ठा, स्वावलम्बन और सादगीपूर्ण व्यवहार और पूर्ण धार्मिक परिवेशयुक्त विद्यालयों और महाविद्यालयों की शृंखला उत्साहपूर्वक शुरू हुई, सन्निष्ठ प्रयासों से चली और अन्त में सरकारी शिक्षातंत्र में विलीन हो गई। आज भी ये विद्यालय चल रहे हैं। |
| | | |
| यहाँ तक के राष्ट्रीय शिक्षा के प्रयास स्वतन्त्रता पूर्व शुरू हुए थे और स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद भी चल रहे हैं। | | यहाँ तक के राष्ट्रीय शिक्षा के प्रयास स्वतन्त्रता पूर्व शुरू हुए थे और स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद भी चल रहे हैं। |
Line 70: |
Line 70: |
| स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भी राष्ट्रीय शिक्षा के प्रयास शुरू हुए और चल रहे हैं। | | स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भी राष्ट्रीय शिक्षा के प्रयास शुरू हुए और चल रहे हैं। |
| | | |
− | इनमें प्रमुख प्रयास है राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ प्रेरित शैक्षिक संगठनों का। विद्याभारती अखिल भारतीय शिक्षा संस्थान, भारतीय शिक्षण मण्डल, अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद, राष्ट्रीय शैक्षिक महासंघ, अखिल भारतीय इतिहास संकलन योजना, विज्ञान भारती, संस्कृत भारती जैसे कई संगठन शिक्षा के भारतीयकरण का प्रयास कर रहे हैं। ये सारे प्रयास अत्यन्त व्यापक, परिश्रमपूर्ण और निरन्तर चलने वाले हैं। देशभक्ति की भावना और समर्पण के आधार पर चल रहे हैं। | + | इनमें प्रमुख प्रयास है राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ प्रेरित शैक्षिक संगठनों का। विद्याभारती अखिल धार्मिक शिक्षा संस्थान, धार्मिक शिक्षण मण्डल, अखिल धार्मिक विद्यार्थी परिषद, राष्ट्रीय शैक्षिक महासंघ, अखिल धार्मिक इतिहास संकलन योजना, विज्ञान भारती, संस्कृत भारती जैसे कई संगठन शिक्षा के धार्मिककरण का प्रयास कर रहे हैं। ये सारे प्रयास अत्यन्त व्यापक, परिश्रमपूर्ण और निरन्तर चलने वाले हैं। देशभक्ति की भावना और समर्पण के आधार पर चल रहे हैं। |
| | | |
| इसके अलावा अनेक सामाजिक सांस्कृतिक संगठन, कई सुलझे हुए व्यक्ति भी अपनी अपनी पद्धति से राष्ट्रीय शिक्षा के प्रयास में लगे हुए हैं। | | इसके अलावा अनेक सामाजिक सांस्कृतिक संगठन, कई सुलझे हुए व्यक्ति भी अपनी अपनी पद्धति से राष्ट्रीय शिक्षा के प्रयास में लगे हुए हैं। |
Line 76: |
Line 76: |
| इस प्रकार सन् १८६६ में शुरू हुए राष्ट्रीय शिक्षा के प्रयास आज भी चल रहे हैं, परन्तु दुर्भाग्य से इनमें से एक भी भारत में राष्ट्रीय शिक्षा को देश की मुख्य धारा बनाने में सफल नहीं हुआ है। देश में आज भी ब्रिटिश शिक्षा ही अधिकृत रूप से चल रही है। | | इस प्रकार सन् १८६६ में शुरू हुए राष्ट्रीय शिक्षा के प्रयास आज भी चल रहे हैं, परन्तु दुर्भाग्य से इनमें से एक भी भारत में राष्ट्रीय शिक्षा को देश की मुख्य धारा बनाने में सफल नहीं हुआ है। देश में आज भी ब्रिटिश शिक्षा ही अधिकृत रूप से चल रही है। |
| | | |
− | आज यदि कोई पुनः राष्ट्रीय शिक्षा की योजना बनाना चाहता है तो उसे भारतीय शिक्षा के शुद्ध स्वरूप को, ब्रिटिश शिक्षा के मूल स्वरूप को, राष्ट्रीय शिक्षा की पुनःस्थापना के प्रयासों को एवं उनकी विफलताओं के कारणों को सही ढंग से जानना होगा ताकि योजना के क्रियान्वयन के समय उनसे बचा जाय । | + | आज यदि कोई पुनः राष्ट्रीय शिक्षा की योजना बनाना चाहता है तो उसे धार्मिक शिक्षा के शुद्ध स्वरूप को, ब्रिटिश शिक्षा के मूल स्वरूप को, राष्ट्रीय शिक्षा की पुनःस्थापना के प्रयासों को एवं उनकी विफलताओं के कारणों को सही ढंग से जानना होगा ताकि योजना के क्रियान्वयन के समय उनसे बचा जाय । |
| | | |
| ===== राष्ट्रीय शिक्षा के प्रयासों की विफलता के कारण ===== | | ===== राष्ट्रीय शिक्षा के प्रयासों की विफलता के कारण ===== |
− | १. सबसे पहला कारण तो यह था कि राष्ट्रीय शिक्षा के प्रयास बहुत विलंब से शुरू हुए। सन १७७३ से भारतीय शिक्षा के यूरोपीकरण के प्रयास शुरू हए और १८१३ में इण्डिया एज्युकेशन एक्ट, १८३५ में मेकाले की शिक्षानीति और १८५७ में मुंबई, कोलकता और मद्रास विश्वविद्यालयों की स्थापना के चरणों में ब्रिटिश शिक्षा भारत में दृढमूल हो गई, दो तीन पीढियों की शिक्षा उसमें हो गई उसके बाद सन् १८६६ में राष्ट्रीय शिक्षा के प्रयास शुरू हुए। डेढ सौ से भी अधिक वर्षों तक ब्रिटिश शिक्षा को नकारने का कोई प्रयास नहीं हुआ। | + | १. सबसे पहला कारण तो यह था कि राष्ट्रीय शिक्षा के प्रयास बहुत विलंब से शुरू हुए। सन १७७३ से धार्मिक शिक्षा के यूरोपीकरण के प्रयास शुरू हए और १८१३ में इण्डिया एज्युकेशन एक्ट, १८३५ में मेकाले की शिक्षानीति और १८५७ में मुंबई, कोलकता और मद्रास विश्वविद्यालयों की स्थापना के चरणों में ब्रिटिश शिक्षा भारत में दृढमूल हो गई, दो तीन पीढियों की शिक्षा उसमें हो गई उसके बाद सन् १८६६ में राष्ट्रीय शिक्षा के प्रयास शुरू हुए। डेढ सौ से भी अधिक वर्षों तक ब्रिटिश शिक्षा को नकारने का कोई प्रयास नहीं हुआ। |
| | | |
| २. राष्ट्रीय शिक्षा के प्रयासों को शासन का समर्थन नहीं था, यही नहीं तो शासन का विराध ही उन्हें सहना पडता था । इसलिये सर्वाधिक शक्ति शासन का विरोध सहने में ही खर्च होती थी। | | २. राष्ट्रीय शिक्षा के प्रयासों को शासन का समर्थन नहीं था, यही नहीं तो शासन का विराध ही उन्हें सहना पडता था । इसलिये सर्वाधिक शक्ति शासन का विरोध सहने में ही खर्च होती थी। |
Line 101: |
Line 101: |
| राष्ट्रीय होने पर ही वह सबके कल्याण की कारक बनती है। जब हम कहते हैं कि शिक्षा राष्ट्रीय होती है तब भी शिक्षित तो व्यक्ति को ही किया जाता है क्यों कि व्यक्तियों से ही राष्ट्र बनता है। शिक्षा राष्ट्रीय होनी चाहिये कहने का तात्पर्य यह है कि शिक्षा के माध्यम से व्यक्ति के विकास का सन्दर्भ राष्ट्रीय होता है। शिक्षा व्यक्ति को राष्ट्र का एक सुयोग्य नागरिक बनाती है। | | राष्ट्रीय होने पर ही वह सबके कल्याण की कारक बनती है। जब हम कहते हैं कि शिक्षा राष्ट्रीय होती है तब भी शिक्षित तो व्यक्ति को ही किया जाता है क्यों कि व्यक्तियों से ही राष्ट्र बनता है। शिक्षा राष्ट्रीय होनी चाहिये कहने का तात्पर्य यह है कि शिक्षा के माध्यम से व्यक्ति के विकास का सन्दर्भ राष्ट्रीय होता है। शिक्षा व्यक्ति को राष्ट्र का एक सुयोग्य नागरिक बनाती है। |
| | | |
− | परन्तु इस प्रकार के कथन करते समय अर्थों का व्यत्यय परेशान करता रहता है और कथन के अर्थ बदल देता है । जब हम राष्ट्रीय' शब्द का प्रयोग करते हैं तब फिर से 'राष्ट्र' शब्द के सही अर्थ को स्पष्ट करना आवश्यक बन जाता है। वर्तमान में राष्ट्र' शब्द का अर्थ 'देश' किया जाता है और सन्दर्भ राजस्व का और शासन का हो जाता है। उदाहरण के लिये 'राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसन्धान और प्रशिक्षण परिषद' में राष्ट्रीय शब्द सूचित करता है कि १. यह संस्था अखिल भारतीय स्वरूप की है और २. इसका संचालन केन्द्र सरकार द्वारा होता है। कभी कभी 'राष्ट्रीय' शब्द केवल 'अखिल भारतीय' अर्थ में भी प्रयुक्त होता है, जैसे कि किसी पक्ष के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिल भारतीय अध्यक्ष होते हैं, केन्द्र सरकार द्वारा निर्देशित नहीं । परन्तु जिस अर्थ में मनीषियों ने शिक्षा के भारतीयकरण के प्रयासों को राष्ट्रीय शिक्षा का आन्दोलन कहा था उसमें प्रयुक्त राष्ट्र' का तात्पर्य न 'अखिल भारतीय' है, न केन्द्र सरकार से सम्बन्धित' है। राष्ट्र को प्रजा, भूमि, जलवायु, संस्कृति और जीवनदर्शन के समुच्चय के रूप में स्वीकार किया गया है। शिक्षा राष्ट्रीय होनी चाहिये का द्विविध तात्पर्य है । १. शिक्षा जीवनदर्शनादि समुच्चय को पुष्ट करने वाली होनी चाहिये और २. शिक्षा व्यक्ति को इसके अनुकूल बनाने वाली होनी चाहिये । वर्तमान शिक्षा व्यक्ति की अपनी तरक्की को, अपने ही लक्ष्य की पूर्ति को सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण मानती है, व्यक्ति की आकांक्षायें, व्यवहार और लक्ष्य की पूर्ति के प्रयास राष्ट्रविरोधी हैं या राष्ट्र के अनुकूल बनकर उसे पुष्ट करने वाले हैं इसका विचार नहीं किया जाता है। हमें शिक्षा की पुनर्रचना कर उसे व्यक्तिनिष्ठ नहीं अपितु राष्ट्रनिष्ठ व्यक्ति का निर्माण करने वाली बनाना चाहिये। | + | परन्तु इस प्रकार के कथन करते समय अर्थों का व्यत्यय परेशान करता रहता है और कथन के अर्थ बदल देता है । जब हम राष्ट्रीय' शब्द का प्रयोग करते हैं तब फिर से 'राष्ट्र' शब्द के सही अर्थ को स्पष्ट करना आवश्यक बन जाता है। वर्तमान में राष्ट्र' शब्द का अर्थ 'देश' किया जाता है और सन्दर्भ राजस्व का और शासन का हो जाता है। उदाहरण के लिये 'राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसन्धान और प्रशिक्षण परिषद' में राष्ट्रीय शब्द सूचित करता है कि १. यह संस्था अखिल धार्मिक स्वरूप की है और २. इसका संचालन केन्द्र सरकार द्वारा होता है। कभी कभी 'राष्ट्रीय' शब्द केवल 'अखिल धार्मिक' अर्थ में भी प्रयुक्त होता है, जैसे कि किसी पक्ष के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिल धार्मिक अध्यक्ष होते हैं, केन्द्र सरकार द्वारा निर्देशित नहीं । परन्तु जिस अर्थ में मनीषियों ने शिक्षा के धार्मिककरण के प्रयासों को राष्ट्रीय शिक्षा का आन्दोलन कहा था उसमें प्रयुक्त राष्ट्र' का तात्पर्य न 'अखिल धार्मिक' है, न केन्द्र सरकार से सम्बन्धित' है। राष्ट्र को प्रजा, भूमि, जलवायु, संस्कृति और जीवनदर्शन के समुच्चय के रूप में स्वीकार किया गया है। शिक्षा राष्ट्रीय होनी चाहिये का द्विविध तात्पर्य है । १. शिक्षा जीवनदर्शनादि समुच्चय को पुष्ट करने वाली होनी चाहिये और २. शिक्षा व्यक्ति को इसके अनुकूल बनाने वाली होनी चाहिये । वर्तमान शिक्षा व्यक्ति की अपनी तरक्की को, अपने ही लक्ष्य की पूर्ति को सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण मानती है, व्यक्ति की आकांक्षायें, व्यवहार और लक्ष्य की पूर्ति के प्रयास राष्ट्रविरोधी हैं या राष्ट्र के अनुकूल बनकर उसे पुष्ट करने वाले हैं इसका विचार नहीं किया जाता है। हमें शिक्षा की पुनर्रचना कर उसे व्यक्तिनिष्ठ नहीं अपितु राष्ट्रनिष्ठ व्यक्ति का निर्माण करने वाली बनाना चाहिये। |
| | | |
| ===== '''२. साक्षरता और शिक्षितता में अन्तर है''' ===== | | ===== '''२. साक्षरता और शिक्षितता में अन्तर है''' ===== |
Line 123: |
Line 123: |
| | | |
| ==== '''४. शिक्षा के मंत्र, तंत्र और यंत्र''' ==== | | ==== '''४. शिक्षा के मंत्र, तंत्र और यंत्र''' ==== |
− | शिक्षा को भारतीय बनाने के लिये उसके मंत्र, तंत्र और यंत्र ‘देशानुकूल' और 'युगानुकूल' बनाने की आवश्यकता है। | + | शिक्षा को धार्मिक बनाने के लिये उसके मंत्र, तंत्र और यंत्र ‘देशानुकूल' और 'युगानुकूल' बनाने की आवश्यकता है। |
| | | |
| इस कथन में लगभग सभी संज्ञाओं की स्पष्टता होना आवश्यक है। | | इस कथन में लगभग सभी संज्ञाओं की स्पष्टता होना आवश्यक है। |
Line 141: |
Line 141: |
| इन तीनों व्यवस्थाओं को देशानुकूल बनाने की आवश्यकता होती है। विश्व के सभी देशों से, सभी संस्कृतियों से, सभी प्रजाओं से हमें उत्तम विचार, उत्तम व्यवस्थायें, उत्तम संकल्पनायें ग्रहण करनी चाहिये । हमारे जीवन को समृद्ध बनाने के लिये वह अत्यंत आवश्यक होता है। परन्तु ऐसा करते समय इस बात का ध्यान रखना चाहिये कि यह हमारी मूल, स्वभावगत व्यवस्था, पद्धति और जीवनदृष्टि से समरस होती है कि नहीं । यदि समरस नहीं होती है तो वह हानिकारक होती है। हानिकारक विचार या व्यवस्था को नहीं अपनाना ही श्रेयस्कर होता है। समरस होती है या नहीं होती है यह जानने के लिये हमारा उचित अनुचित को परखने का विवेक जाग्रत होना चाहिये । बाहर से आये विचारों और व्यवस्थाओं का हमारे विचारों और व्यवस्थाओं के साथ समरस होना हमारी आत्मसात् करने की शक्ति पर भी निर्भर करता है। | | इन तीनों व्यवस्थाओं को देशानुकूल बनाने की आवश्यकता होती है। विश्व के सभी देशों से, सभी संस्कृतियों से, सभी प्रजाओं से हमें उत्तम विचार, उत्तम व्यवस्थायें, उत्तम संकल्पनायें ग्रहण करनी चाहिये । हमारे जीवन को समृद्ध बनाने के लिये वह अत्यंत आवश्यक होता है। परन्तु ऐसा करते समय इस बात का ध्यान रखना चाहिये कि यह हमारी मूल, स्वभावगत व्यवस्था, पद्धति और जीवनदृष्टि से समरस होती है कि नहीं । यदि समरस नहीं होती है तो वह हानिकारक होती है। हानिकारक विचार या व्यवस्था को नहीं अपनाना ही श्रेयस्कर होता है। समरस होती है या नहीं होती है यह जानने के लिये हमारा उचित अनुचित को परखने का विवेक जाग्रत होना चाहिये । बाहर से आये विचारों और व्यवस्थाओं का हमारे विचारों और व्यवस्थाओं के साथ समरस होना हमारी आत्मसात् करने की शक्ति पर भी निर्भर करता है। |
| | | |
− | परन्तु वर्तमान स्थिति तो ऐसी है कि हमने अपने मंत्र, तंत्र और यंत्र सर्वथा त्याग दिये हैं और भारतीय जीवनदृष्टि से जो सर्वथा विपरीत है उसका स्वीकार किया है । यह पूर्ण रूप से अस्वाभाविक घटना है। किसी भी देश में ऐसा नहीं होता । कोई अपना सबकुछ छोडकर दूसरे का सबकुछ नहीं अपना लेता । परन्तु हम विगत सौ-डेढ सौ वर्षों से इस विदेशी मंत्र, तंत्र और यंत्र को ढो रहे हैं । इसलिये भारतीय शिक्षा की योजना करते समय इनको देशानुकूल बनाने का प्रश्न ही नहीं उठता, इनका त्याग करने की महान चुनौती ही हमारे सामने है। | + | परन्तु वर्तमान स्थिति तो ऐसी है कि हमने अपने मंत्र, तंत्र और यंत्र सर्वथा त्याग दिये हैं और धार्मिक जीवनदृष्टि से जो सर्वथा विपरीत है उसका स्वीकार किया है । यह पूर्ण रूप से अस्वाभाविक घटना है। किसी भी देश में ऐसा नहीं होता । कोई अपना सबकुछ छोडकर दूसरे का सबकुछ नहीं अपना लेता । परन्तु हम विगत सौ-डेढ सौ वर्षों से इस विदेशी मंत्र, तंत्र और यंत्र को ढो रहे हैं । इसलिये धार्मिक शिक्षा की योजना करते समय इनको देशानुकूल बनाने का प्रश्न ही नहीं उठता, इनका त्याग करने की महान चुनौती ही हमारे सामने है। |
| | | |
| आजकल किसी भी विषय में प्रासंगिकता (present relevance) का आग्रह रखा जाता है। वह ठीक भी है। इस प्रासंगिकता की संकल्पना को ही 'युगानुकूलता' की संकल्पना कहा जाता है। 'आधुनिकता' की संकल्पना के साथ इसका मेल है। आधुनिकता शब्द संस्कृत शब्द 'अधुना' से बना है। 'अधुना' का अर्थ है 'आज', 'अब' अथवा 'वर्तमान' में । अतः 'युगानुकूल' 'आधुनिक' ही है। जीवन, व्यक्तिगत हो या सामुदायिक, वर्तमान में ही जीया जाता है इसलिय वर्तमान का विचार करना ही सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है। परन्तु वर्तमान का सम्बन्ध भूत और भविष्य के साथ अनिवार्य रूप से होता है। भूतकाल का पूर्ण प्रभाव वर्तमान पर होता है और वर्तमान भविष्य के लिये नींव बनता है। भूत से वर्तमान में आते आते कई बातें परिवर्तित होती जाती हैं । यदि राष्ट्रजीवन स्वस्थ रहा तो यह परिवर्तन सहज स्वाभाविक रूप में होता रहता है और किसीको अखरता नहीं है। भारत का इतिहास इस प्रकार के अनेक परिवर्तनों का साक्षी है । परन्तु विभिन्न कारणों से जब राष्ट्रजीवन स्वस्थ नहीं रहता तब यह परिवर्तन अस्वाभाविक ढंग से होता है और उसमें स्वीकृति और अस्वीकृति के दो पक्ष निर्माण हो जाते हैं जिन्हें क्रम से सुधारक या आधुनिक और रूढिवादी या पुराणपंथी कहा जाता है। | | आजकल किसी भी विषय में प्रासंगिकता (present relevance) का आग्रह रखा जाता है। वह ठीक भी है। इस प्रासंगिकता की संकल्पना को ही 'युगानुकूलता' की संकल्पना कहा जाता है। 'आधुनिकता' की संकल्पना के साथ इसका मेल है। आधुनिकता शब्द संस्कृत शब्द 'अधुना' से बना है। 'अधुना' का अर्थ है 'आज', 'अब' अथवा 'वर्तमान' में । अतः 'युगानुकूल' 'आधुनिक' ही है। जीवन, व्यक्तिगत हो या सामुदायिक, वर्तमान में ही जीया जाता है इसलिय वर्तमान का विचार करना ही सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है। परन्तु वर्तमान का सम्बन्ध भूत और भविष्य के साथ अनिवार्य रूप से होता है। भूतकाल का पूर्ण प्रभाव वर्तमान पर होता है और वर्तमान भविष्य के लिये नींव बनता है। भूत से वर्तमान में आते आते कई बातें परिवर्तित होती जाती हैं । यदि राष्ट्रजीवन स्वस्थ रहा तो यह परिवर्तन सहज स्वाभाविक रूप में होता रहता है और किसीको अखरता नहीं है। भारत का इतिहास इस प्रकार के अनेक परिवर्तनों का साक्षी है । परन्तु विभिन्न कारणों से जब राष्ट्रजीवन स्वस्थ नहीं रहता तब यह परिवर्तन अस्वाभाविक ढंग से होता है और उसमें स्वीकृति और अस्वीकृति के दो पक्ष निर्माण हो जाते हैं जिन्हें क्रम से सुधारक या आधुनिक और रूढिवादी या पुराणपंथी कहा जाता है। |
Line 150: |
Line 150: |
| | | |
| ==== '''५. सर्वसमावेशक और व्यापक योजना की आवश्यकता''' ==== | | ==== '''५. सर्वसमावेशक और व्यापक योजना की आवश्यकता''' ==== |
− | शिक्षा के भारतीयकरण की योजना सर्वसमावेशक और व्यापक होनी चाहिये। | + | शिक्षा के धार्मिककरण की योजना सर्वसमावेशक और व्यापक होनी चाहिये। |
| | | |
− | यह एक व्यावहारिक प्रस्ताव है । वर्तमान में देश में शिक्षा के क्षेत्र में दो प्रवाह चल रहे हैं । एक है शासन द्वारा मान्य तंत्र वाला, युरोपीय ज्ञानविज्ञान को आधार रूप में स्वीकार करने के मंत्र वाला और भौतिक स्वरूप की साधनसामग्री को अनिवार्य मानने के यंत्र वाला 'मुख्य' प्रवाह और दूसरा भारतीय मंत्र, तंत्र और यंत्र की चाह रखने वाला और उस चाह को मूर्तरूप देने हेतु विभिन्न प्रकार के प्रयास करने वाला पर्यायी' प्रवाह । प्रथम प्रवाह मुख्य इसलिये है क्योंकि वह अधिकृत है, शासन द्वारा मान्य है, शासन द्वारा चलाया जाने वाला है। दूसरा प्रवाह इसलिये चलता है क्यों कि इस देश में ऐसे अनेक व्यक्ति, संस्थायें और संगठन हैं जिन्हें वर्तमान शिक्षा का स्वरूप बदलना है और संस्कार एवं संस्कृति के पक्ष को प्रभावी बनाना है । देशभर में चल रहे इन प्रयासों को यदि सम्मिलित करके देखा जाय तो यह बहुत बड़ा प्रवाह है। परन्तु यह प्रयास बिखरा हुआ है और एकांगी भी है। कहीं तो यह प्रयास तंत्र को वैसा का वैसा स्वीकार कर कुछ बातें - उदाहरण के लिये मूल्य शिक्षा - अपनी जोडना चाहता है, कहीं तो भारतीयता के लिये मानस बनाने का प्रयास करता है परन्तु और यंत्र लेकर प्रयोग करता है तो वह युगानुकूल नहीं होता, कहीं बहुत अच्छे प्रयोग व्यापक नहीं बन सकते । ये मोडेल तो होते हैं परन्तु व्यापक बनने की उनमें व्यवस्था नहीं होती। | + | यह एक व्यावहारिक प्रस्ताव है । वर्तमान में देश में शिक्षा के क्षेत्र में दो प्रवाह चल रहे हैं । एक है शासन द्वारा मान्य तंत्र वाला, युरोपीय ज्ञानविज्ञान को आधार रूप में स्वीकार करने के मंत्र वाला और भौतिक स्वरूप की साधनसामग्री को अनिवार्य मानने के यंत्र वाला 'मुख्य' प्रवाह और दूसरा धार्मिक मंत्र, तंत्र और यंत्र की चाह रखने वाला और उस चाह को मूर्तरूप देने हेतु विभिन्न प्रकार के प्रयास करने वाला पर्यायी' प्रवाह । प्रथम प्रवाह मुख्य इसलिये है क्योंकि वह अधिकृत है, शासन द्वारा मान्य है, शासन द्वारा चलाया जाने वाला है। दूसरा प्रवाह इसलिये चलता है क्यों कि इस देश में ऐसे अनेक व्यक्ति, संस्थायें और संगठन हैं जिन्हें वर्तमान शिक्षा का स्वरूप बदलना है और संस्कार एवं संस्कृति के पक्ष को प्रभावी बनाना है । देशभर में चल रहे इन प्रयासों को यदि सम्मिलित करके देखा जाय तो यह बहुत बड़ा प्रवाह है। परन्तु यह प्रयास बिखरा हुआ है और एकांगी भी है। कहीं तो यह प्रयास तंत्र को वैसा का वैसा स्वीकार कर कुछ बातें - उदाहरण के लिये मूल्य शिक्षा - अपनी जोडना चाहता है, कहीं तो धार्मिकता के लिये मानस बनाने का प्रयास करता है परन्तु और यंत्र लेकर प्रयोग करता है तो वह युगानुकूल नहीं होता, कहीं बहुत अच्छे प्रयोग व्यापक नहीं बन सकते । ये मोडेल तो होते हैं परन्तु व्यापक बनने की उनमें व्यवस्था नहीं होती। |
| | | |
− | शिक्षा के भारतीयकरण या राष्ट्रीयकरण का मिशन इस प्रकार के प्रयोगों, गतिविधियों या आंदोलनों, अभियानों से सफल होने की संभावना नहीं है। यह मिशन सफल तभी होगा जब | + | शिक्षा के धार्मिककरण या राष्ट्रीयकरण का मिशन इस प्रकार के प्रयोगों, गतिविधियों या आंदोलनों, अभियानों से सफल होने की संभावना नहीं है। यह मिशन सफल तभी होगा जब |
| # विश्व के, अपने देश के और शिक्षा के वर्तमान संकटों को ठीक से पहचानने का प्रयास होगा; | | # विश्व के, अपने देश के और शिक्षा के वर्तमान संकटों को ठीक से पहचानने का प्रयास होगा; |
− | # भारतीयता या राष्ट्रीयता की संकल्पना को स्पष्ट रूप से व्याख्यायित करने का प्रयास होगा; | + | # धार्मिकता या राष्ट्रीयता की संकल्पना को स्पष्ट रूप से व्याख्यायित करने का प्रयास होगा; |
| # जब मंत्र, तंत्र और यंत्र को एक साथ विचारणीय विषय बनाकर उन सबमें परिवर्तन करने का प्रयास होगा; | | # जब मंत्र, तंत्र और यंत्र को एक साथ विचारणीय विषय बनाकर उन सबमें परिवर्तन करने का प्रयास होगा; |
| # जब जीवनदृष्टि और शिक्षादृष्टि का समन्वय कर उसे पूर्णरूप से परिष्कृत करने का प्रयास होगा; | | # जब जीवनदृष्टि और शिक्षादृष्टि का समन्वय कर उसे पूर्णरूप से परिष्कृत करने का प्रयास होगा; |
| # जब पूरे देश के लिये एक प्रतिमान बनाने का प्रयास होगा; | | # जब पूरे देश के लिये एक प्रतिमान बनाने का प्रयास होगा; |
| # जब इस प्रतिमान का विचार वैश्विक और क्रियान्वयन स्थानिक स्वरूप का हो सके इतना लचीला होगा; | | # जब इस प्रतिमान का विचार वैश्विक और क्रियान्वयन स्थानिक स्वरूप का हो सके इतना लचीला होगा; |
− | # जब शिक्षा के भारतीयकरण के अवरोधक तत्त्वों को पहचानकर उनके साथ सार्थक संवाद कर उन्हें प्रभावित करने का सामर्थ्य जुटाने का प्रयास होगा; | + | # जब शिक्षा के धार्मिककरण के अवरोधक तत्त्वों को पहचानकर उनके साथ सार्थक संवाद कर उन्हें प्रभावित करने का सामर्थ्य जुटाने का प्रयास होगा; |
| # जब स्थान स्थान पर इसका क्रियान्वयन करने की क्षमता वाले समूह निर्माण करने का प्रयास होगा; | | # जब स्थान स्थान पर इसका क्रियान्वयन करने की क्षमता वाले समूह निर्माण करने का प्रयास होगा; |
| # जब इसे समाज की मान्यता प्राप्त करवाने का प्रयास होगा; | | # जब इसे समाज की मान्यता प्राप्त करवाने का प्रयास होगा; |
Line 167: |
Line 167: |
| | | |
| ==== '''६. दीर्घकालीन योजना की आवश्यकता''' ==== | | ==== '''६. दीर्घकालीन योजना की आवश्यकता''' ==== |
− | शिक्षा के भारतीयकरण की योजना दीर्घकालीन होना भी अत्यंत आवश्यक है। | + | शिक्षा के धार्मिककरण की योजना दीर्घकालीन होना भी अत्यंत आवश्यक है। |
| | | |
| भारत में शिक्षा का प्रश्न बुरी तरह से उलझा हुआ है। इस प्रश्न के कई पहलू हैं, जैसे कि | | भारत में शिक्षा का प्रश्न बुरी तरह से उलझा हुआ है। इस प्रश्न के कई पहलू हैं, जैसे कि |
| # इस प्रश्न को उलझते उलझते वर्तमान स्थिति में पहुँचने तक लगभग दो सौ वर्ष हुए हैं। इसलिये उलझने की इस प्रक्रिया को समझने में समय लगेगा। | | # इस प्रश्न को उलझते उलझते वर्तमान स्थिति में पहुँचने तक लगभग दो सौ वर्ष हुए हैं। इसलिये उलझने की इस प्रक्रिया को समझने में समय लगेगा। |
− | # अंग्रेजों ने भारतीय शिक्षा के मंत्र और तंत्र को पूर्ण रूप से नष्ट कर दिया है। इस विनाश का स्वरूप समझने में भी समय लगेगा। | + | # अंग्रेजों ने धार्मिक शिक्षा के मंत्र और तंत्र को पूर्ण रूप से नष्ट कर दिया है। इस विनाश का स्वरूप समझने में भी समय लगेगा। |
| # अंग्रेजों ने न केवल इसे नष्ट किया, अपितु उसके स्थान पर अपना मंत्र और तंत्र भी प्रस्थापित कर दिया है। | | # अंग्रेजों ने न केवल इसे नष्ट किया, अपितु उसके स्थान पर अपना मंत्र और तंत्र भी प्रस्थापित कर दिया है। |
| # इस युरोपीय मंत्र और तंत्र में शिक्षा प्राप्त करते हुए भारत की लगभग दस पीढियाँ बीती हैं। इसके परिणामस्वरूप यह अपने राष्ट्रशरीर के मानो जेहन में उतर गया है। पूरा देश इसी मंत्र और तंत्र के अनुसार चलने लगा है। इस तथ्य को समझने और पहचानने में और उससे बाहर निकलने की आवश्यकता को महसूस करने में भी समय लगेगा। | | # इस युरोपीय मंत्र और तंत्र में शिक्षा प्राप्त करते हुए भारत की लगभग दस पीढियाँ बीती हैं। इसके परिणामस्वरूप यह अपने राष्ट्रशरीर के मानो जेहन में उतर गया है। पूरा देश इसी मंत्र और तंत्र के अनुसार चलने लगा है। इस तथ्य को समझने और पहचानने में और उससे बाहर निकलने की आवश्यकता को महसूस करने में भी समय लगेगा। |
Line 178: |
Line 178: |
| | | |
| ==== '''७. विभिन्न शैक्षिक पहलुओं का एक साथ विचार''' ==== | | ==== '''७. विभिन्न शैक्षिक पहलुओं का एक साथ विचार''' ==== |
− | शिक्षा के भारतीयकरण की किसी भी योजना का विचार करते समय अनेक बातों का एक साथ विचार करना होगा। प्रमुखरूप से यह पूर्ण शिक्षातंत्र के शैक्षिक पहलू के सम्बन्ध में होगा। | + | शिक्षा के धार्मिककरण की किसी भी योजना का विचार करते समय अनेक बातों का एक साथ विचार करना होगा। प्रमुखरूप से यह पूर्ण शिक्षातंत्र के शैक्षिक पहलू के सम्बन्ध में होगा। |
| | | |
| ===== '''१. अध्ययन एवं अनुसन्धान''' ===== | | ===== '''१. अध्ययन एवं अनुसन्धान''' ===== |
− | भारतीय ज्ञानधारा को समझने के लिये यह धारा जिसमें निरूपित हुई है ऐसे शास्त्रग्रंथों के व्यापक अध्ययन की योजना बनानी होगी। साथ ही उस ज्ञानधारा को पुनर्प्रवाहित करने के लिये, उसे पुष्ट बनाने के लिये, उसे युगानुकूल बनाने के लिये विशेष प्रकार के विमर्श की आवश्यकता रहेगी। इस दृष्टि से अध्ययन एवं अनुसन्धान की विशिष्ट पद्धतियाँ विकसित करनी होंगी। वर्तमान वैश्विक सन्दर्भ में उनका नये सिरे से निरूपण करना होगा । हमारे निरूपण के लिये प्रमाणभूत सिद्धान्त कौनसे हैं यह भी तय करना होगा।
| + | धार्मिक ज्ञानधारा को समझने के लिये यह धारा जिसमें निरूपित हुई है ऐसे शास्त्रग्रंथों के व्यापक अध्ययन की योजना बनानी होगी। साथ ही उस ज्ञानधारा को पुनर्प्रवाहित करने के लिये, उसे पुष्ट बनाने के लिये, उसे युगानुकूल बनाने के लिये विशेष प्रकार के विमर्श की आवश्यकता रहेगी। इस दृष्टि से अध्ययन एवं अनुसन्धान की विशिष्ट पद्धतियाँ विकसित करनी होंगी। वर्तमान वैश्विक सन्दर्भ में उनका नये सिरे से निरूपण करना होगा । हमारे निरूपण के लिये प्रमाणभूत सिद्धान्त कौनसे हैं यह भी तय करना होगा। |
| | | |
| ===== '''२. पाठ्यक्रमनिर्माण''' ===== | | ===== '''२. पाठ्यक्रमनिर्माण''' ===== |
Line 196: |
Line 196: |
| | | |
| ===== '''४. शिक्षा को पुनर्व्याख्यायित करना''' ===== | | ===== '''४. शिक्षा को पुनर्व्याख्यायित करना''' ===== |
− | शिक्षा को ही पुनर्व्याख्यायित करना चाहिये । शिक्षाशास्त्र के अन्तर्गत शिक्षा की परिभाषा, शिक्षादर्शन, शिक्षामनोविज्ञान, पाठनपद्धति, मूल्यांकन, पाठ्यक्रमनिर्माण आदि के सिद्धान्तों में आमूल परिवर्तन करना पडेगा । तभी विद्यालयों एवं महाविद्यालयों की शिक्षाप्रक्रिया बदलेगी और तभी शिक्षा का भारतीयकरण सम्भव होगा। | + | शिक्षा को ही पुनर्व्याख्यायित करना चाहिये । शिक्षाशास्त्र के अन्तर्गत शिक्षा की परिभाषा, शिक्षादर्शन, शिक्षामनोविज्ञान, पाठनपद्धति, मूल्यांकन, पाठ्यक्रमनिर्माण आदि के सिद्धान्तों में आमूल परिवर्तन करना पडेगा । तभी विद्यालयों एवं महाविद्यालयों की शिक्षाप्रक्रिया बदलेगी और तभी शिक्षा का धार्मिककरण सम्भव होगा। |
| | | |
| स्वामी विवेकानन्द की शिक्षाविषयक दो प्रसिद्ध उक्तियों को उचित सन्दर्भ में हम ले सकते हैं। | | स्वामी विवेकानन्द की शिक्षाविषयक दो प्रसिद्ध उक्तियों को उचित सन्दर्भ में हम ले सकते हैं। |
Line 207: |
Line 207: |
| | | |
| ==== '''८. क्रियान्वयन की दिशा में प्रयास''' ==== | | ==== '''८. क्रियान्वयन की दिशा में प्रयास''' ==== |
− | शिक्षा के भारतीयकरण का वैचारिक पक्ष ठीक करने के बाद उसके क्रियान्वयन की दिशा में भी प्रयास करना होगा । इस दृष्टि से भी कुछ विचार इस प्रकार से किया जा सकता है। | + | शिक्षा के धार्मिककरण का वैचारिक पक्ष ठीक करने के बाद उसके क्रियान्वयन की दिशा में भी प्रयास करना होगा । इस दृष्टि से भी कुछ विचार इस प्रकार से किया जा सकता है। |
| | | |
| ===== '''१. संगठित और व्यापक प्रयास''' ===== | | ===== '''१. संगठित और व्यापक प्रयास''' ===== |
Line 213: |
Line 213: |
| | | |
| ===== '''२. वैचारिक समानसूत्रता''' ===== | | ===== '''२. वैचारिक समानसूत्रता''' ===== |
− | जैसे पूर्व में उल्लेख हआ है देशभर में अभी व्यक्तिगत रूप से, स्थानीय स्वरूप के, कहीं कहीं संस्थागत स्वरूप में भी शिक्षा के भारतीयकरण के प्रयास हो रहे हैं। वे सब ज्ञानात्मक, परिश्रमपूर्ण, सन्निष्ठ और प्रामाणिक हैं। परन्तु उनका प्रयास सम्मिलित और संगठित नहीं होने से उनका प्रभाव शासन पर या शासन द्वारा नियन्त्रित शिक्षाक्षेत्र पर नहीं होता । परिणामतः वे कुछ मात्रा में अच्छी शिक्षा तो देते हैं, कुछ लोगों का भला भी करते हैं परन्तु विदेशी शिक्षातन्त्र का ही उपकार करते हैं और सांस्कृतिक गुलामी की बेडियों को और मजबूत बनाते हैं। अतः इन सभी प्रयासों को एक वैचारिक समान सूत्र में पिरोने की ठोस योजना बननी चाहिये। | + | जैसे पूर्व में उल्लेख हआ है देशभर में अभी व्यक्तिगत रूप से, स्थानीय स्वरूप के, कहीं कहीं संस्थागत स्वरूप में भी शिक्षा के धार्मिककरण के प्रयास हो रहे हैं। वे सब ज्ञानात्मक, परिश्रमपूर्ण, सन्निष्ठ और प्रामाणिक हैं। परन्तु उनका प्रयास सम्मिलित और संगठित नहीं होने से उनका प्रभाव शासन पर या शासन द्वारा नियन्त्रित शिक्षाक्षेत्र पर नहीं होता । परिणामतः वे कुछ मात्रा में अच्छी शिक्षा तो देते हैं, कुछ लोगों का भला भी करते हैं परन्तु विदेशी शिक्षातन्त्र का ही उपकार करते हैं और सांस्कृतिक गुलामी की बेडियों को और मजबूत बनाते हैं। अतः इन सभी प्रयासों को एक वैचारिक समान सूत्र में पिरोने की ठोस योजना बननी चाहिये। |
| | | |
| ===== '''३. मुक्त संगठन''' ===== | | ===== '''३. मुक्त संगठन''' ===== |
− | ऐसी एकसूत्रता लाने के लिये देशभर में मुक्त संगठन की संकल्पना विकसित करने की आवश्यकता है। संगठन का स्वरूप संस्था से भिन्न होता है। संस्था में होते हैं उस प्रकार के वैधानिक नियम संगठन में नहीं होते । संगठन के जो अंगभूत घटक होते हैं उनमें नियमों का स्वेच्छा से पालन करने की वृत्ति और क्रियान्वयन में विवेक की न केवल अपेक्षा अपितु विश्वास होता है । ऐसी मुक्तता में भी समरूपता और समरसता होना भारतीय मानस को अपरिचित नहीं है। इतिहास में ऐसे उदाहरण हमें मिलते हैं - | + | ऐसी एकसूत्रता लाने के लिये देशभर में मुक्त संगठन की संकल्पना विकसित करने की आवश्यकता है। संगठन का स्वरूप संस्था से भिन्न होता है। संस्था में होते हैं उस प्रकार के वैधानिक नियम संगठन में नहीं होते । संगठन के जो अंगभूत घटक होते हैं उनमें नियमों का स्वेच्छा से पालन करने की वृत्ति और क्रियान्वयन में विवेक की न केवल अपेक्षा अपितु विश्वास होता है । ऐसी मुक्तता में भी समरूपता और समरसता होना धार्मिक मानस को अपरिचित नहीं है। इतिहास में ऐसे उदाहरण हमें मिलते हैं - |
| | | |
| (१) आज से कम से कम ढाई हजार वर्ष पूर्व देश में हिन्दू धर्म विकृति की कगार पर पहुंचा था और यज्ञ के नामपर हिंसा और पूजा, भक्ति के नाम पर रूढि और कर्मकाण्ड का आडम्बर बढ गया था तब भगवान शंकराचार्य ने देशभर में भ्रमण कर, स्थान स्थान पर शास्त्रार्थ कर, रूढियों को त्याग कर, बदलकर या नवनिर्माण कर, विरोधियों को शान्त कर, अनुकूल बनाकर अथवा परास्त कर हिन्दू धर्म को सुव्यवस्थित करने का काम किया और इस व्यवस्था को जनमानस में इस प्रकार उतारा कि आज भी सर्वसामान्य लोग उसी व्यवस्था में चलते हैं । उस समय के बनाये हुए नियमों का पालन स्वैच्छिक है, उनके भंग के लिये कोई दण्डविधान नहीं है फिर भी उनका पालन करने में ही प्रजा अपना श्रेय मानती है। यह मुक्त संगठन का अद्भुत उदाहरण है। | | (१) आज से कम से कम ढाई हजार वर्ष पूर्व देश में हिन्दू धर्म विकृति की कगार पर पहुंचा था और यज्ञ के नामपर हिंसा और पूजा, भक्ति के नाम पर रूढि और कर्मकाण्ड का आडम्बर बढ गया था तब भगवान शंकराचार्य ने देशभर में भ्रमण कर, स्थान स्थान पर शास्त्रार्थ कर, रूढियों को त्याग कर, बदलकर या नवनिर्माण कर, विरोधियों को शान्त कर, अनुकूल बनाकर अथवा परास्त कर हिन्दू धर्म को सुव्यवस्थित करने का काम किया और इस व्यवस्था को जनमानस में इस प्रकार उतारा कि आज भी सर्वसामान्य लोग उसी व्यवस्था में चलते हैं । उस समय के बनाये हुए नियमों का पालन स्वैच्छिक है, उनके भंग के लिये कोई दण्डविधान नहीं है फिर भी उनका पालन करने में ही प्रजा अपना श्रेय मानती है। यह मुक्त संगठन का अद्भुत उदाहरण है। |
Line 224: |
Line 224: |
| वास्तव में भारत की संन्यासी संस्था इस मुक्त संगठन की सूत्रधार रही है। संन्यासी का धर्म है अटन करना और लोकहित की एकमात्र आकांक्षा से लोकसंपर्क करना । इस देश का यह स्वभाव रहा है। इस प्रकार के संगठन की शक्ति का मूल स्रोत है त्याग, तपश्चर्या और अभिनिवेशशून्यता । आध्यात्मिक शक्ति के यही स्रोत हैं और इस आध्यात्मिक शक्ति का प्रभाव अन्य अनेक प्रकार की शक्तियों से अधिक होता है यह तो विश्व के अनुभव की बात है। | | वास्तव में भारत की संन्यासी संस्था इस मुक्त संगठन की सूत्रधार रही है। संन्यासी का धर्म है अटन करना और लोकहित की एकमात्र आकांक्षा से लोकसंपर्क करना । इस देश का यह स्वभाव रहा है। इस प्रकार के संगठन की शक्ति का मूल स्रोत है त्याग, तपश्चर्या और अभिनिवेशशून्यता । आध्यात्मिक शक्ति के यही स्रोत हैं और इस आध्यात्मिक शक्ति का प्रभाव अन्य अनेक प्रकार की शक्तियों से अधिक होता है यह तो विश्व के अनुभव की बात है। |
| | | |
− | शिक्षा के भारतीयकरण की योजना में इस प्रकार के आध्यात्मिक स्वरूप की, त्याग, तपश्चर्या और अभिनिवेशशून्यता की दखल लेना अनिवार्य है। | + | शिक्षा के धार्मिककरण की योजना में इस प्रकार के आध्यात्मिक स्वरूप की, त्याग, तपश्चर्या और अभिनिवेशशून्यता की दखल लेना अनिवार्य है। |
| | | |
| ===== '''४. सामान्य जन का सामान्य ज्ञान''' ===== | | ===== '''४. सामान्य जन का सामान्य ज्ञान''' ===== |
− | इस प्रयास को व्यापक बनाने में सामान्यजन का सामान्य ज्ञान बहुत उपयोगी सिद्ध होगा। भारतीय ज्ञानधारा अभी भी अशिक्षित, ग्रामीण, दो पीढी पूर्व के भारतीयों में सुरक्षित है। यह धारा क्षीण और उपेक्षित है। उसमें विज्ञापनबाजी की मुखरता और श्रेष्ठकनिष्ठ के विवेक की चुभने वाली धार नहीं है परन्तु उसका अस्तित्व मिट नहीं गया है। उस देशीय ज्ञान को भारतीयकरण के प्रयास में सम्मान का स्थान देकर सम्मिलित करने की आवश्यकता है। यह ज्ञान तकनीकी, औषधिविज्ञान, स्थापत्य, शिल्प, उद्योग, वाणिज्य, रीतिरिवाज, सामाजिक व्यवहार, कृषि आदि सभी क्षेत्रों में है। इसका अल्पसा परिचय भी हमें विस्मय से भर देने वाला होगा इसमें सन्देह नहीं है । अतः आज की 'अपरिचयात् अवज्ञा' की स्थिति को बदलने की आवश्यकता है। | + | इस प्रयास को व्यापक बनाने में सामान्यजन का सामान्य ज्ञान बहुत उपयोगी सिद्ध होगा। धार्मिक ज्ञानधारा अभी भी अशिक्षित, ग्रामीण, दो पीढी पूर्व के धार्मिकों में सुरक्षित है। यह धारा क्षीण और उपेक्षित है। उसमें विज्ञापनबाजी की मुखरता और श्रेष्ठकनिष्ठ के विवेक की चुभने वाली धार नहीं है परन्तु उसका अस्तित्व मिट नहीं गया है। उस देशीय ज्ञान को धार्मिककरण के प्रयास में सम्मान का स्थान देकर सम्मिलित करने की आवश्यकता है। यह ज्ञान तकनीकी, औषधिविज्ञान, स्थापत्य, शिल्प, उद्योग, वाणिज्य, रीतिरिवाज, सामाजिक व्यवहार, कृषि आदि सभी क्षेत्रों में है। इसका अल्पसा परिचय भी हमें विस्मय से भर देने वाला होगा इसमें सन्देह नहीं है । अतः आज की 'अपरिचयात् अवज्ञा' की स्थिति को बदलने की आवश्यकता है। |
| | | |
| ==== '''९. चरणबद्ध योजना''' ==== | | ==== '''९. चरणबद्ध योजना''' ==== |
− | शिक्षा के भारतीयकरण की यह प्रक्रिया सरल नहीं है। जल्दी सिद्ध होने वाली भी नहीं है। इतने विविध पहलू इसमें जुड़े हुए हैं कि उन्हें एक एक करके समझने में समय लगेगा। विद्वज्जनों का समन्वित प्रयास, मूलगत (पीपवराशपीरश्र) अनुसन्धान, शास्त्रग्रन्थों का युगानुकूल रूपान्तरण, वर्तमान आवश्यकताओं के अनुरूप साहित्य निर्माण, जनमानस प्रबोधन, शासन पर प्रभाव, अर्थव्यवस्था का पुनर्विचार, शिक्षक निर्मिति आदि अनेक पहलू हैं जो पर्याप्त धैर्य और परिश्रम की अपेक्षा करते हैं। अतः इस योजना को फलवती होने के लिये पर्याप्त समय देना चाहिये। | + | शिक्षा के धार्मिककरण की यह प्रक्रिया सरल नहीं है। जल्दी सिद्ध होने वाली भी नहीं है। इतने विविध पहलू इसमें जुड़े हुए हैं कि उन्हें एक एक करके समझने में समय लगेगा। विद्वज्जनों का समन्वित प्रयास, मूलगत (पीपवराशपीरश्र) अनुसन्धान, शास्त्रग्रन्थों का युगानुकूल रूपान्तरण, वर्तमान आवश्यकताओं के अनुरूप साहित्य निर्माण, जनमानस प्रबोधन, शासन पर प्रभाव, अर्थव्यवस्था का पुनर्विचार, शिक्षक निर्मिति आदि अनेक पहलू हैं जो पर्याप्त धैर्य और परिश्रम की अपेक्षा करते हैं। अतः इस योजना को फलवती होने के लिये पर्याप्त समय देना चाहिये। |
| | | |
| किसी भी बड़े कार्य को सिद्ध होने में तीन पीढियों का समय लगता है ऐसा हमारा इतिहास दर्शाता है। सुप्रसिद्ध उदाहरण भगवती गंगा को पृथ्वी पर लाने के प्रयास का है। राजा भगीरथ गंगा को पृथ्वी पर ले आये, परन्तु गंगा को पृथ्वी पर लाने हेतु तपश्चर्या भगीरथ के पितामह ने शुरू की थी और पिता ने चालू रखी थी। शिक्षा योजना को भी फलवती होने में तीन पीढियाँ अथवा साठ वर्षों का समय हम कल्पित कर सकते हैं। | | किसी भी बड़े कार्य को सिद्ध होने में तीन पीढियों का समय लगता है ऐसा हमारा इतिहास दर्शाता है। सुप्रसिद्ध उदाहरण भगवती गंगा को पृथ्वी पर लाने के प्रयास का है। राजा भगीरथ गंगा को पृथ्वी पर ले आये, परन्तु गंगा को पृथ्वी पर लाने हेतु तपश्चर्या भगीरथ के पितामह ने शुरू की थी और पिता ने चालू रखी थी। शिक्षा योजना को भी फलवती होने में तीन पीढियाँ अथवा साठ वर्षों का समय हम कल्पित कर सकते हैं। |
Line 239: |
Line 239: |
| महाभारत के युद्ध में दोनों पक्षों को मिलाकर बहत बडा विनाश हुआ था। सर्वत्र अवसाद था। सर्वत्र अनवस्था थी। जनजीवन उध्वस्त हो गया था। उसी समय युगपरिवर्तन हुआ और कलियुग का प्रारम्भ हुआ। युगपरिवर्तन के प्रभाव से लोगों की शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक शक्तियों का भी ह्रास हुआ। इस अनवस्था को सुव्यवस्था में बदलने के लिये एक महान प्रयास की आवश्यकता थी। ऐसा महान प्रयास नैमिषारण्य में हुआ। नैमिषारण्य में आचार्य शौनक का गुरुकुल था । वे कुलपति थे। उन्होंने भारतवर्ष के कोने कोने से विद्वज्जनों को आमन्त्रित किया । देशभर से अठासी हजार ऋषि उनके गुरुकुल में आये । कुलपति शौनक के संयोजकत्व में बारह वर्ष तक ज्ञानयज्ञ चला । बारह वर्षों में उन विद्वज्जनों ने समस्या पहचानने का, मूल तत्त्वों को समझने का और व्यावहारिक निराकरण के निरूपण का कार्य किया। बाद में वे देश के कोने कोने में फैल गये और लोगों का प्रबोधन और शिक्षण किया और युग के अनुकूल व्यवस्थायें बनीं। | | महाभारत के युद्ध में दोनों पक्षों को मिलाकर बहत बडा विनाश हुआ था। सर्वत्र अवसाद था। सर्वत्र अनवस्था थी। जनजीवन उध्वस्त हो गया था। उसी समय युगपरिवर्तन हुआ और कलियुग का प्रारम्भ हुआ। युगपरिवर्तन के प्रभाव से लोगों की शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक शक्तियों का भी ह्रास हुआ। इस अनवस्था को सुव्यवस्था में बदलने के लिये एक महान प्रयास की आवश्यकता थी। ऐसा महान प्रयास नैमिषारण्य में हुआ। नैमिषारण्य में आचार्य शौनक का गुरुकुल था । वे कुलपति थे। उन्होंने भारतवर्ष के कोने कोने से विद्वज्जनों को आमन्त्रित किया । देशभर से अठासी हजार ऋषि उनके गुरुकुल में आये । कुलपति शौनक के संयोजकत्व में बारह वर्ष तक ज्ञानयज्ञ चला । बारह वर्षों में उन विद्वज्जनों ने समस्या पहचानने का, मूल तत्त्वों को समझने का और व्यावहारिक निराकरण के निरूपण का कार्य किया। बाद में वे देश के कोने कोने में फैल गये और लोगों का प्रबोधन और शिक्षण किया और युग के अनुकूल व्यवस्थायें बनीं। |
| | | |
− | आज भी इस प्रकार से असंख्य विद्वज्जनों को सम्मिलित कर ज्ञानयज्ञ करने की । आवश्यकता है। अध्ययन, चिन्तन, मनन, विमर्श, अनुसन्धान आदि कार्य देशभर में चले ऐसा कोई उपाय करने की आवश्यकता है। परा कोटि के तात्त्विक से लेकर छोटी से छोटी व्यावहारिक बातों तक का विमर्श कर वर्तमान सन्दर्भ में उपयुक्त ऐसा भारतीय शिक्षा का प्रतिमान तैयार करने की आवश्यकता है। बारह वर्षों का यह प्रथम चरण होगा। | + | आज भी इस प्रकार से असंख्य विद्वज्जनों को सम्मिलित कर ज्ञानयज्ञ करने की । आवश्यकता है। अध्ययन, चिन्तन, मनन, विमर्श, अनुसन्धान आदि कार्य देशभर में चले ऐसा कोई उपाय करने की आवश्यकता है। परा कोटि के तात्त्विक से लेकर छोटी से छोटी व्यावहारिक बातों तक का विमर्श कर वर्तमान सन्दर्भ में उपयुक्त ऐसा धार्मिक शिक्षा का प्रतिमान तैयार करने की आवश्यकता है। बारह वर्षों का यह प्रथम चरण होगा। |
| | | |
| ===== '''२. द्वितीय चरण लोकमतपरिष्कार''' ===== | | ===== '''२. द्वितीय चरण लोकमतपरिष्कार''' ===== |
Line 248: |
Line 248: |
| | | |
| ===== '''४. चौथा चरण शिक्षकनिर्माण''' ===== | | ===== '''४. चौथा चरण शिक्षकनिर्माण''' ===== |
− | जब समाज ठीक होता है और परिवार सुदृढ होता है तभी प्रत्यक्ष विद्याकेन्द्र भी ठीक चलते हैं। अध्ययन अनुसन्धान का कार्य करने वाले विद्याकेन्द्र तो योजना का प्रथम चरण है, परन्तु बाल, किशोर, तरुण के लिये विद्यालय चलाने के लिये समर्थ शिक्षकों की आवश्यकता रहती है। जब तक दायित्वबोधयुक्त और ज्ञानसम्पन्न शिक्षक नहीं होते तब तक भारतीय शिक्षा देने वाले विद्याकेन्द्र नहीं चल सकते। इसलिये सुयोग्य शिक्षक निर्माण करना यह योजना का चौथा चरण होगा। | + | जब समाज ठीक होता है और परिवार सुदृढ होता है तभी प्रत्यक्ष विद्याकेन्द्र भी ठीक चलते हैं। अध्ययन अनुसन्धान का कार्य करने वाले विद्याकेन्द्र तो योजना का प्रथम चरण है, परन्तु बाल, किशोर, तरुण के लिये विद्यालय चलाने के लिये समर्थ शिक्षकों की आवश्यकता रहती है। जब तक दायित्वबोधयुक्त और ज्ञानसम्पन्न शिक्षक नहीं होते तब तक धार्मिक शिक्षा देने वाले विद्याकेन्द्र नहीं चल सकते। इसलिये सुयोग्य शिक्षक निर्माण करना यह योजना का चौथा चरण होगा। |
| | | |
| ===== '''५. पाँचवाँ चरण विद्यालयों की स्थापना''' ===== | | ===== '''५. पाँचवाँ चरण विद्यालयों की स्थापना''' ===== |
− | इतना सब कुछ होने के बाद विद्यालय चलाना सरल होगा जिसमें पूर्ण रूप से भारतीय स्वरूप की ही शिक्षा दी जा सकेगी। इसलिये देशभर में ये शिक्षक विद्यालय चलायेंगे। | + | इतना सब कुछ होने के बाद विद्यालय चलाना सरल होगा जिसमें पूर्ण रूप से धार्मिक स्वरूप की ही शिक्षा दी जा सकेगी। इसलिये देशभर में ये शिक्षक विद्यालय चलायेंगे। |
| | | |
| एक चरण के क्रियान्वयन के समय दूसरे चरणों का कार्य भी आवश्यकता और अनुकूलता के अनुसार चल सकता है, परन्तु यह कार्य प्रयोगात्मक ही होगा। मुख्य कार्य तो उस निश्चित चरण का ही होगा। | | एक चरण के क्रियान्वयन के समय दूसरे चरणों का कार्य भी आवश्यकता और अनुकूलता के अनुसार चल सकता है, परन्तु यह कार्य प्रयोगात्मक ही होगा। मुख्य कार्य तो उस निश्चित चरण का ही होगा। |
Line 273: |
Line 273: |
| | | |
| ==References== | | ==References== |
− | <references />भारतीय शिक्षा : वैश्विक संकटों का निवारण भारतीय शिक्षा (भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला ५), प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे | + | <references />धार्मिक शिक्षा : वैश्विक संकटों का निवारण धार्मिक शिक्षा (धार्मिक शिक्षा ग्रन्थमाला ५), प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे |
− | [[Category:भारतीय शिक्षा : वैश्विक संकटों का निवारण भारतीय शिक्षा]] | + | [[Category:धार्मिक शिक्षा : वैश्विक संकटों का निवारण धार्मिक शिक्षा]] |
| [[Category:Education Series]] | | [[Category:Education Series]] |
| [[Category:Dharmik Shiksha Granthmala(धार्मिक शिक्षा ग्रन्थमाला)]] | | [[Category:Dharmik Shiksha Granthmala(धार्मिक शिक्षा ग्रन्थमाला)]] |