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==== संविधान में पाश्चात्य उदारवादी जीवनदृष्टि ====
 
==== संविधान में पाश्चात्य उदारवादी जीवनदृष्टि ====
आधुनिक काल की उदारवाद, लिब्रलिजम, सोशियालिजम, फासिजम इत्यादि जितनी भी विचारधारायें हैं वे सब इसी के इर्द-गीर्द रहती हैं। और इन्हीं में से अपने कल्याण का कोई विकल्प वे चुनती हैं। किसी ने समाजवाद का विकल्प चुना तो किसी ने उदारवाद का, तो किसी ने फासीवाद का विकल्प चुना । किसी ने समाजवाद का एक संस्करण अपनाया तो किसी ने समाजवाद का दूसरा संस्करण लेकिन है तो वह समाजवाद ही। ये वैश्विकरण क्या है ? नव उदारवाद (Neoliberalism) है, उदारवाद का नया संस्करण है। आज भारत जिस मार्ग पर चल रहा है वह भारतीय मार्ग नहीं है । वह नवउदारवादी मार्ग है। हमारा संविधान भी इन्हीं विचारधाराओं पर ही आधारित है। उसमें बहुत सारे पक्ष हैं जो उदारवादी दर्शन के पक्ष में हैं और उसमें थोड़ी-बहुत बातें समाजवादी पक्ष से भी डाल दी गई है। तो भारतीय संविधान का यह स्वरूप है। भारतीय संविधान, जो हमारा, नवीन भारत का, आदि ग्रन्थ है, वही जब इस प्रकार की दृष्टि पर आधारित होगा तो फिर भारत की रचना उसी प्रकार की होना स्वाभाविक ही है। फिर भारत की प्रगति भी उसी दिशा में होगी । संविधान में जो प्रस्तावना दी गई है उसमें जो जीवनदृष्टि प्रतिपादित की गई है वह पाश्चात्य उदारवादी जीवनदृष्टि, western liberal world view, है । सारे प्रावधान सारी धारायें उसी पर आधारित हैं। हमारी इतनी विराट दृष्टि थी, परन्तु जब हमारी दृष्टि का क्षय हुआ, और क्षय इसलिए हुआ कि हमारी बुद्धि का संकोचन हुआ, हम प्रज्ञा के धरातल से गिरकर बुद्धि के धरातल पर आ  गये। intellect से Decline हुआ और Reason पर आ कर ठहरे और reason के हिसाब से जिसे Rationalism कहा जाता है उस Rationalism द्वारा सब बीमारियों के इलाज ढूंढने लगे, जब कि बीमारियों का इलाज Intellectual से ढूंढा जाता है reason से नहीं। हमारी बुद्धि का विपर्यय हुआ, विकृति हुई क्योंकि जिन विचारों __ के, जिन देशों के प्रभाव में हम थे, आजादी के समय या गुलामी के समय, उनका प्रभाव हमारे ऊपर बराबर बना रहा। उनके जाने के बाद भी, वो जब चले गये तब भी उनकी दृष्टि से ही हम कार्य करते रहे । सारे भारत का नवनिर्माण उन्हीं की दृष्टि से हआ। इसीलिए तो गाँधीजी ने कहा, यह कैसी आजादी है ? इस आजादी की तो हमने कल्पना ही नहीं की थी। ये तो स्वराज्य नहीं था। जो हमने mixed economy model अपनाया वह model क्या था ? थोडा उदारवाद, थोड़ा समाजवाद । इन से मिलकर कोई रास्ता निकलेगा ऐसा सोचना कोई भारतीय मार्ग तो नहीं था। इसलिए बुद्धि का जब विपर्यय हआ तब - हमारी वह समग्र दृष्टि नहीं रही, वह विराट दृष्टि नहीं रही और दृष्टि का विखण्डन हो गया । और जब दृष्टि विखण्डित __ होगी तो प्रवृत्ति भी विखण्डित होगी और क्रिया भी विखण्डित होगी और इन सबके परिणाम स्वरूप रचना नहीं होगी,विखण्डन ही होगा। Fragmentation होगा, निर्माण नहीं होगा। होमियोपैथी का एक सिद्धान्त है Like produce like, एक जैसी चीज के एक जैसे परिणाम होते हैं । विखण्डित बुद्धि से अखण्ड भारत की रचना नहीं हो सकती थी। और विखण्डित बुद्धि से भारत का नवनिर्माण नहीं हो सकता था । एक यह पक्ष रहा ।
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आधुनिक काल की उदारवाद, लिब्रलिजम, सोशियालिजम, फासिजम इत्यादि जितनी भी विचारधारायें हैं वे सब इसी के इर्द-गीर्द रहती हैं। और इन्हीं में से अपने कल्याण का कोई विकल्प वे चुनती हैं। किसी ने समाजवाद का विकल्प चुना तो किसी ने उदारवाद का, तो किसी ने फासीवाद का विकल्प चुना । किसी ने समाजवाद का एक संस्करण अपनाया तो किसी ने समाजवाद का दूसरा संस्करण लेकिन है तो वह समाजवाद ही। ये वैश्विकरण क्या है ? नव उदारवाद (Neoliberalism) है, उदारवाद का नया संस्करण है। आज भारत जिस मार्ग पर चल रहा है वह धार्मिक मार्ग नहीं है । वह नवउदारवादी मार्ग है। हमारा संविधान भी इन्हीं विचारधाराओं पर ही आधारित है। उसमें बहुत सारे पक्ष हैं जो उदारवादी दर्शन के पक्ष में हैं और उसमें थोड़ी-बहुत बातें समाजवादी पक्ष से भी डाल दी गई है। तो धार्मिक संविधान का यह स्वरूप है। धार्मिक संविधान, जो हमारा, नवीन भारत का, आदि ग्रन्थ है, वही जब इस प्रकार की दृष्टि पर आधारित होगा तो फिर भारत की रचना उसी प्रकार की होना स्वाभाविक ही है। फिर भारत की प्रगति भी उसी दिशा में होगी । संविधान में जो प्रस्तावना दी गई है उसमें जो जीवनदृष्टि प्रतिपादित की गई है वह पाश्चात्य उदारवादी जीवनदृष्टि, western liberal world view, है । सारे प्रावधान सारी धारायें उसी पर आधारित हैं। हमारी इतनी विराट दृष्टि थी, परन्तु जब हमारी दृष्टि का क्षय हुआ, और क्षय इसलिए हुआ कि हमारी बुद्धि का संकोचन हुआ, हम प्रज्ञा के धरातल से गिरकर बुद्धि के धरातल पर आ  गये। intellect से Decline हुआ और Reason पर आ कर ठहरे और reason के हिसाब से जिसे Rationalism कहा जाता है उस Rationalism द्वारा सब बीमारियों के इलाज ढूंढने लगे, जब कि बीमारियों का इलाज Intellectual से ढूंढा जाता है reason से नहीं। हमारी बुद्धि का विपर्यय हुआ, विकृति हुई क्योंकि जिन विचारों __ के, जिन देशों के प्रभाव में हम थे, आजादी के समय या गुलामी के समय, उनका प्रभाव हमारे ऊपर बराबर बना रहा। उनके जाने के बाद भी, वो जब चले गये तब भी उनकी दृष्टि से ही हम कार्य करते रहे । सारे भारत का नवनिर्माण उन्हीं की दृष्टि से हआ। इसीलिए तो गाँधीजी ने कहा, यह कैसी आजादी है ? इस आजादी की तो हमने कल्पना ही नहीं की थी। ये तो स्वराज्य नहीं था। जो हमने mixed economy model अपनाया वह model क्या था ? थोडा उदारवाद, थोड़ा समाजवाद । इन से मिलकर कोई रास्ता निकलेगा ऐसा सोचना कोई धार्मिक मार्ग तो नहीं था। इसलिए बुद्धि का जब विपर्यय हआ तब - हमारी वह समग्र दृष्टि नहीं रही, वह विराट दृष्टि नहीं रही और दृष्टि का विखण्डन हो गया । और जब दृष्टि विखण्डित __ होगी तो प्रवृत्ति भी विखण्डित होगी और क्रिया भी विखण्डित होगी और इन सबके परिणाम स्वरूप रचना नहीं होगी,विखण्डन ही होगा। Fragmentation होगा, निर्माण नहीं होगा। होमियोपैथी का एक सिद्धान्त है Like produce like, एक जैसी चीज के एक जैसे परिणाम होते हैं । विखण्डित बुद्धि से अखण्ड भारत की रचना नहीं हो सकती थी। और विखण्डित बुद्धि से भारत का नवनिर्माण नहीं हो सकता था । एक यह पक्ष रहा ।
    
==== नैतिकता का अभाव ====
 
==== नैतिकता का अभाव ====
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हमारे यहाँ सेकुलारिझम शब्द पर बड़ी बहस होती है। हम उससे छुटकारा पाने के लिए कहते हैं कि हम लोग तो सर्वधर्म समभाव में विश्वास करते हैं । सेकुलर शब्द का अर्थ तो मूल रूप से लेटिन भाषा का अर्थ है और न तो वह धर्म निरपेक्षता है और न सर्वधर्म समभाव है, जिसे हमने अपने लिए आविष्कृत कर लिया है। सेकुलर शब्द का मतलब होता है भौतिकवादी दृष्टिकोण, ईहलोकवादी दृष्टिकोण, पदार्थवादी दृष्टि । खाओ-पीओ और मौज करो वाली दृष्टि जो कि पश्चिम में सत्रहवीं शताब्दी में आई जब वहाँ पर ईसाईयत प्रवर्तमान थी। इसाईयत भी एक जीवनदृष्टि है, और धर्म वहाँ पर भी हर क्षेत्र पर मर्यादा लगाता है। जब उससे वे लोग स्वतन्त्र हुए और जब Christian से unchristian बनें, जिसको रेनेगोने ने कहा, unchristian west | यह जो आधुनिक यूरोप है यह कोई Christian west थोडे ही है यह तो unchristian west है । वह ईसाईयत तो कब का छोड़ चुका है । उसको क्या लेना-देना ईसाईयतसे, चर्च में ताले पड़ गये। चर्च तोड़कर गिरा दिये गये। और शोपिंग काम्पलेक्स बना दिये गये । हमारे यहाँ भी बहुत से लोग कहते हैं कि मंदिर-मस्जिद का झगड़ा खत्म होना चाहिए और उसकी जगह कोई शिक्षा संस्था खोल देनी चाहिए, यह खोल देना चाहिए वह खोल देना चाहिए सुझाव दिये जाते हैं। वे भूल जाते हैं कि 'किसी भी समाज की आस्तिकता धर्म स्थानों की उपस्थिति व उनकी पवित्रता पर निर्भर करती है। इसलिए सेक्यूलर का अर्थ होता है, शुद्ध भौतिक दृष्टि से चीजों पर विचार करना, ईहलोकवादी
 
हमारे यहाँ सेकुलारिझम शब्द पर बड़ी बहस होती है। हम उससे छुटकारा पाने के लिए कहते हैं कि हम लोग तो सर्वधर्म समभाव में विश्वास करते हैं । सेकुलर शब्द का अर्थ तो मूल रूप से लेटिन भाषा का अर्थ है और न तो वह धर्म निरपेक्षता है और न सर्वधर्म समभाव है, जिसे हमने अपने लिए आविष्कृत कर लिया है। सेकुलर शब्द का मतलब होता है भौतिकवादी दृष्टिकोण, ईहलोकवादी दृष्टिकोण, पदार्थवादी दृष्टि । खाओ-पीओ और मौज करो वाली दृष्टि जो कि पश्चिम में सत्रहवीं शताब्दी में आई जब वहाँ पर ईसाईयत प्रवर्तमान थी। इसाईयत भी एक जीवनदृष्टि है, और धर्म वहाँ पर भी हर क्षेत्र पर मर्यादा लगाता है। जब उससे वे लोग स्वतन्त्र हुए और जब Christian से unchristian बनें, जिसको रेनेगोने ने कहा, unchristian west | यह जो आधुनिक यूरोप है यह कोई Christian west थोडे ही है यह तो unchristian west है । वह ईसाईयत तो कब का छोड़ चुका है । उसको क्या लेना-देना ईसाईयतसे, चर्च में ताले पड़ गये। चर्च तोड़कर गिरा दिये गये। और शोपिंग काम्पलेक्स बना दिये गये । हमारे यहाँ भी बहुत से लोग कहते हैं कि मंदिर-मस्जिद का झगड़ा खत्म होना चाहिए और उसकी जगह कोई शिक्षा संस्था खोल देनी चाहिए, यह खोल देना चाहिए वह खोल देना चाहिए सुझाव दिये जाते हैं। वे भूल जाते हैं कि 'किसी भी समाज की आस्तिकता धर्म स्थानों की उपस्थिति व उनकी पवित्रता पर निर्भर करती है। इसलिए सेक्यूलर का अर्थ होता है, शुद्ध भौतिक दृष्टि से चीजों पर विचार करना, ईहलोकवादी
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दृष्टिकोण । यही दुनिया है और कोई दुनिया नहीं। कहीं कोई ईश्वर होगा भी तो उसको यहाँ से कोई लेना-देना नहीं । तो क्या भारतीय दृष्टि इस अर्थ में सेक्यूलर है ? तो हमलोग क्यों उसको अदालतों में और कहाँ-कहाँ defend __ करते हैं। कोई भी यह नहीं कहता कि इस शब्द से और अर्थ से तो हमारा कोई लेना देना ही नहीं हैं । यह तो भारत में कतई misfit शब्द है यहाँ तो यह शब्द बोला ही नहीं जाना चाहिए। लेकिन हम लोग उसे defend करते हैं क्योंकि उनके प्रभाव में आकर नये अर्थ देने की कोशिश करते ही नहीं है । भारतीय व्यक्ति किसी भी अर्थ में सेकुलर हो ही नहीं सकता। क्योंकि हमारी संस्कृति ईहलोकवादी संस्कृति है ही नहीं।
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दृष्टिकोण । यही दुनिया है और कोई दुनिया नहीं। कहीं कोई ईश्वर होगा भी तो उसको यहाँ से कोई लेना-देना नहीं । तो क्या धार्मिक दृष्टि इस अर्थ में सेक्यूलर है ? तो हमलोग क्यों उसको अदालतों में और कहाँ-कहाँ defend __ करते हैं। कोई भी यह नहीं कहता कि इस शब्द से और अर्थ से तो हमारा कोई लेना देना ही नहीं हैं । यह तो भारत में कतई misfit शब्द है यहाँ तो यह शब्द बोला ही नहीं जाना चाहिए। लेकिन हम लोग उसे defend करते हैं क्योंकि उनके प्रभाव में आकर नये अर्थ देने की कोशिश करते ही नहीं है । धार्मिक व्यक्ति किसी भी अर्थ में सेकुलर हो ही नहीं सकता। क्योंकि हमारी संस्कृति ईहलोकवादी संस्कृति है ही नहीं।
    
धर्म बुद्धि का जब क्षय हुआ तो अधर्म की वृद्धि होना, अधर्म की वृद्धि से समस्याओं और संकटों की वृद्धि होना स्वाभाविक है उसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं । जब तक हमारी धर्म बुद्धि होगी भाव का शुद्धिकरण भी होता रहेगा। धर्म की शक्ति ही भाव को शुद्ध करती है । हम और आप दो नहीं एक ही हैं, यह तो भावजगत का प्रश्न है, लेकिन यह भाव पैदा किस शक्ति से होता है ? धर्म की शक्ति से, और जब धर्म बुद्धि का ह्रास होगा, धर्म की शक्ति धीरे-धीरे क्षीण __ होगी तो यह भाव कभी पैदा हो ही नहीं सकता । इसीलिए समाज टूट रहा है, इसीलिए परिवार टूट रहे हैं क्योंकि वह भाव जिस शक्ति पर प्रतिष्ठित है, उस शक्ति का क्षरण हो रहा है। मंदिर तो बन रहे हैं लेकिन घर मंदिर नहीं बन रहा । यह नहीं कि मंदिर न बने, मंदिर तो बने ही, घर भी मंदिर बने, शिक्षा संस्था भी मंदिर बनें । संसद भी मन्दिर की तरह पवित्र हो, सांसद भी संसद में इस भाव से बैठे जैसे कि किसी पवित्र कार्य करने बैठे हैं । शिक्षक भी शिक्षालय में इस भाव से जायें कि जैसे कोई पवित्र कार्य करने आये हैं। professionalism करने नहीं आये हैं, profession की दृष्टि खतम हो । vocation की दृष्टि पाये, यह धर्म की दृष्टि है। लेकिन आज हरचीज को हमने professionalise कर दिया गया है क्यों कि धर्म दृष्टि से, धर्मबुद्धि से हमने चीजों को देखना समाप्त कर दिया है।
 
धर्म बुद्धि का जब क्षय हुआ तो अधर्म की वृद्धि होना, अधर्म की वृद्धि से समस्याओं और संकटों की वृद्धि होना स्वाभाविक है उसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं । जब तक हमारी धर्म बुद्धि होगी भाव का शुद्धिकरण भी होता रहेगा। धर्म की शक्ति ही भाव को शुद्ध करती है । हम और आप दो नहीं एक ही हैं, यह तो भावजगत का प्रश्न है, लेकिन यह भाव पैदा किस शक्ति से होता है ? धर्म की शक्ति से, और जब धर्म बुद्धि का ह्रास होगा, धर्म की शक्ति धीरे-धीरे क्षीण __ होगी तो यह भाव कभी पैदा हो ही नहीं सकता । इसीलिए समाज टूट रहा है, इसीलिए परिवार टूट रहे हैं क्योंकि वह भाव जिस शक्ति पर प्रतिष्ठित है, उस शक्ति का क्षरण हो रहा है। मंदिर तो बन रहे हैं लेकिन घर मंदिर नहीं बन रहा । यह नहीं कि मंदिर न बने, मंदिर तो बने ही, घर भी मंदिर बने, शिक्षा संस्था भी मंदिर बनें । संसद भी मन्दिर की तरह पवित्र हो, सांसद भी संसद में इस भाव से बैठे जैसे कि किसी पवित्र कार्य करने बैठे हैं । शिक्षक भी शिक्षालय में इस भाव से जायें कि जैसे कोई पवित्र कार्य करने आये हैं। professionalism करने नहीं आये हैं, profession की दृष्टि खतम हो । vocation की दृष्टि पाये, यह धर्म की दृष्टि है। लेकिन आज हरचीज को हमने professionalise कर दिया गया है क्यों कि धर्म दृष्टि से, धर्मबुद्धि से हमने चीजों को देखना समाप्त कर दिया है।
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==== सामंजस्य समान धर्मियों में, विधर्मियों में नहीं ====
 
==== सामंजस्य समान धर्मियों में, विधर्मियों में नहीं ====
और जब धर्म बुद्धि का क्षय हआ तो उस में से एक तीसरी जो नई प्रवृत्ति आयी उससे बचने के लिए हमने यह कहना शुरु कर दिया कि भाई परम्परागत समाज में कुछ बुराइयाँ थीं, त्रुटियाँ थी या परम्परा प्रस्तुत नहीं रह गई, प्रासंगिक नहीं रह गई। और एक शब्दावली चली 'Modernization of Traditions'| परम्परा का आधुनिकीकरण होना चाहिए। या कुछ लोग कहते हैं कि दोनों में सामंजस्य बिठा लीजिये। यह वैसा ही काम है जैसा कि आग व पानी में सामंजस्य बिठाने का काम करना । पानी की अधिकता से या तो आग बुझ जायेगी या पानी भाप बन जायेगा, उनमें कोई सामंजस्य नहीं हो सकता। अगर दोनों एक ही प्रकार के वृक्ष हैं तो शायद उनका या एक ही प्रकार की चीजें हैं तो शायद उनका समन्वय सम्भव हो। लेकिन जो । विरोधी चीजें हैं, उनका समन्वय कैसे होगा ? उसमें तो क्या होगा, जो चीज प्रबल होगी वह निर्बल चीज को खा जायेगी, उसे समाप्त कर देगी, उसका अस्तित्व नष्ट कर देगी। आधुनिकता के जो मूलाधार हैं जो foundations हैं, शक्ति केन्द्रित राजनीति, लाभ केन्द्रित अर्थव्यवस्था, स्वार्थ केन्द्रित समाज और सामाजिक सम्बन्ध, ये संक्षेप में आधुनिकता के मूल सिद्धान्त हैं। कला एक मनोरंजन है, व्यवसाय है। ये पश्चिमी आधुनिकता के सिद्धान्त है। भारतीय दृष्टि है, राजनीति धर्म के अधीन हो, राजीनति सेवा के लिए हों, अर्थ आयाम कभी लोभ या लाभ से दूषित नहीं होना चाहिए, समाज में धन की ज्यादा प्रतिष्ठा नहीं होनी चाहिए, समाज में धनिक तो हों लेकिन धनिक हमेशा धर्म की मर्यादा में रहें । कला व साहित्य साधना है, भगवद् उपासना है, केवल मनोरंजन नहीं है, मनोरंजन हो जाय तो हो जाय लेकिन उनका साध्य यह नहीं है। जो कला है वह catharsis यानि शुद्धिकरण का माध्यम है, आत्मा की शुद्धि का साधन है । संगीत आत्मा की शुद्धि का साधन है, आत्मोपलब्धि का साधन है, यह भारतीय दृष्टि है। अब पूर्व और पश्चिम दोनों का समन्वय कैसे हो सकता है ? जैसे रहीमने कहा -<blockquote>'''<nowiki/>'कहो रहीम कैसे निभे बेर केर को संग ।''' </blockquote><blockquote>'''वे डोलत रस आपने, उनके फाटत अंग ॥''''</blockquote>अब आप केर के पेड़ को और बेर के पेड़ को साथ साथ लगा दो और कहो कि दोनों लोग शान्ति से रहे. सहअस्तित्व से रहे। तो क्या आपकी शिक्षा से सहअस्तित्व कायम हो जायेगा ? जब पश्चिमी सभ्यता powerful साबित हुई तो हम को उसने खाने की पूरी कौशिश की। हम उसके आगे टिक नहीं पाये । यह नहीं कि हम उनसे श्रेष्ठ नहीं थे, शक्ति उनके पास ज्यादा थी। उनकी शक्ति से हम लोग परास्त हो गये । ऐसा नहीं था कि वे हमसे श्रेष्ठ थे।
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और जब धर्म बुद्धि का क्षय हआ तो उस में से एक तीसरी जो नई प्रवृत्ति आयी उससे बचने के लिए हमने यह कहना शुरु कर दिया कि भाई परम्परागत समाज में कुछ बुराइयाँ थीं, त्रुटियाँ थी या परम्परा प्रस्तुत नहीं रह गई, प्रासंगिक नहीं रह गई। और एक शब्दावली चली 'Modernization of Traditions'| परम्परा का आधुनिकीकरण होना चाहिए। या कुछ लोग कहते हैं कि दोनों में सामंजस्य बिठा लीजिये। यह वैसा ही काम है जैसा कि आग व पानी में सामंजस्य बिठाने का काम करना । पानी की अधिकता से या तो आग बुझ जायेगी या पानी भाप बन जायेगा, उनमें कोई सामंजस्य नहीं हो सकता। अगर दोनों एक ही प्रकार के वृक्ष हैं तो शायद उनका या एक ही प्रकार की चीजें हैं तो शायद उनका समन्वय सम्भव हो। लेकिन जो । विरोधी चीजें हैं, उनका समन्वय कैसे होगा ? उसमें तो क्या होगा, जो चीज प्रबल होगी वह निर्बल चीज को खा जायेगी, उसे समाप्त कर देगी, उसका अस्तित्व नष्ट कर देगी। आधुनिकता के जो मूलाधार हैं जो foundations हैं, शक्ति केन्द्रित राजनीति, लाभ केन्द्रित अर्थव्यवस्था, स्वार्थ केन्द्रित समाज और सामाजिक सम्बन्ध, ये संक्षेप में आधुनिकता के मूल सिद्धान्त हैं। कला एक मनोरंजन है, व्यवसाय है। ये पश्चिमी आधुनिकता के सिद्धान्त है। धार्मिक दृष्टि है, राजनीति धर्म के अधीन हो, राजीनति सेवा के लिए हों, अर्थ आयाम कभी लोभ या लाभ से दूषित नहीं होना चाहिए, समाज में धन की ज्यादा प्रतिष्ठा नहीं होनी चाहिए, समाज में धनिक तो हों लेकिन धनिक हमेशा धर्म की मर्यादा में रहें । कला व साहित्य साधना है, भगवद् उपासना है, केवल मनोरंजन नहीं है, मनोरंजन हो जाय तो हो जाय लेकिन उनका साध्य यह नहीं है। जो कला है वह catharsis यानि शुद्धिकरण का माध्यम है, आत्मा की शुद्धि का साधन है । संगीत आत्मा की शुद्धि का साधन है, आत्मोपलब्धि का साधन है, यह धार्मिक दृष्टि है। अब पूर्व और पश्चिम दोनों का समन्वय कैसे हो सकता है ? जैसे रहीमने कहा -<blockquote>'''<nowiki/>'कहो रहीम कैसे निभे बेर केर को संग ।''' </blockquote><blockquote>'''वे डोलत रस आपने, उनके फाटत अंग ॥''''</blockquote>अब आप केर के पेड़ को और बेर के पेड़ को साथ साथ लगा दो और कहो कि दोनों लोग शान्ति से रहे. सहअस्तित्व से रहे। तो क्या आपकी शिक्षा से सहअस्तित्व कायम हो जायेगा ? जब पश्चिमी सभ्यता powerful साबित हुई तो हम को उसने खाने की पूरी कौशिश की। हम उसके आगे टिक नहीं पाये । यह नहीं कि हम उनसे श्रेष्ठ नहीं थे, शक्ति उनके पास ज्यादा थी। उनकी शक्ति से हम लोग परास्त हो गये । ऐसा नहीं था कि वे हमसे श्रेष्ठ थे।
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==== भारतीय परम्परा का आधुनिकीकरण ====
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==== धार्मिक परम्परा का आधुनिकीकरण ====
 
एक संभ्रम तो यह है कि परम्परा और आधुनिकता का समन्वय होना चाहिए या परम्परा का आधुनिकरण होना चाहिए। यह भी संकट का दूसरा बड़ा कारण है। क्योंकि हम समझते हैं कि उससे संकट हल हो जायेगा परन्तु ऐसा नहीं है, उससे तो संकट और गहरा हो जायेगा । कारण यह है कि जो हमारा मूल है वह और कमजोर हो जाता है, बजाय सशक्त होने के । हमें विचार करना चाहिए कि क्या ये जो एक नया मार्ग तलाश किया गया है, मॉडर्नाइजेशन ऑफ ट्रेडिशन का यह वास्तव में सम्यक मार्ग होगा ? या इसका आभास होता है कि ऐसा होगा। एक होता है तर्क और एक होता है ताभास । न्यायशास्त्र में यह तर्काभास तो हो सकता है, तर्क नहीं हो सकता । इसलिए यह भी वर्तमान संकट का कारण है। उसे संक्षेप में अगर कहें तो ये सब चीजें मिलकर हमारे सामने एक बड़ी विषम स्थिति उत्पन्न कर रही हैं। अब प्रश्न यह है कि समाधान क्या है ?
 
एक संभ्रम तो यह है कि परम्परा और आधुनिकता का समन्वय होना चाहिए या परम्परा का आधुनिकरण होना चाहिए। यह भी संकट का दूसरा बड़ा कारण है। क्योंकि हम समझते हैं कि उससे संकट हल हो जायेगा परन्तु ऐसा नहीं है, उससे तो संकट और गहरा हो जायेगा । कारण यह है कि जो हमारा मूल है वह और कमजोर हो जाता है, बजाय सशक्त होने के । हमें विचार करना चाहिए कि क्या ये जो एक नया मार्ग तलाश किया गया है, मॉडर्नाइजेशन ऑफ ट्रेडिशन का यह वास्तव में सम्यक मार्ग होगा ? या इसका आभास होता है कि ऐसा होगा। एक होता है तर्क और एक होता है ताभास । न्यायशास्त्र में यह तर्काभास तो हो सकता है, तर्क नहीं हो सकता । इसलिए यह भी वर्तमान संकट का कारण है। उसे संक्षेप में अगर कहें तो ये सब चीजें मिलकर हमारे सामने एक बड़ी विषम स्थिति उत्पन्न कर रही हैं। अब प्रश्न यह है कि समाधान क्या है ?
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==== नैतिक प्रश्नों का समाधान तकनीकसे नहीं ====
 
==== नैतिक प्रश्नों का समाधान तकनीकसे नहीं ====
दूसरा हम ये समझें कि आज के जो प्रश्न हैं वो तकनीकी प्रश्न नहीं हैं, technical Problems नहीं हैं। Moral Problems है। इसलिए तकनीक से वे हल नहीं होंगे, नीति से हल होंगे । बहुत सारी चीजें जो आजकल कही जा रही हैं कि हमारे यहाँ ये टेकनॉलोजी आ जायगी, कम्प्युटर आ जायेगा । जैसे कि हमारे मन में कभी कभी ये प्रश्न उठता है, अभी हमने सिंस्थेसिस की बात कही, कि क्या कम्प्युटर और भारतीय परम्परा संगत चीजें हैं ? कम्प्युटराईझेशन अगर होगा और इस तरह आप अपनी परम्परा का आधुनिकिकरण करेंगे तो हमारी परम्परा शक्तिशाली होगी कि नष्ट हो जायेगी इस प्रश्न पर विचार करना चाहिये। आजकल इस प्रश्न की बड़ी चर्चा है कि कम्प्युटराईझेशन हो जाय, हम उसको स्वीकार कर लें, हम उसका सदुपयोग करें । प्रश्न सदुपयोग या दुरुपयोग का ही नहीं है। प्रश्न ये है कि यह जो टेकनिक' आप लायेंगे तो फिर भारतीय परम्परा की रक्षा का प्रश्न भूल जाइये । क्योंकि जब मशीन आई तो मशीन के हिसाब से सारा समाज बन जायगा । मार्क्सने एक बड़ी अच्छी बात कही है कि जो technology होती है, वह ideology भी होती है, केवल technology नहीं होती। हमारा प्रश्न यह है कि थोड़ा सा विचार करने की आवश्यकता है कि क्या ये जो तकनीक आ रही हैं, आपकी परम्परा से इसकी संगति बनेगी या नहीं बनेगी। इस तकनीक को अपनाने से आप की परम्परा सुरक्षित होगी या उसके सामने एक नया खतरा पैदा हो जायेगा । इसीलिए मेरा ऐसा मानना है कि तकनीक से नहीं, समाज की रक्षा समाज के संकट का निवारण नीति से होता है। प्रश्न नैतिक है और समाधान तकनीकी ये कैसे हो सकता है ?
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दूसरा हम ये समझें कि आज के जो प्रश्न हैं वो तकनीकी प्रश्न नहीं हैं, technical Problems नहीं हैं। Moral Problems है। इसलिए तकनीक से वे हल नहीं होंगे, नीति से हल होंगे । बहुत सारी चीजें जो आजकल कही जा रही हैं कि हमारे यहाँ ये टेकनॉलोजी आ जायगी, कम्प्युटर आ जायेगा । जैसे कि हमारे मन में कभी कभी ये प्रश्न उठता है, अभी हमने सिंस्थेसिस की बात कही, कि क्या कम्प्युटर और धार्मिक परम्परा संगत चीजें हैं ? कम्प्युटराईझेशन अगर होगा और इस तरह आप अपनी परम्परा का आधुनिकिकरण करेंगे तो हमारी परम्परा शक्तिशाली होगी कि नष्ट हो जायेगी इस प्रश्न पर विचार करना चाहिये। आजकल इस प्रश्न की बड़ी चर्चा है कि कम्प्युटराईझेशन हो जाय, हम उसको स्वीकार कर लें, हम उसका सदुपयोग करें । प्रश्न सदुपयोग या दुरुपयोग का ही नहीं है। प्रश्न ये है कि यह जो टेकनिक' आप लायेंगे तो फिर धार्मिक परम्परा की रक्षा का प्रश्न भूल जाइये । क्योंकि जब मशीन आई तो मशीन के हिसाब से सारा समाज बन जायगा । मार्क्सने एक बड़ी अच्छी बात कही है कि जो technology होती है, वह ideology भी होती है, केवल technology नहीं होती। हमारा प्रश्न यह है कि थोड़ा सा विचार करने की आवश्यकता है कि क्या ये जो तकनीक आ रही हैं, आपकी परम्परा से इसकी संगति बनेगी या नहीं बनेगी। इस तकनीक को अपनाने से आप की परम्परा सुरक्षित होगी या उसके सामने एक नया खतरा पैदा हो जायेगा । इसीलिए मेरा ऐसा मानना है कि तकनीक से नहीं, समाज की रक्षा समाज के संकट का निवारण नीति से होता है। प्रश्न नैतिक है और समाधान तकनीकी ये कैसे हो सकता है ?
    
==== भारत को विशेषज्ञ नहीं तत्त्वदर्शी चाहिए ====
 
==== भारत को विशेषज्ञ नहीं तत्त्वदर्शी चाहिए ====
तीसरी बात कि हमें विशेषज्ञों की आवश्यकता नहीं है या कम है। अगर हम यह उम्मीद कर रहे हैं कि राजशास्त्री या राजनीतिज्ञ समाधान निकाल लेंगे, अर्थशास्त्री समाधान निकाल लेंगे, वैज्ञानिक समाधान निकाल लेंगे तो एक बड़ी भ्रान्ति में हम लोग फंसे हुए हैं क्योंकि समाधान ऋषि निकालता है, तत्त्वदर्शी निकालता है, विशेषज्ञ नहीं । क्योंकि तत्त्वदर्शी ही पूरी समस्या को समझ सकता है कि चीज कहाँ से है और कहाँ तक है। राजनीतिशास्त्री, अर्थशास्त्री की दृष्टि तो बड़ी सीमित होती है । वे केवल प्रश्न का एक पहलु जानते हैं। वे उसके सारे पक्षों को नहीं जानते । लेकिन जो तत्त्वदर्शी है उनकी दृष्टि बड़ी विराट होती है। वे अपनी ज्ञान साधना से राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक प्रश्नों को चुटकी में समझ लेते हैं कि इसमें क्या है ? तो इसलिए भारत को आज विशेषज्ञों की आवश्यकता नहीं है, बहुत हैं विशेषज्ञ । विशेषज्ञ जितने बढ़ रहे हैं समस्या उतनी ही उलझ रही है । क्योंकि एक समस्या को हर विशेषज्ञ अपने अपने तरीके से देख कर इसी बात में अपनी विद्वत्ता समझता है कि हमने कोई नया पेच पैदा कर दिया यह विशेषज्ञता है, उलझे हुए प्रश्न को सुलझाना नहीं । विशेषज्ञता सामान्यतः अहंकार को जन्म देती है, 'little learning is dangereous thing' ऐसा कहा भी गया है। और विशेषज्ञता क्या है ? केवल 'little learning' है। भारत को आज समग्र दृष्टि चाहिए. Metaphysicians चाहिए, आचार्य चाहिए, ऋषि चाहिए जो हमारे प्रश्नों को समझकर उनका समाधान निकाले। हमें सुकरात चाहिए, ढेरों राजनेता नहीं चाहिए । एक सुकरात एक हजार सवालों का जवाब दे सकता है और एक प्रश्न - को ढेरों राजनेता भी हल नहीं कर सकते । तत्त्वदर्शन की यह महत्ता होती है । इसलिए अगर इन दो-तीन उपायों को हम अपना सकें तो शायद मार्ग निकल जाये । भारतीय परम्परा निराशावादी नहीं है, आशावादी है। वह यह मानती है कि कोई अन्धकार दीर्घजीवी या चिरंजीवी नहीं होता । और अन्ततः सत्य की विजय होती है। तो यह जो हमारी परम्परा का मूल सिद्धांत है, वो अगर हमें प्रेरित कर सके और हम निराशा में फंसने की बजाय एक सम्यक मार्ग को तलाश कर चल सकें तो शायद हमारा कल्याण होगा। और इन वैश्विक संकटों का समाधान होगा।
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तीसरी बात कि हमें विशेषज्ञों की आवश्यकता नहीं है या कम है। अगर हम यह उम्मीद कर रहे हैं कि राजशास्त्री या राजनीतिज्ञ समाधान निकाल लेंगे, अर्थशास्त्री समाधान निकाल लेंगे, वैज्ञानिक समाधान निकाल लेंगे तो एक बड़ी भ्रान्ति में हम लोग फंसे हुए हैं क्योंकि समाधान ऋषि निकालता है, तत्त्वदर्शी निकालता है, विशेषज्ञ नहीं । क्योंकि तत्त्वदर्शी ही पूरी समस्या को समझ सकता है कि चीज कहाँ से है और कहाँ तक है। राजनीतिशास्त्री, अर्थशास्त्री की दृष्टि तो बड़ी सीमित होती है । वे केवल प्रश्न का एक पहलु जानते हैं। वे उसके सारे पक्षों को नहीं जानते । लेकिन जो तत्त्वदर्शी है उनकी दृष्टि बड़ी विराट होती है। वे अपनी ज्ञान साधना से राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक प्रश्नों को चुटकी में समझ लेते हैं कि इसमें क्या है ? तो इसलिए भारत को आज विशेषज्ञों की आवश्यकता नहीं है, बहुत हैं विशेषज्ञ । विशेषज्ञ जितने बढ़ रहे हैं समस्या उतनी ही उलझ रही है । क्योंकि एक समस्या को हर विशेषज्ञ अपने अपने तरीके से देख कर इसी बात में अपनी विद्वत्ता समझता है कि हमने कोई नया पेच पैदा कर दिया यह विशेषज्ञता है, उलझे हुए प्रश्न को सुलझाना नहीं । विशेषज्ञता सामान्यतः अहंकार को जन्म देती है, 'little learning is dangereous thing' ऐसा कहा भी गया है। और विशेषज्ञता क्या है ? केवल 'little learning' है। भारत को आज समग्र दृष्टि चाहिए. Metaphysicians चाहिए, आचार्य चाहिए, ऋषि चाहिए जो हमारे प्रश्नों को समझकर उनका समाधान निकाले। हमें सुकरात चाहिए, ढेरों राजनेता नहीं चाहिए । एक सुकरात एक हजार सवालों का जवाब दे सकता है और एक प्रश्न - को ढेरों राजनेता भी हल नहीं कर सकते । तत्त्वदर्शन की यह महत्ता होती है । इसलिए अगर इन दो-तीन उपायों को हम अपना सकें तो शायद मार्ग निकल जाये । धार्मिक परम्परा निराशावादी नहीं है, आशावादी है। वह यह मानती है कि कोई अन्धकार दीर्घजीवी या चिरंजीवी नहीं होता । और अन्ततः सत्य की विजय होती है। तो यह जो हमारी परम्परा का मूल सिद्धांत है, वो अगर हमें प्रेरित कर सके और हम निराशा में फंसने की बजाय एक सम्यक मार्ग को तलाश कर चल सकें तो शायद हमारा कल्याण होगा। और इन वैश्विक संकटों का समाधान होगा।
    
==References==
 
==References==
<references />भारतीय शिक्षा : वैश्विक संकटों का निवारण भारतीय शिक्षा (भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला ५), प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे
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<references />धार्मिक शिक्षा : वैश्विक संकटों का निवारण धार्मिक शिक्षा (धार्मिक शिक्षा ग्रन्थमाला ५), प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे
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[[Category:Education Series]]
 
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